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Sunday, March 8, 2009

ब्लैक डॉग थ्योरी और स्लमडॉग मिलियनेयर में समानता


- आलोक नंदन

क्या स्लम डाग मिलयेनेयर का इतिहास में स्थापित ब्लैक डॉग थ्योरी से कोई संबंध है ? किसी फिल्म के ऑस्कर में नामांकित होने और अवार्ड पाने की थ्योरी क्या है? कंटेंट और मेकिंग के लेवल पर स्लमडॉग मिलियनेयर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म जगत में अपना झंडा गाड़ चुकी है, और इसके साथ ही भारतीय फिल्मों में वर्षों से अपना योगदान दे रहे क्रिएटिव फील्ड की दो हस्तियों को भी अंतरराष्ट्रीय फिल्म पटल पर अहम स्थान मिला है। फिल्म की परिभाषा में यदि इसे कसा जाये तो तथाकथित बॉलीवुड (हॉलीवुड का पिच्छलग्गू नाम) से जुड़े लोगों को इससे फिल्म मेकिंग के स्तर पर बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, जो वर्षों से हॉलीवुड के कंटेंट और स्टाइल को यहां पर रगड़ते आ रहे हैं। वैसे यह फिल्म इतिहास को दोहराते हुये नजर आ रही है, ब्लैक डॉग थ्योरी और स्लमडॉग मिलियनेयर में कहीं न कहीं समानता दिखती है। क्या स्लमडॉग मिलियनेयर एक प्रोपगेंडा फिल्म है, फोर्टी नाइन्थ पैरलल (1941), वेन्ट दि डे वेल (1942), दि वे अहेड (1944), इन विच वी सर्व (1942) की तरह ? लंदन में बिग ब्रदर में शिल्पा शेट्टी को जेडी गुडी ने स्लम गर्ल कहा था। जिसे नस्लीय टिप्पणी का नाम देकर खूब हंगामा किया गया था और जिससे शिल्पा ने भी खूब प्रसिद्धि बटोरी थी। इंग्लैंड की एक यूनिवर्सिटी ने उसे डॉक्टरेट तक की उपाधि दे डाली थी। दिल्ली में हॉलीवुड के एक स्टार ने स्टेज पर शिल्पा को चूमकर इस बात का अहसास कराया था कि शिल्पा स्लम गर्ल के रूप में एक अछूत नहीं है। एक स्लम ब्याय इस फिल्म में एक टट्टी के गटर में गोता मारता है और मिलेनियम स्टार अमिताभ का ऑटोग्राफ हासिल करके हवा में हाथ उछालता है। क्या कोई मिलेनियम स्टार एक टट्टी लगे हाथ से ओटोग्राफ बुक लेकर ऑटोग्राफ देगा ? यदि इसे फिल्मी लिबर्टी कहा जाये तो बालीवुड की मसाला फिल्म बनाने वाले लोग भी इस लिबर्टी के बारे में कुछ भी कहेंगे तो उनकी बात बेमानी होगी, लेकिन बेस्ट स्क्रीन फिल्म के तौर पर इसे ऑस्कर दिया जाना ऑस्कर की अवॉर्ड मैकेनिज्म पर सवालिया निशान लगाता है।इफेक्ट के स्तर पर यह फिल्म लोगों को बुरी तरह से झकझोर रही है। यदि बॉडी लैंग्वेज की भाषा में कहा जाये तो लोग इस फिल्म के नाम से ही नाक भौं सिकोड़ रहे हैं, खासकर गटर शॉट्स को देखकर। इस फिल्म की कहानी कसी हुई है, और साथ में स्क्रिप्ट भी। इस फिल्म में प्रतीक का इस्तेमाल करते हुये स्लम पर हिन्दूवादी आक्रमण को दिखाया गया है और इस फिल्म के चाइल्ड प्रोटेगोनिस्ट के संवाद के माध्यम से राम और अल्लाह के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया गया है। 1947 में भारत का विभाजन इसी आधार पर हुआ था, जिसके लिए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा ज़मीन बहुत पहले से तैयार की जा रही थी। उस समय ब्रिटिश हुकूमत से जुड़े तमाम लोग भारत के प्रति ब्लैकडॉग की मानसिकता से ग्रसित थे और यही मानसिकता एक बार फिर स्लमडॉग मिलियनेयर के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय फिल्म पटल पर दिखाई दे रही है।व्हाइट मैन बर्डेन थ्योरी के आधार पर दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाने का दम भरने वालों को उस समय झटका लगा था जब शिल्पा शेट्टी ने बिग ब्रदर में नस्लीय टिप्पणी के खिलाफ झंडा खड़ा किया था और उसी दिन स्लमडॉग मिलियनेयर की पटकथा की भूमिका तैयार हो गई थी। पहले से लिखी गई एक किताब को आधार बनाया गया, जो भले ही व्हाइटमैन बर्डेन थ्योरी की वकालत नहीं करती थी, लेकिन जिसमें ब्लैकमैन थ्योरी को मजबूती से रखने के लिए सारी सामग्री मौजूद थे। यह फिल्म पूरी तरह से प्रोपगेंडा फिल्म है, जिसका उद्देश्य अधिक से अधिक कमाई करने के साथ-साथ ब्लैक डॉग की अवधारणा को कलात्मक तरीके से चित्रित करना है। यह फिल्म दुनियाभर में एक बहुत बड़े तबके के लोगों के इगो को संतुष्ट करती है, और इस फिल्म की सफलता का आधार भी यही है। भारतीय दर्शकों को आकर्षित करने के लिए भी मसाला फिल्म की परिभाषा पर इस फिल्म को मजबूती से कसा गया है। इस फिल्म में वो सारे फॉर्मूले हैं, जो आमतौर पर मुंबईया फिल्मों में होते हैं। इन फॉर्मूलों के साथ रियलिज्म के स्तर पर एक सशक्त कहानी को भी समेटा गया है, और प्रत्येक चरित्र को एक खास टोन प्रदान किया गया है। इस फिल्म में बिखरा हुया बचपन से लेकर, बाल अपराध तक की कथा को मजबूती से पिरोया गया है। साथ ही टीवी शो के रूप में एक चमकते हुये जुआघर को भी दिखाया गया है। फिल्म लावारिस में गटर की दुनिया का किरदार निभाने वाले और कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रम में प्रत्येक सवाल पर लोगों को लाखों रुपये देने वाले मिलेनियम स्टार अमिताभ बच्चन स्लमडॉग मिलियनेयर पर अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुके हैं। अपनी प्रतिक्रिया में इन्होंने इस फिल्म के कथ्य पर सवाल उठाया है, जिसका कोई मायने मतलब नहीं है, क्योंकि कथ्य के लिहाज से अपनी कई फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने क्या भूमिका निभाई है उन्हें खुद पता नहीं होगा। अनिल कपूर इस फिल्म में एक क्विज़ शो के एंकर की भूमिका निभा कर काफी खुश हैं। एक कलाकार के तौर पर उन्हें ऐसा लग रहा है कि वर्षों से इसी भूमिका के लिए वह अपने आप को मांज रहे थे। उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि आसमान को गले लगाने जैसी है। गुलजार और रहमान को भी इस फिल्म ने एक नई ऊंचाई पर लाकर खड़ा दिया है। यह इन दोनों के लिये सपनों से भी एक कदम आगे जाने जैसी बात है, हालांकि इस फिल्म पर हायतौबा मचाने वाले गुलजार और रहमान के प्रशंसकों का कहना है कि गुलजार और रहमान ने इसके पहले कई बेहतरीन गीतों की रचना की है और धुन बनाया है। भले ही इस फिल्म में उन्हें ऑस्कर मिल गया हो, लेकिन इससे कई बेहतर गीत और संगीत उनके खाते में दर्ज हैं।मुंबईया फिल्मों की कास्टिंग के दौरान जाने पहचाने फिल्मी चेहरों को खास तव्वजो दिया जाता है, स्लमडॉग मिलियनेयर में भी इस फार्मूले का मजबूती से अनुसरण किया गया है, साथ ही स्लम में रहने वाले बच्चों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है, जो इस फिल्म के मेकिंग स्टाइल को इटली के नियो-रियलिज्म फिल्म मूवमेंट के करीब ले जाता है, जहां पर शूटिंग के दौरान राह चलते लोगों से अभिनय करवाया जाता था। इस लिहाज से इस फिल्म को एक एक्सपेरिमेंटल फिल्म भी कहा जा सकता है। लेकिन इसके साथ ही यह फिल्म एक प्रोपगेंडा फिल्म है, जिसमें बड़े तरीके से एक स्लम गर्ल के सेक्सुअल एक्पलॉयटेशन को चित्रित किया गया है, जो कहीं न कहीं बिग ब्रदर के दौरान शिल्पा शेट्टी के बवाल से जुड़ा हुआ है और जिसकी जड़े बहुत दूर इतिहास के ब्लैक डॉग थ्योरी तक जाती हैं। टट्टी में डुबकी लगाता हुआ भारत का बचपन भारत की हकीकत नहीं है, लेकिन जिस तरीके से इसे फिल्माया गया है, उसे देखकर वर्ल्ड सिनेमा में रुचि रखने वालों के बीच भारत के बचपन की यही तस्वीर स्थापित होगी, जो निसंदेह भारत के स्वाभिमान पर एक बार फिर सोच समझ कर किया गया हमला है।इस फिल्म को बनाने के पहले ही इसे ऑस्कर के लिए खड़ा करने की खातिर मजबूत लांमबंदी शुरु हो गई थी, और इस उद्देश्य को पाने के लिए हर उस हथकंडे का इस्तेमाल किया गया, जो ऑस्कर पाने के लिए किया जाता है। अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ खड़ा होने वाले मोहन दास करमचंद गांधी कहा करते थे, अच्छे उद्देश्य के लिए माध्यम भी अच्छे होने चाहिये। माध्यम के लिहाज से इस फिल्म पर कोई उंगली नहीं उठा सकता, लेकिन इसके उद्देश्य को लेकर एक अनंत बहस की दरकार है। यह फिल्म भारत को दुनियाभर में नकारात्मक रूप से स्थापित करने का एक प्रोपगेंडा है, जिसमें उन सारे तत्वों को सम्मिलित किया है, जो एक फिल्म की व्यवसायिक सफलता के लिए जरूरी माने जाते हैं।

( आलोक नंदन एक संवेदनशील सिनेमाप्रेमी हैं। लंबे समय तक पत्रकारिता करने के बाद इन दिनों फिल्मों में सक्रिय हैं।)

2 comments:

  1. Namaskar mahoday,
    Aaj net par Film sambandhit jankariyon ki khoj karte hue mera aapke blog se sampark hua. Aapke Oskar Winning Film 'SlumDog Millioniar' ke bare mei vichar jankar hardik prasantta hui. Jitna dukh mujhe Superstar Amitabh Bachan w unki wife Smt. Jaya Bachan ke film ke prati apnaye gaye nakaratmak rup ko lekar tha...usse kahin adhik khushi mujhe aapke is artical ne pradaan ki. Bhut dukh hota hai jab log kisi movie ko movie ki tarah na lekar use apni aan, w jine marne ka prashan bana lete hein. SlumDog ko lekar bhi Bharat mei kai tarah ke vivad khade kiye gaye, jis tarah se aksar rajnitik muddo par hote rahe hain. Magar SlumDog ne in sabhi vivado ko ek taraf karte hue ithaas rach dala, w usi ke saath usne na kewal bhartiy nirdeshko ko ek nai disha mei sochne par majboor kiya, balki unko (Loveleen Tandoon) antrashtriy star par pahchan dilne mei bhi mahtwpurn bhumika nibhayi hai.
    Ek bar mein phir is article ke liye aapko dhanywad dete hue kahna chahunga ki, isi tarah aap hamesha nis-pksh hokar apne vichar prakat kare...kuki hamare desh ko inhi vichron ki jarurat hai, jo kisi sima se na bandhkar hamari antaraatma se nikalte ho.


    Ravinder Tomkoria Jai Ho

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  2. रिचर्ड ऐटनबरो की गांधी को जब कई आस्कर मिले थे तब भी कहा गया था कि यह पश्चिम का राजनैतिक फैसला है। किसी भारतीय मूल के व्यक्ति को नोबेल पुरस्कार मिलने पर भी यह मसला उठता है। पिछले दशक में थोड़े-थोड़े अंतराल पर कई भारतीय लड़कियों को मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड के ताज पहनाए गए तब भी ऐसा कहने वालों की कमी नहीं थी कि यह कुछ पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की रणनीति का हिस्सा है। उनकी दवा कंपनियां चुपचाप हमारे बच्चों पर अपनी नई दवाओं के प्रयोग करके चलती बनती हैं। पश्चिमी कंपनियां जब यहां कोल्ड ड्रिंक बेचती हैं तो उसमें पेस्टीसाइड्स की इतनी मात्रा रहती है जितनी पर उनके अपने देश में बवाल हो जाए। हम हर चीज में अपने प्रति पश्चिम के भेदभाव के सबूत तलाश सकते हैं। लेकिन यह उनका नजरिया है और हमें खुद तय करना होगा कि हमें क्या चाहिए। क्या हम आस्कर में अपनी फिल्में भेजना बंद कर सकते हैं? क्या हमारी लड़कियां मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना बंद कर सकती हैं? क्या हम फिल्मों और साहित्य इत्यादि के लिए अपने खुद के ऐसे पुरस्कार शुरू कर सकते हैं जो आस्कर और नोबेल को टक्कर दे सकें? हमारे मौजूदा फिल्म पुरास्कार तो इतने शर्मनाक हैं कि तमाम असहमति के बावजूद आस्कर में आपकी श्रद्धा बढ़ा दें।

    -सुशील कुमार सिंह
    sushilsing@gmail.com

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