Note:

New Delhi Film Society is an e-society. We are not conducting any ground activity with this name. contact: filmashish@gmail.com


Monday, January 21, 2013

Documentary based on Kanpur power crisis selected for Berlin Film Festival



A documentary film ‘Powerless’ based on the backdrop of Kanpur is selected for Berlin Film Festival. This film, already much acclaimed in the international circuit, is based on the power crisis of Kanpur district of Uttar Pradesh.

Watch the trailer here: 


The director of the film Fahad Mustafa’s first feature-length documentary ‘FC Chechnya’ was premiered at the 2010 ‘This Human World Film Festival’ in Vienna and won the Audience Award for Best Film. Born in Kanpur Fahad has lived, studied and worked in India, the Middle East, Europe and the United States. Previously, Fahad was a researcher with the UN Special Rapporteur on Torture, and a freelance writer on energy and development issues in India. He was also Assistant Director of Hot as Hell (2006), a documentary on underground fires that plague coal mines in India.
The Co-Director/Producer of the film Deepti Kakkar has worked on several projects in the field of sustainable livelihood development focusing on South Asia, with international NGOs and research groups. She was an Erasmus Mundus Scholar and has previously directed a film on microfinance in India for CARE. Deepti worked on story-development and as production manager on FC Chechnya.

Sunday, January 20, 2013

उस पैसे के गजक खा लीजिए, इन्कार देखने मत जाइए...


 Vineet Kumar is a renowned blogger and media analyst. He seems to be quite disappointed with the time and money he wasted in watching Sudhir Mishra’s new film Inkaar. Read why…

देख ली फिल्म इन्कार. इसके नाम में आचार्य कुंतक का वक्रोक्ति अलंकार है. मतलब सब जगह सब स्वीकार है लेकिन फिल्म का नाम इन्कार है, अब आप इसके भीतर के अर्थ मथते रहिए. सुधीर मिश्रा ने स्त्री-पुरुष को समान रुप से चरित्र प्रमाण पत्र जारी करने या क्लीन चिट देने का काम किया है जो शायद आपको बंडल भी लगे. फिल्म देखते हुए आपके मन में ये सवाल बार-बार उठेंगे कि क्या ये वही सुधीर मिश्रा हैं जिन्होंने कभी हजारों ख्वाहिशें ऐसी बनायी थी. हालांकि अभी इस फिल्म को लेकर जजमेंटल होना जल्दीबाजी होगी लेकिन इतना जरुर है कि खासकर इंटरवल के बाद जब आप फिल्म देखेंगे तो लगेगा कि किसी ने जबरद्स्ती उनसे फिल्म छीन ली हो और मनमानी तरीके से निर्देशित कर दिया हो. गौर करने पर बल्कि इस दिशा में रिसर्च किया जाना चाहिए कि बॉलीवुड में सुधीर मिश्रा जैसे समझदार और सम्मानित निर्देशक अपनी तमाम काबिलियित औऱ बारीकियों के बावजूद बाजार के किस मुहाने पर जाकर दवाब में आ जाते हैं..इन फिल्मकारों ने व्यावसायिक फिल्मों के बरक्स थोड़ी ही सही लेकिन हार्डकोर ऑडिएंस पैदा की है जो कि ऐसी फिल्म से बुरी तरह निराश होती है.
दूसरा कि अगर आपने हजारों, खोया-खोया चांद जैसी फिल्में देखी हो तो लगेगा कि सुधीर मिश्रा के पास ग्रेवी बनाने के लिए सॉस औऱ मसाले बहुत ही सीमित है. यही वजह है कि एड एंजेंसी और सेक्सुअल ह्रासमेंट जैसे गंभीर मसले पर फिल्म बनाते हुए भी वही पुराने सॉस इस्तेमाल कर जाते हैं. प्लॉट में नयापन के बावजूद अलग बहुत कम लगता है. कई जगहों पर छात्र की उस उबाउ कॉपी की तरह जिसमें सवाल चाहे कुछ भी किए जाएं, वो पहली लाइन लिखेगा- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. बहरहालअगर आप रिलेशनशिप में रहे हों या मामला टू वी कन्टीन्यूड है तो लगेगा कि फिल्म का बड़ा हिस्सा नार्मल है जिसे सुधीर जबरदस्ती इन्टलेक्चुअल फ्लेवर देने के चक्कर में उबाउ बनाने लग जाते हैं. केस की सुनवाई करती दीप्ति नवल दूरदर्शन समाचार वाचिका की याद दिलाती है. एक बात और कि जब आप मधुर भंडारकर की फैशन, कार्पोरेट, पेज थ्री जैसी फिल्में देखते हैं तो उसकी ट्रीटमेंट से सहमत-असहमत होते हुए भी उन आधारित इन्डस्ट्री के प्रति एख ठोस समझ बना पाते हैं, कम से कम सूचनात्मक और जानकारी के स्तर पर तो जरुर ही. लेकिन एड एजेंसी औऱ विज्ञापन की दुनिया को लेकर सुधीर मिश्रा का गंभीर रिसर्च नहीं रहा. ऐसा लगा कि देश में यौन उत्पीड़न का मामला गर्म है तो इसे अधपके तरीके से ही फाइनल करके मार्केट में उतार दो. मेले में जैसे लड्डू,चाट की क्वालिटी नही, उसकी उपलब्धता मायने रखती है, वैसे ही कुछ-कुछ. इन दिनों में विज्ञापन और उसकी दुनिया पर किताबें पढ़ रहा हूं. अमूल से लेकर मैकडोनॉल्ड तक के ब्रांड बनने की कथा और मैक्स सथरलैंड,जी बौद्रिआं,डार्थी कोहन की विज्ञापन,कन्ज्यूमर कल्चर पर लिखी किताबों से गुजर रहा हूं. इसी बीच इस फिल्म को आनन-फानन में देखना इसलिए भी जरुरी समझा कि शायद कोई मदद मिलेगी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. इस दुनिया को समझने की बहुत ही कम मेहनत की गई है.

आप अपने लोग हैं. मैं नहीं कहता कि मेरे कहने पर राय कायम करें लेकिन ये जरुर है कि बाजार में बहुत बढ़िया क्वालिटी की गजक, तिल पापड़ी उतरे हैं. गाजर का हलवा से लेकर मूंग दाल के लड्डू हैं..उनका मजा लीजिए..इस फिल्म की 30 में चार फिल्में वाली सीडी लाकर देख लें, पीवीआर में जाएंगे तो साथ अफसोस होगा. सुधीर मिश्रा,मधुर भंड़ारकर एक ब्रांड हो सकते हैं लेकिन इन ब्रांडों पर मार्केटिंग का जबरदस्त जाला लग चुका है. मैं तो पर्सनली निराश होकर लौटा.

सौजन्य: हुंकार ब्लॉग

मटरू की बिजली का मंडोला


Fusion of entertainment and being socially relevant with sensibility is undoubtedly very sensible genre of cinema for a society/country like ours, but at the same time it’s very challenging too. Vishal Bhardwaj’s latest flick qualifies for the same genre, but people are finding it to be a miss. Here is how a young viewer looks at the movie. Read what Vinay Singh thinks about the movie, Vinay is a young television journalist and has just started his career.

मटरू की बिजली का मंडोला: फ़िल्म को देखने के बाद मेरा मूड तो ज़रा भी नहीं था इस पर कुछ लिखकर अपना समय व्यर्थ करने का मगर मेरे एक मित्र के कहने पर मैंने सोचा कि कुछ लिखना तो बनता है।
अपनी ज़िन्दगी में हम सब कभी किसी एक किरदार में नहीं रहते..घर में हम किसी किरदार मे होते हैंदफ़्तर में हम किसी दूसरे किरदार में होते हैंदोस्तों के साथ हम एक फक्कड़ अंदाज़ में होते हैंकिसी महिला मित्र के साथ हम थोड़े संजीदे किरदार में होते हैं..कहने का मतलब बस इतना है कि अपनी ज़रूरत के अनुसार हम अपने किरदार में होते हैं और उसे बख़ूबी निभाते भी हैं।
 विशाल भारद्वाज ने भी अपनी नयी फ़िल्म मटरू की बिजली का मंडोला में यही प्रयोग किया हैऔर अपने मुख्य किरदारों को दोहरे चरित्र में पेश किया है फिर चाहे वो हैरी (पंकज कपूर) हो जो गुलाबो (देशी शराब) पी कर हरिया के किरदार में समा जाता है या फिर वो हुकम सिंह मटरू (इमरान ख़ान) हो जो गाँव वालों की मदद करने की ख़ातिर माओत्से तुंग बन कर आता है। मटरू और हैरी तो किसी कारणवश माओ और हरिया के किरदारों को पहनते हैं मगर चौधरी देवी (शबाना आज़मी) और उनका बेटा बादल (आर्य बब्बर) अपने स्वार्थ के लिये दोहरा चरित्र अपनाते हैं और अपने फ़ायदे की ख़ातिर किसी भी किरदार में ढलने को तैयार रहते हैं।
फ़िल्म हरियाणा के एक गाँव मंडोला पर आधारित है जहाँ गाँव का एक बहुत ही धनी व्यक्ति हैरी मंडोला (पंकज कपूर) गाँव वालों की ज़मीन हड़प कर उस पर अपनी फ़ैक्ट्री डालना चाहता है और इस नेक काज के लिये चौधरी देवी हैरी मंडोला को उकसाती हैं क्योंकि हैरी की बेटी बिजली से उन्होंने अपने बेटे बादल की शादी पहले ही तय कर रखी है। और बिजली से बादल की शादी करा वो हैरी की पूरी जायदाद पर कब्ज़ा करना चाहती हैं। वहीं दूसरी तरफ़ किसानों को हैरी से बचाने की ख़ातिर मटरू जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई करके आया हैमाओत्से तुंग बन किसानों की मदद करता है। हैरी की एक ही बेटी है बिजली जिसे वो बेहद प्यार करता है। पर सारा दोष तो उस गुलाबो (शराब) का है जिसे पी कर हैरी बौराकर हरिया बन जाता है। पर आख़िर में हैरी शराब छोड़ चौधरी देवी और उसके बेटे बादल की चाल समझ जाता है और गाँव वालों को उनकी ज़मीन वापस कर देता है।
      लचर कहानीबेदम स्क्रीनप्ले और गानों की ग़लत टाइमिंग फ़िल्म को बहुत ही ज़्यादा बोरिंग बना देते हैं। ख़ासकर इंटरवल के बाद तो फ़िल्म बहुत धीमी हो जाती है। फ़िल्म में अगर कुछ देखने लायक है तो वो है पंकज कपूर का दमदार अभिनयविशाल भारद्वाज के लिखे डायलॉग और फ़िल्म का संगीत। पंकज ने हैरी और हरिया के किरदारों को बखूबी अदा किया है। स्क्रीन पर आने के बाद पंकज सभी किरदारों पर भारी पड़ते हैं और अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीत लेते हैं। इमरान ख़ान ने भी हरियाणा के मस्त जाट का रोल निभाया है।पंकज जितनी आसानी से हैरी और हरिया के किरदार में घुस जाते थे वह देखने योग्य थाशायद इसीलिये लोग उनकी अदाकारी का लोहा मानते हैं। अनुष्का शर्मा ने एक चुलबुली लड़की का अभिनय किया है। सह-कलाकार के तौर पर शबाना आज़मी को कई सालों के बाद एक दमदार अभिनय करते देखा।
विशाल भारद्वाज जिन्होंने मक़बूलओमकाराकमीने और इश्क़िया जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनाई हैं उनसे ऐसी कमजोर फ़िल्म की उम्मीद नहीं थी। उम्मीद है कि विशाल अगली बार ये ग़लतियाँ नहीं दोहराएँगे।

Friday, January 18, 2013

Ladakh, Dharamshala, Gorakhpur, Patna: New hot nodes of the film festival circuit

-- By Anindita Datta Choudhury in The Economic Times

Glam queen Cannes was not built in a day . Neither will Dharamshala be as it aspires to be a shining dot in the map of the movie buff. But the sleepy Himachal town is taking the much-needed baby steps, and the organisers of the Dharamshala International Film Festival (DIFF) hope their efforts will bring about a sea change in how the world - tinsel or tell-tale - views their hometown . Well, that' a piece of very good news for Indian cinephiles.

But the better news is that a slew of Indian towns and tier-II cities are taking the same route, setting up their own film festivals, inviting legends of world cinema to tour their sleepy alleys, and hoping that someday the film festival circuit will talk about Leh, Patna or Gorakhpur with the same excitement as they now mention Locarno, Sundance or Tribeca .

BRINGING CINEMA TO THE HILLS 

Filmmaker couple Ritu Sarin and Tenzing Sonam had been planning to hold an international film festival in their hometown Dharamshala for years , but things finally came together last November . The two BBCdocumentarians had produced the first Tibetan feature film under their independent banner , White Crane Films.

"We are originally from Dharamashala and wanted to give back the town something," says Sarin. She managed to get about 25 sponsors and partners for the festival. Volunteers worked round the clock to make DIFF a success.

Right from painting "carrier" autorickshaws to blackening the windows of the screening theatre - they did it all.

Says Guy Davidi, an Israeli filmmaker, who gave four other international festivals a miss just to be in Dharamshala for the screening of his muchacclaimed film , Five Broken Cameras: "This is my first visit to India and I have been to no other city except Dharamshala. I had heard so much about the place that I couldn't resist myself," says Davidi.

EXOTIC LOCATION HELPS 

Melvin Williams of Monasse Films , director of Ladakh International Film Festival (LIFF), says exotic locations are best suited for film festivals.

"Cannes was just a small riverside town . And look what it is now ! We organised the first film festival on the roof of the world. It was both challenging and exciting," says Williams, who managed to get filmmaker Shyam Benegal on board as the chairperson besides Shekhar Kapur, Vishal Bharadwaj, Govind Nihalani and Mike Pandey as patrons.

Held at an altitude of 11,562 meters, the LIFF is the 'highest' of its kind festival in the world. While the venue was a big crowd puller, the challenges Williams had to face were innumerable.

"Infrastructure-wise it was a nightmare. Airfares skyrocketed when we announced the festival. But the biggest challenge was to get our guests acclimatised to the high altitude," says Williams and adds that it took people two days to acclimatise to the altitude. The Army and choppers were on standby in case anyone got sick, he says.

(courtesy: The Economic Times)

Saturday, January 12, 2013

‘Life of Pi’: An Oscar-nominated international film that’s a mostly international hit

 -Bryan Enk

"Life of Pi" has proven to be a modest hit in the States. But the fantastical adventure tale is truly enjoying the lucrative high "life" far from American shores.
Director Ang Lee's screen adaptation of Yann Martel's 2001 novel of the same name has certainly found something of a domestic audience, though with only a little over $91 million at the box office since its release on November 21, it's been considerably overshadowed by even more higher-profile holiday season offerings like "Les Miserables," "The Hobbit: An Unexpected Journey" and "Skyfall." Fox 2000 probably isn't worried about the $120 million production not making its money back, though, as the film has grossed more than $300 million internationally, bringing its current worldwide gross to just under $400 million.

It's an appropriate fate ("Life of Pi" is big on that concept) that international success should be achieved by a rather international production. "Life of Pi" marks a creative collaboration among representatives from many different countries, both in front of and behind the camera. Suraj Sharma and Irrfan Khan, who play the lead character of Pi at different ages, are Indian actors. Gerard Depardieu, who has a (rather inexplicable) cameo as a cranky cook, is French, and Rafe Spall, who plays The Writer, is British. Cinematographer Claudio Miranda is from Chile and composer Mychael Danna is Canadian. And screenwriter David Magee was born in Flint, Michigan. Go Blue!

The production went through a few international directors before Taiwanese-born Ang Lee signed on. Indian-American director M. Night Shyamalan was first approached to direct, though he ultimately turned it down due to the novel's ending possibly clashing with his own reputation for final-act twists. The project was offered to Mexican filmmaker Alfonso Cuaron, who turned it down for "Children of Men." French director Jean-Pierre Jeunet was also briefly attached.

Principal photography involved some rather formidable globe-hopping as well. Filming began in Pondicherry, India and other parts of the country before heading to Taiwan, where the crew shot for five and a half months in Taipei Zoo and Kenting National Park, located in Pingtung County where Lee was born. While in Taiwan, the ocean scenes were shot at a giant tank built in an abandoned airport (which came to be known as the world’s largest self-generating wave tank with a capacity of 1.7 million gallons). After photography was completed in Taiwan, the production moved back to India and wrapped in Montreal, Canada.

The complex visual effects for the film also brought together quite the international team. The lead effects company for the production was Rhythm & Hues Studios, based in El Segundo, California, though the 3D effects were created by artists from all of the R&H divisions, including locations in Mumbai and Hyderabad (India), Kuala Lumpur (Malaysia), Vancouver (Canada) and Kaohsiung (Taiwan).

"Life of Pi" has been nominated for 11 Academy Awards, including Best Picture, Best Director, Best Adapted Screenplay, Best Cinematography and Best Visual Effects. It's an honor that is indeed being felt all over the world.

courtesy: Yahoo! Movies Oscars Blog

Saturday, January 5, 2013

Great Korean films in Delhi...every friday!



- NDFS Desk

South Korean cinema has witnessed a dramatic transformation in the past few decades, growing from a fledgling local industry to a force of international repute. Korean films have not only managed to hold their own at home but are increasingly being exported and reworked in other parts of the world. The Yeonghwa Film Club at the Korean Cultural Centre India provides a platform for showcasing the best films from one of the most vibrant cinematic cultures in Asia.


Drawing its name from the Korean word for film, the Yeonghwa Film Club will encourage intensive engagement with Korean cinema through talks, workshops and discussions that explore its shifting cultural context within a globalizing world. Screenings will be organised every Friday around monthly themes that focus on film genres, directors and actors. Audiences are invited to join for conversations after the screenings over tea and Korean snacks.

In January, the club will be showing some of renowned Korean director Kim Ki Duk’s latest works. The month will close with a special session on 25th January where it will be charting Kim Ki Duk’s influence on Malayalam cinema through the documentary, Dear Kim (2009), followed by a talk by Bindu Menon, Assistant Professor, Lady Shri Ram College for Women. Film enthusiasts also stand a chance to win some of Kim’s acclaimed works in online DVD giveaways conducted every week in January on their Facebook page. For more updates, contests and forthcoming events, subscribe to it on Facebook!

Entry free and open to all persons above 18 years of age with valid photo identity card.

(courtesy: Korean Cultural Centre India)