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Thursday, March 25, 2010

मर्द, सेक्स और कैमरा



-रवीश कुमार

लव,सेक्स और धोखा। पूरी फिल्म में कैमरा वैसे ही देखता है जैसे हमारे समाज में मर्दों की नज़र मौका देखकर लड़कियों को देखती है। इस नज़र को बनाने में कई तरह की परिस्थितियां सहायक होती हैं। कैमरा अलग-अलग एंगल से अपनी नायिकाओं को तंग नज़रों की ऐसी गहराई में धकेलता है जहां हास्य पैदा करने की कोशिश, मर्दवादी विमर्श को ही स्थापित करती है। धोखा कुछ भी नहीं है। सब हकीकत है। हिलता-ड़ुलता एमेच्योर कैमरा अपने बोल्ड दृश्यों को उलट कर लड़कियों की निगाहों से भी मर्दों को देखता तो बराबरी की बात सामने आती। लड़कियों को बेचारी और शिकार की तरह देखकर अब अच्छा नहीं लगता। फिल्म में वो सेक्स को अपने हथियार की तरह इस्तेमाल करने की बजाय उसके साथ सरेंडर करती लगती हैं। फिल्म से यह उम्मीद इसलिए कि लव-सेक्स और धोखा बालीवुडीय सिनेमा और न्यूज़ चैनलों का क्रिटिक बनने की कोशिश करता है। निर्देशक की कोशिश है कि जैसा मर्द देखता है वैसा ही दिखा दो। नीतीश कटारा हत्याकांड की झलक और डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करने वाली लड़कियां और टीआरपी की कैद में फंसा एक ईमानदार पत्रकार। चालू गोरी लड़की शादी का कार्ड बांट कर निकल लेती है और सांवली लड़की अपने रूप के बेचारेपन का शिकार होकर यूट्यूब की गलियों में पहुंच जाती है। आत्महत्या से बचकर लौटी मिरिगनयना तू नंगी(बंदी) अच्छी लगती है गाने वाले लकी को फंसाने आती है। नहीं फंसा पाती। कैमरा सेक्स के मर्दवादी नज़रिये के हिसाब से ज़ूम इन होता रहता है। मर्दवादी नज़रिया अपने कैमरे के इस एंगल को जस्टीफाई करने के लिए कहानी का सहारा लेता है। एक तरह से आप देख सकते हैं कि हमारे समाज में लड़कों की नज़र में लड़कियों को कैसे बड़ा किया गया है। रूप-रंग-अंग। उपभोक्तावादी नज़रिया। जिन पर मर्दों की आंखों का अधिकार है। दिवाकर इस तस्वीर को मुंह पर दे मारते हैं। समाज के इस चिर सत्य को यह फिल्म क्यों बदल दे। इसी विमर्श के हिसाब से एक सवाल उठता है कि सारी बेकार लगने वाली लड़कियां ही नायिका क्यों हैं। कोई सेक्स बम जैसी नायिका नहीं है। उनकी लाचारी ही फिल्म के घटनाक्रम को क्यों आगे बढ़ाती है। किसी का पिता मर गया है तो कोई भाग कर आई है। फिर ठीक है ऐसी लाचार शिकार लड़कियों की कथा क्यों न कही जाए। कहानी के किरदार बीच बीच में लौट कर अच्छा प्रसंग बनाते हैं। स्टिंग आपरेशन की दुनिया में सरकार गिराने वाला पत्रकार खुद मीडिया के भीतर के स्टिंग में फंसा लगता है। चश्मा,मूंछ और उसका अनस्मार्ट लुक बेचारेपन के साथ मौजूद है। स्टिंग और ब्लैकमेल के विमर्श में अटका हुआ है। फिल्मकार ने संपादिका और चंपू का सही चित्रण किया है। आज मीडिया में जो भी हो रहा है वो इसी तरह के काबिल लोगों की देन है। न कि बाज़ार का दबाव। संपादिका अपने फार्मूले पर कायम है। फार्मूले से उसका विश्वास नहीं हिलता। फिल्मकार उसे जवाब देने की कोशिश नहीं करता। सिर्फ दो दिन का पेमेंट भरवा लेता है। वैसे ही जैसे सूचना मंत्रालय के नोटिसों का जवाब देकर पीछा छुड़ा लिया जाता है।हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने फिल्म कथाकारों को काफी खुराक दी है। चर्चगेट की चुड़ैल। स्टिंग की दुनिया का सच। जिसे अब न्यूज़ चैनलों ने खुद करना छोड़ दिया है। पर मीडिया का मज़ाक उड़ाना अच्छा लगता है। मीडिया मिशन नहीं है। सत्ता के करीब दिखने के लिए संविधान का अघोषित-अलिखित चौथा स्तंभ बन गया। खुद ही बोलता रहता है कि हम वाचडॉग है। बिना वॉच का डॉग बन गया है मीडिया। ये एक चाल है मीडिया को सत्ता प्रतिष्टान के रूप में कायम करने के लिए। चंद पत्रकारों के मिशन और संघर्षपूर्ण जीवन को भुना कर मीडिया उद्योग बाकी करतूतों को छुपाने के लिए नैतिकता का जामा पहन लेता है। पत्रकार के लिए पत्रकारिता मिशन है। कंपनी के लिए नहीं। एकाध मामूली अपवादों को छोड़ दें तो इसका प्रमाण लाना मुश्किल हो जाएगा। पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ एक धंधा है। जैसे साबुन बेचने वाला अपने साबुन को गोरा कर देने के अचूक मंत्र की तरह पेश करता है वैसे ही मीडिया कंपनी अपनी ख़बरों को। वरना उन लोगों से पूछिये जो न्यूज़ रूम में फोन करते रहते हैं कि बिल्डर ने सोसायटी में ताला बंद कर दिया है। आप प्लीज़ आ जाइये और कोई नहीं जाता। अच्छा है कि अब इस कंफ्यूज़न को विभिन्न मंचों से साफ किया जा रहा है।फिल्म बालीवुडीय सिनेमा का मज़ाक उड़ाती है। पिछले बीस सालों की एक बड़ी कथा राहुल और सिमरन का मज़ाक। उसे हास्य में बदलकर हमारे समय के सबसे बड़े नायक शाहरूख़ ख़ान की अभिनय क्षमता (जिस पर खुद उन्हें भी संदेह रहता है) का पोल खोल देती है। शाहरूख़ ख़ान बनना सिर्फ एक चांस की बात है। लव सेक्स और धोखा का एक मैसेज यह भी है। लुगदी साहित्य की तरह बनी यह फिल्म हमारे समय की तमाम लुगदियों की ख़बर लेती है। आदी सर का शुक्रिया अदा कर दिवाकर दिखा देते हैं कि फिल्मों का असर कल्पनाओं के कोने कोने में कैसा होता है। कैमरा का बांकपन ही बेहद आकर्षक पहलु है। यह एक बड़ा काम है। होम वीडियो सी लगने वाली कर्मिशयल फिल्म बनाना आसान काम नहीं। एक तरह से आप यह भी देख सकते हैं कि बंबई गए तमाम असफल फिल्मकारों,कथाकारों,नायक-नायिकाओं के सपने इस तरह की फिल्मों के पर्दे पर आकर सुपरहिट फिल्मों और फिल्मकारों को जूता मार रहे हैं। कहानी का नायक इंस्टीट्यूट के लिए फिल्म बना रहा है। यह फिल्म नहीं है। अ-फिल्म है। किसी महान फिल्म की बची खुची कतरनों से बनाई एक फिल्म। बहुत अच्छा प्रयोग है। फिल्म लोकप्रिय नहीं हो सकती। इंटरवल में जब काफी मांगा तो लड़के ने कहा कि फिल्म ने पका दिया न। कोई देखने नहीं आ रहा। मैंने कहा कि ऐसी बात तो नहीं। तो जवाब मिला कि अच्छा आप पके नहीं। प्रयोग बनाम फार्मूला के बीच फिल्म फंस गई है। वैसे ही जैसे न्यूज टीवी की दुनिया में ईमानदार पत्रकार फंस गया है। वैसे ही जैसे हमलोगों से लोग पूछ देते हैं कि भाई साहब आपके शो की रेटिंग क्यों नहीं आती। इसका जवाब तो है मगर देकर क्या फायदा। जीवन एकरेखीय नहीं होता। कई तरह की धारायें साथ चलती हैं। कभी कोई धारा ऊपर आ जाती है तो कभी कोई नीचे चली जाती है।कुछ लोगों को पसंद आने वाली फिल्म है। दिवाकर बनर्जी ने फिल्म पर आयोजित सेमिनारों में दिखाये जाने के लिए एक अच्छी फिल्म बना दी है। धीरजधारी लोगों को फिल्म पसंद आएगी। वर्ना न्यूज़ चैनलों के कबाड़ से पात्र उठाकर बनाई गई कहानियों का वही हश्र होता है जो रण से लेकर तमाम फिल्मों का हो चुका है। लगता है कि हमारे समय के कथाकार भी टीआरपी के झांसे में फंस कर अपना पैसा डुबा दे रहे हैं। उन्हें लगता है कि न्यूज़ चैनलों पर दिख रहा है, ज़रूर लोकप्रिय होगा तो बस उससे प्रेरणा लेकर फिल्म ही बना देते हैं। अख़बारों के कॉलमकारों ने इस फिल्म को चार-चार स्टार दिये हैं। फिर भी फिल्म को जनप्रिय बनाने में मदद नहीं मिल रही। कई बार निर्देशक शिकायत करते हैं कि उनकी फिल्म को रिव्यू नहीं मिली इसलिए नहीं चली। इस फिल्म के लिए यह शिकायत नहीं होनी चाहिए। वैसे चलने के लिए ही क्यों कोई फिल्म बनाये। दिवाकर का यही फैसला बड़ा लगता है।

(courtesy: http://www.naisadak.blogspot.com/)

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