Note:

New Delhi Film Society is an e-society. We are not conducting any ground activity with this name. contact: filmashish@gmail.com


Tuesday, September 8, 2009

'कमीने' के मायने


- के बिक्रम सिंह

कई दफा भाषा इतना आगे बढ़ जाती है कि वह सिर्फ भाषा बनकर रह जाती है, उसके अलावा कुछ नहीं। मशहूर कहावत 'माध्यम स्वयं संदेश है' का एक यह भी मतलब है कि माध्यम के पास कोई संदेश देने लायक है ही नहीं। हाल ही में जब मैंने विशाल भारद्वाज की फिल्म 'कमीने' देखी तो मेरे मन में बार-बार यही ख्याल आता रहा। 'कमीने' में तकनीकी चमक है, अच्छी ध्वनि है, रहस्यपूर्ण छायांकन है जो कुछ चीजें साफ दिखाता है और बहुत सारी चीज़ें केवल सुझाता है। संगीत भी ठीक-ठाक ही है, लेकिन इसमें बदहवास तेज़ी है जो दर्शक को सोचने समझने का मौका नहीं देती और न ही ऐसे किरदार हैं जो दर्शक के मन पर हमेशा के लिए छाप छोडें। इसलिए यह फिल्म केवल फिल्म-भाषा के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है, न कि एक कलाकृति के रुप में।

यदि हम कला-सिनेमा, जिसे मैं विचार-सिनेमा कहना ज़्यादा पसंद करता हूं, को अलग छोड़ दें तो मनोरंजन प्रधान सिनेमा में कुछ गिनी-चुनी ही फिल्में हैं जो फिल्म-भाषा के लिहाज से मील का पत्थर मानी जा सकती हैं। सिनेमा में ध्वनि आने के बाद कई दशकों तक भारतीय मुख्यधारा का सिनेमा एक सीधी गीतों भरी कहानी बनाने में ही मशगूल रहा। इसीलिए कई कहानी लेखक फिल्म के साथ जुड़े जिन्हे पटकथा लिखना बिलकुल नहीं आता था। फिल्म की भाषा साहित्यिक नहीं है क्योंकि वह केवल शब्दों पर निर्भर नहीं करती। फिल्म के लिए शब्द केवल एक तत्व है। बाकी और बहुत तत्व हैं जैसे कैमरा, शॉट लेने का तरीका, प्रकाश-संयोजन, सेट तथा लोकेशन, वेशभूषा, श्रृंगार, ध्वनि, पार्श्व-संगीत, कलाकर, अभिनय और एडिटिंग यानी संकलन इत्यादि। जिस लेखक को इन चीज़ों के बारे में ज्ञान नहीं है, वह फिल्म के लिए अच्छा पटकथा-लेखन नहीं कर सकता, क्योंकि किसी भी माध्यम में काम करने के लिए उसी माध्यम में सोचने की आवश्यकता है, चाहे वह साहित्य हो, चित्रकला हो या फिर सिनेमा।

मेरे विचार में 1975 में बनी 'शोले' ऐसी फिल्म थी जो फिल्म माध्यम में ही सोची गई थी। यह दीगर बात है कि उसे कुछ हॉलीवुड और कुछ कुरोसावा की 'सेवन समुराई' से चुराया गया था। इस फिल्म में लैंडस्केप, खुली लेकिन वीरानी कृति, साधारण जीवन से बड़े किरदार, एक ऐसी शाब्दिक भाषा जो हिंदी होते हुए भी न ही खड़ी बोली है और न ही किसी विशेष क्षेत्र की हिंदी, अच्छे किरदार तथा उत्कृष्ट ध्वनि एवं संगीत का इस्तेमाल कर जो फिल्म की एक नई भाषा गढ़ी गई वह भारतीय सिनेमा में पहले कभी देखने में नहीं आई थी। बहुत सालों के बाद सन 2004 में मणि रत्नम की 'युवा' ने फिल्म भाषा के इतिहास में एक नए मील के पत्थर की स्थापना की। इस फिल्म में तीन कहानियां अलग-अलग शुरू होती हैं, जो अंत में जाकर एक ही धारा में मिल जाती हैं। साहित्य जगत में यह तकनीक कई दफा इस्तेमाल की गई है, लेकिन हिंदी सिनेमा में मेरे ख्याल से यह पहली दफा देखा गया था।

लगभग पांच साल पहले जब मैंने विशाल भारद्वाज की 'मकबूल' (2004) फिल्म देखी थी तो मुझे यह लगा था कि यह फिल्म-निर्देशक सिनेमा से प्रयोग करने की हिम्मत कर सकता है। लेकिन 'मकबूबल' की सफलता उसके बनाने के ढंग पर कम और उसके कलाकरों और किरदारों पर ज्यादा निर्भर थी। मकबूल में कई पाए के कलाकार थे, जैसे पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, इरफान खान, पीयूष मिश्रा और तब्बू। ये सब ऐसे कलाकार हैं जो छोटे किरदार को भी जीवंत बना सकते हैं। इसके अलावा 'मकबूल' शेक्सपियर के नाटक 'मैकबेथ' पर आधारित थी और उसमें अतिनाटकीयता का भरपूर योग था।

इसके दो साल बाद 'ओमकारा' आई जो 'ओथेलो' पर आधारित थी। 'मकबूल' और 'ओमकारा' में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था। 'ओमकारा' आधुनिक नाटक की भाषा को बिलकुल तज कर फिल्म की अपनी एक भाषा गढ़ती है जो एक तरफ कहीं जाकर 'शोले' से मिलती है और दूसरी तरफ स्वांग और तमाशा की लोक नाटक शैलियों से, जिनमें 'खेला' पर अधिक ज़ोर रहता था। 'ओमकारा' में कोई बड़े कलाकार नहीं थे। इसमें अजय देवगन और करीना कपूर जैसे स्टार ज़रुर थे, लेकिन वे अपने अभिनय के लिए कुछ ज़्यादा नहीं जाने जाते थे।

'ओमकारा' ने यह सिद्ध कर दिया कि विशाल भारद्वाज साधारण कलाकारों से भी प्रभावशाली भूमिकाएं करवा सकता है। 'ओमकारा' के सबसे महत्वूर्ण 'लंगड़ा त्यागी' का किरदार सैफ अली खान ने निभाया था जो उस समय तक कुछ नर्म-गर्म शहरी किरदार निभाने के लिए जाना जाता था। विशाल भारद्वाज के निर्देशन में वह एक बिल्कुल नए रुप में उभर कर सामने आया, जिसके बाद सैफ अली खान के करियर को दूसरा जन्म मिला। 'ओमकारा' किसी भी घटनाक्रम को विस्तार से नहीं कहती, केवल इतना बताती है कि बाकी चीज़ें दर्शक खुद समझ जाएं। यह फिल्म संवाद का भी बहुत कम सहारा लेती है। शाब्दिक भाषा की दृष्टि से 'शोले' की ही तरह यह फिल्म भी एक नई भाषा गढ़ती है, जो न ही बुंदेलखंड की है, न ही राजस्थान की और न ही पूरब की। एक तरह की खिचड़ी है, लेकिन यह खिचड़ी अच्छी लगती है, और एक ऐसे देश का ज़रुर आह्वान करती है जहां पर 'ओमकारा' का घटनाक्रम घट सकता था।

इसके विपरीत 'कमीने' केवल हिंसा, हैंड-हेल्ड यानी हस्तचालित कैमरा, अंधेरे के प्रयोग और शोर भर ध्वनि पर निर्भर करती है। प्रियंका चोपड़ा के किरदार के अलावा कोई भी किरदार मन को नहीं छूता। जिस संसार में 'कमीने' के लोग रहते हैं वह शायद हॉलीवुड के निर्देशक क्वेंटिन तरनतीनो के संसार से प्रेरित हुआ है जो साधारण भारतीय दर्शक की कल्पनाशक्ति के बाहर है। यह सही है कि अब भारत की लगभग पचास प्रतिशत आबादी छोड़े-बड़े शहरों में रहती है, लेकिन इनमें रहने वाले लोग अब भी शहरों के अंधेरों के बाशिंदे नहीं हैं क्योंकि वे आज भी गांव के बहुत करीब हैं। इसमें शक नहीं कि विशाल भारद्वाज एक निहायत ही प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, किंदु यदि उन्हे क्राइजिसटोफ किस्लोविस्की का थोड़ा सा भी ऋण चुकाना है, जिनक फिल्में देखकर उन्हे फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली थी, तो उन्हे फिल्म भाषा के साथ-साथ फिल्म में विचार की तरफ भी ध्यान देना होगा। हमारे यहां विचारहीन सिनेमा की बहुतायत है। इसे और उत्कृष्ट बनाने के लिए विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक की आवश्यकता नहीं है।

(K Bikram Singh is a very senior writer, filmmaker & journalist. This article has been published in the hindi daily 'Hindustan'. Mr Singh can be contacted at kbikramsingh@bol.net.in)

7 comments:

  1. कमीने में विचार नहीं था क्या? मुझे लगा विचार ये था कि इस दुनिया में सब के सब कमीने हैं, ज़रा संभलकर रहो !
    आपने कहा- "जिस संसार में 'कमीने' के लोग रहते हैं वह शायद हॉलीवुड के निर्देशक क्वेंटिन तरनतीनो के संसार से प्रेरित हुआ है जो साधारण भारतीय दर्शक की कल्पनाशक्ति से बाहर है"
    - अब बेचारे विशाल ने कब कहा कि उन्होंने ये फ़िल्म साधारण भारतीय दर्शक के लिए बनाई है। और पर्दे पर बात अच्छी तरह रखी गई हो तो कहां का साधारण और कहां का असाधारण। जब 1975 में शोले को हाथों-हाथ लिया गया तो क्या कहानी के इस एकदम बदलाव के लिए रातों रात साधारण दर्शक, असाधारण में बदल गया था जैसा आपने ज्ञानवर्धन किया कि वो सैवन सैमुराय से प्रेरित थी। अब बेचारे इस'साधारण दर्शक' के बारे में सोचते हुए हम इतनी उदारता तो रख ही सकते हैं कि शोले के बाद के इन 35 सालों में ये ख़ुद को फ़िल्मों के चयन और ज़ायक़े के बारे में बेहतर बना पाया है। अगर ऐसा नहीं होता तो यक़ीन मानिए किसी में इतनी नई कहानियां कहने की हिम्मत नहीं होती ।

    ReplyDelete
  2. बिक्रम जी,

    शुक्रिया, मज़ा आया. सही बात है कि सिनेमा में बोली एक तत्व है, लेकिन कम-से-कम हिन्दुस्तानी सिने-इतिहास में शब्दों का बहुत महत्व है. हमारी फ़िल्में अपेक्षाकृत ज़्यादा बोलती हैं. हम फिल्मों को उनके गानों से याद रखते हैं, डायलॉग हमारे युग की सूक्तियाँ हैं, वैसे ही जैसे रामचरितमानस पढ़ने-गुने वाली पीढ़ियों के लिए गोसाईँ जी के दोहे और चौपाइयाँ. और अकारण नहीं है कि शोले को याद करते हुए हम उसके डायलॉग सबसे ज़्यादा याद करते हैं!

    ये दीगर बात है कि अब डायलॉग-युग का एक तरह से अंत हो गया है, लेकिन यह अंत काफ़ी लंबे समय में, और धीरे-धीरे हुआ है. जैसा कि एक मित्र ने कल फ़रमाया, मुग़ल-ए-आज़म में पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार के संवाद और उसकी अदायगी में जो फ़र्क़ है, वह पारसी थिएटर की उस हिन्दुस्तानी परंपरा और हॉलीवुड शैली की अदायगी का फ़र्क़ भी है, जो दिल चाहता है में आकर बिल्कुल मुख्यधारा बन जाता है.

    वैसे कमीने देखने के बाद और बात होगी.

    रविकान्त

    ReplyDelete
  3. अमित कुमार शर्माSeptember 8, 2009 at 1:19 PM

    कमीने मैं तेरा खून पी जाऊंगा... कमीन के बच्चे... कमीन की औलाद...कमीनों कुत्तों भगवान के लिए इसे छोड़ दो.. अब बात ये है कि कमीने तो हर युग में हुए.. लेकिन.. समय समय पर जैसे जैसे फिल्में बदली.. कमीने भी बदलते गए.. औऱ उसके मायने भी.... जहां तक इस कमीने का सवाल है.. तो ये वाकई कमीने है.. जी हां.. वाकई ये कमीनगर्दी है.... जब पहली बार मैंने इस फिल्म के बारे में सुना.. तो पहले तो मैं सोच में पड़ गया की ये कैसी भाषा है.. लेकिन बाद में जब फिल्म देखी तो समझ में आया की ये तो वाकई समय के मुताबिक बनाई गई फिल्म है.. जहां तक बाद है तकनीक है.. वो तो पहले से बेहतर है इसमें कोई शक नहीं है.. लेकिन.. जहां तक भाषा का सवाल है... उसमें तोड़ी और ज्यादा कमीनगर्दी की जा सकती थी.. यदी फिल्म समाज का आईना है.. तो ये ठीक है.. लेकिन मुझे लगता है समाज औऱ ज्यादा बिगड़ गया है.. गैर.. मुझे बाकी फिल्मों का इंतजार है.. साथ ही इस तरह के आपके लेकन का भी..

    ReplyDelete
  4. बचपन मे सुनी कहानियों का हमारे खुद के लिए कोई स्वरूप तो होता ही है। यह कहानियाँ हमे सीखने के लिए कुछ नहीं देती, मगर हम उन कहानियों से अपने लिए क्या रखते हैं? मगर शायद यह सिर्फ कहानियाँ नहीं है।

    http://awaraviews.wordpress.com/2009/08/13/vampires/

    http://awaraviews.wordpress.com/

    ReplyDelete
  5. आईना,
    हम आइने मे हमेशा अपने आगे वाले हिस्से को देखते हैं और आईने से जुड़ी जितनी भी कहावते हैं, कविताऐं है वो सब उस आगे को सोचते हुऐ हैं। क्या होता अगर कोई चीज़ उस पीछे के हिस्से से हमे वाकिफ कराती? शायद हम अपने आप को जिस तरह देखते हैं वो कुछ और होता। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि आईना को कैसे देखना यह हम चुनते हैं।

    ReplyDelete
  6. मोहल्ला लाईव.इन में मिहिर की कमीने के संगीत के तारीफ पढ़कर में चौंधिया गया था।

    लेकिन बाद में फिल्म देखी तो समझ में आया कि बाजार के दबाव में विशाल भारद्वाज भी नकलची बंदर होते जा रहे हैं। वाकई फिल्म में शोर, अंधेरे और विवेकहीन ठिशुंग-2 के अलावा कुछ खास नहीं है।
    लफ्फाजी खटकती है, विक्रम सही कह रहे हैं।

    ReplyDelete
  7. मुझे हैरानी है कि विशाल जैसे लोग सिर्फ अलग दिखने के लिए प्रयोग कर रहे हैं। कोई तो संदेश हो। बेकार का समय बर्बाद करने के लिए अगर फिल्में बना रहे हैं तब फिर कुछ कहा नहीं जा सकता। मैं माननीय प्रबुद्ध जी की बातों से असहमत हूं। जबतक दिल दिमाग में देर तक और कई दिनों तक हलचल पैदा न हो वैसा काम करने का क्या फायदा। ये तय है कि फिल्म को देखकर आम लोगों की राय को आप झुठला नहीं सकते। या तो भौंडापन करने वाला फिल्ममेकर हो, तब तो बात ही नहीं होनी चाहिए, और एक परंपरा की शुरुआत की है तो पब्लिक तो उम्मीद करेगी दोस्त। फिर सिर्फ तारीफ करने के लिए वाह-वाह करना मूर्खता है।

    ReplyDelete