- रवीश कुमार
माय नेम इज़ ख़ान हिन्दी की पहली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म है। हिन्दुस्तान,इराक,अफ़गानिस्तान,जार्जिया का तूफान और अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव। कई मुल्क और कई कथाओं के बीच मुस्लिम आत्मविश्वास और यकीन की नई कहानी है। पहचान के सवालों से टकराती यह फिल्म अपने संदर्भ और समाज के भीतर से ही जवाब ढूंढती है। किसी किस्म का विद्रोह नहीं है,उलाहना नहीं है बल्कि एक जगह से रिश्ता टूटता है तो उसी समय और उसी मुल्क के दूसरे हिस्से में एक नया रिश्ता बनता है। विश्वास कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसी कहानी शाहरूख जैसा कद्दावर स्टार ही कह सकता था। पात्र से सहानुभूति बनी रहे इसलिए वो एक किस्म की बीमारी का शिकार बना है। मकसद है खुद बीमार बन कर समाज की बीमारी से लड़ना। मुझे किसी मुस्लिम पात्र और नायक के इस यकीन और आत्मविश्वास का कई सालों से इंतज़ार था। राम मंदिर जैसे राष्ट्रीय सांप्रदायिक आंदोलन के बहाने हिन्दुस्तान में मुस्लिम पहचान पर जब प्रहार किया गया और मुस्लिम तुष्टीकरण के बहाने सभी दलों ने उन्हें छोड़ दिया,तब से हिन्दुस्तान का मुसलमान अपने आत्मविश्वास का रास्ता ढूंढने में जुट गया। अपनी रिपोर्टिंग और स्पेशल रिपोर्ट के दौरान मेरठ, देवबंद, अलीगढ़, मुंबई, दिल्ली और गुजरात के मुसलमानों की ऐसी बहुत सी कथा देखी और लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। जिसमें मुसलमान तुष्टीकरण और मदरसे के आधुनिकीकरण जैसे फालतू के विवादों से अलग होकर समय के हिसाब से ढलने लगा और आने वाले समय का सामना करने की तैयारी में शामिल हो गया। नुक़्ते के साथ ख़ान का तलफ्फ़ुज़ कैसे करें इस पर ज़ोर देकर बताता है कि आप मुसलमानों के बारे में कितना कम जानते हैं। मुझे आज भी वो दृश्य नहीं भूलता। अहमदाबाद के पास मेहसाणां में अमेरिका के देत्राएत से आए करोड़पति डॉक्टर नकादर। टक्सिडो सूट में। एक खूबसूरत बुज़ूर्ग मुसलमान। गांव में करोड़ों रुपये का स्कूल बना दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए। लेकिन पढ़ाने वाले सभी मज़हब के शिक्षक लिए गए। नकादर ने कहा था कि मैं मुसलमानों की एक ऐसी पीढ़ी बनाना चाहता हूं जो पहचान पर उठने वाले सवालों के दौर में खुद आंख से आंख मिलाकर दूसरे समाजों से बात कर सकें। किसी और को ज़रिया न बनाए। इसके लिए उनके स्कूल के मुस्लिम बच्चे हर सोमवार को हिन्दू इलाके में सफाई का काम करते हैं। ऐसा इसलिए कि शुरू से ही उनका विश्वास बना रहे। कोशिश होती है कि हर मुस्लिम छात्र का एक दोस्त हिन्दू हो। स्कूल में हिन्दू छात्रों को भी पढ़ने की इजाज़त है। नकादर साहब से कारण पूछा था। जवाब मिला कि कब तक हमारी वकालत दूसरे करेंगे। कब तक हम कांग्रेस या किसी सेकुलर के भरोसे अपनी बेगुनाही का सबूत देंगे। आज गुजरात में कांग्रेस हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों के भय से मुसलमानों को टिकट नहीं देती है। हम किसी को अपनी बेगुनाही का सबूत नहीं देना चाहते। हम चाहते हैं कि मुस्लिम पीढ़ी दूसरे समाज से अपने स्तर पर रिश्ते बनाए और उसे खुद संभाले। बीते कुछ सालों की यह मेरी प्रिय सत्य कथाओं में से एक है। लेकिन ऐसी बहुत सी कहानियों से गुज़रता चला गया जहां मुस्लिम समाज के लोग तालीम को बढ़ावा देने के लिए तमाम कोशिशें करते नज़र आए। उन्होंने मोदी के गुजरात में किसी कांग्रेस का इंतज़ार छोड़ दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए स्कूल बनाने लगे। रोना छोड़कर आने वाले कल की हंसी के लिए जुट गए। माइ नेम इज खान में मुझे नकादर और ऐसे तमाम लोगों की कोशिशें कामयाब होती नज़र आईं, जो आत्मविश्वास से भरा मुस्लिम मध्यमवर्ग ढूंढ रहे थे। फिल्म देखते वक्त समझ में आया कि इस कथा को पर्दे पर आने में इतना वक्त क्यों लगा। खुदा के लिए,आमिर और वेडनेसडे आकर चली गईं। इसके बाद भी ये फिल्म क्यों आई। ये तीनों फिल्में इंतकाम और सफाई की बुनियाद पर बनी हैं। इन फिल्मों के भीतर आतंकवाद के दौर में पहचान के सवालों से जूझ रहे मुसलमानों की झिझक,खीझ और बेचैनी थी। माइ नेम इज ख़ान में ये तीनों नहीं हैं। शाहरूख़ ख़ान आज के मुसलमानों के आत्मविश्वास का प्रतीक है। उसका किरदार रिज़वान ख़ान सफाई नहीं देता। पलटकर सवाल करता है। आंख में आंख डालकर और उंगलियां दिखाकर पूछता है। इसलिए यह फिल्म पिछले बीस सालों में पहचान के सवाल को लेकर बनी हिन्दी फिल्मों में काफी बड़ी है। अंग्रेज़ी में भी शायद ऐसी फिल्म नहीं बनी होगी। इस फिल्म में मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने की लाचारी भी नहीं है और न हीं उनकी पहचान को चुनौती देने वाले नरेंद्र मोदी जैसे फालतू के नेताओं की मौजूदगी है। यह फिल्म दुनिया के स्तर पर और दुनिया के किरदार-कथाओं से बनती है। हिन्दुस्तान की ज़मीं पर दंगे की घटना को जल्दी में छू कर गुज़र जाती है। यह बताने के लिए कि मुसलमान हिन्दुस्तान में जूझ तो रहा ही है लेकिन वो अब उन जगहों में भेद भाव को लेकर बेचैन है जिनसे वो अपने मध्यमवर्गीय सपनों को साकार करने की उम्मीद पालता है। अमेरिका से भी नफरत नहीं करती है यह फिल्म। माय नेम इज़ ख़ान की कथा में सिर्फ मुस्लिम हाशिये पर नहीं है। यह कथा सिर्फ मुसलमानों की नहीं है। इसलिए इसमें एक सरदार रिपोर्टंर बॉबी आहूजा है। इसलिए इसमें मोटल का मालिक गुजराती है। इसलिए इसमें जार्जिया के ब्लैक हैं। अमेरिका में आए तूफानों में मदद करने वाले ब्लैक को भूल गए। लेकिन माइ नेम इज़ ख़ान का यह किरदार किसी इत्तफाक से जार्जिया नहीं पहुंचता। जब बहुसंख्यक समाज उसे ठुकराता है,उससे सवाल करता है तो वो बेचैनी में अमेरिका के हाशिये के समाज से जाकर जुड़ता है। तूफान के वक्त रिज़वान उनकी मदद करता है। उसके पीछे बहुत सारे लोग मदद लेकर पहुंचते हैं। फिल्म की कहानी अमेरिका के समाज के अंतर्विरोध और त्रासदी को उभारती है और चुपचाप बताती है कि हाशिये का दर्द हाशिये वाला ही समझता है। इराक जंग में मंदिरा के अमेरिकी दोस्त की मौत हो जाती है। उसका बेटा मुसलमानों को कसूरवार मानता है। उसकी व्यक्तिगत त्रासदी उस सामूहिक पूर्वाग्रह में पनाह मांगती है जो एक दिन अपने दोस्त समीर की जान ले बैठती है। इधर व्यक्तिगत त्रासदी के बाद भी रिज़वान कट्टरपंथियों के हाथ नहीं खेलता। मस्जिद में हज़रत इब्राहिम का प्रसंग काफी रोचक है। यह उन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए है जो यथार्थ के किसी अन्याय के बहाने आतंकवाद के समर्थन में दलीलें पेश करते हैं। रिज़वान उन्हें पकड़वाने की कोशिश करता है। वो कुरआन शरीफ से हराता है फिर एफबीआई की मदद मांगता है। घटना और किरदार अमेरिका के हैं लेकिन असर हिन्दुस्तान के दर्शकों में हो रहा था। जार्ज बुश और बराक हुसैन ओबामा के बीच के समय की कहानी है। ओबामा मंच पर आते हैं और नई उम्मीद का संदेश देते हैं। यहीं पर फिल्म अमेरिका का प्रोपेगैंडा करती नज़र आती है। मेरी नज़र से इस फिल्म का यही एक कमज़ोर क्षण है। बराक हुसैन ओबामा रिज़वान से मिल लेते हैं। वैसे ही जैसे काहिरा में जाकर अस्सलाम वलैकुम बोलकर दिल जीतने की कोशिश करते हैं लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर उनकी कोई साफ नीति नहीं बन पाती। याद कीजिए ओबामा के हाल के भाषण को जिसमें वो युद्ध को न्यायसंगत बताते हैं और कहते हैं कि मैं गांधी का अनुयायी हूं लेकिन गांधी नहीं बन सकता।
इसके बाद भी यह हमारे समय की एक बड़ी फिल्म है। हॉल में दर्शकों को रोते देखा तो उनकी आंखों से संघ परिवार और सांप्रदायिक दलों की सोच को बहते हुए भी देखा। जो सालों तक हिन्दू मुस्लिम का खेल खेलते रहे। मुंबई में इसकी आखिरी लड़ाई लड़ी गई। कम से कम आज तक तो यही लगता है। एक फिल्म से दुनिया नहीं बदल जाती है। लेकिन एक नज़ीर तो बनती ही है। जब भी ऐसे सवाल उठाये जायेंगे कोई कऱण जौहर,कोई शाहरूख के पास मौका होगा एक और माइ नेम इज़ ख़ान बनाने का। फिल्म देखने के बाद समझ में आया कि क्यों शाहरूख़ ख़ान ने शिवसेना के आगे घुटने नहीं टेके। अगर शाहरूख़ माफी मांग लेते तो फिल्म की कहानी हार जाती है। ऐसा करके शाहरूख खुद ही फिल्म की कहानी का गला घोंट देते। शाहरूख़ ऐसा कर भी नहीं सकते थे। उनकी अपनी निजी ज़िंदगी भी तो इस फिल्म की कहानी का हिस्सा है। हिन्दुस्तान में तैयार हो रही नई मध्यमवर्गीय मुस्लिम पीढ़ी की आवाज़ बनने के लिए शाहरूख़ का शुक्रिया।
(साभार: naisadak.blogspot.com)