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Saturday, June 12, 2010

ये कौन सी राजनीति है?


-शैलेंद्र कुमार
दरअसल रवीश कुमार के ब्लॉग पर फिल्म की समीक्षा पढ़ने के बाद ही मैंने इसे देखने का मन बनाया, लेकिन देखने के बाद घोर निराशा हुई..फिल्म से भी और टिप्पणीकर्ता से भी। मुझे ऐसे किसी निर्देशक से आपत्ति नहीं है..जो खुद कल्पना की दुनिया में रहता हो और लोगों को अपना दिमाग घर पर छोड़कर फिल्म देखने की सलाह देता हो...। मुझे दिक्कत उन निर्माताओं से होती है..जो यथार्थपरक फिल्में बनाने का दावा करते हैं..और फिर दर्शकों को बेवकूफ बनाने की कोशिश करते हैं। मैं फिल्म के बारे में कुछ निष्कर्ष बताना चाहता हूं..जो उन लोगों को अच्छी तरह समझ में आएगी..जिन्होंने फिल्म देखी होगी..। मुझे उम्मीद है पाठकों में से शायद ही कोई बचा होगा..।
1. ये फिल्म राजनीति पर आधारित है, ये बात विश्वसनीय नहीं लगती..। ये किसी माफिया सरगना के परिवार में हो रही सत्ता के संघर्ष की कहानी ज्यादा लगती है..। जिस तरीके से फिल्म के कलाकार एक के बाद एक हत्याओं को अंजाम देते हैं, वो किसी भी तरह, किसी राजनीतिक परिवार का खेल नहीं लगता..। भारतीय राजनीति के इतिहास में क्या कोई ऐसी घटना याद है?
2. राजनीति में सभी को पता है कि नेता की हत्या से पार्टी को नुकसान के बजाय फायदा ही पहुंचता है..लेकिन फिल्म के धुरंधर नेता..हर समस्या का समाधान मर्डर में देखते हैं...। मुझे नहीं लगता..देश का अदना सा पॉलिटिशयन भी ऐसी गलती करता होगा...। निचले स्तर पर ऐसा संभव भी हो..लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठी पार्टी के लोग ये बात नहीं जानते होंगे...ये मानना मुश्किल है...। फिल्म में जब कभी निर्देशक को लगा कि राजनीतिक दांव-पेंच दिखाने के लिए दिमाग लगाना होगा, नई सिचुएशन क्रिएट करनी होगी....वहां उन्होंने हत्या का सहारा लिया और समस्या सुलझा ली...।
3. ये फिल्म महाभारत से ज्यादा मारियो पूजो के उपन्यास गॉड फादर से मिलती-जुलती है..। फिल्म में बिल्कुल वही सीन डाले गये हैं..जैसे रनवीर को पुलिस अफसर द्वारा रिवाल्वर के बट से चेहरे पर मारना, गाल का सूजना, विदेशी गर्लफ्रेंड का कार-ब्लास्ट में मारा जाना...बड़े भाई की मदद के लिए छोटे(सीधे-सादे) भाई का गैंगवार में शामिल होना...। ये ऐसे सीन हैं..जो इतनी बार अलग-अलग फिल्मों में रीपीट किये गये हैं कि कोई भी आसानी से पकड़ सकता है..।
4. प्रकाश झा ने गॉड फादर और महाभारत को मिलाने के चक्कर में चरित्रों के साथ खिलवाड़ किया..। गॉड फादर में बड़ा भाई उग्र होता है और इसी वजह से मारा जाता है...(जैसा कि फिल्म में अर्जुन रामपाल को दर्शाया गया है)। इसके बाद छोटा सामने आता है और सभी दुश्मनों का बेरहमी से खात्मा करता है..। अगर ये फिल्म इस उपन्यास से प्रेरित है..तो ठीक है...लेकिन जब महाभारत की बात आती है..तो कहानी बेसिर-पैर लगती है..। जैसे अगर बड़ा भाई युधिष्ठिर है.....और उसकी मदद और, उसे सत्ता दिलाने के लिए अर्जुन(रनवीर) आये तो बात ठीक लगती है....। लेकिन फिल्म में बड़ा भाई युधिष्ठिर नहीं, भीम के चरित्र से मिलता-जुलता है..। अब भला भीम को बचाने के लिए अर्जुन की क्या जरुरत है? बेहतर होता अगर अर्जुन रामपाल के चरित्र को सीधा-सच्चा दिखाया गया होता...और फिर उसकी मदद को गांडीवधारी अर्जुन (रनवीर) आते..। लेकिन जैसा मैने कहा....दो कथानकों को मिलाने के चक्कर में सब गड्ड-मड्ड हो गया...।
5. कैटरीना का अर्जुन रामपाल से विवाह करना और उसके लिए दी गई दलील इतनी हास्यास्पद है कि यकीन करना मुश्किल होता है..। आज के दौर में क्या कोई भी पढ़ी-लिखी लड़की...सिर्फ इसलिए हीरो के भाई से शादी कर लेगी...क्योंकि ऐसा नहीं करने पर उसका बाप जबरदस्ती उसकी शादी विलेन से करवा देगा ? आज के दौर में क्या कोई भी बाप अपनी पढ़ी-लिखी समझदार बेटी का ब्याह, जबरदस्ती करवा सकता है..? आजकल गांव-घर के बच्चे तो मां-बाप की सुनते ही नहीं...और कैटरीना जैसी आज़ाद ख्यालों वाली लड़की ऐसा कर लेगी...ये मानना मुश्किल है...। आज के दौर में बेटी को गाय-बैल की तरह किसी खूंटे में बांधना...संभव नहीं है..। प्रकाश झा को इसके लिए कोई अच्छी दलील देनी चाहिए थी..। (जैसे- कैटरीना का अपना लाल बत्ती में घूमने का सपना, ऐसे मामलों में फैसले हमेशा निजी स्वार्थ से प्रेरित होते हैं, या फिर रनवीर के परिवार या उसके सपने के लिए अपनी खुशियों का बलिदान करना)
6. फिल्म देखकर साफ लगता है कि प्रकाश झा और नाना पाटेकर के बीच रिश्ते ठीक नहीं रहे...। नाना को कृष्ण का रोल तो दिया गया...लेकिन धीरे-धीरे उन्हें अर्जुन (रनवीर) का पिछलग्गू बना दिया..। फिल्म में इक्का-दुक्का जगहों को छोड़ दें...तो हर जगह सोचने की मुद्रा में रनवीर हैं, और नाना उसकी हां में हां मिला रहे हैं..। अगर सारी प्लानिंग अर्जुन को ही करनी थी...तो कृष्ण के रोल की क्या जरुरत थी...। नाना को कभी खुलकर एक्टिंग का मौका नहीं दिया गया..फिर भी एक-दो जगहों पर वो अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे...।
7. कहानी में कुछ ऐसी चीजें भी हैं..जो यथार्थ से मेल नहीं खाती..। जैसे, जो राज्य की सबसे बड़ी पार्टी हो, वर्षों से जनता के विश्वास हासिल कर रही हो....उसकी पार्टी को बहुमत ना मिले (जबकि दलित वोट उसके साथ है) और उससे टूटकर नई पार्टी बनानेवाले को छह महीने के अंदर जीतता हुआ दिखाया जाए...तो ये बात हजम करना मुश्किल है...। खासकर तब, जब मुख्यमंत्री पद के दावेदार (अर्जुन रामपाल) पर मारपीट और रेप जैसे मामले चल रहे हों...। ये चीजें सिर्फ इसलिए डाली गईं...ताकि कैटरीना को चुनाव लड़ता दिखाया जा सके ( सोनिया के तौर पर पहले से ही उसका प्रोमोशन किया जा रहा था)। बेहतर होता..अर्जुन रामपाल की हत्या के लिए कोई ठोस वजह तलाशी जाती।
8. फिल्म का सबसे घटिया सीन था...कुंती का अपने बेटे कर्ण (सूरज) से मिलने जाना....। महाभारत में कुंती ने कभी भी राजनीति नहीं की...बल्कि एक आदर्श मां का रोल निभाया...। उनका कर्ण के पास जाने का मकसद था अपने बेटों की जान बचाना...या फिर य़ुद्ध को रोकना (अगर कर्ण पांडवों के साथ होता, तो दुर्योधन युद्ध करने का साहस नहीं करता)। फिल्म में ऐसा कोई भी डॉयलॉग नहीं था...बल्कि राजनीतिक बातें थीं...। ये सीन इमोशनल कम... कॉमेडी ज्यादा दिख रहा था..। सबसे ज्यादा अखरनेवाली चीज थी भाषा..। पूरी फिल्म में कलाकार, यूपी-बिहार की अपभ्रंश हिन्दी का प्रयोग करते हैं...लेकिन इस सीन में रनवीर की माता अचानक शुद्ध संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलने लगीं...। पता नहीं प्रकाश झा आधुनिक राजनीति और प्राचीन महाभारत में से किसी एक लीक पर क्यों नहीं चल पाये...।
9. फिल्म के एक सीन में रणवीर कपूर पिता की लाश के पास बैठे हैं...और कैमरे का फोकस उनके चेहरे से होते हुए लाश पर जाता है..। इसी वक्त लाश की आंखों की पुतलियां हिलने लगती हैं...। एडिटिंग की इतनी बड़ी गलती...सी-ग्रेड फिल्में बनानेवाले छोटे-मोटे निर्देशक भी नहीं करते..।
10. फिल्म के आखिर में मनोज वाजपेयी....गड़बड़ी की खबर मिलते ही अचानक उठकर निकल पड़ते हैं..और अकेले गाड़ी लेकर सुनसान फैक्ट्री पहुंच जाते हैं....। उनके पीछे अजय देवगन भी अकेले गाड़ी लेकर निकल पड़ते हैं...। इस सीन में प्रकाश झा की बॉलीवुडियन सोच ( इसमें निर्देशक दर्शकों को पूरी तरह बेवकूफ समझते हैं और चाहते हैं कि वो जो दिखाएं पब्लिक उस पर यकीन करे) पूरी तरह हावी है...। अब जो बंदा सारा दिन दूसरों को टपकाने का खेल कर रहा हो..क्या वो सपने में भी अकेले निकलने की सोचेगा? वो भी तब..जब दसियों बंदूकधारी आसपास हों...। चलिए मान लेते हैं कि मनोज वाजपेयी नशे में थे...लेकिन अजय देवगन तो पूरी होश में थे...। फोन पर उन्होंने मनोज से ये तो पूछा कि कहां जा रहे हो...लेकिन ना तो अपने लोगों को खबर की और ना ही पुलिस को...। दोनों अकेले पहुंच गये...। और तो और, सीधे-सादे दिमाग लगानेवाले रनवीर भी रिवॉल्वर लेकर शिकार करने पहुंच गये..। ये नेता थे या हार्डकोर क्रिमिनल? कुल मिलाकर अपनी कहानी पूरी करने के लिए प्रकाश झा ने आम निर्देशकों की तरह लॉजिक को बिल्कुल दरकिनार कर सीन फिल्मा दिया...।
अब प्रकाश झा की नहीं...कलाकारों और उनकी अदाकारी की बात करते हैं....। पूरी फिल्म में अजय देवगन छाये हुए हैं....और मनोज वाजपेयी ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है...। रनवीर कपूर..इतनी फुटेज के बाद भी औसत दिखे..। इतने मौकों के बावजूद रनवीर के चेहरे या आंखों से ना तो गुस्सा टपक रहा था और ना ही फौलादी इरादे जाहिर हो रहे थे....। ( याद कीजिए...सरकार में अभिषेक का रोल..उनकी तुलना में रनवीर फिसड्डी दिख रहे थे)। कमरे में बैठकर सिगरेट का धुआं उड़ाने को एक्टिंग नहीं कहा जा सकता। कैटरीना उम्रदराज लगने लगी हैं...और कुछ टुकड़ों में उनकी काबिलियत सामने आई है..लेकिन इसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता...। अर्जुन रामपाल औसत रहे हैं और कुछ जगहों पर ओवरएक्टिंग करते दिखे...। लेकिन पिछले कामों की तुलना में प्रोग्रेस माना जा सकता है..। नाना को यूज ही नहीं किया गया...लेकिन एक-दो जगहों पर ( जैसे, जब सूरज को मारने गये...और फिर जब रनवीर की मां को बताया) उन्होने अपना प्रभाव दिखाया...।
कुल मिलाकर ये एक औसत फिल्म है और जबरदस्त स्टारकास्ट और प्रोमोशन की वजह से इसे सफलता मिल रही है...। दूसरी बात ये है कि फिल्म का पेस बढ़िया है..और दर्शकों को बोर होने का मौका नहीं मिलता...। अन्यथा ऐसी कोई चीज नहीं है..जिसकी वजह से इसे दुबारा देखा जा सके....। हो सकता है बॉलीवुड के स्टैंडर्ड से ये फिल्म अच्छी कही जाए..लेकिन प्रकाश झा के खुद के स्तर से..उनकी बाकी फिल्मों की तुलना में... ये काफी नीचे है....।
(शैलेंद्र कुमार युवा टीवी पत्रकार और लेखक हैं)

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