गुरुदत्त के बिना वर्ल्ड सिनेमा की बात करना बेमानी है। जिस वक्त फ्रांस में न्यू वेव मूवमेंट शुरु भी नहीं हुआ था, उस वक्त गुरुदत्त इस जॉनरा में बहुत काम कर चुके थे। फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के जन्मदाताओं ने उस समय दुनिया की तमाम फिल्मों को उलट-पलट कर खूब नाप-जोख किया, लेकिन भारतीय फिल्मों की ओर उनका ध्यान नहीं गया। गुरदत्त की फिल्मों का प्रदर्शन उस समय जर्मनी, फ्रांस और जापान में भी किया जा रहा था और सभी शो फुल जा रहे थे। गुरुदत्त हर स्तर पर वर्ल्ड सिनेमा को लीड कर रहे थे। 1950-60 के दशक में गुरुदत्त ने कागज़ के फूल, प्यासा, साहब बीवी और गुलाम और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्में बनाई थीं, जिनमें उन्होंने कंटेंट के लेवल पर फिल्मों के क्लासिकल पोयटिक एप्रोच को बरकरार रखते हुये रियलिज्म का भरपूर इस्तेमाल किया था, जो फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट की खास विशेषता थी। वर्ल्ड सिनेमा के परिदृश्य में गुरुदत और उनकी फिल्मों को समझने के लिए फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के थ्योरिटकल फॉर्मूलों का सहारा लिया जा सकता है, हालांकि गुरुदत्त अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे। सो किसी और फिल्म मूवमेंट के ग्रामर पर उन्हें नही कसा जा सकता। फ्रेंच न्यू वेव की बात फ्रांस की फिल्मी पत्रिका कैहियर डू सिनेमा से शुरु होती है। इस पत्रिका के सह-संस्थापक और संपादक आंद्रे बाजिन ने अपने अगल-बगल ऐसे लोगों की मंडली बना रखी थी, जो दुनियाभर की फिल्मों के पीछे खूब मगजमारी करते थे। फ्रान्कोई ट्रूफॉ, ज्यां-लुक गोदार, एरिक रोहमर, क्लाउड चाब्रोल और जैकस रिवेटी जैसे लोग इस इस मूवमेंट के खेवैया थे और थ्योरेटिकल लेवल पर फिल्म और उसकी तकनीक के पीछे हाथ धोकर पड़े हुये थे। ऑटर थ्योरी बाजिन के खोपड़ी की उपज थी, जिसे ट्रूफॉ ने सींच कर बड़ा किया। गुरु दत्त को इस फिल्म थ्योरी की कसौटी पर कसने से पहले, इस थ्योरी के विषय में कुछ जान लेना बेहतर होगा। ऑटर थ्योरी के मुताबिक एक फिल्मकार एक लेखक है और फिल्म उसकी कलम। यानि एक फिल्म का रूप और स्वरुप पूरी तरह से एक फिल्म बनाने वाले की सोच पर निर्भर करता है। इस थ्योरी को आगे बढ़ाने में अलेक्जेंडर अस्ट्रक ने कैमरा पेन जैसे तकनीकी शब्द का इस्तेमाल किया था। ट्रूफॉ ने अपने आलेख -फ्रांसीसी फिल्म में एक निश्चित चलन-में इस थ्योरी को मजबूती से स्थापित किया था। उसने लिखा था कि फिल्में अच्छी या बुरी नहीं होती है, बल्कि फिल्मकार अच्छे और बुरे होते हैं। फिल्मों में गुरुदत्त के बहुआयामी कामों को समेटने के लिए यह थ्योरी बहुत ही छोटी है, लेकिन इस थ्योरी के नजरिये से यदि हम गुरुदत्त को एक फिल्मकार के तौर पर देखते हैं, तो उनकी प्रत्येक फिल्म बड़ी मजबूती से उनके व्यक्तित्व को बयां करती है। फ्रेंच न्यू वेव के संचालकों की तरह ही गुरुदत्त ने भी सेकेंड वर्ल्ड वॉर के प्रभाव को करीब से देखा था। अलमोड़ा का उदय शंकर इंडियन कल्चरल सेंटर 1944 में गुरुदत्त के सामने ही सेकेंड वर्ल्ड वॉर के चलते बंद हुआ था। गुरुदत्त यहां पर 1941 से स्कॉलरशिप पर एक छात्र के रूप में रहे थे। बाद में मुंबई में बेरोजगारी के दौरान उन्होंने आत्मकथात्मक फिल्म प्यासा लिखी। इस फिल्म का वास्तविक नाम कशमकश था। फिल्मों की समीक्षा के लिए कुख्यात ट्रूफॉ को 1958 में जब कान फिल्म फेस्टिवल में घुसने नहीं दिया गया था, तो उसने 1959 में फोर हंड्रेड ब्लोज़ नाम की फिल्म बनाई था और कान फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म डायरेक्टर का अवॉर्ड झटक ले गया था। फोर हंड्रेड ब्लोज़ भी आत्मकथात्मक फिल्म थी, गुरुदत्त की प्यासा की तरह। फोर हंड्रेड ब्लोज़ में एक अटपटे किशोर की कहानी बयां की गई थी, जो उस समय की परिस्थियों में फिट नहीं बैठ रहा था, जबकि प्सासा में शायर युवक की कहानी थी,जिसे दुनिया ने नकार दिया था। अपनी फिल्मों पर पारंपरिक सौंदर्य के साथ ज़मीनी सच्चाई का इस्तेमाल करते हुये गुरुदत्त फ्रेंच न्यू वेव मूवमेंट से मीलों आगे थे। गुरुदत्त ने 1951 में अपनी पहली फिल्म बाजी बनाई थी। यह देवानंद के नवकेतन की फिल्म थी। इस फिल्म में 40 के दशक की हॉलीवुड की फिल्म तकनीक और तेवर को अपनाया गया था। इस फिल्म में गुरुदत्त ने 100 एमएम लेंस के साथ क्लोज-अप शॉट्स का इस्तेमाल किया था। इसके अतिरिक्त पहली बार कंटेट के लेवल पर गानों का इस्तेमाल फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया था। तकनीक और कंटेट दोनों के लेवल पर ये भारतीय सिनेमा को गुरुदत्त की प्रमुख देन हैं। बाज़ी के बाद गुरुदत्त ने जाल और बाज बनाई। इन दोनों फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास सफलता नहीं मिली थी। आरपार (1954), मि. और मिसेज 55, सीआईडी, सैलाब के बाद उन्होंने 1957 में प्यासा बनाई थी। उस वक्त फ्रांस में की ट्रूफॉट फोर हंड्रेड ब्लोज़ नहीं आई थी। प्यासा के साथ रियलिज्म की राह पर कदम बढ़ाने के साथ ही गुरुदत्त तेजी से डिप्रेशन की ओर भी बढ़ रहे थे। 1950 में बनी कागज के फूल गुरुदत्त की इस मनोवृति को व्यक्त करती है। इस फिल्म में सफलता के शिखर तक पहुंचकर गर्त में गिरने वाले डायरेक्टर की भूमिका गुरुदत्त ने खुद निभाई थी। यदि ऑटर थ्योरी पर यकीन करें तो यह फिल्म पूरी तरह से गुरुदत्त की फिल्म थी, और इस फिल्म में गुरुदत्त की एक फिल्मकार के रूप में सुपर अभिव्यक्ति है। 1964 में शराब और नींद की गोलियों का भारी डोज़ लेने के चलते हुई गुरुदत्त की मौत के बाद देवानंद ने कहा था, वह एक युवा व्यक्ति था, उसे डिप्रेसिव फिल्में नही बनानी चाहिय थीं। फ्रेच वेव के अन्य फिल्मकारों की तरह गुरुदत्त सिफ फिल्म के लिए फिल्म नहीं बना रहे थे, बल्कि उनकी हर फिल्म शानदार उपन्यास या काव्य की तरह कुछ न कुछ कह रही थी। वह अपनी खास शैली में फिल्म बना रहे थे, और उस दौर में वर्ल्ड सिनेमा में जड़ पकड़ रहे ऑटर थ्योरी को भी सत्यापित कर रहे थे। साहब बीवी और गुलाम का निर्देशन लेखक अबरार अल्वी ने किया था। इस फिल्म पर भी गुरुदत्त के व्यक्तित्व के स्पष्ट प्रभाव दिखाई देते हैं। एक फिल्म के पूरा होते ही गुरुदत्त रुकते नहीं थे, बल्कि दूसरी फिल्म की तैयारी में जुट जाते थे। एक बार उन्होंने कहा था, लाइफ में यार क्या है। दो ही तो चीज है, कामयाबी और फेल्यर। इन दोनों के बीच कुछ भी नहीं है। फ्रेंच वेव की रियलिस्टिक गूंज उनके इन शब्दों में सुनाई देती है, देखो ना, मुझे डायरेक्टर बनना था, बन गया, एक्टर बनना था बन गया, पिक्चर अच्छी बनानी थी, अच्छी बनी। पैसा है सबकुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा। फ्रेंच वेव मूवमेंट के दौरान ऑटर थ्योरी को स्थापित करने के लिए बाजिन और उसकी मंडली ने ज्यां रेनॉय, ज्या विगो,जॉन फॉड, अल्फ्रेड हिचकॉक और निकोलस रे की फिल्मों को आधार बनाया था, उनकी नजर उस समय भारतीय फिल्म के इस रियलिस्टिक फिल्मकार पर नहीं पड़ी थी। हालांकि समय के साथ गुरुदत्त की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पहचान मिली है। टाइम पत्रिका ने प्यासा को 100 सदाबहार फिल्मों की सूची में रखा है।
Note:
Monday, March 23, 2009
अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे गुरु दत्त
गुरुदत्त के बिना वर्ल्ड सिनेमा की बात करना बेमानी है। जिस वक्त फ्रांस में न्यू वेव मूवमेंट शुरु भी नहीं हुआ था, उस वक्त गुरुदत्त इस जॉनरा में बहुत काम कर चुके थे। फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के जन्मदाताओं ने उस समय दुनिया की तमाम फिल्मों को उलट-पलट कर खूब नाप-जोख किया, लेकिन भारतीय फिल्मों की ओर उनका ध्यान नहीं गया। गुरदत्त की फिल्मों का प्रदर्शन उस समय जर्मनी, फ्रांस और जापान में भी किया जा रहा था और सभी शो फुल जा रहे थे। गुरुदत्त हर स्तर पर वर्ल्ड सिनेमा को लीड कर रहे थे। 1950-60 के दशक में गुरुदत्त ने कागज़ के फूल, प्यासा, साहब बीवी और गुलाम और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्में बनाई थीं, जिनमें उन्होंने कंटेंट के लेवल पर फिल्मों के क्लासिकल पोयटिक एप्रोच को बरकरार रखते हुये रियलिज्म का भरपूर इस्तेमाल किया था, जो फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट की खास विशेषता थी। वर्ल्ड सिनेमा के परिदृश्य में गुरुदत और उनकी फिल्मों को समझने के लिए फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के थ्योरिटकल फॉर्मूलों का सहारा लिया जा सकता है, हालांकि गुरुदत्त अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे। सो किसी और फिल्म मूवमेंट के ग्रामर पर उन्हें नही कसा जा सकता। फ्रेंच न्यू वेव की बात फ्रांस की फिल्मी पत्रिका कैहियर डू सिनेमा से शुरु होती है। इस पत्रिका के सह-संस्थापक और संपादक आंद्रे बाजिन ने अपने अगल-बगल ऐसे लोगों की मंडली बना रखी थी, जो दुनियाभर की फिल्मों के पीछे खूब मगजमारी करते थे। फ्रान्कोई ट्रूफॉ, ज्यां-लुक गोदार, एरिक रोहमर, क्लाउड चाब्रोल और जैकस रिवेटी जैसे लोग इस इस मूवमेंट के खेवैया थे और थ्योरेटिकल लेवल पर फिल्म और उसकी तकनीक के पीछे हाथ धोकर पड़े हुये थे। ऑटर थ्योरी बाजिन के खोपड़ी की उपज थी, जिसे ट्रूफॉ ने सींच कर बड़ा किया। गुरु दत्त को इस फिल्म थ्योरी की कसौटी पर कसने से पहले, इस थ्योरी के विषय में कुछ जान लेना बेहतर होगा। ऑटर थ्योरी के मुताबिक एक फिल्मकार एक लेखक है और फिल्म उसकी कलम। यानि एक फिल्म का रूप और स्वरुप पूरी तरह से एक फिल्म बनाने वाले की सोच पर निर्भर करता है। इस थ्योरी को आगे बढ़ाने में अलेक्जेंडर अस्ट्रक ने कैमरा पेन जैसे तकनीकी शब्द का इस्तेमाल किया था। ट्रूफॉ ने अपने आलेख -फ्रांसीसी फिल्म में एक निश्चित चलन-में इस थ्योरी को मजबूती से स्थापित किया था। उसने लिखा था कि फिल्में अच्छी या बुरी नहीं होती है, बल्कि फिल्मकार अच्छे और बुरे होते हैं। फिल्मों में गुरुदत्त के बहुआयामी कामों को समेटने के लिए यह थ्योरी बहुत ही छोटी है, लेकिन इस थ्योरी के नजरिये से यदि हम गुरुदत्त को एक फिल्मकार के तौर पर देखते हैं, तो उनकी प्रत्येक फिल्म बड़ी मजबूती से उनके व्यक्तित्व को बयां करती है। फ्रेंच न्यू वेव के संचालकों की तरह ही गुरुदत्त ने भी सेकेंड वर्ल्ड वॉर के प्रभाव को करीब से देखा था। अलमोड़ा का उदय शंकर इंडियन कल्चरल सेंटर 1944 में गुरुदत्त के सामने ही सेकेंड वर्ल्ड वॉर के चलते बंद हुआ था। गुरुदत्त यहां पर 1941 से स्कॉलरशिप पर एक छात्र के रूप में रहे थे। बाद में मुंबई में बेरोजगारी के दौरान उन्होंने आत्मकथात्मक फिल्म प्यासा लिखी। इस फिल्म का वास्तविक नाम कशमकश था। फिल्मों की समीक्षा के लिए कुख्यात ट्रूफॉ को 1958 में जब कान फिल्म फेस्टिवल में घुसने नहीं दिया गया था, तो उसने 1959 में फोर हंड्रेड ब्लोज़ नाम की फिल्म बनाई था और कान फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म डायरेक्टर का अवॉर्ड झटक ले गया था। फोर हंड्रेड ब्लोज़ भी आत्मकथात्मक फिल्म थी, गुरुदत्त की प्यासा की तरह। फोर हंड्रेड ब्लोज़ में एक अटपटे किशोर की कहानी बयां की गई थी, जो उस समय की परिस्थियों में फिट नहीं बैठ रहा था, जबकि प्सासा में शायर युवक की कहानी थी,जिसे दुनिया ने नकार दिया था। अपनी फिल्मों पर पारंपरिक सौंदर्य के साथ ज़मीनी सच्चाई का इस्तेमाल करते हुये गुरुदत्त फ्रेंच न्यू वेव मूवमेंट से मीलों आगे थे। गुरुदत्त ने 1951 में अपनी पहली फिल्म बाजी बनाई थी। यह देवानंद के नवकेतन की फिल्म थी। इस फिल्म में 40 के दशक की हॉलीवुड की फिल्म तकनीक और तेवर को अपनाया गया था। इस फिल्म में गुरुदत्त ने 100 एमएम लेंस के साथ क्लोज-अप शॉट्स का इस्तेमाल किया था। इसके अतिरिक्त पहली बार कंटेट के लेवल पर गानों का इस्तेमाल फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया था। तकनीक और कंटेट दोनों के लेवल पर ये भारतीय सिनेमा को गुरुदत्त की प्रमुख देन हैं। बाज़ी के बाद गुरुदत्त ने जाल और बाज बनाई। इन दोनों फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास सफलता नहीं मिली थी। आरपार (1954), मि. और मिसेज 55, सीआईडी, सैलाब के बाद उन्होंने 1957 में प्यासा बनाई थी। उस वक्त फ्रांस में की ट्रूफॉट फोर हंड्रेड ब्लोज़ नहीं आई थी। प्यासा के साथ रियलिज्म की राह पर कदम बढ़ाने के साथ ही गुरुदत्त तेजी से डिप्रेशन की ओर भी बढ़ रहे थे। 1950 में बनी कागज के फूल गुरुदत्त की इस मनोवृति को व्यक्त करती है। इस फिल्म में सफलता के शिखर तक पहुंचकर गर्त में गिरने वाले डायरेक्टर की भूमिका गुरुदत्त ने खुद निभाई थी। यदि ऑटर थ्योरी पर यकीन करें तो यह फिल्म पूरी तरह से गुरुदत्त की फिल्म थी, और इस फिल्म में गुरुदत्त की एक फिल्मकार के रूप में सुपर अभिव्यक्ति है। 1964 में शराब और नींद की गोलियों का भारी डोज़ लेने के चलते हुई गुरुदत्त की मौत के बाद देवानंद ने कहा था, वह एक युवा व्यक्ति था, उसे डिप्रेसिव फिल्में नही बनानी चाहिय थीं। फ्रेच वेव के अन्य फिल्मकारों की तरह गुरुदत्त सिफ फिल्म के लिए फिल्म नहीं बना रहे थे, बल्कि उनकी हर फिल्म शानदार उपन्यास या काव्य की तरह कुछ न कुछ कह रही थी। वह अपनी खास शैली में फिल्म बना रहे थे, और उस दौर में वर्ल्ड सिनेमा में जड़ पकड़ रहे ऑटर थ्योरी को भी सत्यापित कर रहे थे। साहब बीवी और गुलाम का निर्देशन लेखक अबरार अल्वी ने किया था। इस फिल्म पर भी गुरुदत्त के व्यक्तित्व के स्पष्ट प्रभाव दिखाई देते हैं। एक फिल्म के पूरा होते ही गुरुदत्त रुकते नहीं थे, बल्कि दूसरी फिल्म की तैयारी में जुट जाते थे। एक बार उन्होंने कहा था, लाइफ में यार क्या है। दो ही तो चीज है, कामयाबी और फेल्यर। इन दोनों के बीच कुछ भी नहीं है। फ्रेंच वेव की रियलिस्टिक गूंज उनके इन शब्दों में सुनाई देती है, देखो ना, मुझे डायरेक्टर बनना था, बन गया, एक्टर बनना था बन गया, पिक्चर अच्छी बनानी थी, अच्छी बनी। पैसा है सबकुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा। फ्रेंच वेव मूवमेंट के दौरान ऑटर थ्योरी को स्थापित करने के लिए बाजिन और उसकी मंडली ने ज्यां रेनॉय, ज्या विगो,जॉन फॉड, अल्फ्रेड हिचकॉक और निकोलस रे की फिल्मों को आधार बनाया था, उनकी नजर उस समय भारतीय फिल्म के इस रियलिस्टिक फिल्मकार पर नहीं पड़ी थी। हालांकि समय के साथ गुरुदत्त की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पहचान मिली है। टाइम पत्रिका ने प्यासा को 100 सदाबहार फिल्मों की सूची में रखा है।
Thursday, March 19, 2009
In search of creative genius in Indian Cinema
Wednesday, March 18, 2009
The Journey of Firaaq…continues…
- Nandita Das
The journey of making Firaaq has been a cathartic experience that has pushed my boundaries in more ways than one. For me it is both a personal and a political film. It is a work of fiction, based on a thousand true stories. It was my response to the growing divide that was seeing all around me. That’s why the film is called Firaaq, an Urdu word that means separation. The other meaning of the word is quest, which also resonates with the hopeful aspect of the film. Firaaq explores the impact of violence on people and their relationships. Most films about riots are full of violence that they set out to critique. Instead I wanted to explore the fierce and delicate emotions, like fear, anxiety, prejudice and ambivalence that surfaces in such times.
I don’t remember exactly when the seed of this film was sown. It had to do with waking up to newspapers filled with stories of violence. It had to do with conversations about identity and the notion of the ‘other’ that would soon turn into arguments, polarizing people instantly. It had to do with meeting many victims of violence and even some who perpetrated it. But, most of all it had to do with those who remained willfully silent. The sadness, the anger, the helplessness kept growing and a deep desire to share all those stories with a larger group of people began to take roots. In some ways it became a personal catharsis. I didn’t start out looking for a story that I could direct, instead the stories compelled me to become a director.
The script started with one story but then there were all these other stories that were inside me, rearing to come out, and that’s how an ensemble structure evolved. The process of scripting Firaaq took three years and I found a great collaborator in Shuchi Kothari, a screenplay writer, based in Auckland, who shared similar concerns. The many drafts of the script were written between 2005 and 2008, through our meetings in India, UK and New Zealand, and via every conceivable medium of communication. We are especially indebted to Skype for those long distance sessions that finally shaped the screenplay! As we skyped our way through various drafts, national and world events continued to impact our perceptions and many conversations found their way, directly or indirectly into our writing. The long gestation period was good for the script because it allowed stories to breathe and the characters to grow in a more organic manner.
While writing the script, I would mentally start casting. Although I was not lucky enough to get all of them, the four I did were precious- Naseeruddin Shah, Paresh Rawal, Raghubir Yadav and Deepti Naval. I got to experience a diverse range of talent as I searched for my characters; and finally an incredible cast came together. In addition to the four gems we have Sanjay Suri, Tisca Chopra, Shahana Goswami and Nowaz, and each one of them is no less. But the most challenging casting was for Mohsin, a six-year-old child in the film. I looked at many children in about ten schools and finally found Mohd. Samad. His eyes are full of wonderment, innocence, intelligence and resilience and he makes a perfect Mohsin.
But shooting this film was like doing five short films, one after another. We moved to a new location and had different set of actors every five days, and I myself had to be in a different state of mind each time, to tell that particular story. To do a sync sound film where silence forms a large part of the soundscape, was not easy. In India to find silence in a city on any day at any time is asking for the impossible. On one occasion, when we needed pin drop silence in the middle of the night, there were 10,000 people gathered to watch the shoot, and our production team could not quite keep them at bay. When all failed, I took the mike and reached out to the people, with an impassioned speech. To every one’s surprise, it actually worked! And we shot rest of the night in peace.
The creative aspects seemed to be a fraction of things I had to look into - from securing permits at the local police station, to calling in favours from anybody and everybody that I knew, and answering a hundred different questions posed by ten different departments, at any given time. Guess in my 1st film I learnt more than I needed to! But in the midst of production issues and worrying about many different things, I had to keep my creative sanity intact, and keep the spirits of the cast and crew, high. Working with so many people, especially during the shoot was not easy as one has to deal with different personalities, psyches, different ways of working etc. but at the same time the synergy that emerges because of so many people coming together, is also exciting. So what was most important was to create a sense of equanimity for everyone, including me, so we could do our best best.
While shooting is the most essential part of the film making process, there is lots more after that, which was completely new to me. I personally found editing to be the most exciting part of the whole filmmaking process. For one, after the madness of the shoot, it is a great to be in a quiet room, with just one more person as your collaborator. Second, you feel that things are finally under your control as there is so much you can do in the process of editing. Although I had heard a million times that a film is really made at the editing table, I understood the true meaning of it only when I got into the editing room. And for this I had the best partner I could have ever wished for - Sreekar Prasad, an eminent editor, whose sensitivity and temperament were exactly what I needed.
I have enjoyed every phase of film making, with all its challenges, big and small. While it is a collaborative process, it is also a lonely one. I have never had to make so many decisions, multi task at all times and be responsible for so many different things. With almost 13 years of acting experience in more than 30 films, I expected the transition to not be a difficult one. But making a film entailed much more than what I could have ever imagined. From an actor to a director, is like taking a quantum leap!
But the journey doesn’t end with just that. Taking it to as many audiences as one can, becomes just as important. My festival journey began at the Telluride Film Festival, where the new films of the likes of Danny Boyle (Slumdog....) and Mike Leigh (happy go lucky) were being screened. I was apprehensive how a contextual and local film like Firaaq will resonate with people outside India. Also the bar there was so high that I wasn’t sure if it would live upto the expectations. Due to public demand, Firaaq was one of the three films that had an additional screening on the last day. After that there has been no looking back. Going by the reactions I have got thus far from audiences across board- Toronto, NY, London, Pusan (S. Korea), Thessaloniki (Greece), Singapore, Dubai, Karachi, France....the list continues...I feel far more reassured. I am truly overwhelmed by the amazing responses it continues to get. After every screening people want to engage, share their stories and ask a hundred questions. People of all race, community, age and nationality have had similar responses, so I feel Firaaq connects at a very primordial level. What more could I ask for?! Yes the awards were a bonus and now we are spoilt, as every competition it has entered, it has one at least one award! But what I am most waiting for is the India release, on the 20th of March. For me this film is not an end in itself. The issue of sectarian violence is dividing our pluralist country and I think the dialogue it will trigger will be very important. But I also believe that having good intentions is not enough; the form it adopts in telling the story is just as vital. But I am happy that the intent with which I made Firaaq is being fulfilled and it has been well worth making it, against all odds.
(Firaaq is Nandita Das' directorial debut film. The film, scheduled to be released on 20th March, has already won 7 international awards. Nandita has sent this director's note for New Delhi Film Society.)
Sunday, March 15, 2009
Film Review: Gulaal
Unapologetic, cares two hoots about everyone including the censors…if it thinks his films can’t do without an ‘A’ then be it...Here is one man who would not stoop low to please the producers or censors or moral brigade even if it takes five years to get his films released. That you call the power of conviction and that precisely is the reason why you have to have an opinion on his films and that too a strong one: unbearable or excellent, most of the time.
Gulaal, Anurag Kashyap’s latest outing in an election year is bound to create ripples for all the right reasons. The opening scene sets the tone for the story: Rajputana is to be freed as the Indian Govt has not only snatched the Princes’ privy purses but also failed to deliver on promises. Dukey Bana(Kay Kay) is the chosen man for the job. From the bigger picture to the not so bigger: student politics. A seedha-sada boy, Dileep(Raja Singh Chaudhary) who comes to study in Rajpur is sucked into politics after being stripped and ragged. He gets a crash-course in duniyadari from his room-mate, Rananjay Singh Ransa (Abhimanyu Singh) who is the angst ridden son of an erstwhile king. Dukey Bana is the uncrowned king of the town. He convinces Ransa to contest university election who finds his own illegitimate sister, Kiran (Ayesha Mohan) against him. He is killed by Karan ( Aditya Srivastava), his illegitimate brother who has some big plans for himself and his sister. Dileep is made to replace Ransa and win a rigged election by Dukey Bana. And from here starts Dileep’s journey downhill. He is seduced by Kiran to her advantage. She becomes the General Secy. of the union who later goes on to seduce Dukey Bana coz her brother, Karan wants to replace him as the senapati of the free Rajputana movement. The dirty game of politics becomes a bit heavy for Dileep who is already dejected by Kiran’s betrayal.
Gulaal has some bloody red (passionate) performances. Kay Kay as Dukey Bana steals the show whichever frame he stands in. Abhimanyu Singh gives an in-your-face performance who by the way, is also given some of the finest dialogues that he delivers with panache. Dileep’s character leaves a little more to be desired though he leaves an impact and is certainly a lambi race ka ghoda. Aditya as the restrained rogue is awesome. Mahie Gill in a loud cameo is lovable. Ayesha Mohan is the find of the film. Ah, this gives me immense pleasure- yes, Deepak Dobriyal as the right hand man of Dukey Bana and Piyush Mishra, the lost-in-his-own-world brother of Dukey Bana. One, who speaks also when he is silent and the other who utters gibberish and makes sense. Jesse Randhawa doesn’t get much scope in her ill drawn character of a ragged teacher.
If the first half gives you no time to look who is sitting next to you, the second half is a little sluggish. The film handles too many issues at one go- student politics, ragging, separatist state movements (you will be clearly reminded of Raj Thackeray in one scene where Dileep tells Dukey Bana that Rajputana is not for the Rajuputs alone) illegitimate children of the royals and hunger for power. Kudos to Piyush Mishra for Gulaal’s music and lyrics which give the film its authenticity, force, appeal and help take the narrative forward. The film not only has the best of lyrics but also the acidic dialogues (lend an ear!) And hey, like all his films, Gulaal too is high on metaphors. Just do yourself a favor- try to find as many as you can. A little observation and attention in the scenes and I promise you a smile on your face, enriching your movie watching experience. BTW, the first time Kiran meets Dileep asking for favors, the background wall screams of a lager beer ad- Democracy Lager- for strong people! ! !
Don’t go for this film if you are looking for some light entertainment. It won’t give you any. It hits you hard… hard in your face, tough on your heart, thought provoking for your brain. Watch it for some original brainwash !
(Prabuddha is a tv journalist by profession and a cinema lover by default)
Sunday, March 8, 2009
ब्लैक डॉग थ्योरी और स्लमडॉग मिलियनेयर में समानता
क्या स्लम डाग मिलयेनेयर का इतिहास में स्थापित ब्लैक डॉग थ्योरी से कोई संबंध है ? किसी फिल्म के ऑस्कर में नामांकित होने और अवार्ड पाने की थ्योरी क्या है? कंटेंट और मेकिंग के लेवल पर स्लमडॉग मिलियनेयर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म जगत में अपना झंडा गाड़ चुकी है, और इसके साथ ही भारतीय फिल्मों में वर्षों से अपना योगदान दे रहे क्रिएटिव फील्ड की दो हस्तियों को भी अंतरराष्ट्रीय फिल्म पटल पर अहम स्थान मिला है। फिल्म की परिभाषा में यदि इसे कसा जाये तो तथाकथित बॉलीवुड (हॉलीवुड का पिच्छलग्गू नाम) से जुड़े लोगों को इससे फिल्म मेकिंग के स्तर पर बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, जो वर्षों से हॉलीवुड के कंटेंट और स्टाइल को यहां पर रगड़ते आ रहे हैं। वैसे यह फिल्म इतिहास को दोहराते हुये नजर आ रही है, ब्लैक डॉग थ्योरी और स्लमडॉग मिलियनेयर में कहीं न कहीं समानता दिखती है। क्या स्लमडॉग मिलियनेयर एक प्रोपगेंडा फिल्म है, फोर्टी नाइन्थ पैरलल (1941), वेन्ट दि डे वेल (1942), दि वे अहेड (1944), इन विच वी सर्व (1942) की तरह ? लंदन में बिग ब्रदर में शिल्पा शेट्टी को जेडी गुडी ने स्लम गर्ल कहा था। जिसे नस्लीय टिप्पणी का नाम देकर खूब हंगामा किया गया था और जिससे शिल्पा ने भी खूब प्रसिद्धि बटोरी थी। इंग्लैंड की एक यूनिवर्सिटी ने उसे डॉक्टरेट तक की उपाधि दे डाली थी। दिल्ली में हॉलीवुड के एक स्टार ने स्टेज पर शिल्पा को चूमकर इस बात का अहसास कराया था कि शिल्पा स्लम गर्ल के रूप में एक अछूत नहीं है। एक स्लम ब्याय इस फिल्म में एक टट्टी के गटर में गोता मारता है और मिलेनियम स्टार अमिताभ का ऑटोग्राफ हासिल करके हवा में हाथ उछालता है। क्या कोई मिलेनियम स्टार एक टट्टी लगे हाथ से ओटोग्राफ बुक लेकर ऑटोग्राफ देगा ? यदि इसे फिल्मी लिबर्टी कहा जाये तो बालीवुड की मसाला फिल्म बनाने वाले लोग भी इस लिबर्टी के बारे में कुछ भी कहेंगे तो उनकी बात बेमानी होगी, लेकिन बेस्ट स्क्रीन फिल्म के तौर पर इसे ऑस्कर दिया जाना ऑस्कर की अवॉर्ड मैकेनिज्म पर सवालिया निशान लगाता है।इफेक्ट के स्तर पर यह फिल्म लोगों को बुरी तरह से झकझोर रही है। यदि बॉडी लैंग्वेज की भाषा में कहा जाये तो लोग इस फिल्म के नाम से ही नाक भौं सिकोड़ रहे हैं, खासकर गटर शॉट्स को देखकर। इस फिल्म की कहानी कसी हुई है, और साथ में स्क्रिप्ट भी। इस फिल्म में प्रतीक का इस्तेमाल करते हुये स्लम पर हिन्दूवादी आक्रमण को दिखाया गया है और इस फिल्म के चाइल्ड प्रोटेगोनिस्ट के संवाद के माध्यम से राम और अल्लाह के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया गया है। 1947 में भारत का विभाजन इसी आधार पर हुआ था, जिसके लिए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा ज़मीन बहुत पहले से तैयार की जा रही थी। उस समय ब्रिटिश हुकूमत से जुड़े तमाम लोग भारत के प्रति ब्लैकडॉग की मानसिकता से ग्रसित थे और यही मानसिकता एक बार फिर स्लमडॉग मिलियनेयर के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय फिल्म पटल पर दिखाई दे रही है।व्हाइट मैन बर्डेन थ्योरी के आधार पर दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाने का दम भरने वालों को उस समय झटका लगा था जब शिल्पा शेट्टी ने बिग ब्रदर में नस्लीय टिप्पणी के खिलाफ झंडा खड़ा किया था और उसी दिन स्लमडॉग मिलियनेयर की पटकथा की भूमिका तैयार हो गई थी। पहले से लिखी गई एक किताब को आधार बनाया गया, जो भले ही व्हाइटमैन बर्डेन थ्योरी की वकालत नहीं करती थी, लेकिन जिसमें ब्लैकमैन थ्योरी को मजबूती से रखने के लिए सारी सामग्री मौजूद थे। यह फिल्म पूरी तरह से प्रोपगेंडा फिल्म है, जिसका उद्देश्य अधिक से अधिक कमाई करने के साथ-साथ ब्लैक डॉग की अवधारणा को कलात्मक तरीके से चित्रित करना है। यह फिल्म दुनियाभर में एक बहुत बड़े तबके के लोगों के इगो को संतुष्ट करती है, और इस फिल्म की सफलता का आधार भी यही है। भारतीय दर्शकों को आकर्षित करने के लिए भी मसाला फिल्म की परिभाषा पर इस फिल्म को मजबूती से कसा गया है। इस फिल्म में वो सारे फॉर्मूले हैं, जो आमतौर पर मुंबईया फिल्मों में होते हैं। इन फॉर्मूलों के साथ रियलिज्म के स्तर पर एक सशक्त कहानी को भी समेटा गया है, और प्रत्येक चरित्र को एक खास टोन प्रदान किया गया है। इस फिल्म में बिखरा हुया बचपन से लेकर, बाल अपराध तक की कथा को मजबूती से पिरोया गया है। साथ ही टीवी शो के रूप में एक चमकते हुये जुआघर को भी दिखाया गया है। फिल्म लावारिस में गटर की दुनिया का किरदार निभाने वाले और कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रम में प्रत्येक सवाल पर लोगों को लाखों रुपये देने वाले मिलेनियम स्टार अमिताभ बच्चन स्लमडॉग मिलियनेयर पर अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुके हैं। अपनी प्रतिक्रिया में इन्होंने इस फिल्म के कथ्य पर सवाल उठाया है, जिसका कोई मायने मतलब नहीं है, क्योंकि कथ्य के लिहाज से अपनी कई फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने क्या भूमिका निभाई है उन्हें खुद पता नहीं होगा। अनिल कपूर इस फिल्म में एक क्विज़ शो के एंकर की भूमिका निभा कर काफी खुश हैं। एक कलाकार के तौर पर उन्हें ऐसा लग रहा है कि वर्षों से इसी भूमिका के लिए वह अपने आप को मांज रहे थे। उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि आसमान को गले लगाने जैसी है। गुलजार और रहमान को भी इस फिल्म ने एक नई ऊंचाई पर लाकर खड़ा दिया है। यह इन दोनों के लिये सपनों से भी एक कदम आगे जाने जैसी बात है, हालांकि इस फिल्म पर हायतौबा मचाने वाले गुलजार और रहमान के प्रशंसकों का कहना है कि गुलजार और रहमान ने इसके पहले कई बेहतरीन गीतों की रचना की है और धुन बनाया है। भले ही इस फिल्म में उन्हें ऑस्कर मिल गया हो, लेकिन इससे कई बेहतर गीत और संगीत उनके खाते में दर्ज हैं।मुंबईया फिल्मों की कास्टिंग के दौरान जाने पहचाने फिल्मी चेहरों को खास तव्वजो दिया जाता है, स्लमडॉग मिलियनेयर में भी इस फार्मूले का मजबूती से अनुसरण किया गया है, साथ ही स्लम में रहने वाले बच्चों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है, जो इस फिल्म के मेकिंग स्टाइल को इटली के नियो-रियलिज्म फिल्म मूवमेंट के करीब ले जाता है, जहां पर शूटिंग के दौरान राह चलते लोगों से अभिनय करवाया जाता था। इस लिहाज से इस फिल्म को एक एक्सपेरिमेंटल फिल्म भी कहा जा सकता है। लेकिन इसके साथ ही यह फिल्म एक प्रोपगेंडा फिल्म है, जिसमें बड़े तरीके से एक स्लम गर्ल के सेक्सुअल एक्पलॉयटेशन को चित्रित किया गया है, जो कहीं न कहीं बिग ब्रदर के दौरान शिल्पा शेट्टी के बवाल से जुड़ा हुआ है और जिसकी जड़े बहुत दूर इतिहास के ब्लैक डॉग थ्योरी तक जाती हैं। टट्टी में डुबकी लगाता हुआ भारत का बचपन भारत की हकीकत नहीं है, लेकिन जिस तरीके से इसे फिल्माया गया है, उसे देखकर वर्ल्ड सिनेमा में रुचि रखने वालों के बीच भारत के बचपन की यही तस्वीर स्थापित होगी, जो निसंदेह भारत के स्वाभिमान पर एक बार फिर सोच समझ कर किया गया हमला है।इस फिल्म को बनाने के पहले ही इसे ऑस्कर के लिए खड़ा करने की खातिर मजबूत लांमबंदी शुरु हो गई थी, और इस उद्देश्य को पाने के लिए हर उस हथकंडे का इस्तेमाल किया गया, जो ऑस्कर पाने के लिए किया जाता है। अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ खड़ा होने वाले मोहन दास करमचंद गांधी कहा करते थे, अच्छे उद्देश्य के लिए माध्यम भी अच्छे होने चाहिये। माध्यम के लिहाज से इस फिल्म पर कोई उंगली नहीं उठा सकता, लेकिन इसके उद्देश्य को लेकर एक अनंत बहस की दरकार है। यह फिल्म भारत को दुनियाभर में नकारात्मक रूप से स्थापित करने का एक प्रोपगेंडा है, जिसमें उन सारे तत्वों को सम्मिलित किया है, जो एक फिल्म की व्यवसायिक सफलता के लिए जरूरी माने जाते हैं।
गुलाल: ये क्या बोल हुए...
पहले गाने के बोल को लेते हैं,सुनसान गली के नुक्कड़ पर जो कोई कुत्ता चीख चीख कर रोता है......वाह क्या बोल है....अब कोई बताएगा कि कुत्ता चीख चीख कर कैसे रोता है...जहां तक मुझे पता है कि कुत्ता हू हू कर के रोता है...बचपन से मैं कुत्तों को एसे ही रोते हुये सुनता और देखता हूं...भाई गीत कोई भी लिख सकता है...लेकिन गीतों को जोड़ने वाली कड़ी तो दुरुस्त होनी चाहिये...गालिब, मजाज़,फैज़, फिराक और मीर को लेकर बनाई लिखी गई पंक्तियां क्या कहना चाह रही है पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है...सबकुछ गड्मगड् कर रखा है....चंबल घाटी है, सिर्फ फिल्मों में ही चंबल में घोड़े दौड़ते हैं...यकीन नहीं हो तो फूलन देवी बता देंगी...ओह अफसोस वह नहीं रही...लेकिन चंबल तो है....भाई बहुत हुआ...हो सकता है ये बोल धुन पर सुनने में अच्छे लगे...लेकिन ग्रेटनेस वाली कोई बात नहीं है.....वैसे इसे कोई ग्रेट मान रहा है तो उसकी मर्जी....जब गीत के बोल रियलिज्म को कैरी कर रहे हैं तो उसमें पूरी तरह से रियलिज्म हो...तार्किकता को परे रख कर रोमांटिसिज्म की ओर बढ़ सकते हैं...यहां तो पूरा मामला अधकचरा हो गया है....उम्मीद है धुन पर इन्हें सुनने में अच्छा लगेगा....
( आलोक नंदन लंबे समय तक पत्रकारिता करने के बाद इन दिनों फिल्मों में सक्रिय हैं। प्रबुद्ध का लेख पढ़ने के बाद ये उनकी पहली प्रतिक्रिया थी जो उन्होने हमें भेजी )
Thursday, March 5, 2009
Are You Ready for the Storm Called Gulaal ?
The lyrics have been penned by Piyush Mishra, the same man who won Filmfare for Best Dialogues for The Legend of Bhagat Singh. He has penned 8 songs and hold your breath, composed them. And what if I tell you that he has lent his wonderful voice to some of them... Yes, versatility doesn’t get any better. Poetry in some songs gets your hair stand on ends. Piyush has written something that would easily put him in the category of greats just for this one film, even if he goes on to write nothing as great after this (hope not). By now you must be thinking what I am up to. Has he hired me to do his PR? No, he hasn’t. Its just that sometimes you come across works which have that other world feel about them- unconventional, revolutionary, innovative, ground-breaking. Take a look at the following from the song, Shahar:
सुनसान गली के नुक्कड़ पर जो कोई कुत्ता चीख़ चीख़ कर रोता है
जब लैम्प पोस्ट की गंदली पीली घुप्प रोशनी में कुछ कुछ सा होता है
जब कोई साया ख़ुद को थोड़ा बचा बचा कर गुम सायों में खोता है
जब पुल के खंभों को गाड़ी का गरम उजाला धीमे धीमे धोता है
तब शहर हमारा सोता है….तब शहर हमारा सोता है
Or
इधर चीख़ती है इक हव्वा ख़ैराती उस अस्पताल में बिफ़री सी
हाथ में उसके अगले ही पल गरम मांस का नरम लोथड़ा होता है
जब शहर हमारा सोता है
तो मालूम तुमको हां क्या क्या क्या होता है
Now you know what I meant. Its not false praise. He deserves all the accolades for this. Another song- Duniya is a tribute to Sahir Ludhianvi and other greats. It gets its inspiration from Yeh duniya agar mil bhi jaye to kya hai from Pyaasa. The song is original in lyrics and music. Piyush renders the song in his own inimitable way. It’s a pleasure to hear Duniya will be an insult to the song… Its much more than that. An experience that compels you to revisit it many a time.
मजाज़ों के उन इंक़िलाबों की दुनिया
फ़ैज़, फ़िराक़ ओ साहिर ओ मख़ूदम
मीर की ज़ौक़ की दाग़ों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
Piyush knows well how to describe siski of a seductress. And how exactly does he do this in the composition- Beeda laced in Rekha Bhardwaj’s vocals- a voice that seduces you to the core.. See for yourself.
संकट ऐसा सिलवट से कोई हाल भांप ले जी
करवट ऐसी दूरी से कोई हाथ ताप ले जी
निकले सिसकी जैसे बोतल का कार्क जो उड़ा हो
धड़कन जैसे चंबल में घोड़ा भाग जो खड़ा हो
अंगिया भी लगे है जैसे सौ सौ मन का भार
मन बोले चकमक, हाय चकमक, चकमक......
One song that catches you unaware and makes your expressions taut is—Aarambh, a song which has all the attributes of becoming a sort of anthem:
आरंभ है प्रचंड, बोले मस्तकों के झुंड
आज जंग की घड़ी कि तुम गुहार दो
आन बान शान या कि जान का हो दान
आज इक धनुण के बाण पे उतार दो
मौत अंत है नहीं तो
मौत से भी क्यूं डरें
ये जाके आसमान में दहाड़ दो
जिस कवि की कल्पना में ज़िंदगी हो प्रेम गीत
उस कवि को आज तुम नकार दो....
I don’t know which genre do we put a song like Ranaji in, its full of political allusions. Go thru this track with a broad smile on your face:
राणाजी हमरे गुस्से में आए
ऐसो बलखाए
अगिया बरसाए
घबराए म्हारो चैन
जैसे दूर देस के टावर में घुस जाए रे एरोप्लेन
सजनी को डीयर बोले
ठर्रे को बीयर बोले
मांगे है इंगलिस बोली
मांगे है इंगलिस चोली
जैसे बिसलेरी की बोतल पीके बन गए इंगलिस मैन
...जैसे हरेक बात पे डेमोक्रेसी में लगने लग गए बैन
...जैसे सरे आम इराक़ में जाके जम गए अंकल सैम
There are three other songs as magnificently done as the above. The best thing about Piyush and his lyrics is that he doesn’t carry any baggage. He is a free spirited soul who writes what he believes is correct. That’s why sometimes the imagery doesn’t fit in your general conscience the first time you hear it but once comprehended, you bow for the master writer. As for the music, Piyush’s minimalist music in veer-ras songs not only complements the vocals but actually enhances the whole impact multifold. He has given a unique flavor to the album using Rajasthani folk wherever necessary, just what the doctor (in this case, AK) prescribed.
But one thing I fear dreadfully is that the album might die in the hands of a niche audience. The purpose of this post is to let you all know that there are gems waiting to be picked, waiting for your patronage, waiting to immerse you in an unheard of lyricism and imagery. Poetry never sounded this pure and beautiful. The last time it got any of my hair stand was when I was in school…. Hats off to Piyush and Anurag Kashyap for giving us sounds which I don’t know come from where but not from the typical Bollywood for sure.