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Tuesday, July 27, 2010

The ugliness of the Indian male : Udaan


- मिहिर पंड्या

अगर आप भी मेरी तरह ’तहलका’ के नियमित पाठक हैं तो आपने पिछले दिनों में ’स्पैसीमैन हंटिंग : ए सीरीज़ ऑन इंडियन मैन’ नाम की उस सीरीज़ पर ज़रूर गौर किया होगा जो हर दो-तीन हफ़्ते के अंतर से आती है और किसी ख़ास इलाके/संस्कृति से जुड़े हिन्दुस्तानी मर्द का एक रफ़ सा, थोड़ा मज़ाकिया ख़ाका हमारे सामने खींचती है. वो बाहरी पहचानों से मिलाकर एक स्कैच तैयार करती है, मैं भीतर की बात करता हूँ… ’हिन्दुस्तानी मर्द’. आखिर क्या अर्थ होते हैं एक ’हिन्दुस्तानी मर्द’ होने के? क्या अर्थ होते हैं अपनी याद्दाश्त की शुरुआत से उस मानसिकता, उस सोच को जीने के जिसे एक हिन्दुस्तानी मर्द इस समाज से विरासत में पाता है. सोचिए तो, हमने इस पर कितनी कम बात की है.
सही है, इस पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री होना एक सतत चलती लड़ाई है, एक असमाप्त संघर्ष. और हमने इस निहायत ज़रूरी संघर्ष पर काफ़ी बातें भी की हैं. लेकिन क्या हमने कभी इस पर बात की है कि इस पुरुषसत्तात्मक समाज में एक पुरुष होना कैसा अनुभव है? और ख़ास तौर पर तब जब वक़्त के एक ख़ास पड़ाव पर आकर वो पुरुष महसूस करे कि इस निहायत ही एकतरफ़ा व्यवस्था के परिणाम उसे भी भीतर से खोखला कर रहे हैं, उसे भी इस असमानता की दीवार के उस तरफ़ होना चाहिए. इंसानी गुणों का लिंग के आधार पर बँटवारा करती इस व्यवस्था ने उससे भी बहुत सारे विकल्प छीन लिए हैं. क्या कोई कहेगा कि जैसे बचपन में एक लड़की के हाथ में गुड़िया दिया जाना उसके मूल चुनाव के अधिकार का हनन है ठीक वैसे ही लड़के के हाथ में दी गई बंदूक भी अंतत: उसे अधूरा ही करती है.


और फिर ’उड़ान’ आती है.


जैसी ’आम राय’ बनाई जा रही है, मैं उसे नकारता हूँ. ’उड़ान’ पीढ़ियों के अंतर (जैनरेशन गैप) के बारे में नहीं है. यह एक ज़ालिम, कायदे के पक्के, परंपरावादी पिता और अपने मन की उड़ान भरने को तैयार बैठे उसके लड़के के बीच पनपे स्वाभाविक तनाव की कहानी नहीं है जैसा इसका प्रचार संकेत करता रहा. किसी भी महिला की सक्रिय उपस्थिति से रहित यह फ़िल्म मेरे लिए एक नकार है, नकार लड़कपन की दहलीज़ पर खड़े एक लड़के का उस मर्दवादी अवधारणा को जिसे हमारा समाज एक नायकीय आवरण पहनाकर सदियों से तमाम लोकप्रिय अभिव्यक्ति माध्यमों में बेचता आया है. नकार उस खंडित विरासत का जिसे लेकर उत्तर भारत का हर औसत लड़का पैदा होता है. विरासत जो कहती है कि वीरता पुरुषों की जागीर है और सदा पवित्र बने रहना स्त्रियों का गहना. पैसा कमाकर लाना पुरुषों का काम है और घर सम्भालना स्त्रियों की ज़िम्मेवारी.
उड़ान एक सफ़र है. निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने के रचे किरदार, सत्रह साल के एक लड़के ’रोहन’ का सफ़र. जिसे त्रिआयामी बनाते हैं फ़िल्म में मौजूद दो और पुरुष किरदार, ’भैरव सिंह’ और ’अर्जुन’. शुरुआत से नोटिस कीजिए. जैसे भैरव सिंह रोहन पर अपना दबदबा स्थापित करते हैं ठीक वैसे ही रोहन सिंह अर्जुन पर अपना दबदबा स्थापित करता है. अर्जुन के घर की सीढ़ियों पर बार-बार ऊपर नीचे होने के वो दृश्य कौन भूल सकता है. वो अभी छोटा है, दो ’मर्दों’ के बीच अपनी मर्दानगी दिखाने का ज़रिया, एक शटल-कॉक. बेटा सीढ़ियों पर बैठा अपने पिता को इंतज़ार करवाता है और पिता अपने हिस्से की मर्दानगी भरा गुस्सा दिखाता उन्हें पीछे छोड़ अकेला ही गाड़ी ले जाता है. नतीजा, बेचारा बीमार अर्जुन पैदल स्कूल जाता है. रास्ते में वो रोहन का हाथ थामने की कोशिश करता है. वो अकेला बच्चा सिर्फ़ एक नर्म-मुलायम अहसास की तलाश में है. लेकिन रोहन कोई उसकी ’माँ’ तो नहीं, वो उसे झिड़क देता है.
लेकिन फिर धीरे से किरदार का ग्राफ़ घूमने लगता है. जहाँ एक ओर भैरव सिंह अब एक खेली हुई बाज़ी हैं, तमाम संभावनाओं से चुके, वहीं रोहन में अभी अपार संभावनाएं बाक़ी हैं. इस लड़के की ’एड़ी अभी कच्ची है’. बदलाव का पहिया घूमने लगता है. हम एक मुख़र मौन दृश्य में रोहन और अर्जुन के किरदारों को ठीक एक सी परिस्थिति में खड़ा पाते हैं. शायद फ़िल्म पहली बार वहीं हमें यह अहसास करवाती है. अर्जुन का किरदार अनजाने में ही रोहन के भीतर छिपे उस ज़रा से ’भैरव सिंह’ को हमारे सामने ले आता है जिसे एक भरा-पूरा ’भैरव सिंह’ बनने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगने वाला. लेकिन शायद तभी… किसी अदृश्य कोने में छिपा रोहन भी ये दृश्य देख लेता है.
चक्का घूम रहा है. रोहन लगातार तीन दिन तक अर्जुन की तीमारदारी करता है. उसे कविताएँ सुनाता है. उसके लिए नई-नई कहानियाँ गढ़ता है. उसे अपना प्यारा खिलौना देता है और खूब सारी किताबें भी. उससे दोस्तों के किस्से सुनता है, उसे दोस्तों के किस्से सुनाता है. उसके बदन पर जब चमड़े की मार के निशान देखता है तो पलटकर बच्चे से कोई सवाल नहीं करता. सवाल मारनेवाले से करता है और तनकर-डटकर करता है. पहचानिए, यह वही रोहन है जो ’कोई उसकी माँ तो नहीं’ था.
मध्यांतर के ठीक पहले एक लम्बे और महत्वपूर्ण दृश्य में भैरव सिंह रोहन को धिक्कारता है, धिक्कारता है बार-बार ’लड़की-लड़की’ कहकर. धिक्कारता है ये कहकर कि ’थू है, एक बार सेक्स भी नहीं किया.’ यह भैरव सिंह के शब्दकोश की गालियाँ हैं. एक ’मर्द’ की दूसरे ’मर्द’ को दी गई गालियाँ. लेकिन हिन्दी के व्यावसायिक सिनेमा की उम्मीदों से उलट, फ़िल्म का अंत दो और दो जोड़कर चार नहीं बनाता. रोहन इन गालियों का जवाब क्लाइमैक्स में कोई ’मर्दों’ वाला काम कर नहीं देता. या शायद यह कहना ज़्यादा अच्छा हो कि उसके काम को ’असली मर्दों’ वाला काम कहना उसके आयाम को कहीं छोटा करना होगा.
एक विशुद्ध काव्यात्मक अंत की तलाश में भटकती फ़िल्मों वाली इंडस्ट्री से होने के नाते तो उड़ान को वहीं ख़त्म हो जाना चाहिए था जहाँ अंतत: रोहन के सब्र का बाँध टूट जाता है. वो पलटकर अपने पिता को उन्हीं की भाषा में जवाब देता है. और फिर एक अत्यंत नाटकीय घटनाक्रम में उन्हें उस ’जैसे-सदियों-से-चली-आती-खानदानी-दौड़’ में हराता हुआ उनकी पकड़ से बचकर दूर निकल जाता है.
लेकिन नहीं, ऐसा नहीं होता. फ़िल्म का अंत यह नहीं है, हो भी नहीं सकता. रोहन वापस लौटता है. ठीक अंत से पहले, पहली बार फ़िल्म में एक स्त्री के होने की आहट है. वो स्त्री जिसका अक़्स पूरी फ़िल्म में मौजूद रहा. पहली बार उस स्त्री का चेहरा दिखाई देता है. वो स्त्री जो रोहन के भीतर मौजूद है. अंत जो हमें याद दिलाता है कि हर हिन्दुस्तानी मर्द के DNA का आधा हिस्सा उसे एक स्त्री से मिलता है. और ’मर्दानगी’ की हर अवधारणा उस भीतर बसी स्त्री की हत्या पर निर्मित होती है. यह अंत उस स्त्री की उपस्थिति का स्वीकार है. न केवल स्वीकार है बल्कि एक उत्सवगान है. क्या आपको याद है फ़िल्म का वो प्रसंग जहाँ अर्जुन और रोहन अपनी माँओं के बारे में बात करते हैं. रोहन उसे बताता है कि मम्मी के पास से बहुत अच्छी खुशबू आती थी, बिलकुल मम्मी वाली. अर्जुन उस अहसास से महरूम है, उसने अपनी माँ को नहीं देखा.
हमें पता नहीं कि रोहन ने उन तसवीरों में क्या देखा. लेकिन अब हम जानते हैं कि रोहन वापस आता है और अर्जुन को अपने साथ ले जाता है. उस रौबीली शुरुआत से जहाँ रोहन ने अर्जुन से बात ही ’सुन बे छछूंदर’ कहकर की थी, इस ’माँ’ की भूमिका में हुई तार्किक परिणिति तक, रोहन के लिए चक्का पूरा घूम गया है. एक लड़के ने अपने भीतर छिपी उस ’स्त्री’ को पहचान लिया जिसके बिना हर मर्द का ’मर्द’ होना कोरा है, अधूरा है. फ़िल्म के अंतिम दृश्य में रास्ता पार करते हुए रोहन अर्जुन का हाथ थाम लेता है. गौर कीजिए, इस स्पर्श में दोस्ती का साथ है, बराबरी है. बड़प्पन का रौब और दबदबा नहीं.
अंत में रोहन की भैरव सिंह को लिखी वो चिठ्ठी बहुत महत्वपूर्ण है. आपने गौर किया – वो अर्जुन को अपने साथ ले जाने की वजह ये नहीं लिखता कि “नहीं तो आप उसे मार डालेंगे”, जैसा स्वाभाविक तौर पर उसे लिखना चाहिए. वो लिखता है कि “नहीं तो आप उसे भी अपने जैसा ही बना देंगे. और इस दुनिया में एक ही भैरव सिंह काफ़ी हैं, दूसरा बहुत हो जाएगा.” क्या आपने सोचा कि वो ऐसा क्यों लिखता है? दरअसल खुद उसने अभी-अभी, शायद सिर्फ़ एक ही रात पहले वो लड़ाई जीती है. ’वो लड़ाई’… ’भैरव सिंह’ न होने की लड़ाई. अब वो फ़ैंस के दूसरी तरफ़ खड़ा होकर उस किरदार को बहुत अच्छी तरह समझ पा रहा है जो शायद कल को वो खुद भी हो सकता था, लेकिन जिसे उसने नकार दिया. वो अर्जुन को एक भरपूर बचपन देगा. जैसा शायद उसे मिलना चाहिए था. और बीते कल में शायद कहीं भैरव सिंह को भी.
रोहन उस चिठ्ठी के साथ वो खानदानी घड़ी भी भैरव सिंह को लौटा जाता है. परिवार के एक मुखिया पुरुष से दूसरे मुखिया पुरुष के पास पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचती ऐसी अमानतों का वो वारिस नहीं होना चाहता. यह उसकी परंपरा नहीं. होनी भी नहीं चाहिए. यह उसका अंदाज़ है इस पुरुषवर्चस्व वाली व्यवस्था को नकारने का. वो और उसकी पीढ़ी अपने लिए रिश्तों की नई परिभाषा गढ़ेगी. ऐसे रिश्ते जिनमें संबंधों का धरातल बराबरी का होगा.
किसी भी महिला किरदार की सचेत अनुपस्थिति से पूरी हुई उड़ान हमारे समय की सबसे फ़िमिनिस्ट फ़िल्म है. अनुराग कश्यप की पिछ्ली फ़िल्म ’देव डी’ के बारे में लिखते हुए मैंने यह कहा था – दरअसल मेरे जैसे (उत्तर भारत के भी किसी शहर, गाँव कस्बे के ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास से निकलकर आया) हर लड़के की असल लड़ाई तो अपने ही भीतर कहीं छिपे ’देवदास’ से है. अगर हम इस दुनिया की बाकी आधी आबादी से बराबरी का रिश्ता चाहते हैं तो पहले हमें अपने भीतर के उस ’देवदास’ को हराना होगा जिसे अपनी बेख़्याली में यह अहसास नहीं कि पुरुष सत्तात्मक समाज व्यवस्था कहीं और से नहीं, उसकी सोच से शुरु होती है. ’उड़ान’ के रोहन के साथ हम इस पूरे सफ़र को जीते हैं. यह एक त्रिआयामी सफ़र है जिसके एक सिरे पर भैरव सिंह खड़े हैं और दूसरे पर एक मासूम सा बच्चा. रोहन के ’भैरव सिंह’ होने से इनकार में दरअसल एक स्वीकार छिपा है. स्वीकार उस आधी आबादी के साथ समानता के रिश्ते की शुरुआत का जिससे रोहन भविष्य के किसी मोड़ पर टकराएगा.
और सिर्फ़ रोहन ही क्यों. जैसा मैंने पहले लिखा था, “उड़ान हमारे वक़्तों की फ़िल्म है. आज जब हम अपने-अपने चरागाहों की तलाश में निकलने को तैयार खड़े हैं, ’उड़ान’ वो तावीज़ है जिसे हमें अपने बाज़ू पर बाँधकर ले जाना होगा. याद रखना होगा.” ठीक, याद रखना कि हम सबके भीतर कहीं एक ’लड़की’ है, और उसे कभी मिटने नहीं देना है.

3 comments:

  1. जबर्दस्त और क्या..जबसे उड़ान देखी है तबसे दिमागी ज्वार उतर नही पाया है..काफ़ी कुछ कहने बाँटने लायक है वहाँ..और जिस ईमानदार निर्ममता से आपने समाज की पीठ उधेड़ी है यहाँ..इस पोस्ट को संगहणीय बना देती है...ऐंगल उभर कर सामने आते हैं...समाज अपने तमाम विरोधाभासों मे उलझ कर दिध्रुवीय हो गया है..मगर विडम्बना है कि दोनो ध्रुवों पर हम ही हैं..

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  2. mihir jee
    namaskar !
    aap ki samiksha padhne ke baad lagta hai ki film dekhni chahiye .
    thanks

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  3. फिल्म देखी नहीं है मगर उसके मूल मुद्दे जैसा की प्रचारित है से हट कर की गयी व्याख्या अच्छी लगी. " इस पुरुषसत्तात्मक समाज में एक पुरुष होना कैसा अनुभव है? और ख़ास तौर पर तब जब वक़्त के एक ख़ास पड़ाव पर आकर वो पुरुष महसूस करे कि इस निहायत ही एकतरफ़ा व्यवस्था के परिणाम उसे भी भीतर से खोखला कर रहे हैं, उसे भी इस असमानता की दीवार के उस तरफ़ होना चाहिए. इंसानी गुणों का लिंग के आधार पर बँटवारा करती इस व्यवस्था ने उससे भी बहुत सारे विकल्प छीन लिए हैं." समाज की असमानता का खामियाजा सिर्फ एक पक्ष ही नहीं भुगतता, दूसरा पक्ष उसके असर से बच नहीं सकता. " मर्द के DNA का आधा हिस्सा उसे एक स्त्री से मिलता है और हर मर्द के भीतर एक स्त्री होती है ". यहाँ स्त्री उस संवेदना और कोमलता का प्रतीक है जिसे दबा के रखना मर्दानगी की निशानी है. समीक्षा का ये नजरिया अच्छा लगा.

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