- रवीश कुमार
... न औरो की है। असाधारण बीमारी को साधारण बनाकर यह फिल्म कुछ और हो जाती है। फ़िल्म के छोटे-छोटे किस्से अपनी मूल कहानी से छिटक कर अलग दुनिया रचते हैं। जो ज़्यादा गंभीर और असाधारण है। बहुत ज़्यादा इमोशनल लोड नहीं डालती है यह फ़िल्म। बल्कि गहन भावुक क्षणों में सामान्य होने की सीख देती है। साफ़-सुथरी फ़िल्म है पा। लेकिन सिर्फ पा की नहीं है।
किसी ने नोटिस क्यों नहीं किया। यह फ़िल्म राजनेता के छवि को बेहतर तरीके से गढ़ती है और राजनेता के ज़रिये मीडिया को आईना दिखलवाती है। अच्छा सा नेता। कांग्रेस के युवा ब्रिगेड की तरह खादी का कुर्ता-पायजामा पहनने वाला नेता, जो राजनीति में शतरंजी चाल की परवाह किये बिना काम करना चाहता है। इससे पहले की किस फ़िल्म ने राजनेताओं में इतना भरोसा पैदा करने की कोशिश की है, याद नहीं है। हो सकता है मुझसे छूट गई हो। एक ऐसा नेता जो सरकारी मीडिया पर भरोसा करता है। दूरदर्शन पर। उसका इस्तेमाल करता है। दूरदर्शन की पहुंच का इस्तेमाल करता है और हम प्राइवेट न्यूज़ चैनल के पत्रकारों के मुंह पर गोबर फेंक देता है। तभी किसी पत्रकार ने फ़िल्म के इस पहलू की चर्चा नहीं की, या फिर मुझी से वैसी समीक्षा छूट गई होगी।
अब वाकई डर लगता है। हमारी साख क्या इतनी खत्म हो गई है कि कोई नेता हमारे घर अपने लोगों को भिजवा देगा और हमारे घरों पर धावा बोल दिया जाएगा। शैम्पेन के नशे में धुत पत्रकारों की लाइव तस्वीर दूरदर्शन से लाखों घरों में पहुंचेगी और फिर पत्रकारिता की तमाम बहसों के बीच हम भस्म कर दिये जायेंगे। मैं कांप रहा था। अब तक आदत पड़ जानी चाहिए थी। लेकिन मेरी आंखों के सामने दीवाली पर गिफ्ट लेने वाले और दलाली करने वाले पत्रकारों की शक्लें साबुत खड़ीं हो गईं। बहुत दिनों से इस तरह की छवियां कई फिल्मों में देख रहा था। किसी घटना के संदर्भ में मीडिया के आगमन को हास्यास्पद बनाने की कोशिश की जाने लगी है। हिंदुस्तान टाइम्स के विज्ञापन में 'कैसा लग रहा है' टाइप सवाल पूछती एक पत्रकार के सिर पर अखबार का बंडल फेंक दिया जाता है। पा में बाल्की जी ने तो ग़रीबों का हमला करवा दिया है पत्रकारों पर। एक टीवी चैनल के मालिक के घर में भी लोग धावा बोल देते हैं। दूरदर्शन और प्राइवेट न्यूज चैनलों के रिपोर्टर में बहस होती है। उसका लाइव प्रसारण होता है। दूरदर्शन के स्टूडियो से। जिसकी कमज़ोर साख के बदले प्राइवेट मीडिया का जन्म हुआ, आज प्राइवेट चैनलों की साख की ये हालत हो गई कि दूरदर्शन की साख बेहतर बताई जाने लगी है। जाने कितने पत्रकारों का पसीना पानी हो रहा है। मैं भी कभी-कभार कहता रहता था कि एक दिन पब्लिक हमें मारेगी। लेकिन अंदाज़ा नहीं था कि हम इस तरह कहानियों के क्रूर पात्र हो जायेंगे। कुपात्र हो जायेंगे।
युवा नेता अभिषेक बच्चन। एक अच्छा सा नेता। इसके ज़रिये घटिया स्तर से नीचे चल रही मीडिया पर लात-जूते बरसवाती है ये फ़िल्म। बाहर की असली मीडिया में इस पर सन्नाटा। फ़िल्म की कहानी से घोर सहमति बता रही है क्या? हम अपने भीतर बहस कर चुप हो जाते हैं। गले को कस कर नाक से हवा छोड़ते हुए कांय कांय आवाज़ निकालते हैं। हम सब राजनीतिक से लेकर इलाकाई और अन्य तरह के स्वार्थों पर केंद्रित खेमों में बंटे हैं। आलोचना अपने खेमे को बचाकर सामने वाले की की जाती है। इसलिए पत्रकारों की आलोचना भी सवालों के घेरे में है। हम किसी न किसी के हाथ में खेल रहे हैं। उसे सही ठहराने के लिए दलीलों की भरमार हैं। मीडिया का म नहीं जानने वाले आलोचक अख़बारों के कॉलम से उगाहने लगे हैं। इन्हीं सब के बीच कोई बाल्की जैसा काबिल निर्देशक आराम से अपनी फिल्म के पर्दे में दो छवि बनाता है। अच्छे नेता की और दूसरी, लतखोर मीडिया की। फिल्म अभिषेक के बहाने राहुल गांधी को प्रतिष्ठित करती है। उन राजनेताओं को कोई पूछने वाला नहीं जो ईमानदार भी रहे और गंवई भी। मर गए लेकिन किसी ने फिल्म तक नहीं बनाई।
अब डरना चाहिए। इतनी बेबस मीडिया न तो पत्रकारों के लिए ठीक है न समाज के लिए। पत्रकारों के बिकने की खबर आउटलुक जैसी पत्रिका का कवर बनती है। प्रभाष जोशी अखबारों का नाम अपने कॉलम में लिख विदा हो गए। सन्नाटा। चुप्पी। अपने भीतर आंदोलन कैसे हो? चलो इग्नोर कर दो। इसमें कोई बुराई नहीं। बुराई तो इसमें है कि चुप्पी का फ़ायदा उठाकर फिर से वही करने लग जाते हैं। सुधरते नहीं हैं। टीवी की आलोचना अपने माध्यम के लोगों के साथ करना मुश्किल है। सब स्वार्थों से एक दूसरे पर साधने लगते हैं। बोलने का अधिकार सबको होना चाहिए। कैसे रोका जाए। लेकिन जो फिल्म जिसकी नहीं है,उसकी तो मत कहो। एक पुलिस अधीक्षक हाल ही में फोन कर रोने लगे कि स्ट्रिंगर लोग दारोगा की बदली के लिए दबाव डालते हैं। उनसे महीने की दलाली लेते हैं। इनसे कैसे निबटें। बहुत सुनने के बाद उनसे यही कहा कि अगर आप के पास सबूत है और यकीन है तो पकड़ कर टांग तोड़ दीजिए। क्या यही छवि है हमारी पब्लिक में। फिर हम किस पब्लिक के नाम पर दुनिया के खात्मे वाले कार्यक्रमों को संवारेंगे। एक दिन वो भी फेल कर जायेगा।
पा, अमिताभ बच्चन की फ़िल्म नहीं है। एक अच्छे राजनेता की है। जो काम करते करते थका जा रहा है। जिसका कुर्ता सचिन पायलट से मिलता है। जो राहुल गांधी की तरह अंबेडकर बस्ती में जाकर हरिजनों को गंदगी से निजात दिलाने के लिए योजनाएं बनवाता है। सैंकड़ों लोगों के बीच आकर अपनी निजी ज़िंदगी की बात स्वीकार कर लेता है। 'हां उस रात मैंने कंडोम का इस्तमाल नहीं किया।' 'मैंने भी वही किया जो मेरी उम्र का लड़का कर जाता है।' 'लेकिन अच्छा हुआ कि उस रात कंडोम नहीं था।' 'वर्ना औरो जैसा बेटा कहां मिलता।' अमोल अर्ते की साफगोई ने सियासी साज़िशों को उलट दिया। वह एक ज़िम्मेदार नेता है। अपनी सुरक्षा को लेकर ज़िम्मेदार है। लोगों को सड़क पर पॉटी करता देख नाराज़ होता है। कहता है सरकार ने शौचालय बनवा रखे हैं। अब यहां बाल्की को मीडिया की मदद लेनी चाहिए थी। जो दिखाता कि सरकारी शौचालयों की क्या हालत है। हम भी यही कर देते हैं कभी-कभी। इकतरफा हो जाते हैं।
लेकिन बाल्की ने फिल्म मीडिया की छवि बनाने के लिए नहीं बनाई है। बल्कि छवियों को गढ़ने वाली मीडिया को गर्त में फेंक देने के लिए बनाई है। दूरदर्शन की महिमा है। फिल्मकार की आलोचना सही है। लेकिन इकतरफा है। मीडिया की तरफ से वकालत करने का कोई फायदा नहीं है। हमारे इतिहास और वर्तमान में बहुत कुछ अच्छा है। बहुत कुछ अच्छा भी हो रहा है। लेकिन जो बुरा है वो ज़्यादा हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि न्यूज़ चैनलों को प्रोजेरिया हो गया है। इतने कम समय में इतनी तेज़ी से बढ़ गए कि हांफने लगे हैं। दम तोड़ते से लगते हैं। उन्हीं की इस बीमारी की कहानी है पा। कोई शोध करेगा कि इक्कीसवीं सदी की हिन्दी फिल्मों में मीडिया के फटीचर काल का चित्रण।
नोट- पा एक मां और उसकी अनब्याही बेटी की भी कहानी है जो मां बनना चाहती है। दोनों के रिश्तों में आज के समय के हालात की चुनौतियों को परिपक्वता से गढ़ने की कोशिश है। ये वो मां है जो अपनी अनब्याही बेटी के मां बनने पर उसे कलमुंही और कुलबोरनी नहीं कहती है। पूर्वजों को याद कर माथा नहीं पीटती कि इसने आपका सत्यानाश कर दिया है। बल्कि मां अपनी बेटी से सवाल करती है कि ये बच्चा चाहिए या नहीं। उसके बाद पूरी ज़िंदगी अपनी बेटी का साथ देती है। पा दो मांओं की भी कहानी है।