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Friday, July 20, 2012

गैंग्स ऑफ़ वासेपुर- बदले की आग और तलछट का कोरस

-- 8 अगस्त करीब है, इसी दिन गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का सीक्वेल रिलीज़ हो रहा है। दूसरे भाग के प्रोमो रिलीज़ हो चुके हैं, और इसकी चर्चा अभी से शुरू हो चुकी है। एनडीएफएस पर हम पहली बार गैंग्स ऑफ़ वासेपुर पर चर्चा शुरू कर रहे हैं। इस सिलसिले में आगे कई लेख प्रकाशित किए जाएंगे। शुरुआत वरिष्ठ टीवी पत्रकार और सिनेमा के गहरे मर्मज्ञ अमिताभ के 24 जून को लिखे लेख से, जो उन्होने फेसबुक में अपनी वॉल पर डाला था। अपनी प्रतिक्रिया ज़रुर पोस्ट करें।

ज़िन्दगी में चाँद, रोटी, नींद, लोरी की चाहत और उसके लिए जद्दोजहद; सीप का सपना और सिसकी की मजबूरियां और इन सब पर भारी गोलियों की गूँज यानी गैंग्स ऑफ़ वासेपुर. ...ये समाज की तलछट के कोरस की कहानी है . वैसे कहानी की ज़मीन बिहार (अब झारखण्ड) है लेकिन ये कहीं की भी हो सकती थी . और क्या ज़बरदस्त अंदाज़े बयां है इस दास्तान का. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में नत्थी है एक समाज , एक कौम , एक राज्य , एक उद्योग और इन सब से बढ़कर इंसानी फितरत के बहुरुपियेपन की तस्वीरें-जिसमे बदला है, नफरत है ,मोहब्बत है, कमीनगी है और कामुकता भी है, रिश्तों में ठगे जाने का दर्द है और कहीं न कहीं खालीपन की छटपटाहट भी.

अनुराग ने फिर कमाल कर दिखाया है. हालाँकि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का कथानक और ट्रीटमेंट कहीं कहीं Godfather की याद भी दिलाता है. Sergio leone और Quentin Tarantino की शैली की झलक भी है.बुनियादी कहानी तो निजी दुश्मनी की है लेकिन उसके इर्द गिर्द बुना गया ताना बाना कोयला खदानों से शुरू होकर राजनीति के अपराधीकरण के रास्ते से मामूली लोगों के माफिया बनने की प्रक्रिया को उघाड़ता है.

मनोज बाजपेयी ने अपने पुराने दमदार अभिनय के दिनों की याद ताज़ा कर दी है- सत्या, शूल और पिंजर वाले मनोज यहाँ मौजूद हैं सरदार खान की खाल में. एक ऐसा किरदार जो अपने बाप की धोखे से हुई हत्या का बदला लेने के लिए किस तरह कमीनेपन और कुटिलता का सहारा लेकर अपने दुश्मन की नाक में दम किये रहता है. मनोज ने ज़बरदस्त काम किया है- सरदार खान की कामुकता को उजागर करने वाले द्रश्यों में तो वो ग़ज़ब हैं. पता नहीं क्यों मुझे सरदार खान की ठसक को देखते हुए कहीं कहीं आधा गाँव के फुन्नन मियां याद आ गए.

हालांकि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर अकेले मनोज बाजपेयी की फिल्म नहीं है. निर्देशक के तौर पर अनुराग की कामयाबी ये भी है कि उन्होंने हर किरदार के लिए ठोंक पीट कर एक्टर चुने और उनसे बेहतरीन काम लिया है .शाहिद खान बने जयदीप अहलावत ने बहुत शानदार काम किया है, सुल्तान के किरदार में पंकज त्रिपाठी खूब जमे हैं. अग्निपथ में उनका हकलाते हुए कांचा भाऊ कहना नोटिस किया गया था और अब कुरेशियों और पठानों की खानदानी दुश्मनी की आग में जलता सुल्तान भी भूलने वाला किरदार नहीं है. पियूष मिश्रा ने एक्टिंग तो ज़ोरदार की ही है (इसमें नया क्या है, वो एक बेहतरीन कलाकार हैं जिनको बहुत पहले नोटिस किया जाना चाहिए था ) गाना भी बहुत अच्छा गाया है.

लेकिन जिन लोगों ने चौंकाया है वो हैं- तिग्मांशु धूलिया, ऋचा चड्ढा और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी. बेहद कुटिल क्रूर ठेकेदार और शातिर नेता के रोल में तिग्मांशु ने बहुत सधा हुआ अभिनय किया है. अगर वो फेंटा कस कर एक्टिंग के मैदान में उतर आये तो अच्छे अच्छे खलीफाओं की छुट्टी कर सकते हैं ये उन्होंने इस फिल्म में दिखा दिया है. सरदार खान की बीवी नगमा के रोल में ऋचा चड्ढा ने शबाना और स्मिता की झलक दिखाई है.अनुराग ने देव डी में माही गिल को पेश किया था, अब ऋचा भी उनकी ही खोज हैं.

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को इस साल का सितारा कहा जा रहा है. कहानी की शोहरत के बाद अब वासेपुर की बदौलत वो हाल ही में कान फिल्म फेस्टिवल तक हो आये हैं. फैज़ल का किरदार इस फिल्म का एक मुश्किल किरदार है- बचपन में बाप को अपने घर पर अपनी माँ के साथ देखने के बजाय दूसरी औरत के साथ देखना, माँ की एक रात की कमजोरी का उसकी पूरी शख्सियत पर डंक मार जाना और उपेक्षा के साये में पलते हुए बड़े होना- इन गुत्थियों को ज़ाहिर करने में नवाज़ ने कमाल किया है. खास तौर पर त्रिशूल फिल्म के सीन के बाद सिनेमा हाल से निकलते हुए कमेन्ट और एक्सप्रेशन ज़बरदस्त है. मिथुन चक्रवर्ती के डांस की तो उन्होंने ग़ज़ब नक़ल की है. हुमा कुरैशी के साथ उनका रोमांस का ट्रैक दिलचस्प है और अगले पार्ट में वो कुछ धमाल करेंगे ऐसा लगता है.


स्नेहा खानविलकर ने क्या म्यूजिक दिया है. वुमनिया बड़ा दिलचस्प गाना है लेकिन मेरा फैवरिट है पियूष मिश्रा का गाया -एक बगल में चाँद होगा एक बगल में रोटियां. यशपाल शर्मा पर फिल्माया गया सलामे इश्क मज़ेदार है .

काफी पहले राजेंद्र यादव ने एक लेख लिखा था- गाली मत दो गोली मार दो - वासेपुर में लोग गाली भी खूब देते हैं और गोली भी खूब मारते हैं. मैं जिस हाल में फिल्म देखने गया था वहां अपने गाली भरे गानों के लिए युवा दिलों की धड़कन बन चुके पॉप सिंगर हनी सिंह भी पहुंचे थे. शायद फिल्म में धड़ल्ले से इस्तेमाल की गयी गालियों से उन्हें कुछ और जोशीले गाली वाले गाने बनाने की प्रेरणा मिले.

चूँकि फिल्म दो हिस्सों में बनायीं गयी है इसलिए कई लोगों को पहला पार्ट थोडा भटका हुआ या झूलता हुआ भी लग सकता है . ढाई घंटे से थोडा ऊपर की फिल्म ख़त्म हो गयी तो लगा कहानी जारी रहनी चाहिए थी. सीक्वेल की इतनी तत्काल तलब शायद ही कभी लगी हो .

Thursday, July 19, 2012

हमारी फिल्म का हीरो कौन है?

पहले आजमगढ़ फिल्म फेस्टिवल में अरुंधति राय

आजमगढ के नेहरू हाल में पहला आजमगढ फिल्म फेस्टिवल 14 और 15 जुलाई को आयोजित किया गया। जनसंस्कृति मंच और आजमगढ फिल्म सोसाइटी के संयुक्त तत्वावधान में प्रतिरोध का सिनेमा का यह 26 वां आयोजन था। पहले आजमगढ फिल्म फेस्टिवल का उद्घाटन प्रख्यात लेखिका एवं एकिटविस्ट अरुंधति राय ने किया।

 अरुंधति का वक्तव्य : 

 उद्घाटन वक्तव्य में अरुंधति ने कहा कि " वह आजमगढ में आकर खुश हैं। यह शहर कविता, गीत, संगीत का शहर है लेकिन मीडिया ने इसे तरह प्रचारित किया कि जैसे आजमगढ़ के खेतों में आतंकवादी उगते हैं और यहां के कारखानों में बम बनाए जाते हैं। इस मौके पर मै सिनेमा के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी लेकिन इतना कहना चाहूंगी कि जैसे देश में जंग लडी जाती है, बांध बनाए जाते हैं, निजीकरण होता है तो वह भी गरीबों के नाम पर ही होता है। उसकी तरह हमारे फिल्म स्टार, गरीबों के कंधे पर सवाल होकर फिल्म स्टार बने हैं। आप देखिए पहले फिल्म के कैरेक्टर गरीब होते थे, झुग्गी झोपड़ी में रहते थे। अमिताभ बच्चन की फिल्म कुली याद करिए जिसमें वह इकबाल नाम के कुली हैं और टेड यूनियन से जुडे हैं। वह जमाना गया; आज हमारी फिल्म का हीरो कौन है? अम्बानी है । गुरू फिल्म को याद करें। तो आज की फिल्मों के ये हीरों हैं। आज कुछ फिल्में गरीबी पर बन जाती हैं जैसे स्लमडाग मिलेनियर लेकिन इसमें गरीबी को साइक्लोन, भूकम्प की तरह भगवान का बनाया हुआ बताया जाता है। इसमें कोई विलेन नहीं होता और इस तरह से हमारे इमैजिनेशन पर कब्जा कर बत़ाया जाता है कि एनजीओ और कार्पोरेट की मदद से गरीबी को खत्म किया जा सकता है।

 30 वर्ष पहले हमारे देश में तो ताले एक साथ खुले । एक बाबरी मस्जिद का और दूसरा बाजार का। इस मैनुफैक्चरिंग प्रासेस प्रक्रिया ने एक तरफ मुस्लिम आतंकवाद को पैदा किया तो दूसरे माओवाद को । आज ऐसी स्थिति बना दी गई है कि जो भी पार्टी सत्ता में आएगी वह राइट विंग ही होगी और वह हमारे देश को और ज्यादा पुलिस स्टेट बनाएंगे। इंडिया में जो इकनामिक प्रोग्रेस चल रहा है उसमें 30 करोड़ मिडिल क्लास आ गया है लेकिन इसके लिए 80 करोड़ लोगों को गरीबी में डूबो दिया गया है। ये 80 करोड़ लोग सिर्फ 20 रूपया रोज पर गुजारा करते हैं। ढाई लाख से अधिक किसानों ने खुदकुशी की।
दुनिया के सबसे ज्यादे गरीब लोग हमारे देश में रहते हैं। इनको देने के लिए पानी, अस्पताल, स्कूल नहीं है लेकिन हम अरबों रूपयों का इथियार खरीदते हैं ताकि हमें सुपर पावर कहा जाए। मुकेश अम्बानी की रिलायंस इंडस्टीज के पास दो लाख करोड़ की पूंजी है तो खुद उनकी व्यक्त्तिगत सम्पति एक लाख करोड रूपए; देश के 100 सबसे अमीर लोगों के पास देश की जीडीपी की एक चौथाई के बराबर सम्पत्ति है। अम्बानी ने अभी 27 टीवी चैनलों को खरीद लिया। अब ये चैनल कया दिखएंगे और बताएंगे कि छत्तीसगढ़ में क्या हो रहा है। जिसके पास एक लाख करोड़ है वह क्या नहीं खरीद सकते। सरकार, इलेक्शन , कोर्ट , मीडिया और सब कुछ। ये सरकार चलाते हैं, एजुकेशन, हेल्थ पालिसी बनाते हैं और अब हमारी जिंदगी भी चलाना चाहते हैं।

भ्रष्टाचार व्यापक आर्थिक असंतुलन से पैदा होता है। यह है भ्रष्टाचार रूपी बीमारी का असली कारण। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड आदि प्रदेशों में 2004 में 100 से ज्यादा एमओयू किए गए। आदिवासियों को बंदूक देकर सलवा जुडूम बनाया गया और जंगल में बहुत बड़ी लड़ाई खड़ी की गयी है । 600 गांव जला दिए गए। तीन लाख लोगों को उनके घर से भगा दिया गया। जिसने विरोध किया उसे माओवादी कह कर मार डाला या जेल में डाल दिया। अभी छत्तीसगढ़ में 20 आदिवासियों को मार दिया। सोनी सोरी के साथ क्या हुआ, आप जानते हैं। आज देश का हालत ऐसा हो गया है। इस स्थिति में लेखकों, एक्टिविस्टों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन सरकार और कार्पोरेट घराने लेखकों से कहते हैं कि दूर जाकर बच्चों की कहानी लिखो, दिमाग बंद कर चिल्लाओ। ऐसा करने के लिए लिटरेचर, डांस, म्यूजिक फेस्टिवल को स्पान्सर किया जाता है। अमेरिका में राकफेलर फाउंडेशन ने सीआईए बनायी। काउंसिल फार फारेन रिलेशन (सीएफआर) बनाया। वर्ल्ड बैंक बनाया। अब ये संस्थान माइक्रोफाइनेन्स से सबसे गरीब लोगों से पैसा खींच रहे हैं। माइक्रोफाइनेन्स के जाल में फंसकर एक साल में 200 लोगों को खुदकुशी करनी पड़ी; आदिवासी, मुसलमान, किसान, मजदूर सब इसकी मार की जद में हैं लेकिन हम एक होकर लड़ नहीं पा रहे क्योंकि इन्होंने हमें बांट रखा है। दलितो और आदिवसियों में। मुसलमानों को शिया और सुन्नी में। यह बंटवारा खड़ा करने के लिए ये फाउंडेशन पहचान की राजनीति, धार्मिक अध्ययन के नाम पर स्कालरशिप, फेलोशिप देते हैं। जो इस परा सवाल खड़ा करता है, इन झांसों में नहीं आता उसे नक्सली, माओवादी, आतंकवादी कह कर जेल में डाला जाता है, मार दिया जाता है।

आज देश में बड़ा प्रेशर बनाया जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाओ। गुजरात में मुसलमानों का संहार भूल जाओ। यह वही लोग हैं जो एक समय बाजार को खोलने के लिए मनमोहन सिंह को सिर पर बैठाए घूम रहे थे। आज उन्हें एक कट्टर व्यक्ति की जरूरत है जो इस सिलसिले को तेजी से चलाये."

 इस मौके पर चर्चित फिल्मकार संजय काक ने कहा कि दो दशक में तकनीक का लाभ उठाकर अलग किस्म का सिनेमा बन रहा है जिसने हमारे सामने एक नई दुनिया खोली है। बालीबुड का सिनेमा पैसे के बोझ से दबा है। वह न एक कदम आगे बढा सकता है न दाएं या बाएं देख सकता है। उसकी सारी कोशिश सिनेमा में लगाए गए पैसे को वापस लाने की होती है इसलिए वह जनता से नहीं जुड़ सकता। डाक्यूमेटरी सिनेमा अलग-अलग कहानी को कई तरीके से हमारे सामने ला रहा है। बड़ा पैसा, कल्चर को हमसे दूर की चीज बना देता है जबकि प्रतिरोध का सिनेमा यह बताता है कि वह लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा हुआ है। (साभार- संजय जोशी, संयोजक, प्रतिरोध का सिनेमा अभियान/मनोज सिंह, सचिव, जन संस्कृति मंच)