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Wednesday, August 18, 2010

पीपली में 'मौत की रौनक' ज़ाया नहीं गई



- प्रबुद्ध


अगर आपको पता है आपकी तस्वीर अच्छी नहीं आती और कोई बार बार आके तस्वीर खींचने की ज़िद करे तो बड़ा गुस्सा आता है। बस, इस ग़ुस्से की क़िस्म ज़रा अलग होती है। ऐसा गुस्सा जिसका पता है कि इससे शक्ल बदल नहीं जाएगी। ये फ़िल्म देखते हुए ऐसा अनगिनत बार होता है। एक टीवी पत्रकार के लिए पीपली [लाइव] देखना बुरा सपना है, सज़ा है। अच्छा है, थियेटर में अंधेरा रहता है, वर्ना हमारे प्रफ़ेशन की चीरफाड़ के दृश्यों के दौरान उभरते अट्टाहस में मेरा शामिल न होना, आसपास वालों को अजूबा दिखाई देता, सोचते कैसे बिना सेंस ऑफ़ ह्यूमर के लोग आजकल मल्टीप्लेक्स का रुख़ करने लगे हैं...अच्छा है थियेटर में अंधेरा रहता है, वर्ना ऐसी तस्वीरों के दौरान चेहरा पता नहीं कौन से भावों की तस्वीर पेश कर देता और मैं मुंह छुपाया पाया जाता। फिल्म की अंग्रेज़ी पत्रकार, नंदिता कहती है- If you can't handle it, you are in the wrong profession.फिल्म का राकेश, हो सकता है खुद अनुषा रिज़वी हों, रॉन्ग प्रफेशन में हैं, ऐसे ही किसी लम्हे में एहसास हुआ होगा और छोड़ दिया। ख़ैर, उसे छोड़ जो लपका उसे माशाअल्लाह बेहतरीन तरीक़े से कहने की काबिलियत रखती हैं। राकेश भी उसी रॉन्ग प्रफेशन में था...आज़ाद हो गया, प्रफेशन से...और ज़िंदगी से भी। एक टीवी पत्रकार जब पीपली [लाइव] देख रहा हो, तो उसे ज़्यादा हंसी नहीं आती, आ ही नहीं सकती और स्साला सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि हम शायद चाहकर भी इसकी सटीक, बेबाक समीक्षा नहीं कर पाएंगे। क्यूंकि अगर ऐसा किया तो डर है कहीं लोग प्रिंट आउट लेकर फिर से चिढ़ाने न आ धमकें। या फिर मैं कुछ ज़्यादा ही सोच रहा हूं और सच ये हो कि हम ऐसा करना नहीं चाहते, इसलिए महंगाई डायन और बकलोल करती अम्माजी की आड़ में बाक़ी सारी असलियत डकार गए। सच...क्या है, कौन जाने?
लेकिन शुक्र है कि ये फिल्म सिर्फ़ मीडिया के बारे में नहीं है। हमने व्यंग्य की ताक़त को हमेशा अनदेखा किया। किताबों में भी औऱ सिनेमा में भी। लेकिन जो बात व्यंग्य अपनी पैनी धार और चुटीले अंदाज़ में कह जाता है, उसकी बराबरी शायद सीधी कहानी कभी न कर पाए। अनुषा ने व्यंग्य की धार से बहुत सारे जाले काटे हैं। ये धार कहीं कहीं इतनी पैनी है कि दिल रोने रोने जैसा होता है। होरी महतो रोज़ाना एक 'ख़ज़ाना' खोदता है, दो जून की रोटी के वास्ते। आज़ादी के 63 साल बाद और इस कृषि प्रधान देश में जन्म लेने के 75 साल (गोदान-1936) बाद भी होरी महतो आज तमाम गांवों में मिट्टी खोद रहा है या यूं कहिए अपनी क़ब्र खुद खोद के वहीं दफ़्न हो रहा है। एक, दूसरा किसान खुदकुशी से लाख रुपये कमाना चाहता है। एक एग्रीकल्चर सेक्रेटरी, नये नवेले आइएएस अफ़सर को 'फ़ाइन दार्जिंलिंग टी' के सहारे आंखें मूंदने की घुट्टी पिला रहा है। एक डीएम, नत्था 'बहादुर' को लाल बहादुर दिला रहा है। पीपली के चुनावों में नत्था की खुदकुशी के ऐलान ने सारे समीकरणों को तोड़-मरोड़ दिया है और अद्भुत तरीक़े से बुने और फिल्माए गए सीन में एक बड़ा भाई छोटे को ख़ुदकुशी के लिए राज़ी कर रहा है। 14-15 बरस के अल्हड़ लड़के (पढ़ें-मीडिया) को ये सब बेहतरीन तमाशा नज़र आता है सो वो चीख़-चीख़कर इस स्टोरी के सारे पहलुओं पर अपनी चौकस नज़र जमाता है शायद ये सोचकर भी कि 'मौत की रौनक' ज़ाया नहीं होनी चाहिए। मौत की रौनक---प्रिंस, कुंजीलाल, सूरज और भी कुछ छितरे हुए नाम इस डायलॉग के बाद दिमाग़ में कौंध जाते हैं। ये तमाम ताम-झाम, ये मेला अगर नाकाबिल हाथों में रहा होता तो ऐसा बिखरता कि आप माथा ठोंकते पर गनीमत है कि अनुषा की मीडिया बैकग्राउंड ने फ़िल्म को साधारण से असाधारण के स्तर तक उठा दिया है।
फिल्म कई मायनों में तय समीकरण तोड़ती है। एक ऐसे सिनेमाई माहौल में जहां रिश्तों और पीआर से कास्टिंग तय होती हो, वहां अनुषा और महमूद ने किरदार चुने और बुने हैं। फिल्म का गांव कोई सेट नहीं है, बल्कि अपनी पूरी धूप-छांव, खेत खलिहान, गली, नुक्कड़, चबूतरे के साथ मौजूद गांव है। फिल्म बिना शक़ हमारे वक़्त के सबसे अहम दस्तावेज़ों में से है।
और हां, सैफ़ अली ख़ान का सालों पुराना चुंबन अगर कहीं ज़िंदा है, विद 2 बाइट्स तो यक़ीन मानिए आज हमारे वक़्त की सबसे बड़ी स्टोरी होगी। अं, अं, क्या हम किसान आत्महत्या पर किसी फ़िल्म की चर्चा कर रहे थे???

(प्रबुद्ध एक युवा टीवी पत्रकार हैं।)

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