- विनय सिंह
वो भागता
है..वो दौड़ता है..वो ऐसे दौड़ता है जैसे कि उड़ रहा हो..हवा से बातें कर रहा हो
उसको फ़्लाइंग सिख कहते हैं। बचपन में वो स्कूल जाने को दौड़ता है, अपनी जान बचाने के लिये भी दौड़ता है। वो रोटी के लिये दौड़ता है, चोरी करने के लिये दौड़ता है। दूध और अण्डे के लिये दौड़ता है, तो कभी इंडिया का ब्लेज़र पहनने की ख़ातिर दौड़ता है। वो अपनी
इज़्जत के लिये दौड़ता है अपने मुल्क के लिये दौड़ता है...और कभी नहीं रुकता
सिर्फ़ दौड़ता है।
जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ फ़्लाइंग सिख मिल्खा सिंह की। राकेश ओमप्रकाश
मेहरा के मिल्खा सिंह की। 1960 के रोम ओलिंपिक्स में मिल्खा आख़िर पीछे मुड़ कर
क्यों देखते हैं इस रहस्य का पता तो शायद अब तक नहीं चला पर राकेश और फ़िल्म के
स्क्रिप्ट राइटर प्रसून जोशी ने इसके पीछे की एक बड़ी ही अटपटी सी कहानी फ़िल्म मे
सुनाई है। रोम की इस हार को मिल्खा कभी भूलता नहीं और 400 मीटर के वर्ल्ड रिकार्ड
को ध्वस्त कर अपनी इज़्ज़त के लिये दौड़ता है। पहले तो वह आर्मी में सिर्फ़ दूध और
अण्डे के लिय दौड़ता है मगर बाद में यही दौड़ मिल्खा का जुनून बन जाती है, उसकी
ताक़त बन जाती है...उसकी पहचान बन जाती है। मिल्खा के बचपन से लेकर अथलीट बनने तक
के सफ़र को राकेश मेहरा ने प्रसून की कलम की मदद से बख़ूबी परदे पर उतारा है। एक
अथलीट जिसे आज बिरले लोग ही जानते हैं उसकी ज़िन्दगी का पन्ना-पन्ना खोल कर रख
दिया है राकेश औऱ प्रसून ने। मिल्खा रोज़ इतनी मेहनत करते थे कि अपने पसीने से
बाल्टी भर देते थे। मगर दूध और अण्डे की ख़ातिर शुरू हुई मिल्खा की यह दौड़ बाद
में इंडिया का ब्लेज़र और फिर अपने मुल्क की ख़ातिर मेडल की चाह में बदल जाती है।
बचपन में अपने बच्चे मिल्खा की जान बचाने के लिये उसके पिता उसको “भाग मिल्खा भाग” कहकर भगा देते हैं और तब से मिल्खा भागता ही रहता है, कभी रुकता नहीं।
फ़रहान अख़्तर ने मिल्खा के रोल को जैसे जी लिया है। वो इस तरह मिल्खा
के रोल में घुसे हैं कि वो जीवंत हो उठता है, लगता है मानो मिल्खा सच में हमारे सामने दौड़ रहा है परदे पर नहीं
है। राकेश फ़िल्म का निर्देशन करते हुए लगता है थोड़ा भावनाओं में बह गये हैं शायद
इसीलिये फ़िल्म की लगाम कसके नहीं पकड़ पाये और फ़िल्म इतनी लंबी हो गयी।
स्क्रीनप्ले थोड़ा और अच्छा हो सकता था। इस कहानी को साकार करता और उसमें चार चाँद
लगाता है बिनोद प्रधान का कैमरा। जिस तरह से उन्होंने मिल्खा की
रेस को कैमरे के पीछे से दर्शकों तक पहुँचाया है वह वाकई देखने लायक है।
मिल्खा के कोच की भूमिका में पवन मलहोत्रा और योगराज सिंह दिखे
हैं। दोनों ने ही बहुत अच्छी एक्टिंग की है। जहाँ पवन मिल्खा में जोश भरकर उसे शुरुआती
दिनों में दौड़ना सिखाते हैं वहीं योगराज सिंह (इंडिया के कोच) मिल्खा को ट्रेन
करते हैं। योगराज की यह पहली फ़िल्म है मगर असल ज़िन्दगी में भी वे ख़ुद एक कोच
हैं शायद इसीलिये उनको यह रोल करने में ख़ास परेशानी नहीं हुई। लेकिन परदे पर जब
मिल्खा की बहन (दिव्या दत्ता) और मिल्खा आते हैं वो सीन देखने लायक हैं। मिल्खा और
उसकी बहन जब भी परदे पर आते हैं छा जाते है। भाई बहन का प्यार उमड़ पड़ता है। दलीप
ताहिल (पण्डित नेहरू) और के.के रैना भी बड़े दिनों बाद बड़े परदे पर दिखे हैं।
सोनम कपूर मिल्खा की प्रमिका की भूमिका में बहुत ही थोड़ी देर के लिये आयी हैं।
हवाई जहाज के कैप्टन बन राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भी फ़िल्म में एक छोटा सा कैमियो
किया है। छोटे मिल्खा के रोल में जबतेज सिंह ने शानदार अभिनय किया है। ‘ज़िन्दा’, ‘हवन करेंगे’ और‘लौण्डा’ इन कुछ गानों को छोड़ दें तो बाकी गाने फ़िल्म में ज़बरदस्ती के
हैं और बेदम भी हैं।
ऐसे अथलीटों पर फ़िल्म ज़रूर बननी चाहिये जो कि इतिहास के पन्नों
में कहीं खो गये हैं, पर उन्होंने भारत का नाम ख़ूब
रोशन किया है। ध्यानचंद, पी.टी उषा, पान सिंह, मिलखा सिंह ये उन्हीं में से
हैं। इन्हें ऐसे इतनी आसानी से भूलना नहीं चाहिये। क्योंकि इन्हे इतनी आसानी से
भुलाया नहीं जा सकता। क्योंकि इनमें कुछ कर गुज़रने का माद्दा था जुनून था जो
हमेशा हमें प्रेरित करता रहेगा।
P.S.: “सर जी 400 मीटर का वर्ल्ड
रिकॉर्ड क्या है ?” ~ मिल्खा
(फ़रहान अख़्तर) कोच रणवीर सिंह (योगराज सिंह) से
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