जिस तरह प्रेमचंद ने कफन में घीसू माधो के जरिये गरीबी की अमानवीयता को उजागर किया था, पीपली लाइव नत्था और बुधिया के इर्द गिर्द मचे तमाशे के जरिये समूचे चौखंभा राज में लगी दीमक पर से पर्तें हटाती है। रघुवीर यादव ने उस सीन में यादगार अभिनय किया है जब दारू पीकर बुधिया और नत्था निकलते हैं और बुधिया कहता है- सरकार आत्महत्या का पइसा देती है पइसा। कफन याद कीजिए- ठगिनी क्यों नैना झमकावे कहीं न कहीं कौध जाएगा। बैकग्राउंड में बजता इंडियन ओशन का गाना देस मेरा रंगरेज ये बाबू- बड़े धारदार लहजे में रंग बिरंगे परजातंतर की उलटबांसियों को बेनकाब करता चलता है। ये महज इत्तिफाक नहीं हो सकता कि अनुषा और महमूद की फिल्म में होरी और धनिया भी बतौर किरदार मौजूद हैं। अपनी गुरबत के गड्ढ़े में मरता होरी कहीं न कहीं पीपली लाइव को प्रेमचंद की शैली और सरोकारों से जोड़ता है। समूची फिल्म एक मार्मिक व्यंग्य है। चालू मुहावरों की कैद में फंसे हिंदी सिनेमा के कैनवस पर कुछ नये स्ट्रोक्स की कोशिश के लिए इस जोड़ी का हौसला बढ़ाना चाहिए ताकि ऐसे और लोग आगे आएं ।
आमिर खान बेहतरीन एक्टर के अलावा मार्केटिंग मैनेजर भी हैं और उन्होंने इस फिल्म को 15 अगस्त के ऐन पहले रिलीज करके आजादी की सार्थकता पर डिबेट के लिए एक मुद्दा दे दिया है। ये बात अलग है कि विदर्भ में अब उनके पोस्टर जलाए जाने की शुरुआत भी हो चुकी है और किसान अपने संघर्ष की इस सिनेमाई तस्वीर से नाराज हैं।
बहरहाल, फिल्म के बहाने चर्चाएं मीडिया (क्या सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया?) की भूमिका पर ज्य़ादा हो रही हैं। इसे मीडिया के मखौल के तौर पर देखना एकतरफा होगा। आखिर भुखमरी के कगार पर पहुंचे किसान को सूखा हैंडपंप यानी लालबहादुर (जय जवान जय किसान ?) देने वाली ब्यूरोक्रेसी पर क्या कहेंगे ? याद कीजिये हैंडपंप देनेवाला बी़डीओ नत्था और बुधिया से क्या कह कर जाता है- अबे शास्त्री जी ने बचा लिया तुझे । क्रेडिट कार्ड की तरह नत्था कार्ड की प्लानिंग करने वाली सरकार को किस खाने में रखेंगे? मीडिया चौखंभा राज का बेहद अहम हिस्सा है इस नाते सामाजिक सरोकारों पर उसकी भूमिका और नजरिये के सिलसिले में बातचीत होनी ही चाहिए और इससे मीडियावालों को भी परहेज नहीं होना चाहिए। खुद मीडिया के भीतर की संस्थाएं खबरों के चुनाव और उन्हें दिखाने के तौरतरीकों पर काफी चिंतित हैं ऐसे में अगर कोई दूसरा भी आईना दिखाये तो बुरा नहीं मानना चाहिए । हां, अतिरंजना के लिए फिल्मकारों या कहानीकारों को मीडिया अपने हिसाब से कटघरे मे खड़ा कर सकता है। ये मीडिया की कुटाई का कोई पहला मौका तो है नहीं. रामगोपाल वर्मा ने जब अमिताभ बच्चन के जरिये खबरों की रणभूमि बनाम टीआरपी की रनभूमि की डिबेट छेड़ी थी तब भी ऐसी ही चर्चा चली थी। लेकिन पीपली लाइव का व्यंग्यात्मक लहजा शायद ज्यादा चुभ रहा है। फिल्म में नत्था नहीं मरता लेकिन नत्था की कहानी को चैनलों का चारा बनाने वाला कस्बाई पत्रकार राकेश चुपचाप हलाक हो जाता है। वो भी मीडिया की कांश्नस का ही एक हिस्सा है । अब इसके बहाने पत्रकारिता के कस्बाई और महानगरीय सरोकारों पर बहस का रास्ता भी खुल सकता है जो शायद फिल्म बनाने वालों का मकसद ही न रहा हो।
(अमिताभ वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं)
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