- प्रियदर्शन
क्या कला की सार्थकता जीवन को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देने में है? चेखव की एक प्रशंसा यह की जाती है कि वे अपनी कहानियों में स्लाइस ऑफ लाइफ, यानी जीवन का टुकड़ा जैसे पूरा का पूरा उठाकर रख देते थे। लेकिन क्या यह जीवन को ज्यों का त्यों चित्रित कर देने की ख़ूबी भर थी जिसने चेखव को इतना बड़ा कथाकार बनाया? निश्चय ही चेखव का बड़प्पन इस तथ्य में निहित है कि वे जीवन के टुकड़े के भीतर मौजूद उस स्पंदन तक पहुंच जाते थे जो उस टुकड़े को मानी देता था, उनकी कहानी को अर्थ देता था। उनकी कहानी में दिखने वाले चाबुक किरदारों की पीठ पर नहीं, पाठकों की आत्मा पर पड़ते थे। वे घटनाओं या दृश्यों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करके अपन काम पूरा नहीं मान लेते थे, वे उनमें छुपी हई बहुत तीखी विडंबनाओं को, बहुत बारीक किस्म की मनुष्यता को, जैसे उसके रेशे-रेशे के साथ खोलकर पाठकों के सामने रख देते थे। इस लिहाज से देखें तो कला की चुनौती या सार्थकता जीवन को ज्यों का त्यों रख देने में नहीं है- यह काम तो फोटोग्राफी कहीं ज़्यादा कायदे और सटीकता से कर सकती है- वह उसके आगे जाकर उसमें छुपी अलग-अलग परतों को, पीड़ा और खुशी के अनुभवों को, रोज़मर्रा के कोलाहल में खो जाने वाले अलक्षित स्पंदनों को सामने लाने में है।
दरअसल कला और जीवन के बीच के इस अपरिहार्य द्वंद्व का खयाल बीते दिनों आमिर खान प्रोडक्शंस के बैनर से बनी फिल्म डेल्ही बेली देखते हुए आता रहा। महानगर के एक घर में रह रहे तीन दोस्तों की यह कहानी गालियों से भरी पड़ी है। कई दर्शकों को लग रहा है कि अगर यथार्थ का चेहरा यही है तो इसे सामने लाने में कोई हर्ज़ नहीं है। ख़ुद आमिर ख़ान मानते हैं कि उनकी फिल्म अपने इस दुस्साहसी प्रयोग की वजह से बच्चों के लिए नहीं है। उन्होंने सेंसर बोर्ड से अपनी ओर से आग्रह किया था कि उनकी फिल्म को ए सर्टिफिकेट दिया जाए- यानी सिर्फ वयस्कों के लिए माना जाए। शायद यह गालियों से भरी एक फिल्म को सेंसर बोर्ड से पास करान की युक्ति भी हो, लेकिन इसमें शक नहीं कि आमिर अपनी इस युक्ति की वजह से लोगों का ध्यान फिल्म की ओर खींचने में कामयाब रहे।
सतह पर देखें तो आमिर की बात तर्कसंगत लगती है। जीवन में अगर कुछ वीभत्स या गलीज़ है और कला उसे पकड़ने की कोशिश करती है तो वह उस यथार्थ से आंख चुराकर कैसे चल सकती है? अगर दिल्ली के तीन दोस्त या उनके आसपास के लोग अपनी बातचीत में धड़ल्ले से गाली का इस्तेमाल करते हैं तो इस पर एतराज करना एक नासमझ और डरे हुए शुद्धतावाद से ज़्यादा क्या है? आखिर हिंदी फिल्मों में गालियों के बिना भी फूहड़ दृश्यों और संवादों की भरमार रही है। आमिर ने तो बस इतना किया है कि अपनी फिल्म को एक यथार्थवादी शक्ल दी है।
लेकिन मुश्किल यह है कि शिल्प के स्तर पर आमिर जिस सख्त यथार्थवाद को अपना पैमाना बनाते हैं, कथ्य के स्तर पर उसकी बुरी तरह उपेक्षा करते हैं। अंततः वे फंतासी से भरी एक व्यावसायिक फिल्म बनाने ही दिखाई पड़ते हैं जिसके लिए उन्होंने मुहावरा यथार्थवादी चुन लिया है। क्या उनकी तरह के फिल्मकार को यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि कला- जिसमें फिल्म कला भी शामिल है- का शिल्प उसके कथ्य के हिसाब से ही तय होता है। जब एक फिल्मी किस्म के विषय को एक यथार्थवादी मुहावरे के रैपर में लपेट कर पेश करने की कोशिश की जाती है तो यह एक मिलावटी काम होता है जिससे कामयाब फिल्म तो बन सकती है, अच्छी फिल्म नहीं बन सकती।
वैसे सच्चाई यह है कि डेल्ही बेली का यह निहायत यथार्थवादी दिखने वाला शिल्प भी दरअसल अपनी समझ में बहुत इकहरा है। आमिर खान को सिर्फ यह दिखता है कि नौजवान जिस भाषा में बात करते हैं, वह गालियों से पटी पड़ी भाषा है। एक तो यह पूरा सच नहीं है- अगर किसी ख़ास तबके के लिए हो भी तो- ज़्यादा बड़ा सवाल यह है कि आखिर वह ऐसी भाषा क्यों इस्तेमाल करता है। यह लापरवाही है या बचपन से किशोरावस्था में जाते हुए मर्द दिखने की कोशिश जो बाकी जरियों के मुकाबले कुछ मर्दाना गालियों से कहीं ज़्यादा आसानी से कामयाब हो सकती है? या फिर यह कोई हताशा है जो इन गालियों की शक्ल में फूटती है। ध्यान से देखें तो हमारे समाज- या सभी समाजों- में गालियां मूलतः स्त्री को, उसकी लैंगिक पहचान को, उसकी यौन शुचिता को निशाना बनाकर गढ़ी गई हैं। उनमें सामंती अहंमन्यता की बू पकडना मुश्किल नहीं है। जो लोग गालियों को भदेस समाज की अभिव्यक्ति बताते हैं, वे भूल जाते हैं कि सामंती दबदबे का मारा यह भदेस समाज दरअसल अपनी हताश अभिव्यक्ति में ही गालियों का सहारा लेकर अपने लिए थोड़ा बहुत सुकून, राहत या मर्दानगी खोजने की कोशिश करता है।
लेकिन गालियों के इस समाजशास्त्र को भूलकर उन्हें सिर्फ यथार्थ के एक औजार की तरह इस्तेमाल करना हिंदी फिल्मकारों का नया शगल है। डेल्ही बेली से पहले हाल की कई फिल्मों, ये साली ज़िंदगी से लेकर नो वन किल्ड जेसिका तक में ये गालियां खूब दिखी हैं- और हैरानी की बात ये है कि लगभग इन सारी फिल्मों में यथार्थ पर आग्रह सिर्फ शिल्प के स्तर पर है, कथ्य के स्तर पर नहीं।
यथार्थ के ज्यों के त्यों चित्रण के इस तर्क को कुछ और आगे ले जाएं तो हमें कहीं ज़्यादा असुविधाजनक सवालों का सामना करना पड़ता है। कल को हत्या या बलात्कार के अनुभव को ज्यों का त्यों फिल्माने की कोशिश में क्या किसी निर्देशक को यह हक़ भी हासिल होगा कि वह बिल्कुल हिंसा और बलात्कार के वास्तविक दृश्य नियोजित करवाए?
दरअसल कला की असली चुनौती यही होती है कि वह जीवन को उसके सारे विद्रूप के साथ प्रस्तुत करे, उसकी सिर्फ तस्वीर न उतारे। सिर्फ तस्वीर उतारने का नतीजा वही होता है जो आमिर खान की फिल्म में दिखाई पड़ता है- गालियां सुनकर लोग हंसते हैं, ख़ुश होते हैं और फिल्म के खरेपन पर कुछ ज़्यादा भरोसा कर बैठते हैं- वे उसमें निहित विडंबना को नहीं समझते।
कहना मुश्किल है, आमिर ख़ान का मकसद ऐसी किसी विडंबना को पकड़ना था भी या नहीं। हो सकता है जिस कॉमिक रिलीफ की फिल्म वे बनाना चाहते हों, उसमें छौंक की तरह ये गालियां डाली गई हों। लेकिन इस क्रम में जो फिल्म बनी, वह बालिग लोगों के लिए भले हो, परिपक्व दर्शकों के लिए नहीं हो पाई।
दरअसल कला और जीवन के बीच के इस अपरिहार्य द्वंद्व का खयाल बीते दिनों आमिर खान प्रोडक्शंस के बैनर से बनी फिल्म डेल्ही बेली देखते हुए आता रहा। महानगर के एक घर में रह रहे तीन दोस्तों की यह कहानी गालियों से भरी पड़ी है। कई दर्शकों को लग रहा है कि अगर यथार्थ का चेहरा यही है तो इसे सामने लाने में कोई हर्ज़ नहीं है। ख़ुद आमिर ख़ान मानते हैं कि उनकी फिल्म अपने इस दुस्साहसी प्रयोग की वजह से बच्चों के लिए नहीं है। उन्होंने सेंसर बोर्ड से अपनी ओर से आग्रह किया था कि उनकी फिल्म को ए सर्टिफिकेट दिया जाए- यानी सिर्फ वयस्कों के लिए माना जाए। शायद यह गालियों से भरी एक फिल्म को सेंसर बोर्ड से पास करान की युक्ति भी हो, लेकिन इसमें शक नहीं कि आमिर अपनी इस युक्ति की वजह से लोगों का ध्यान फिल्म की ओर खींचने में कामयाब रहे।
सतह पर देखें तो आमिर की बात तर्कसंगत लगती है। जीवन में अगर कुछ वीभत्स या गलीज़ है और कला उसे पकड़ने की कोशिश करती है तो वह उस यथार्थ से आंख चुराकर कैसे चल सकती है? अगर दिल्ली के तीन दोस्त या उनके आसपास के लोग अपनी बातचीत में धड़ल्ले से गाली का इस्तेमाल करते हैं तो इस पर एतराज करना एक नासमझ और डरे हुए शुद्धतावाद से ज़्यादा क्या है? आखिर हिंदी फिल्मों में गालियों के बिना भी फूहड़ दृश्यों और संवादों की भरमार रही है। आमिर ने तो बस इतना किया है कि अपनी फिल्म को एक यथार्थवादी शक्ल दी है।
लेकिन मुश्किल यह है कि शिल्प के स्तर पर आमिर जिस सख्त यथार्थवाद को अपना पैमाना बनाते हैं, कथ्य के स्तर पर उसकी बुरी तरह उपेक्षा करते हैं। अंततः वे फंतासी से भरी एक व्यावसायिक फिल्म बनाने ही दिखाई पड़ते हैं जिसके लिए उन्होंने मुहावरा यथार्थवादी चुन लिया है। क्या उनकी तरह के फिल्मकार को यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि कला- जिसमें फिल्म कला भी शामिल है- का शिल्प उसके कथ्य के हिसाब से ही तय होता है। जब एक फिल्मी किस्म के विषय को एक यथार्थवादी मुहावरे के रैपर में लपेट कर पेश करने की कोशिश की जाती है तो यह एक मिलावटी काम होता है जिससे कामयाब फिल्म तो बन सकती है, अच्छी फिल्म नहीं बन सकती।
वैसे सच्चाई यह है कि डेल्ही बेली का यह निहायत यथार्थवादी दिखने वाला शिल्प भी दरअसल अपनी समझ में बहुत इकहरा है। आमिर खान को सिर्फ यह दिखता है कि नौजवान जिस भाषा में बात करते हैं, वह गालियों से पटी पड़ी भाषा है। एक तो यह पूरा सच नहीं है- अगर किसी ख़ास तबके के लिए हो भी तो- ज़्यादा बड़ा सवाल यह है कि आखिर वह ऐसी भाषा क्यों इस्तेमाल करता है। यह लापरवाही है या बचपन से किशोरावस्था में जाते हुए मर्द दिखने की कोशिश जो बाकी जरियों के मुकाबले कुछ मर्दाना गालियों से कहीं ज़्यादा आसानी से कामयाब हो सकती है? या फिर यह कोई हताशा है जो इन गालियों की शक्ल में फूटती है। ध्यान से देखें तो हमारे समाज- या सभी समाजों- में गालियां मूलतः स्त्री को, उसकी लैंगिक पहचान को, उसकी यौन शुचिता को निशाना बनाकर गढ़ी गई हैं। उनमें सामंती अहंमन्यता की बू पकडना मुश्किल नहीं है। जो लोग गालियों को भदेस समाज की अभिव्यक्ति बताते हैं, वे भूल जाते हैं कि सामंती दबदबे का मारा यह भदेस समाज दरअसल अपनी हताश अभिव्यक्ति में ही गालियों का सहारा लेकर अपने लिए थोड़ा बहुत सुकून, राहत या मर्दानगी खोजने की कोशिश करता है।
लेकिन गालियों के इस समाजशास्त्र को भूलकर उन्हें सिर्फ यथार्थ के एक औजार की तरह इस्तेमाल करना हिंदी फिल्मकारों का नया शगल है। डेल्ही बेली से पहले हाल की कई फिल्मों, ये साली ज़िंदगी से लेकर नो वन किल्ड जेसिका तक में ये गालियां खूब दिखी हैं- और हैरानी की बात ये है कि लगभग इन सारी फिल्मों में यथार्थ पर आग्रह सिर्फ शिल्प के स्तर पर है, कथ्य के स्तर पर नहीं।
यथार्थ के ज्यों के त्यों चित्रण के इस तर्क को कुछ और आगे ले जाएं तो हमें कहीं ज़्यादा असुविधाजनक सवालों का सामना करना पड़ता है। कल को हत्या या बलात्कार के अनुभव को ज्यों का त्यों फिल्माने की कोशिश में क्या किसी निर्देशक को यह हक़ भी हासिल होगा कि वह बिल्कुल हिंसा और बलात्कार के वास्तविक दृश्य नियोजित करवाए?
दरअसल कला की असली चुनौती यही होती है कि वह जीवन को उसके सारे विद्रूप के साथ प्रस्तुत करे, उसकी सिर्फ तस्वीर न उतारे। सिर्फ तस्वीर उतारने का नतीजा वही होता है जो आमिर खान की फिल्म में दिखाई पड़ता है- गालियां सुनकर लोग हंसते हैं, ख़ुश होते हैं और फिल्म के खरेपन पर कुछ ज़्यादा भरोसा कर बैठते हैं- वे उसमें निहित विडंबना को नहीं समझते।
कहना मुश्किल है, आमिर ख़ान का मकसद ऐसी किसी विडंबना को पकड़ना था भी या नहीं। हो सकता है जिस कॉमिक रिलीफ की फिल्म वे बनाना चाहते हों, उसमें छौंक की तरह ये गालियां डाली गई हों। लेकिन इस क्रम में जो फिल्म बनी, वह बालिग लोगों के लिए भले हो, परिपक्व दर्शकों के लिए नहीं हो पाई।
(प्रियदर्शन वरिष्ठ हिंदी पत्रकार हैं। लंबे समय तक हिंदी दैनिक 'जनसत्ता 'से जु़ड़े रहने के बाद इन दिनों 'एनडीटीवी इंडिया 'चैनल में कार्यरत हैं। प्रस्तुत लेख जनसत्ता में रविवार 24 जुलाई को यथार्थवाद का इकहरापन के नाम से प्रकाशित हो चुका है। )
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