पान सिंह तोमर क्यों एक बेहतरीन और हमारे वक्त की एक ज़रुरी फिल्म है, इसे देखकर ही समझा जा सकता है। ‘कैसी है?’- ये फिल्म देखकर निकले किसी शख्स से जब आप ये सवाल पूछते हैं तो जवाब संक्षिप्त नहीं मिलता। फिल्म देखने के बाद युवा पत्रकार प्रबुद्ध से पूछे इसी सवाल का लंबा जवाब.
पान सिंह अपने अफ़सर से कहता है-- चौथी फ़ेल हूं, आदमी पढ़ा है। ये संवाद लिखा पान सिंह के लिए गया लेकिन संवाद का दूसरा हिस्सा इरफ़ान के लिए सटीक है...आदमी पढ़ा है। सच तो है। बिना आदमी पढ़े, इंसानी जज़्बात के तमाम रंग पान सिंह तोमर के कैनवस पर छिटकना मुमकिन नहीं था। एक ऐसे देश में जहां बायोपिक के नाम पर दूरदर्शन डॉक्यमेंट्री बनती हैं, वहां ये फ़िल्म विषय और उसकी प्रस्तुति का नायाब नमूना है। कलाकारों के चयन से लेकर लोकेशन तक, संवाद से लेकर स्क्रीनप्ले तक सब कुछ आला दर्जे का।फिल्म की रफ़्तार और थ्रिल पारंपरिक हिंदी फिल्म के खांचे से सट कर गुज़रते हैं, पर उसमें अपने को फंसाने की कोशिश नहीं करते। यही निर्देशक की कामयाबी भी है। क्योंकि, सिनेमा अगर जादू न चलाए तो बेकार है। उस अंधेरे में पान सिंह के साथ आप अपने अंदर के बाग़ी को तलाशने लगेंगे, उस किरदार को उभारने में इतना तो इरफ़ान ज़रूर कर गए हैं। फिर वो बॉस को जवाब देने का माद्दा हो, अपनी रोज़मर्रा की नौकरी से बग़ावत करना या फिर आपके किसी जायज़ काम में अड़ंगा डालने वाले व्यक्ति का गिरेबान पकड़कर उसे सबक सिखाना।
और फिर इन बग़ावती तेवरों को वजह बख़्शने वाला संवाद भी तो है जो कहता है कि जो किया वो ख़ुद नहीं किया बल्कि हालात ने करवाया। फिर उसका जवाब मांगा जाता है, दो बार---"जा बात कौ जवाब कौन देगौ" । एक बार पान सिंह के हाथों क़त्ल हुए आततायी भाई से और दूसरी बार थियेटर में बैठे दर्शकों से।
... और जवाब, वो तो न भाई के पास है और न ही दर्शकों के।
इंटरवल से पहले के पान सिंह से मोहब्बत सी होने लगती है। अपना सा लगता है वो। बेलौस अंदाज़, बेसाख़्ता सचबयानी, और वो चीते सी रफ़्तार। वो आदमी जो फौज में स्पोर्ट्स में भर्ती हुआ इसलिए कि वहां कम से कम खाने पर रोकटोक तो न होगी। लेकिन, जिसने अपनी मेहनत और रफ़्तार से देश का सिर ऊंचा किया। जब माटी और मां की याद ज़्यादा सताने लगी तो फ़ौज छोड़ दी, गांव का रूख़ किया। गांव में रफ़्तार के पांव में बग़ावत का लोहा भरने के सारे हालात पहले से तैयार थे। भाइयों ने सताया तो पुलिस और प्रशासन ने भी नहीं बख़्शा। तमाम मेडल और तस्वीरें बेमानी हो गए। बेटे को लथपथ कर घर में डाला गया। पान सिंह के हिस्से में आया तो धधकता हुआ गुस्सा और कुछ न कर पाने की छटपटाहट।
बस यहीं से जन्म हुआ बग़ावत का।
पान सिंह उन चुनिंदा फिल्मों की जमात में शामिल हो गई है जहां हर दूसरे मिनट आपको बेहतरीन सिनेमाई दृश्य और चुटीले संवादों का मेल मिलेगा। एक बानगी देखिए:
पान सिंह चंबल के बीहड़ों में अपने गैंग के साथ बैठा है। तभी एक साथी रेडियो ऑन करता है। रेडियो पर कमेंट्री--और कभी अंतर्राष्ट्रीय स्टीपलचेज़ धावक रहे पान सिंह ने पुलिस की नाक में दम कर रखा है(कुछ ऐसा ही) और पान सिंह का उस साथी को गरियाना...अबे बंद कर जाए...जब देश के लिए दौड़े, तब कऊ ने न पूछा और अब बागी है गए हैं तो हर तरफ़ पान सिंह।
या जब पान सिंह अपने फौजी बेटे से मिलने जाता है। बेटा, पिता के पैर छूना चाहता है लेकिन पिता बाक़ी लोगों के सामने अपनी पहचान ज़ाहिर करना नहीं। दोनों के बीच जो संवाद होता है वो आम होकर भी कितना ख़ास है, ये महज़ देखने नहीं महसूस करने की चीज़ है।
लेकिन एक सीन जिसकी एडिटिंग को देखकर लगा कि अरे एडिटर, सिर्फ़ दस फ्रेम और छोड़ देता तो उसका क्या जाता वो है जब पान सिंह फौज से विदा लेने के बाद अपने सीनियर अफ़सर से फोन पर बात कर रहा है। अफ़सर उसके लिए आइसक्रीम भिजवाता है। पान सिंह, फोन पकड़े पकड़े कहता है---ये हमारौ सबसे बड़ौ इनाम है। ये कहते हुए पान सिंह के चेहरे पर जो भाव आता है उसे एबरप्ट तरीक़े से काट कर दूसरे सीन पर जाने की जल्दबाज़ी समझ से परे है।
पान सिंह जिस दौर के सिस्टम से, जिस जगह पर लड़ रहा है वहां दुनाली बंदूक़ों से ख़ून बहना और बहाना मामूली बाते हैं। एक ऐसी जगह जहां कलक्टर भी कहने को मजबूर होता है कि ये तुम्हारा झगड़ा है, तुम्ही निपटो। जहां पुलिस स्टीपल चेज़ के मायनों में ह्यूमर तलाश रही है। ऐसे में बग़ावत को आप जस्टिफ़ाई नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे।
पान सिंह का एनकाउंटर करने वाले पुलिस अधिकारी को उसका सीनियर कहता है-- यार, इस पान सिंह ने देश के लिए कई मेडल जीते हैं। इस पर तपाक से इंसपेक्टर का जवाब आता है--सर, पान सिंह सिर्फ़ एक अपराधी है।
तब आपको पान सिंह का ये संवाद याद आता है---
हम तो एथलीट हते, धावक। इंटरनेसनल। अरे हमसे ऐसी का गलती है गई कि तैने हमसे हमायो खेल को मैदान छीन लओ। और तुम लोगन ने हमाये हाथ में जे पकड़ा दई। अब हम भग रए ऐं चंबल के बीहड़ में। जा बात कौ जवाब कौन देगौ, जा बात कौ जवाब कौन देगौ।
और जैसा मैंने पहले कहा--
जवाब, वो तो न भाई के पास है और न ही आपके।
और फिर से...जैसा मैने पहले कहा...
इंटरवल से पहले के पान सिंह से मोहब्बत सी होने लगती है। इंटरवल के बाद के पान सिंह से मिलने के बाद व्यवस्था से हताशा हमारे मन में कहीं गहरे तक पैवस्त होती है और फिर खुद बाग़ी न बन पाने को जस्टिफाई करने की वजहें ये बावला मन एक एक कर खुद को ही सुनाता है।
-प्रबुद्ध
Fantastic writing. As good as story of movie. Bahut bahut badhai prabuddha
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