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Friday, April 9, 2010

मन का काला सिनेमा

- वरुण ग्रोवर

Spoiler Alert : अगर आपने ये फिल्म अब तक नहीं देखी है, तो ये लेख पढ़ कर कुछ ज्यादा हाथ नहीं लगेगा। प्लॉट से जुडी दो चार बातें और खुल जाएंगी। आगे आपकी श्रद्धा.

लव
मैं तब करीब सोलह साल का था। (सोलह साल, हमें बताया गया है कि अच्छी उम्र नहींहोती। किसने बताया है, यह भी एक बहुत बड़ा मुद्दा है। लेकिन शायद मैं खुद से आगे निकलरहा हूं।) क्लास के दूसरे सेक्शन में एक लड़की थी जिसे मेरा एक जिगरी दोस्त बहुत प्यार करताथा। वाजिब सवाल – ‘प्यार करता था’ मतलब? वाजिब जवाब – जब मौका मिले निहारताथा, जब मौका मिले किसी बहाने से बात कर लेता था। हम सब उसे महान मानते थे। प्यार मेंहोना महानता की निशानी थी। ये बात और थी कि वो लड़की किसी और लड़के से प्यार करतीथी। यहां भी ‘प्यार करती थी’ वाला प्रयोग कहावती है। फाइन प्रिंट में जाएं तो – दूसरालड़का भी उसको बेमौका निहारता था, और (सुना है) उसके निहारने पर वो मुस्कुराती थी।दूसरा लड़का थोड़ा तगड़ा – सीरियस इमेज वाला था। जैसा कि हमने देखा है – एक दिन सामनेवाले खेमे को मेरे दोस्त के इरादे पता चल गये और बात मार-पीट तक पहुंच गयी। मैंने भीबीच-बचाव कराया। सामने वाले लड़के से दबी हुई आवाज़ में कहा कि असल में तुम्हारी पसंद(माने लड़की) है ही इतनी अच्छी कि इस बेचारे की बड़ी गलती नहीं है। (ये लाइन मैं रट केगया था। ‘डर’ फिल्म में है।) सुलह हो गयी पर उसके बाद मेरे दोस्त का प्यार कुर्बान होगया। उसने उस लड़की को भुलाने की कोशिश की। हम लोगों ने इस मुश्किल काम में उसकी मददकी। उसकी महानता ‘प्यार करने वाले’ खेमे से निकलकर ‘प्यार पूरा नहीं हो पाया’ वाले खेमेमें शिफ्ट हो गयी। पर कभी भी, अगले दो सालों तक, ऐसा नहीं हुआ कि उसने हिम्मत हारीहो या हमने ही ये माना हो कि किस्सा ख़त्म हो गया है। हम सब मानते थे कि दोस्त काप्यार सच्चा है और यही वजह काफी है कि वो सफल होगा।
आज सोच के लगता है कि हम लोग साले कितने फ़िल्मी थे। लेकिन फिर लगता है कौन नहींहोता? हमारे देश में (या आज की दुनिया में?) option ही क्या है? प्यार की परिभाषा,प्यार के दायरे, प्यार में कैसा feel करना चाहिए इसके हाव-भाव, और प्यार में होने परसारे universe की हमारी तरफ हो जाने की चुपचाप साज़िश – ये सब हमें हिंदी रोमांटिकफिल्मों से बाल्टी भर भर के मिला है। हमने उसे माना है, खरीदा है, और मौक़ा पड़ने पर बेचाभी है। लंबी परंपरा है – या कहें पिछली सदी की सबसे बड़ी conspiracy। राज कपूर नेप्यार को नौकरी और चरित्र के बराबर का दर्ज़ा दिया, गुरुदत्त ने कविता और दर्द कीरूमानियत से पोता, शम्मी कपूर, देव आनंद और राजेश खन्ना ने मस्ती का पर्याय बनाया,बच्चन एंड पार्टी ने सख्त मौसम में नर्मी का इकलौता outlet, और 80 के दशक के बाद यशचोपड़ा, करन जौहर, शाहरुख और अन्य खानों ने तो सब मर्जों की दवा।
मैं जानता हूं ये कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इसमें खास ये है कि ये अब तक पुरानी भी नहींहुई है। और एक खास बात है कि अब तक किसी ने भी ऊंची आवाज़ में ये नहीं कहा है कि इसconspiracy ने उसकी जिंदगी खराब कर दी। जब कभी ऐसा मौक़ा आया भी [एक दूजे के लिए(1981), क़यामत से क़यामत तक (1987), देवदास (2002)] जहां प्यार के चलते दुखांत हुआ,वहां भी प्यार को कभी कटघरे में खड़ा नहीं किया गया। बल्कि उल्टा ही असर हुआ – जमानेकी इमेज और ज़ालिम वाली हो गयी (मतलब प्यार में एक नया element जुड़ गया –adventure का), प्यार के सर पर कांटों का ताज उसे ईश्वरीय aura दे गया, और ‘हमारेघरवाले इतने illogical नहीं’ का राग दुखांत के परदे के पीछे लड़खड़ाती सुखांत की अगरबत्तीको ही सूरज बना गया। (और ये भी जान लें कि फिल्मकार यही चाहते थे। कभी जाने, कभीअनजाने।)
दिबाकर बनर्जी की ‘लव सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी लव की इस लंबी चली आ रहीconspiracy को तोड़ती है। बल्कि ये कहें कि उसकी निर्मम ह्त्या करती है। इस कहानी कोदेखते हुए मुझे वो सब बेवकूफियां याद आयीं जो मैंने कभी की हैं या दूसरों को सुझायी हैं – जैसेहाथ पर रूमाल बांध कर style मारना, पहली नज़र में प्यार हो जाना, आवाज़ बदल करबोलना, ‘प्यार करते हो तो भाग जाओ, बाकी हम देख लेंगे’ वाला भरोसा देना। और इसमें एकदिल दहला देने वाला अंत है जो मैंने अक्सर अखबारों में पढ़ा है, पर सिनेमा के परदे पर देखूंगा– ये कभी नहीं सोचा था। और सिनेमा के परदे पर इस तरह देखना कि सच से भी ज्यादाखतरनाक, कई गुना ज्यादा magnified और anti-glorified लगे इसके लिए मैं तैयार नहींथा। ये परदे पर राहुल और श्रुति की honour killing नहीं, मेरी जवानी की जमा की हुईnaivety का खून था। ये कुंदन शाह – अज़ीज़ मिर्ज़ा वाले फीलगुड शहर में कुल्हाड़ी लेकर आंखोंसे खून टपकाता, दौड़ता दैत्य था। (शायद ये उपमाएं खुद से खत्म न हों, इसलिए मुझे रुकना हीपड़ेगा)
और दिबाकर ने बहुत चतुराई से इस दैत्य को छोड़ा। जब तक हमें भरोसा नहीं हो गया कि परदेपर दिखने वाले राहुल और श्रुति हमीं हैं, जब तक हमने उन पर हंसना छोड़कर उनके साथ हंसनाशुरू नहीं किया, जब तक बार बार हिलते कैमरे के हम अभ्यस्त नहीं हो गये तब तक हमें उसकाली रात में सुनसान रास्ते पर अकेले नहीं भेजा। और उस वक्त, जब बाहर के परेशान कर देनेवाले सन्नाटे ने आगाह कर दिया कि अब कुछ बुरा होने वाला है, हम बेबस हो गये। कार रुकगयी, हमें उतारा गया, और…
मिहिर ने District 9 के बारे में लिखा था – ये दूर तक पीछा करती है और अकेलेपन में लेजाकर मारती है। मैं कहूंगा ‘लव सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी दूर तक आपके साथ चलतीहै, और आपके पसंदीदा अकेलेपन में ले जाकर मारती है। और तब आप सोचते हैं – ये आज तक सिनेमामें पहले क्यों नहीं हुआ? या शायद – अब भी क्यों हुआ?
सेक्स
अंग्रेज़ी में इसे ‘hot potato’ कहते हैं। और हमारे यहां नंगे हाथों की कमी नहीं। हमारे देश मेंसेक्स के बारे में बात करना कुंठा की पहली निशानी माना जाता है। साथ ही दुनिया में सबसेज्यादा पोर्न वीडियो देखने वाले देशों में भी हमारा नंबर है। दुनिया में सबसे ज्यादाबलात्कार भी किसी किसी दिन भारत में होते हैं और किसी मॉडल के तौलिया लपेटने पर सबसेज्यादा प्रदर्शन भी। मां-बहन-बीवी-बेटी से आगे हमारी मर्यादा के कोई symbol नहीं हैं, नही इनके बहुत आगे की गालियां। इतनी सारी complexities के बीच दिबाकर ने डाल दियेदो किरदार – जो भले भी हैं, बुरे भी। इतिहास की चादर भी ओढ़े हुए हैं, और भविष्य कीतरह नंगे भी हैं।
एक मर्द है। सभी मर्दों की तरह। अपने बहुत अंदर ये ज्ञान लिये हुए कि ये दुनिया उसी कीहै। ये जानते हुए कि women empowerment सिर्फ एक बचकाना खेल है – चार साल के बच्चे कोडाली गयी underarm गेंद ताकि वो बल्ले से कम से कम उसे छुआ तो पाये। ये जानते हुए किऔरत सिर्फ साक्षी है मर्द के होने की। मर्द के प्यार, गुस्से, बदतमीजी और उदारता कोमुकम्मल करने वाली चश्मदीद गवाह।
और सामने एक औरत है। ये जानते हुए कि दुनिया उसकी नहीं। ये जानते हुए कि साहब बीबी औरगुलाम में असली गुलाम कौन है। ये जानते हुए कि वो कुछ नहीं अपनी देह के बिना। कुछ नहीं देहके साथ भी, शायद।
जिस cold-blooded नज़र से दिबाकर ने ये कहानी दिखायी है, वो इसे दो बहुत ही अनोखे,एक बार फिर, परेशान कर देने वाले आयाम देती है। पहला – क्या दुनिया भर में लगे कैमरे‘मर्द’ ही नहीं हैं? ठंडे, वॉयर, सब पर नज़र रखते। दूसरा – इस नये world order, जिसमेंकैमरा हमेशा हमारे सर पर घूम रहा है, उससे हमारा आसान समझौता। सैम पित्रोदा ने हालही में कहा है कि तकनीकी क्रांति का पहला दौर खत्म हो गया है – सबके पास मोबाइल फोनहै, सबके पास इंटरनेट होगा। दूसरा दौर शुरू होने वाला है जिसमें सबको tag किया जाएगा –हर इंसान आसानी से ‘पकड़ा’ जा सकेगा। मेरे लिए ये दोनों आयाम बहुत ही डरा देने वाले हैं।(यहां याद आती है 2006 की शानदार जर्मन फिल्म ‘द लाइव्ज ऑव अदर्ज़’ – एक तानाशाहसरकार की ‘total control’ policy को अमल में लाते छुपे हुए रिकॉर्डर।) भरोसा, जैसाकि इस कहानी में निशा करती है आदर्श पर, बहुत खतरनाक चीज़ हो जाएगी, जल्द ही। खासकर के मर्द-औरत के बीच, सत्ता-प्रजा के बीच, देखनेवाले-दिखनेवाले के बीच।
इसलिए अगर कहा जाए कि इस कहानी में ‘सेक्स’ का असली मतलब सिर्फ ‘सेक्स’ की क्रिया सेनहीं बल्कि महिला-पुरुष के फर्क से भी है, तो गलत नहीं होगा। इतनी loaded होने की वजहसे ही इस कहानी में cinematic टेंशन सबसे ज्यादा है, (critics’-word-of-the-month)layers भी बहुत सारी हैं और किरदार भी सबसे ज्यादा relatable हैं। एक बार को आपकोकहानी अधूरी लग सकती है। मुझे भी लगा कि कुछ और होना चाहिए था – आदर्श का बदलनाया निशा का टूटना। लेकिन फिर याद आया कहानी दिबाकर नहीं दिखा रहे – कहानी वोकैमरा दिखा रहा है। जितनी दिखायी वो भी ज्यादा है।
धोखा
Sting operation हमारे लिए नये हैं। कुछ लोगों का मानना है ये ‘डेमोक्रेसी’ के मेच्योरहोने का प्रमाण है। कुछ का इससे उल्टा भी मानना है। और कुछ का बस यही मानना है किइससे उनके चैनल को फायदा होगा। इस तीन अध्याय वाली फिल्म की इस तीसरी कहानी मेंतीनों तरह के लोग हैं। ये कहानी बाकी दोनों कहानियों के मुकाबले हल्की और दूर की है। याशायद दूर की है, इसलिए हल्की लगी। लेकिन ये पक्का है कि दूर की है। इसलिए बहुत परेशानभी नहीं करती। इसमें भी, दूसरी कहानी की तरह, एक बहुत बड़ा moral decisionबीचों-बीच है। लेकिन पहली और दूसरी कहानी के personal सवालों के बाद इसके सवाल बहुतही दुनियावी, बहुत ही who-cares टाइप के लगते हैं।
शायद दिबाकर यही चाहते हों। कह नहीं सकते। लेकिन ये जरूर है कि तीनों कहानियों कीordering काफी दिलचस्प है। फिल्म बहुत ही impersonal note पर शुरू होती है – औरधीरे-धीरे personal होती जाती है। और फिर nudity की हद तक नज़दीक आने के बाद दूरजाना शुरू करती है। और अंत में इतनी दूर चली जाती है कि item song पर खत्म होती है।
लेकिन item song से कुछ बदलता नहीं। ये फिल्म अंधकार का ही उत्सव है। हमारी सभ्यता काएक बेहद disturbing दस्तावेज – जिसने पुराने मिथकों को तोड़ने की कोशिश की है, नये डरोंको जन्म दिया है, और अपने एक गीत में साफ़ कहा है – ‘सच सच मैं बोलने वाला हूं – मैं मनका बेहद काला हूं।’


(वरुण ग्रोवर आईआईटी से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद युवा फिल्‍मकार, पटकथा लेखक और समीक्षक हो गये। कई फिल्‍मों और टेलीविज़न कॉमेडी शोज़के लिए पटकथाएं लिखीं। 2008 में टावर्स ऑफ मुंबई नाम की एक डाक्यूमेंट्री फिल्‍म भी बनायी। प्रस्तुत लेख http://mohallalive.com से साभार)

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