- विनीत कुमार
फिल्म पीपली लाइव के इस शो में इन्टर्वल के दौरान पीवीआर साकेत के पर्दे पर लुई फिलिप, बिसलरी और अलसायी हुई लड़की के साथ पल्सर के विज्ञापन नहीं आते हैं। ..और न ही एक तरफ फुफकारती हुई डंसने पर आमादा नागिन और दूसरी तरफ सुर्ख लाल पानी से भरी बोतल जिसे दिखाकर सरकार हमारे बीच चुनने के टेंशन पैदा करना चाहती है। म्यूजिक बंद करने की अपील के साथ पर्दे के आगे मंच पर माइक लिए हमारे सामने होते हैं महमूद फारुकी और दानिश हुसैन। वो हमें वो वजह बता रहे होते हैं जिससे जेब में पड़ी पूरी टिकट के वाबजूद आधी फिल्म निकल गयी थी। हमने जो समझा वो साफ तौर पर ये कि मीडिया की आलोचना और उसे कोसने की एक परंपरा तो विकसित हो चली है लेकिन डिस्ट्रीब्यूशन के निर्मम खेल की तरफ लोगों का ध्यान नहीं गया है। इस पर बात किया जाना जरुरी है, महमूद हैं तो अब बात क्या पूरी फिल्म बनायी जा सकती है, उनसे ये डिमांड रखकर। हम सिनेमा और मीडिया के कंटेंट में ही फंसे हैं जबकि डिस्ट्रीब्यूशन किस तरह कंटेंट और एडिटोरियल के आगे बेशर्मी से दांत निपोरने लग जाता है, इसे हमने महसूस किया। बहरहाल...
महमूद और दानिश फिल्म के छूट गए हिस्से को जिस तरह से बता रहे थे, वो फिल्म देखने से रत्ती भर भी कम दिलचस्प नहीं था। दोनों के लिए एक लाइन- अब तो फिल्म भी बना दी लेकिन दास्तानगोई की आदत बरकरार है, सही है हजूर। उनके ऐसा करने से हम पहली बार पीवीआर में होमली फील करते हैं, एकबारगी चारों तरफ नजरें घुमाई तो दर्जनों परिचित पत्रकार, सराय के साथी, डीयू और जेएनयू के सेमिनार दोस्त दिख गए। आप सोचिए न कि पीवीआर में दो शख्स जिसमें एक बिना माइक के ऑडिएंस से बातें कर रहा हो और किसी के खांसने तक कि आवाज न हो, कैसा लगेगा? लौंडों के अट्टाहास करने, पीवीआर इज बेसिकली फॉर कपल्स के अघोषित एजेंडे, एक-दूसरे की उंगलियों में उंगलियां फंसाकर जिंदगी की सबसे मजबूत गांठ तैयार करने की जगह अगर ये सिनेमा पर बात करने की जगह बन जाती है तो कैसा लग रहा होगा? सच पूछिए तो महमूद से लगातार मेलबाजी करके इसी किसी अलग "एक्सक्लूसिव" अनुभव के लालच में पड़कर मैं और मिहिर मार-काट मचाए जा रहे थे। एक तो अपनी लाइफ में ये पहली फिल्म रही जिसकी टिकट खुद बनानेवाला नाम पुकारकर भाग-भागकर दे रहा था और हमारी बेशर्मी तब सारी हदें पार कर जाती हैं जब हम अपनी आंखें सिर्फ महमूद पर टिकाए हैं कि देख रहें हैं न हमें, हम भी हैं। हमें अनुराग कश्यप के साथ बहसतलब का पूरा सीन याद आ गया जहां अनुराग, सिनेमा जिस राह पर चल पड़ा है, बदल नहीं सकता...ये राह लागत की नहीं डिस्ट्रीव्यूशन की है, की बात करते हैं। फिर सारी बहस इस पर कि सिनेमा समाज को बदल सकता है कि नहीं? पीपली लाइव देखने के दौरान जो नजारा हमने देखा उससे ये बात शिद्दत से महसूस की कि समाज का तो पता नहीं लेकिन कुछ जुनूनी लोग धीमी ही सही अपने जज्बातों को, ड्रीम प्लान को आंच देते रहें तो सिनेमा को तो जरुर बदल सकते हैं। इन सबके बीच अनुषा रिज़वी ( फिल्म की राइटर-डायरेक्टर) बहुत ही कूल अंदाज में पेप्सी के साथ चिल हो रही होती हैं। महमूद के मेल के हिसाब से सचमुच ये फैमिली शो था, अनुभव के स्तर पर सचमुच एक पारिवारिक आयोजन। लोग घर बनाने पर दिखाते हैं, बच्चे पैदा होने पर बुलाते हैं। उऩ्होंने फिल्म बनाने पर हम सबको बुलाया था।
इन्टर्वल के बाद फिल्म शुरु से पहले दोनों ने हमें जो कुछ बताया और जो बातें हमें याद रह गयी उसमें तीन बातें बहुत जरुरी है। पहली तो ये कि नत्था के आत्महत्या करने की योजना के बीच उनके बच्चों पर जिस किस्म के दबाव बनते हैं वो दबाव कम्युनिस्ट परिवार में पैदा होनेवाले बच्चे ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। दूसरा कि शुरुआत में तो ये फिल्म हम किसान-समस्या पर बनाने चले थे लेकिन मैं और अनुषा चूंकि मीडिया बैकग्राउंड से हैं तो फिल्म बनने पर पता चला कि अरे हमने तो मीडिया पर फिल्म बना दी। फिर हमें याद दिलाया गया वो भरोसा कि अगर आप इस फिल्म में मीडिया ट्रीटमेंट देखना चाहते हैं तो असल कहानी अभी ही शुरु होनी है। मतलब कि मैं जिस नीयत से फिल्म देखने गया था, उसकी पूरी होने की गारंटी मिल गयी।..औऱ तीसरी और सबसे जरुरी बात डिस्ट्रीब्यूशन और मल्टीप्लेक्स के बीच का कुछ-कुछ..( ये महमूद के शब्द नहीं है, बस भाव हैं)। ये कुछ-कुछ जिसके भीतर बहुत सारे झोल हैं जिसका नाम लेते ही धुरंधर लिक्खाड़ों की कलम गैराजों में चली जाती है और जुबान मौसम का हाल बयान करने लग जाते हैं। इन्टर्वल के बाद फिल्म शुरु होती है..
नत्था के घर के आजू-बाजू मीडिया, चैनल क्र्यू का जमावड़ा। आप पीपली लाइव से इन सारे 6-7 मिनट की फुटेज को अलग कर दें और सारे चैनलों को उसकी एक-एक कॉपी भेज दें। आजमा कर देखा जाए कि उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है? और हां इस क्रम में रामगोपाल वर्मा के पास एक सीडी जानी बेहद जरुरी है जिससे कि वो समझ सकें कि मीडिया की आलोचना भाषणदार स्क्रिप्ट के दम पर नहीं उसके ऑपरेशनल एटीट्यूड को बस हमारे सामने रख देने भर से हो जाती है। इस अर्थ में ये फिल्म किसी डायरेक्टर या प्रोड्यूसर से कहीं ज्यादा एक ऐसे "इन्क्वायरिंग माइंड' की फिल्म है जो सीधे तौर पर सवाल करता है कि क्यों दिखाते रहते हो ये सब? अकेले नत्था थोड़े ही आत्महत्या करेगा, करने जा रहा है..जो कर चुके उसका क्या? यहीं पर आकर फिल्म चैनल की पॉपुलिज्म संस्कृति से प्रोटीन-विटामिन निचोड़कर काउंटर पॉपुलिज्म के फार्मूले को मजबूती से पकड़ती है और नतीजा हमारे सामने है कि आज हर तीन में से दो शख्स फोन करके, चैट पर, फेसबुक स्टेटस पर यही सवाल कर रहा है कि आपने पीपली लाइव देख ली क्या? महमूद फारुकी ने हमसे दो-तीन बार कह दिया कि जब तक आप इस फिल्म को पूरी न देख लें, तब तक इस पर न लिखें। इसलिए फिल्म पर अलग से..
फिल्म खत्म होती है और हम धीरे-धीरे एग्जिट की तरफ खिसकते हैं। अनुषा, महमूद, दानिश सबके सब तैनात हैं लोगों से मिलने के लिए। एक-एक से हाथ मिलाना,गले मिलना और विदा करना। हमसे हाथ मिलाते हुए फिर एक बार-फिल्म अगली सुबह देखकर ही लिखना, ऐसे मत लिख देना। तेज बारिश के बीच मेट्रो की सीट पर धप्प से गिरने के बाद सामने एक मुस्कराहट। चेहरा जाना-पहचाना। थोड़ी यादों की वार्निश से सबकुछ अपडेट हो जाता है। वो कहते हैं- क्या फिल्म बना दी पीपली लाइव, क्या नत्था की जो समस्या है, वही आखिरी समस्या है एक किसान की? न्यूज चैनलों की आलोचना कर रहे हो तो बताओ न यार कि हम क्या करें? मालिक कहता है कि रेवेन्यू जेनेरेट करो तो हम क्या करें? फिर बीबीसी की पत्रकारिता को आहें भरकर याद करते हैं, जहां हैं वहां के प्रति अफसोस जाहिर करते हैं।...देखो न मेरे दिमाग में एक आइडिया है, आमिर को बार-बार फोन कर रहा हूं, काट दे रहा है? ओह..एक चैनल के इनपुट हेड का दर्द, वो भी आज ही के दिन मेरे हिस्से आना था। महमूद साहब, ये आपने क्या कर दिया कि जिस टीवी चैनल के इनपुट हेड हमें खबर के नाम पर बताशे बनाने और आइडियाज को चूल्हे में झोंक देने की नसीहतें दिया करते थे, वो भी आइडियाग्रस्त हो गए? आप और अनुषा टीवी में आइडियाज क्यों ठूंसना चाहते हैं? सबके सब आइडियाज के फेर में ही पड़ जाएंगे तो फिर बताशे कौन बनाएंगे?
देर रात लैप्पी स्क्रीन पर लौटने पर सौरभ द्विवेदी की फेसबुक स्टेटस पर नजर गयी। लिखा था- पीपली लाइव जरूर देखिए, प्रेमचंद की कहानी कफन जैसा ट्रैजिक सटायर है ये फिल्म, सिर्फ एक बात के सिवा, इसमें अनुषा रिजवी ने अपने एनडीटीवी संस्कारों के तले दबकर दीपक चौरसियानुमा कैरेक्टर के बहाने हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कुछ ज्यादा ही खिंचाई की है। फिल्म का अंत खासा मानीखेज है। सौरभ अपने दीपक सर नुमा कैरक्टर के बहाने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खिंचाई से थोड़े आहत हैं और एनडीटीवी का संस्कार थोड़ा परेशान करता है। काश,ये संस्कार खुद एनडीटीवी में ही बचा रह जाए और संस्कार में दबकर ही कुछ और कर जाए। आधी फिल्म और जींस की जेब में पड़ी पूरी टिकट के गुरुर में पूरी की पूरी पोस्ट लिखी जा सकती है लेकिन मिहिर देर रात जागा हुआ है, पोस्ट लिखने के बजाय ट्विटर से मन बहला रहा है, महमूद के प्रति मैं खिलाफत करना नहीं चाहता।..तो एक बार फिर पीपली लाइव समग्र देखने की तैयारी में...
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