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Sunday, January 20, 2013

उस पैसे के गजक खा लीजिए, इन्कार देखने मत जाइए...


 Vineet Kumar is a renowned blogger and media analyst. He seems to be quite disappointed with the time and money he wasted in watching Sudhir Mishra’s new film Inkaar. Read why…

देख ली फिल्म इन्कार. इसके नाम में आचार्य कुंतक का वक्रोक्ति अलंकार है. मतलब सब जगह सब स्वीकार है लेकिन फिल्म का नाम इन्कार है, अब आप इसके भीतर के अर्थ मथते रहिए. सुधीर मिश्रा ने स्त्री-पुरुष को समान रुप से चरित्र प्रमाण पत्र जारी करने या क्लीन चिट देने का काम किया है जो शायद आपको बंडल भी लगे. फिल्म देखते हुए आपके मन में ये सवाल बार-बार उठेंगे कि क्या ये वही सुधीर मिश्रा हैं जिन्होंने कभी हजारों ख्वाहिशें ऐसी बनायी थी. हालांकि अभी इस फिल्म को लेकर जजमेंटल होना जल्दीबाजी होगी लेकिन इतना जरुर है कि खासकर इंटरवल के बाद जब आप फिल्म देखेंगे तो लगेगा कि किसी ने जबरद्स्ती उनसे फिल्म छीन ली हो और मनमानी तरीके से निर्देशित कर दिया हो. गौर करने पर बल्कि इस दिशा में रिसर्च किया जाना चाहिए कि बॉलीवुड में सुधीर मिश्रा जैसे समझदार और सम्मानित निर्देशक अपनी तमाम काबिलियित औऱ बारीकियों के बावजूद बाजार के किस मुहाने पर जाकर दवाब में आ जाते हैं..इन फिल्मकारों ने व्यावसायिक फिल्मों के बरक्स थोड़ी ही सही लेकिन हार्डकोर ऑडिएंस पैदा की है जो कि ऐसी फिल्म से बुरी तरह निराश होती है.
दूसरा कि अगर आपने हजारों, खोया-खोया चांद जैसी फिल्में देखी हो तो लगेगा कि सुधीर मिश्रा के पास ग्रेवी बनाने के लिए सॉस औऱ मसाले बहुत ही सीमित है. यही वजह है कि एड एंजेंसी और सेक्सुअल ह्रासमेंट जैसे गंभीर मसले पर फिल्म बनाते हुए भी वही पुराने सॉस इस्तेमाल कर जाते हैं. प्लॉट में नयापन के बावजूद अलग बहुत कम लगता है. कई जगहों पर छात्र की उस उबाउ कॉपी की तरह जिसमें सवाल चाहे कुछ भी किए जाएं, वो पहली लाइन लिखेगा- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. बहरहालअगर आप रिलेशनशिप में रहे हों या मामला टू वी कन्टीन्यूड है तो लगेगा कि फिल्म का बड़ा हिस्सा नार्मल है जिसे सुधीर जबरदस्ती इन्टलेक्चुअल फ्लेवर देने के चक्कर में उबाउ बनाने लग जाते हैं. केस की सुनवाई करती दीप्ति नवल दूरदर्शन समाचार वाचिका की याद दिलाती है. एक बात और कि जब आप मधुर भंडारकर की फैशन, कार्पोरेट, पेज थ्री जैसी फिल्में देखते हैं तो उसकी ट्रीटमेंट से सहमत-असहमत होते हुए भी उन आधारित इन्डस्ट्री के प्रति एख ठोस समझ बना पाते हैं, कम से कम सूचनात्मक और जानकारी के स्तर पर तो जरुर ही. लेकिन एड एजेंसी औऱ विज्ञापन की दुनिया को लेकर सुधीर मिश्रा का गंभीर रिसर्च नहीं रहा. ऐसा लगा कि देश में यौन उत्पीड़न का मामला गर्म है तो इसे अधपके तरीके से ही फाइनल करके मार्केट में उतार दो. मेले में जैसे लड्डू,चाट की क्वालिटी नही, उसकी उपलब्धता मायने रखती है, वैसे ही कुछ-कुछ. इन दिनों में विज्ञापन और उसकी दुनिया पर किताबें पढ़ रहा हूं. अमूल से लेकर मैकडोनॉल्ड तक के ब्रांड बनने की कथा और मैक्स सथरलैंड,जी बौद्रिआं,डार्थी कोहन की विज्ञापन,कन्ज्यूमर कल्चर पर लिखी किताबों से गुजर रहा हूं. इसी बीच इस फिल्म को आनन-फानन में देखना इसलिए भी जरुरी समझा कि शायद कोई मदद मिलेगी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. इस दुनिया को समझने की बहुत ही कम मेहनत की गई है.

आप अपने लोग हैं. मैं नहीं कहता कि मेरे कहने पर राय कायम करें लेकिन ये जरुर है कि बाजार में बहुत बढ़िया क्वालिटी की गजक, तिल पापड़ी उतरे हैं. गाजर का हलवा से लेकर मूंग दाल के लड्डू हैं..उनका मजा लीजिए..इस फिल्म की 30 में चार फिल्में वाली सीडी लाकर देख लें, पीवीआर में जाएंगे तो साथ अफसोस होगा. सुधीर मिश्रा,मधुर भंड़ारकर एक ब्रांड हो सकते हैं लेकिन इन ब्रांडों पर मार्केटिंग का जबरदस्त जाला लग चुका है. मैं तो पर्सनली निराश होकर लौटा.

सौजन्य: हुंकार ब्लॉग

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