Note:
Monday, April 5, 2010
Things we lost in the fire: LSD Footprints:2
'आश्विट्ज़ के बाद कविता संभव नहीं है.’ – थियोडोर अडोर्नो.
जर्मन दार्शनिक थियोडोर अडोर्नो ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन शब्दों में अपने समय के त्रास को अभिव्यक्ति दी थी. जिस मासूमियत को लव, सेक्स और धोखा की उस पहली कहानी में राहुल और श्रुति की मौत के साथ हमने खो दिया है, क्या उस मासूमियत की वापसी संभव है ? क्या उस एक ग्राफ़िकल दृश्य के साथ, ’जाति’ से जुड़े किसी भी संदर्भ को बहुत दशक पहले अपनी स्वेच्छा से त्याग चुके हिन्दी के ’भाववादी प्रेम सिनेमा’ का अंत हो गया है ? क्या अब हम अपनी फ़िल्मों में बिना सरनेम वाले ’हाई-कास्ट-हिन्दू-मेल’ नायक ’राहुल’ को एक ’अच्छे-अंत-वाली-प्रेम-कहानी’ की नायिका के साथ उसी नादानी और लापरवाही से स्वीकार कर पायेंगे ? क्या हमारी फ़िल्में उतनी भोली और भली बनी रह पायेंगी जितना वे आम तौर पर होती हैं ? LSD की पहली कहानी हिन्दी सिनेमा में एक घटना है. मेरे जीवनकाल में घटी सबसे महत्वपूर्ण घटना. इसके बाद मेरी दुनिया अब वैसी नहीं रह गई है जैसी वो पहले थी. कुछ है जो श्रुति और राहुल की कहानी ने बदल दिया है, हमेशा के लिए.
LSD के साथ आपकी सबसे बड़ी लड़ाई यही है कि उसे आप ’सिनेमा’ कैसे मानें ? देखने के बाद सिनेमा हाल से बाहर निकलते बहुत ज़रूरी है कि बाहर उजाला बाकी हो. सिनेमा हाल के गुप्प अंधेरे के बाद (जहां आपके साथ बैठे गिनती के लोग वैसे भी आपके सिनेमा देखने के अनुभव को और ज़्यादा अपरिचित और अजीब बना रहे हैं) बाहर निकल कर भी अगर अंधेरा ही मिले तो उस विचार से लड़ाई और मुश्किल हो जाती है. मैंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में देखते हुए कई बार ऐसा अनुभव किया है, शायद राकेश शर्मा की बनाई ’फ़ाइनल सल्यूशन’. लेकिन किसी हिन्दुस्तानी मुख्यधारा की फ़िल्म के साथ तो कभी नहीं. और सिर्फ़ इस एक विचार को सिद्ध करने के लिए दिबाकर हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा ’रिस्क’ लेते हैं. तक़रीबन चालीस साल पहले ऋषिकेश मुख़र्जी ने अमिताभ को यह समझाते हुए ’गुड्डी’ से अलग किया था कि अगर धर्मेन्द्र के सामने उस ’आम लड़के’ के रोल में तुम जैसा जाना-पहचाना चेहरा (’आनंद’ के बाद अमिताभ को हर तरफ़ ’बाबू मोशाय’ कहकर पुकारा जाने लगा था.) होगा तो फ़िल्म का मर्म हाथ से निकल जायेगा. दिबाकर इससे दो कदम आगे बढ़कर अपनी इस गिनती से तीसरी फ़िल्म में एक ऐसी दुनिया रचते हैं जिसके नायक – नायिका लगता है फ़िल्म की कहानियों ने खुद मौहल्ले में निकलकर चुन लिये हैं. पहली बार मैं किसी आम सिनेमा प्रेमी द्वारा की गई फ़िल्म की समीक्षा में ऐसा लिखा पढ़ता हूँ कि ’देखो वो बैठा फ़िल्म का हीरो, अगली सीट पर अपने दोस्तों के साथ’ और इसी वजह से उन कहानियों को नकारना और मुश्किल हो जाता है.
पहले दिन से ही यह स्पष्ट है कि LSD अगली ’खोसला का घोंसला’ नहीं होने वाली है. यह ’डार्लिंग ऑफ़ द क्राउड’ नहीं है. ’खोसला का घोंसला’ आपका कैथार्सिस करती है, लोकप्रिय होती है. लेकिन LSD ब्रेख़्तियन थियेटर है जहाँ गोली मारने वाला नाटक में न होकर दर्शकों का हिस्सा है, आपके बीच मौजूद है. मैं पहले भी यह बात कर चुका हूँ कि हमारा लेखन (ख़ासकर भारतीय अंग्रेज़ी लेखन) जिस तरह ’फ़िक्शन’ – ’नॉन-फ़िक्शन’ के दायरे तोड़ रहा है वह उसका सबसे चमत्कारिक रूप है. ऐसी कहानी जो ’कहानी’ होने की सीमाएं बेधकर हक़ीकत के दायरे में घुस आए उसका असर मेरे ऊपर गहरा है. इसीलिए मुझे अरुंधति भाती हैं, इसिलिये पीयुष मिश्रा पसंद आते हैं. उदय प्रकाश की कहानियाँ मैं ढूंढ-ढूंढकर पढ़ता हूँ. खुद मेरे ’नॉन-फ़िक्शन’ लेखन में कथातत्व की सतत मौजूदगी इस रुझान का संकेत है. दिबाकर वही चमत्कार सिनेमा में ले आए हैं. इसलिए उनका असर गहरा हुआ है. उनकी कहानी सोने नहीं देती, परेशान करती है. जानते हुए भी कि हक़ीकत का चेहरा ऐसा ही वीभत्स है, मैं चाहता हूँ कि सिनेमा – ’सिनेमा’ बना रहे. मेरी इस छोटी सी ’सिनेमाई दुनिया’ की मासूमियत बची रहे. ‘हम’ चाहते हैं कि हमारी इस छोटी सी ’सिनेमाई दुनिया’ की मासूमियत बची रहे. हम LSD को नकारना चाहते हैं, ख़ारिज करना चाहते हैं. चाहते हैं कि उसे किसी संदूक में बंद कर दूर समन्दर में फ़ैंक दिया जाए. उसकी उपस्थिति हमसे सवाल करेगी, हमारा जीना मुहाल करेगी, हमेशा हमें परेशान करती रहेगी.
LSD पर बात करते हुए आलोचक उसकी तुलना ’सत्या’, ’दिल चाहता है’, और ’ब्लैक फ़्राइडे’ से कर रहे हैं. बेशक यह उतनी ही बड़ी घटना है हिन्दी सिनेमा के इतिहास में जितनी ’सत्या’ या ’दिल चाहता है’ थीं. ’माइलस्टोन’ पोस्ट नाइंटीज़ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में. उन फ़िल्मों की तरह यह कहानी कहने का एक नया शास्त्र भी अपने साथ लेकर आई है. लेकिन मैं स्पष्ट हूँ इस बारे में कि यह इन पूर्ववर्ती फ़िल्मों की तरह अपने पीछे कोई परिवार नहीं बनाने वाली. इस प्रयोगशील कैमरा तकनीक का ज़रूर उपयोग होगा आगे लेकिन इसका कथ्य, इसका कथ्य ’अद्वितीय’ है हिन्दी सिनेमा में. और रहेगा. यह कहानी फिर नहीं कही जा सकती. इस मायने में LSD अभिशप्त है अपनी तरह की अकेली फ़िल्म होकर रह जाने के लिए. शायद ’ओम दर-ब-दर’ की तरह. क्लासिक लेकिन अकेली.
(http://mihirpandya.com/ से साभार)
Friday, April 2, 2010
Return of 'EMERGENCY' in JNU?

After attempts to bulldoze its agenda of commercialization and to tamper with reservation, the JNU administration is now going all out to muzzle freedom of expression and speech with a series of draconian measures. In a meeting of the Provosts held on 26th March, the Dean of Students has come up with a Proforma for all hostels regarding organizing Public Meetings and Film Screenings. The guidelines formulated unanimously in the meeting are nothing short of attempts on the part of the administration to suppress the democratic rights of the students. The guidelines stipulates that no film can be screened that doesn’t have a Censor Board certificate. Also, all details on the movie, its makers, and time duration need to be mentioned while filling the form for seeking permission to organize screenings in the hostels. This implies that Documentaries/Films made by independent film makers, cannot be screened. Furthermore, the guidelines also make it mandatory on individuals/organizations holding Public Meetings to provide all details of the topic, and list of speakers. According to the circular, any meeting the administration feels would be in contravention of ‘national harmony’ or ‘national integration’ or ' national security' could be disallowed and denied permission. Permission must be taken a week before.
These new guidelines under the garb of standardizing procedures for all hostels, are in fact draconian attempts to muzzle the voices of dissent, thereby seeking to curtail the freedoms of speech and expression. The pretext of the national interest and harmony is another excuse of suppressing the heterodox views. These terms are always defined conveniently to suit the hegemonic projects of those in power and against those who are challenging this hegemony. These anti-democratic guidelines thus are a systematic effort on part of administration to curb the progressive student movement and launching fresh onslaughts on the student community. In the absence of elections and an elected JNUSU, the administration has been increasingly getting high-handed and pushing through such anti-student policies. The administration has sought to conveniently use the stay on JNUSU elections surreptitiously to bulldoze such anti-democratic measures. It is a sad thing that most of teachers of JNU are either silent or supporting the JNU administration. It is pertinent that the student community in JNU remains vigilant and fight against such assaults on our democratic rights that have been won after hard-fought struggles. All right-thinking people should join hands with the progressive students of JNU in their fight against these draconian measures tooth and nail.
(Prakash K Ray is a Research Scholar in Cinema Studies at JNU)
Thursday, March 25, 2010
मर्द, सेक्स और कैमरा

-रवीश कुमार
लव,सेक्स और धोखा। पूरी फिल्म में कैमरा वैसे ही देखता है जैसे हमारे समाज में मर्दों की नज़र मौका देखकर लड़कियों को देखती है। इस नज़र को बनाने में कई तरह की परिस्थितियां सहायक होती हैं। कैमरा अलग-अलग एंगल से अपनी नायिकाओं को तंग नज़रों की ऐसी गहराई में धकेलता है जहां हास्य पैदा करने की कोशिश, मर्दवादी विमर्श को ही स्थापित करती है। धोखा कुछ भी नहीं है। सब हकीकत है। हिलता-ड़ुलता एमेच्योर कैमरा अपने बोल्ड दृश्यों को उलट कर लड़कियों की निगाहों से भी मर्दों को देखता तो बराबरी की बात सामने आती। लड़कियों को बेचारी और शिकार की तरह देखकर अब अच्छा नहीं लगता। फिल्म में वो सेक्स को अपने हथियार की तरह इस्तेमाल करने की बजाय उसके साथ सरेंडर करती लगती हैं। फिल्म से यह उम्मीद इसलिए कि लव-सेक्स और धोखा बालीवुडीय सिनेमा और न्यूज़ चैनलों का क्रिटिक बनने की कोशिश करता है। निर्देशक की कोशिश है कि जैसा मर्द देखता है वैसा ही दिखा दो। नीतीश कटारा हत्याकांड की झलक और डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करने वाली लड़कियां और टीआरपी की कैद में फंसा एक ईमानदार पत्रकार। चालू गोरी लड़की शादी का कार्ड बांट कर निकल लेती है और सांवली लड़की अपने रूप के बेचारेपन का शिकार होकर यूट्यूब की गलियों में पहुंच जाती है। आत्महत्या से बचकर लौटी मिरिगनयना तू नंगी(बंदी) अच्छी लगती है गाने वाले लकी को फंसाने आती है। नहीं फंसा पाती। कैमरा सेक्स के मर्दवादी नज़रिये के हिसाब से ज़ूम इन होता रहता है। मर्दवादी नज़रिया अपने कैमरे के इस एंगल को जस्टीफाई करने के लिए कहानी का सहारा लेता है। एक तरह से आप देख सकते हैं कि हमारे समाज में लड़कों की नज़र में लड़कियों को कैसे बड़ा किया गया है। रूप-रंग-अंग। उपभोक्तावादी नज़रिया। जिन पर मर्दों की आंखों का अधिकार है। दिवाकर इस तस्वीर को मुंह पर दे मारते हैं। समाज के इस चिर सत्य को यह फिल्म क्यों बदल दे। इसी विमर्श के हिसाब से एक सवाल उठता है कि सारी बेकार लगने वाली लड़कियां ही नायिका क्यों हैं। कोई सेक्स बम जैसी नायिका नहीं है। उनकी लाचारी ही फिल्म के घटनाक्रम को क्यों आगे बढ़ाती है। किसी का पिता मर गया है तो कोई भाग कर आई है। फिर ठीक है ऐसी लाचार शिकार लड़कियों की कथा क्यों न कही जाए। कहानी के किरदार बीच बीच में लौट कर अच्छा प्रसंग बनाते हैं। स्टिंग आपरेशन की दुनिया में सरकार गिराने वाला पत्रकार खुद मीडिया के भीतर के स्टिंग में फंसा लगता है। चश्मा,मूंछ और उसका अनस्मार्ट लुक बेचारेपन के साथ मौजूद है। स्टिंग और ब्लैकमेल के विमर्श में अटका हुआ है। फिल्मकार ने संपादिका और चंपू का सही चित्रण किया है। आज मीडिया में जो भी हो रहा है वो इसी तरह के काबिल लोगों की देन है। न कि बाज़ार का दबाव। संपादिका अपने फार्मूले पर कायम है। फार्मूले से उसका विश्वास नहीं हिलता। फिल्मकार उसे जवाब देने की कोशिश नहीं करता। सिर्फ दो दिन का पेमेंट भरवा लेता है। वैसे ही जैसे सूचना मंत्रालय के नोटिसों का जवाब देकर पीछा छुड़ा लिया जाता है।हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने फिल्म कथाकारों को काफी खुराक दी है। चर्चगेट की चुड़ैल। स्टिंग की दुनिया का सच। जिसे अब न्यूज़ चैनलों ने खुद करना छोड़ दिया है। पर मीडिया का मज़ाक उड़ाना अच्छा लगता है। मीडिया मिशन नहीं है। सत्ता के करीब दिखने के लिए संविधान का अघोषित-अलिखित चौथा स्तंभ बन गया। खुद ही बोलता रहता है कि हम वाचडॉग है। बिना वॉच का डॉग बन गया है मीडिया। ये एक चाल है मीडिया को सत्ता प्रतिष्टान के रूप में कायम करने के लिए। चंद पत्रकारों के मिशन और संघर्षपूर्ण जीवन को भुना कर मीडिया उद्योग बाकी करतूतों को छुपाने के लिए नैतिकता का जामा पहन लेता है। पत्रकार के लिए पत्रकारिता मिशन है। कंपनी के लिए नहीं। एकाध मामूली अपवादों को छोड़ दें तो इसका प्रमाण लाना मुश्किल हो जाएगा। पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ एक धंधा है। जैसे साबुन बेचने वाला अपने साबुन को गोरा कर देने के अचूक मंत्र की तरह पेश करता है वैसे ही मीडिया कंपनी अपनी ख़बरों को। वरना उन लोगों से पूछिये जो न्यूज़ रूम में फोन करते रहते हैं कि बिल्डर ने सोसायटी में ताला बंद कर दिया है। आप प्लीज़ आ जाइये और कोई नहीं जाता। अच्छा है कि अब इस कंफ्यूज़न को विभिन्न मंचों से साफ किया जा रहा है।फिल्म बालीवुडीय सिनेमा का मज़ाक उड़ाती है। पिछले बीस सालों की एक बड़ी कथा राहुल और सिमरन का मज़ाक। उसे हास्य में बदलकर हमारे समय के सबसे बड़े नायक शाहरूख़ ख़ान की अभिनय क्षमता (जिस पर खुद उन्हें भी संदेह रहता है) का पोल खोल देती है। शाहरूख़ ख़ान बनना सिर्फ एक चांस की बात है। लव सेक्स और धोखा का एक मैसेज यह भी है। लुगदी साहित्य की तरह बनी यह फिल्म हमारे समय की तमाम लुगदियों की ख़बर लेती है। आदी सर का शुक्रिया अदा कर दिवाकर दिखा देते हैं कि फिल्मों का असर कल्पनाओं के कोने कोने में कैसा होता है। कैमरा का बांकपन ही बेहद आकर्षक पहलु है। यह एक बड़ा काम है। होम वीडियो सी लगने वाली कर्मिशयल फिल्म बनाना आसान काम नहीं। एक तरह से आप यह भी देख सकते हैं कि बंबई गए तमाम असफल फिल्मकारों,कथाकारों,नायक-नायिकाओं के सपने इस तरह की फिल्मों के पर्दे पर आकर सुपरहिट फिल्मों और फिल्मकारों को जूता मार रहे हैं। कहानी का नायक इंस्टीट्यूट के लिए फिल्म बना रहा है। यह फिल्म नहीं है। अ-फिल्म है। किसी महान फिल्म की बची खुची कतरनों से बनाई एक फिल्म। बहुत अच्छा प्रयोग है। फिल्म लोकप्रिय नहीं हो सकती। इंटरवल में जब काफी मांगा तो लड़के ने कहा कि फिल्म ने पका दिया न। कोई देखने नहीं आ रहा। मैंने कहा कि ऐसी बात तो नहीं। तो जवाब मिला कि अच्छा आप पके नहीं। प्रयोग बनाम फार्मूला के बीच फिल्म फंस गई है। वैसे ही जैसे न्यूज टीवी की दुनिया में ईमानदार पत्रकार फंस गया है। वैसे ही जैसे हमलोगों से लोग पूछ देते हैं कि भाई साहब आपके शो की रेटिंग क्यों नहीं आती। इसका जवाब तो है मगर देकर क्या फायदा। जीवन एकरेखीय नहीं होता। कई तरह की धारायें साथ चलती हैं। कभी कोई धारा ऊपर आ जाती है तो कभी कोई नीचे चली जाती है।कुछ लोगों को पसंद आने वाली फिल्म है। दिवाकर बनर्जी ने फिल्म पर आयोजित सेमिनारों में दिखाये जाने के लिए एक अच्छी फिल्म बना दी है। धीरजधारी लोगों को फिल्म पसंद आएगी। वर्ना न्यूज़ चैनलों के कबाड़ से पात्र उठाकर बनाई गई कहानियों का वही हश्र होता है जो रण से लेकर तमाम फिल्मों का हो चुका है। लगता है कि हमारे समय के कथाकार भी टीआरपी के झांसे में फंस कर अपना पैसा डुबा दे रहे हैं। उन्हें लगता है कि न्यूज़ चैनलों पर दिख रहा है, ज़रूर लोकप्रिय होगा तो बस उससे प्रेरणा लेकर फिल्म ही बना देते हैं। अख़बारों के कॉलमकारों ने इस फिल्म को चार-चार स्टार दिये हैं। फिर भी फिल्म को जनप्रिय बनाने में मदद नहीं मिल रही। कई बार निर्देशक शिकायत करते हैं कि उनकी फिल्म को रिव्यू नहीं मिली इसलिए नहीं चली। इस फिल्म के लिए यह शिकायत नहीं होनी चाहिए। वैसे चलने के लिए ही क्यों कोई फिल्म बनाये। दिवाकर का यही फैसला बड़ा लगता है।
(courtesy: http://www.naisadak.blogspot.com/)
Saturday, March 20, 2010
ऑडिएंस को मैच्योर करनेवाली फिल्मः लव,सेक्स,धोखा

इस सिनेमा की खासियत है कि सिर्फ नाम से ही एक धारणा बन जाती है कि फिल्म के भीतर क्या होगा,नाम और पोस्टर देखकर ही थिएटर के बाहर ही हम फाइनल एंड तक पहुंच जाते हैं कि फिल्म की कहानी क्या होगी। लेकिन दिलचस्प है कि फिल्म देखते हुए धारणा एकदम से टूटती है। अंत क्या कुछ मिनटों बाद समझ आ जाता है कि इन तीनों शब्दों में दिलचस्पी लेनेवाले लोगों के लिए ये फिल्म लगभग धोखे जैसा साबित होती है जबकि जो लोग इन तीन शब्दों को अछूत और'हमारी फैमिली अलाउ नहीं करेगी' मूल्यों को ढोते हुए इसे नहीं देखते हैं तो समझिए कि उन्होंने एक 'रिच फिल्म'को मिस कर दिया। खालिस मनोरंजन और ऑडिएंस की हैसियत से थोड़ा हटकर अगर आप फिल्म और मीडिया स्टूडेंट की हैसियत से इस फिल्म को देख पाते हैं तो ये आपकी सिनेमा की समझ को रिडिफाइन करने के काम जरुर आएगी।
सिनेमा बनानेवालों ने जिस तरह से बॉक्स ऑफिस,कमाई,मार्केटिंग,पॉपुलरिटी आदि मानकों को ध्यान में रखकर सिनेमा का एक फार्मूला गढ़ लिया है,कमोवेश उन तमाम सिनेमा को देखते हुए ऑडिएंस ने भी सिनेमा के भीतर से मनोरंजन हासिल करने का एक चालू फार्मूला गढ़ लिया है। ये फार्मूला कई बार तो बहुत ही साफ तौर पर दिखाई देता है लेकिन कई बार सबकॉन्शस तरीके से। इसलिए LSD के बारे में ये कहा जाए कि इसने बने-बनाए हिन्दी सिनेमा के फार्मूले को तोड़ने की कोशिश की है तो ऐसा कहना उतना ही सही होगा कि इस सिनेमा को देखते हुए ऑडिएंस के मनोरंजन हासिल करने का फार्मूला भी टूटता है। जिस तरह से फिल्म शुरु होते ही घोषणा कर दी जाती है कि इसमें वो सबकुछ नहीं है जो कि बाकी के सिनेमा शुरु से देखते आए हैं और न ही ये उन फिल्मों की उस अभ्यस्त ऑडिएंस के लिए हैं। अगर आप नैतिकता, फैमिली इन्टरटेन्मेंट,ढिंचिक-ढिंचिक गानों की मुराद लेकर इस फिल्म को देखने जाते हैं तो आपकी सलाह है कि घर पर रहकर आराम कीजिए। हिम्मत जुटाकर लव और धोखे की कहानी देखने जाना चाहते हैं तो भी रहने दीजिए। अगर सेक्स के लोभ में जा रहे हैं तो वही 40-45 सेकंड की सीन है जिसके लिए आप इतनी मशक्कत क्यों करेंगे? आप इस फिल्म को तभी देखने जाइए जब आप फिल्म देखने के तरीके और बनी-बनायी आदत को छोड़ना चाहते हैं,आपको सिनेमा के नयापन के साथ-साथ इस बात में भी दिलचस्पी है कि 'हाउ टू वाच सिनेमा?'
सिनेमा की कंटेट पर बात करें तो नया कुछ भी नहीं है। तीन कहानी है और ये तीनों कहानियों से सिनेमा तो सिनेमा हिन्दी के टीवी सीरियल अटे पड़े हैं। पहली कहानी फिल्म स्कूल के एक स्टूडेंट राहुल(अंशुमन झा)की है जो डिप्लोमा के लिए आदित्य चोपड़ा और दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे से प्रेरित होकर एक फिल्म बनाना चाहता है और इसी क्रम में उसे श्रुति(श्रुति) से अफेयर हो जाता है। श्रुति को पाने के लिए वो उसकी फैमिली तक एप्रोच करता है, अपने सिनेमा की सिक्वेंस में उसके बाप की मर्जी से रद्दोबदल करता है और बाप को भी उसमें शामिल करता है। श्रुति की शादी तय हो जाने की स्थिति में दोनों भागकर शादी कर लेते हैं। बाद में श्रुति का बाप दोनों को कॉन्फीडेंस में लेकर वापस अपने घर बुलाता है लेकिन रास्ते में ही उसकी शह पर उसका भाई दोनों के टुकड़े-टुकड़े करके दफना देता है। राहुल और श्रुति का बैग्ग्राउंड अलग है और इस फिल्म को देखते हुए हमें डीयू में हुई ऐसी ही एक घटना की याद आती है। दूसरी कहानी सुपर मार्केट की है जहां सुरक्षा के नाम पर लगे सीसीटीवी कैमरे के फुटेज को चैनलों के हाथों बेचा जाता है,उससे ब्लैकमेलिंग की जाती है। यही रश्मि और आदर्श के बीच अफेयर होता है और उसी सीसीटीवी कंट्रोल रुम में रश्मि अपनी दोस्त श्रुति की मौत की खबर सुनकर हाइपर इमोशनल होती है और आदर्श के साथ सेक्स के स्तर पर जुड़ती है। यहां पर आकर फिल्म का ट्रीटमेंट जरुर नया है। आदर्श इस पूरे सीन को एमएमएस का रुप दे रहा होता है जो कि बाद में इन्टरनेट पर सुपरमार्केट स्कैंडल के नाम से देखा जाता है।..और तीसरी कहानी टीवी जर्नलिस्ट प्रभात(अमित सियाल)और उसका सहारा लेकर मीडिया के भीतर स्टिंग ऑपरेशन को लेकर की जानेवाली तिकड़मों को लेकर है। प्रभात संजीदा टीवी पत्रकार है और वो प्रोफेशन की शर्तों के बीच भी इंसानियत को बचाए रखना चाहता है। इस क्रम में वो मेरठ में नंगी लड़की की तस्वीर नहीं दिखा पाता है और अपनी बॉस से जब-तब ताने सुनता है। वो कास्टिंग काउच की शिकार डांसर मृगनयना/नैना विश्वास(आर्य बनर्जी)को सुसाइड करने से बचाता है। प्रभात के स्टिंग ऑपरेशन से देश की सरकार गिर चुकी है और जो कहानी वो सिनेमा में बताता है वो तहलका की कहानी के करीब है। तहलका को स्टिंग ऑपरेशन का ब्रांड के तौर पर स्थापित किया जाता है। इसी क्रम में वो नैना का बदला लेने के लिए पॉप स्टार लॉकी लोकल(हेनरी टेंगड़ी)का स्टिंग ऑपरेशन करता है। इस हिस्से में मीडिया की जो छवि बनायी गयी है वो फिल्म 'रण'में पहले से मौजूद है। सुपर मार्केट पर जो स्टोरी है वो दरअसल मधुर भंडारकर की एप्रोच का ही विस्तार है जो सिटी स्पेस में नए-नए प्रोफेशन के बीच के खोखलेपन को समेटती है। इसलिए ये फिल्म कंटेंट के स्तर पर अलग और बेहतर होने के बजाय ट्रीटमेंट के स्तर पर ज्यादा अलग है। सिनेमा के तीनों शब्द एक क्रम में अपनी थीसिस पूरी न करके वलय बनाते हैं और कहानी एक जगह सिमटकर आ जाती है। कहानी फिर वहां से अलग-अलग हिस्सों में बिखरती है इसलिए ये सीधे-सीधे फ्लैशबैक में न जाकर रिवर्स,फार्वर्ड में चलती है जो कि हम अक्सर काउंटर नोट करते हुए करते हैं। हां ये जरुर है कि डायलॉग डिलिवरी में कहीं कहीं ओए लक्की लक्की ओए का असर साफ दिखता है।
अव्वल तो ये कि फिल्म को देखते हुए कहीं से नहीं लगता कि हम वाकई कोई फिल्म दे रहे हैं। स्क्रीन पर कैमरे का काउंटर लगातार चलता है,एक तरफ बैटरी का सिबंल है और ठीक उसके नीचे सिकार्डिंग और लाइट स्टेटस। जिन लोगों ने मीडिया में काम किया है उन्हें महसूस होगा कि वो पूरे रॉ शूट से काम के फुटेज का काउंटर नोट करने के लिए वीटीआर में टेप को तेजी से भगा रहे हैं। श्रुति,रश्मि और नैना की कहानी को देखते हुए आपके मुंह से अचानक से निकल पड़ेगा- अरे,ऐसा ही तो होता है,यही तो हमने वहां नोएडा में भी देखा था। फुटेज का जो कच्चापन है जिसमें कि कई बार कुछ भी स्टैब्लिश नहीं होता लेकिन दिखाया जाता है वो संभव है कई बार असंतोष पैदा करे कि इतना तो हम भी कर लेते हैं,इसमें नया क्या है? लेकिन यही से सिनेमा के डीप सेंस पैदा होते हैं। कई अखबारों और चैनलों ने तो कहा ही है कि इस फिल्म की खूबसूरती इस बात में है कि कहीं से नहीं लगता कि किसी भी कैरेक्टर ने सिनेमा के लिए अपने चरित्र को जिया है बल्कि वो स्वाभाविक रुप से ऐसै ही हैं। मुझे लगता है कि इसमें ये भी जोड़ा जाना चाहिए कि ये सिनेमा हमें रिसाइकल बिन में फेंके गए फुटेज से सिनेमा बनाने की तकनीक औऱ समझ पैदा करती है। ऐसा लगता है कि यहां वीडियो एडीटर गायब है लेकिन असर को लेकर कही भी कुछ अनुपस्थित नहीं है।बीच-बीच में पर्दे का ब्लैक आउट हो जाना,दूरदर्शन की तरह रंगीन पट्टियों का आना,तस्वीरों का हिलना जिसमें कोई कहता है इसका सिग्नल खराब है,इसमें चोर मामू और मामू चोर दिखता है,ये सबकुछ हमें उन दिनों की तरफ वापस ले जाता है जहां से हमने सिनेमा को देखना शुरु किया,खासकर दूरदर्शन पर सिनेमा को देखना शुरु किया। इसमें दूरदर्शन की ऑडिएंस का इतिहास शामिल है। संभवतः हमलोग वो अंतिम पीढ़ी हैं जिसने कि दूरदर्शन पर धुंआधार फिल्में देखी जिसे कि LSD ने पकड़ा है,नहीं तो लगता है ये इतिहास यही थम जाएगा।
कुल मिलाकर ये फिल्म जिसमें कि न गाने हैं,न कोई शोबाजी है ऑडिएंस को 'सिनेमा लिटरेट' करने का काम करती है। एक गहरा असर छोड़ती है कि अच्छा सिनेमा को ऐसे भी दिखाया जा सकता है/अच्छा ऐसे भी देखा जा सकता है? हां ये जरुर है कि सिंगल स्क्रीन में देखनेवाली ऑडिएंस को ये सिनेमा मनोरंजन के स्तर पर निराश करे या फिर ये भी संभव है कि वो थियेटर से ये कहते हुए निकले- चालीस सेकेंड के सीन में ही पूरा पैसा वसूल हो गया,हम तो यही देखने आए थे,बाकी तो सब पहिले से देखा हुआ था। ऐसे में ये फिल्म सेक्स के नाम पर फुसफुसाहट पैदा करने से बाहर निकालती है।
Thursday, March 11, 2010
ऑस्कर 2010 : क्या ’डिस्ट्रिक्ट 9′ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कहलाने की हक़दार नहीं है?
यह ऑस्कर भविष्यवाणियाँ नहीं हैं. सभी को मालूम है कि इस बार के ऑस्कर जेम्स कैमेरून द्वारा रचे जादुई सफ़रनामे ’अवतार’ और कैथेरीन बिग्लोव की युद्ध-कथा ’दि हर्ट लॉकर’ के बीच बँटने वाले हैं. मालूम है कि मेरी पसन्दीदा फ़िल्म ’डिस्ट्रिक्ट 9’ को शायद एक पुरस्कार तक न मिले. लेकिन मैं इस बहाने इन तमाम फ़िल्मों पर कुछ बातें करना चाहता हूँ. नीचे आई फ़िल्मों के बारे में आप आगे बहुत कुछ सुनने वाले हैं. कैसा हो कि आप उनसे पहले ही परिचित हो लें, मेरी नज़र से…

इस फ़िल्म की अच्छी बात तो यही कही जा सकती है कि यह नष्ट होती प्रकृति को इंसानी लिप्सा से बचाए जाने का ’पावन संदेश’ अपने भीतर समेटे है. लेकिन यह ’पावन संदेश’ ऐसा मौलिक तो नहीं जिसे सारी दुनिया एकटक देखे. सच्चाई यही है कि ’अवतार’ का असल चमत्कार उसका तकनीकी पक्ष है. किरदारों और कहानी के उथलेपन को यह तकनीक द्वारा प्रदत्त गहराई से ढकने की कोशिश करती है. यही वजह है कि फ़िल्म की हिन्दुस्तान में प्रदर्शन तिथि को दो महीने से ऊपर बीत जाने के बावजूद कनॉट प्लेस के ’बिग सिनेमा : ओडियन’ में सप्ताहांत जाने पर हमें टिकट खिड़की से ही बाहर का मुँह देखना पड़ता है. मानना पड़ेगा, थ्री-डी अनुभव चमत्कारी तो है. पैन्डोरा के उड़ते पहाड़ और छूते ही बंद हो जाने वाले पौधे विस्मयकारी हैं. और एक भव्य क्लाईमैक्स के साथ वो मेरी उम्मीदें भी पूरी करती है. लेकिन मैं अब भी नहीं जानता हूँ कि अगर इसे एक सामान्य फ़िल्म की तरह देखा जाए तो इसमें कितना ’सत्त’ निकलेगा.

मेरी नज़र में हर्ट लॉकर का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है उसका ’तनाव निर्माण’ और ’तनाव निर्वाह’. और तनाव निर्माण का इससे बेहतर सांचा और क्या मिलेगा, फ़िल्म का नायक एक बम निरोधक दस्ते का सदस्य है और इराक़ में कार्यरत है. मुझे न जाने क्यों हर्ट लॉकर बार-बार दो साल पहले आई हिन्दुस्तानी फ़िल्म ’आमिर’ की याद दिला रही थी. कोई सीधा संदर्भ बिन्दु नहीं है. लेकिन दोनों ही फ़िल्मों का मुख्य आधार तनाव की सफ़ल संरचना है और दोनों ही फ़िल्मों में विपक्ष का कोई मुकम्मल चेहरा कभी सामने नहीं आता. और गौर से देखें तो हर्ट लॉकर में वही अंतिम प्रसंग सबसे प्रभावशाली बन पड़ा है जहाँ अंतत: ’फ़ेंस के उधर’ मौजूद मानवीय चेहरा भी नज़र आता है. ’दि हर्ट लॉकर’ आपको बाँधे रखती है. और कुछ दूर तक बना रहने वाला प्रभाव छोड़ती है.

और इस शुरुआती प्रसंग के साथ ही क्रिस्टोफर वॉल्टज़ परिदृश्य में आते हैं. मैं अब भी मानता हूँ कि फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाने वाले ब्रैड पिट का काम भी नज़र अन्दाज़ नहीं किया जाना चाहिए लेकिन वॉल्टज़ यहाँ निर्विवाद रूप से बहुत आगे हैं. उनका लोकप्रियता ग्राफ़ इससे नापिए कि अपने क्षेत्र में (सहायक अभिनेता) आई.एम.डी.बी. पर उन अकेले को जितने वोट मिले हैं वो बाक़ी चार नामांकितों को मिले कुल वोट के दुगुने से भी ज़्यादा है. ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ को सम्पूर्ण फ़िल्म के बजाए अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर पढ़ा जाना चाहिए. यह टैरेन्टीनो को पढ़ने का पुराना तरीका है, उन्हीं का दिया हुआ. हिंसा की अति होते हुए भी उनकी फ़िल्म कुरूप नहीं होती, बल्कि वह एक दर्शनीय फ़िल्म होती है. जैसा मैंने पहले भी कहा है, वे हिंसा का सौंदर्यशास्त्र गढ़ रहे हैं. यह फ़िल्म उस किताब का अगला पाठ है. कई सारे उप-पाठों में बँटा.


जिस तरह पिछले साल आयी फ़िल्म ’दि डार्क नाइट’ सुपरहीरो फ़िल्मों की श्रंखला में एक पीढ़ी की शुरुआत थी उसी तरह से ’डिस्ट्रिक्ट 9’ विज्ञान-फंतासी के क्षेत्र में एक नई पीढ़ी के कदमों की आहट है. ’डार्क नाइट’ एक सामान्य सुपरहीरो फ़िल्म न होकर एक दार्शनिक बहस थी. यह उस शहर के बारे में खुला विचार मंथन थी जिसकी किस्मत एक अनपहचाने, सिर्फ़ रातों को प्रगट होने वाले, मुखौटा लगाए इंसान के हाथों में कैद है. क्या उस शहर को किसी भी अन्य सामान्य शहर की तुलना में ज़्यादा सुरक्षित महसूस करना चाहिए? ठीक उसी तरह, ’डिस्ट्रिक्ट 9’ भी एक सामान्य ’एलियन फ़िल्म’ न होकर एक प्रतीक सत्ता है. हमारी धरती पर घटती एक ’एलियन कथा’ के माध्यम से यह आधुनिक इंसानी सभ्यता की कलई खोल कर रख देती है. विकास की तमाम बहसें, उसके भोक्ता, उसके असल दुष्परिणाम, हमारे शहरी संरचना के विकास की अनवरत लम्बी होती रेखा और हाशिए पर खड़ी पहचानों से उसकी टकराहट, भेदभाव, इंसानी स्वभाव के कुरूप पक्ष, सभी कुछ इसमें समाहित है. और इस बात की पूरी संभावना जताई जा रही है कि अपनी उस पूर्ववर्ती की तरह ’डिस्ट्रिक्ट 9’ को भी ऑस्कर में नज़रअन्दाज़ कर दिया जाएगा. ’सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म’ की दौड़ में उसका शामिल होना भी सिर्फ़ इसलिए सम्भव हो पाया है कि अकादमी ने इस बार नामांकित फ़िल्मों की संख्या 5 से बढ़ाकर 10 कर दी है.
अपनी शुरुआत से ही ’डिस्ट्रिक्ट 9’ एक प्रामाणिक डॉक्युड्रामा का चेहरा पहन लेती है. मेरे ख़्याल से यह अद्भुत कथा तकनीक फ़िल्म के लिए आगे चलकर अपने मूल विचार को संप्रेषित करने में बहुत कारगर साबित होती है. शुरुआत से ही यह अपना मुख्य घटनास्थल (जहाँ स्पेसशिप आ रुका है) अमरीका के किसी शहर को न बनाकर जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ़्रीका) को बनाती है और केन्द्रीकृत विश्व-व्यवस्था के ध्रुव को हिला देती है. एलियन्स का घेट्टोआइज़ेशन और उनका शहर से उजाड़ा जाना हमारे लिए ऐसा आईना है जिसमें हमारे शहरों को अपना विकृत होता चेहरा देखना चाहिए. और इस ’रियलिटी चैक’ के बाद कहानी जो मोड़ लेती है वो आपने सोचा भी नहीं होगा. फ़िल्म का अंतिम दृश्य एक कभी न भूलने वाला, हॉन्टिंग असर मेरे ऊपर छोड़ गया है. नए, बेहतरीन कलाकारों के साथ इस फ़िल्म का चेहरा और प्रामाणिक बनता है लेकिन तकनीक में यह कोई ओछा समझौता नहीं करती.
मैं आश्चर्यचकित हूँ इस बात से कि क्यों इस फ़िल्म के निर्देशक को हम इस साल के सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों की सूची में नहीं गिन रहे? और शार्लटो कोप्ले (Sharlto Copley) जिन्होंने इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाई है को क्यों नहीं इस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता गिना जा रहा? क्या, हिंसा की अति? इस फ़िल्म के मुख्य किरदार की समूची यात्रा (फ़िल्म की शुरुआत से आखिर तक का कैरेक्टर ग्राफ़) इतनी बदलावों से भरी, अविश्वसनीय और हृदय विदारक है कि उसका सर्वश्रेष्ठ की गिनती में न होना उस सूची के साथ मज़ाक है.
पोस्ट ’क्योटो’ और ’कोपनहेगन’ काल में यह कोरा संयोग नहीं है कि दो ऐसी विज्ञान फंतासियाँ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म की दौड़ में हैं जिनमें मनुष्य प्रजाति खलनायक की भूमिका निभा रही है. यह और भी रेखांकित करने लायक बात इसलिए भी बन जाती है जब पता चले कि बीते सालों में अकादमी विज्ञान-फंतासियों को लॆकर आमतौर से ज़्यादा नरमदिल नहीं रही है. असल दुनिया का तो पता नहीं, लेकिन लगता है कि अब ’साइंस-फ़िक्शन’ सिनेमा अपनी सही राह पहचान गया है.

क्या आपको मालूम है :
- इस साल पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के दो सबसे बज़बूत दावेदार जेम्स कैमेरून (अवतार) और कैथेरीन बिग्लोव (दि हर्ट लॉकर) पूर्व पति-पत्नी हैं.
- तमाम अन्य पूर्ववर्ती पुरस्कार तथा सिनेमा आलोचक इस बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का मुकाबला इन्हीं दोनों पूर्व पति-पत्नी जोड़े के बीच गिन रहे हैं. लेकिन आम दर्शक के बीच आप क्वेन्टीन टैरेन्टीनो (इनग्लोरियस बास्टर्ड्स) की लोकप्रियता और प्रभाव का अन्दाज़ा इस तथ्य से लगा सकते हैं कि आई.एम.डी.बी. वेबसाइट पर पब्लिक पोल में ऑस्कर की पिछली रात तक भी वे दूसरे स्थान पर चल रहे थे.
- ऑस्कर के पहले मिलने वाला इंडिपेंडेंट सिनेमा का ’स्पिरिट पुरस्कार’ बड़ी मात्रा में ’प्रेशियस’ ने जीता है. कई सिनेमा आलोचक इस फ़िल्म में माँ की भूमिका निभाने वाली अदाकारा मोनिक्यू (Mo’nique) की भूमिका को इस साल का सर्वश्रेष्ठ अदाकारी प्रदर्शन गिन रहे हैं.
- अगर कैथरीन बिग्लोव ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीता (और जिसकी काफ़ी संभावना है.) तो वे यह पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला होंगी. इससे पहले केवल तीन महिलाएं सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए नामांकित हुई हैं. लीना वार्टमुलर (Lina Wertmuller) ’सेवन ब्यूटीज़’ के लिए (1976), जेन कैम्पियन (Jane Campion) ’दि पियानो’ (1993) के लिए और बहुचर्चित ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ (2003) के लिए सोफ़िया कोपोला (Sofia Coppola).
(courtesy: http://mihirpandya.com/)
Monday, March 8, 2010
‘Hurt Locker’ director makes history at 82nd Oscar Awards

Kathryn Bigelow became the first woman to win an Oscar for Best Director in the Academy Awards’ 58-year history. Her film, ‘The Hurt Locker’, stole the show at the 82nd Academy Awards on Sunday, March 7.
Beating ex-husband, James Cameron (‘Avatar’) , Lee Daniels (‘Precious’), Quentin Tarantino (‘Inglourious Basterds’), and Jason Reitman (‘Up In The Air’) to get the golden statuette, Bigelow, who won the award for Iraq War drama ‘The Hurt Locker’ said, “There’s no other way to describe it; this is the moment of a lifetime.”
Bigelow was handed her award by actress, Barbara Streisand, who co-wrote, produced, directed, and starred in 1983’s ‘Yentl!’. Before announcing the winner of the Best Director category, Streisand said, “It’s about time.”
Previous female nominees have been Lina Wertmuller in 1976 for ‘Seven Beauties’, Jane Campion in 1993 for ‘The Piano’ and most recently, Sofia Coppola in 2003 for ‘Lost in Translation’.
Making a total haul of six gongs on the award night, ‘The Hurt Locker’ also won for best picture, best original screenplay (by Mark Boal), best sound mixing, sound editing, and film editing. There was no ignoring the movie, despite the pre-awards drama that led to the ban of the film’s producer, Nicholas Chartrier, from the award ceremony. Chartrier was banned for sending e-mails to the Academy of Motion Picture Arts and Sciences, in charge of selecting the winning films, asking them not to vote for ‘Avatar’.
‘The Hurt Locker’ trounced its closest rival James Cameron’s ‘Avatar’ by three, with the 3D blockbuster winning for Art Direction, Cinematography and Visual Effects.
Sitting behind Bigelow at the event, Cameron burst into applause when his ex-wife was announced as Best Director for the $11 million movie, bringing an end to the PR ‘war’ that was already mounting before the awards.
Other success stories on the night included ‘Here Today, Gone Tomorrow’ actor Jeff Bridges, who won Best Actor for his role as a rundown country singer in ‘Crazy Heart’. He beat Colin Firth (‘A Single Man’), George Clooney (‘Up In The Air’), Jeremy Renner (‘The Hurt Locker’) and Morgan Freeman (‘Invictus’) to get the top award.
Sandra Bullock won Best Female Actor for her character as Leigh Anne Tuohy in ‘The Blind Side’, the film adaptation of the true life story of American football player, Michael Oher. Renowned for her tomboyish roles in romantic or action comedies, Bullock asked in her acceptance speech, “Did I really earn this or did I just wear you all down?” and to her fellow nominees in the category, she said “Gabby (Sidebe, ‘Precious’) I love you so much. You are exquisite. You are beyond words to me. Carey (Mulligan, ‘An Education’), your grace and your elegance and your beauty and your talent makes me sick. Helen (Mirren, ‘The Last Station’), I feel like we are family through family and I don’t have the words to express just what I think of you. And Meryl (Streep, ‘Julie & Julia’), you know what I think of you and you are such a good kisser.”
Mo’Nique received the Best Supporting Actress award for her role as an abusive parent in Lee Daniels’s ‘Precious’, based on the novel Push by Sapphire. She joins Hattie McDaniel (‘Gone With the Wind’, 1939), Whoopi Goldberg (‘Ghost’, 1990), and Jennifer Hudson (‘Dreamgirls’, 2006) as the only African-American winners in the category.Mo'Nique paid tribute to McDaniel in her acceptance speech, saying, "First, I would like to thank the Academy for showing that it can be about the performance and not the politics. I want to thank Miss Hattie McDaniel for enduring all that she had to so that I would not have to." ‘Precious’s screenplay by Geoffrey Fletcher also won for Best Adapted Screenplay.
Hollywood officially opened its doors to Austrian actor, Christopher Waltz, who won Best Supporting Actor for his Nazi character in ‘Inglourious Basterds’. He dusted off the more popular Christopher Plummer (‘The Last Station’), Matt Damon (‘Invictus’), Stanley Tucci (‘The Lovely Bones’) and Woody Harrelson (‘The Messenger’) to claim his place in the American film industry.
The award for Best Animated Feature Film and Best Original Score went to ‘Up’. ‘Crazy Heart’ won for Original Song, The Weary Kind by Ryan Bingham and T Bone Burnett.
Nicolas Scmerkin’s ‘Logorama’ won the Best Short Film (Animated), while Joachim Back and Tivi Magnusson’s ‘The New Tenants’ won for Best Short Film (Live Action).
‘The Cove’ won for Best Documentary Feature and 'Music' by Prudence was winner in the Best Documentary Short category.
This year’s Foreign Language winning film was ‘The Secret in Their Eyes’ (El Secreto de Sus Ojos) by Argentine director, Juan Jose Campanella.
‘The Young Victoria’ won for Best Costume and ‘Star Trek’ was awarded Best for Make-up.
As the winners of Sunday’s event revel in their success, the race for next year’s awards has definitely begun.
(courtesy.234next.com)
Thursday, February 18, 2010
India has dream run at Berlin film festival

In its 60th anniversary, the festival has selected a wide range of Indian Bollywood and arthouse films in several languages. They are represented across different festival sections.
There are also Indian films in the European Film Market that runs parallel to the Berlinale. No wonder there are nearly a 100 Indians at the festival.
The eight features include Karan Johar’s My Name is Khan, Dev Benegal’s Road, Movie, Anusha Rizvi’s Peepli Live, Laxmikant Shetgaonkar’s Paltadacho Munis (Man Beyond the Bridge, Konkani), Umesh Kulkarni’s Vihir (the Well, Marathi), Kaushik Ganguly’s Arekti Premer Golpo (Just Another Love Story, Bengali), Shyam Benegal’s Manthan, Satyajit Ray’s Charulata and Madhusree Dutta and team’s Cinema City.
Sunday, February 14, 2010
अब मत कहना ख़ान का मतलब...मुसलमान

इसके बाद भी यह हमारे समय की एक बड़ी फिल्म है। हॉल में दर्शकों को रोते देखा तो उनकी आंखों से संघ परिवार और सांप्रदायिक दलों की सोच को बहते हुए भी देखा। जो सालों तक हिन्दू मुस्लिम का खेल खेलते रहे। मुंबई में इसकी आखिरी लड़ाई लड़ी गई। कम से कम आज तक तो यही लगता है। एक फिल्म से दुनिया नहीं बदल जाती है। लेकिन एक नज़ीर तो बनती ही है। जब भी ऐसे सवाल उठाये जायेंगे कोई कऱण जौहर,कोई शाहरूख के पास मौका होगा एक और माइ नेम इज़ ख़ान बनाने का। फिल्म देखने के बाद समझ में आया कि क्यों शाहरूख़ ख़ान ने शिवसेना के आगे घुटने नहीं टेके। अगर शाहरूख़ माफी मांग लेते तो फिल्म की कहानी हार जाती है। ऐसा करके शाहरूख खुद ही फिल्म की कहानी का गला घोंट देते। शाहरूख़ ऐसा कर भी नहीं सकते थे। उनकी अपनी निजी ज़िंदगी भी तो इस फिल्म की कहानी का हिस्सा है। हिन्दुस्तान में तैयार हो रही नई मध्यमवर्गीय मुस्लिम पीढ़ी की आवाज़ बनने के लिए शाहरूख़ का शुक्रिया।
Friday, February 12, 2010
'Kavi' story of an Indian slave boy makes it to Oscars

Monday, February 1, 2010
'The Female Nude' gets National Award

The film is about a model, who sits up for painters and sculptors. She lives in the slum of a metro where she lives with her four step sons, and her own daughter. She must have posed for so many artists but till date she has not been invited to any of the exhibitions. She feels alienated- she is a social margin in the power structure of art. And her wages are horribly low. At one point in the film she says - इस शहर में खोने का मजा तभी है जब कोई ढूंढने वाला हो, लेकिन मोको ढूंढने वाला कोई नहीं है । Great grumbling of deep pathos, and great capturing.
The film is also about attitudes – she is an easy target of male sexual fantasies. She has been abandoned by her husband; now she has to protect herself from the stalkers in her struggle to earn her livelihood. But not all has been lost - she has been immortalized in the paintings and sculptures, and, of course, in the documentary that has been made on her life.
It is the story of the struggle of a woman for livelihood, dignity and self respect. It is the story of a woman’s alienation in the cityscape; it is also the story of redemption and hope.
पांचवां गोरखपुर फिल्म उत्सव

पांचवां गोरखपुर फिल्म उत्सव चार फरवरी से शुरू हो रहा है। जन संस्कृति मंच और गोरखपुर फिल्म सोसायटी के संयुक्त आयोजन में पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस शहर में होने वाले इस फिल्म उत्सव ने काफी कम समय में अपनी एक साख बनाई है। यह फ़ेस्टिवल सिर्फ़ देश-दुनिया की नई फीचर-गैरफीचर फ़िल्में देखने-दिखाने का मंच नहीं है। यह एक सांस्कृतिक अभियान है। भारतीय भाषाओं की चुनिंदा फ़िल्मों के अलावा दुनिया भर की क्लासिक फ़िल्मों से भी एक चयन इसमें शामिल किया जाता है। इसमें का बच्चों का अलग सेक्शन है। फ़िल्मों के चयन का आधार महज़ उनमें निहित सामाजिक वक्तव्य है। फ़रवरी के पहले हफ़्ते में यह फ़िल्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस साल यह अपने पांचवें साल में पहुँच रहा है और चार फ़रवरी से सात फ़रवरी तक धूम-धाम से मनाया जायेगा। फ़िल्मों के साथ-साथ अन्य सांस्कृतिक आयोजन भी चलते रहते हैं। नाटकों, गीतों, पोस्टर प्रदर्शनियों और कई दूसरी कल्चरल एक्टिविटीज़ के अलावा युवा और छात्र इस फ़िल्मोत्सव का इसलिये भी इंतज़ार करते हैं क्योंकि यह विचार-विमर्श को सार्थक ज़मीन देता है। आयोजन के लिये ख़र्च आम लोगों और शुभाकांक्षियों से इकट्ठा किया जाता है। इनमें गोरखपुर फिल्म सोसायटी के साथ साथ यहां के युवा संस्कृतिकर्मियों की एक संस्था एक्स्प्रेशन और जन संस्कृति मंच के देश भर में फैले शुभचिंतक-मित्र, फिल्मकार, रंगकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार सभी शामिल हैं।
पांचवें गोरखपुर फिल्म उत्सव के उदघाटन सत्र में दिल्ली से आ रहे महमूद फारुकी दास्तानगोई पेश करेंगे। महमूद एक पत्रकार, लेखक, फिल्मकार, रंगमंच कलाकार रहे हैं जिन्होने बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में लुप्त हो चुके दास्तानगोई नाम के फ़न को पुनर्जीवित किया है और देश विदेश में इसकी बेहतरीन प्रस्तुतियां कर चुके हैं। इसके बाद सईद मिर्जा की फिल्म 'सलीम लंगड़े पे मत रो' दिखाई जाएगी और उस पर चर्चा होगी। सईद मिर्ज़ा की फिल्म 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' की भी स्क्रीनिंग की जाएगी। समारोह के दौरान दिखाई जाने वाली अन्य प्रमुख फिल्मों में गिरीश कसरावल्ली की 'द्वीप', गीतांजलि राव की एनीमेशन फिल्म 'प्रिंटेड रेनबो', अल्बर्ट लैमोरेस्सी की 'रेड बैलून', माजिद मजीदी की 'सॉन्ग ऑफ द स्पैरो', ऋत्विक घटक की 'मेघे ढका तारा' और नेपाल के माओवादी आंदोलन पर आनंद स्वरुप वर्मा द्वारा बनाई बनी एक अहम राजनीतिक फिल्म 'बर्फ की लपटें' का प्रदर्शन किया जाएगा। इनके अलावा भी कई बेहतरीन डॉक्यूमेंट्र और फीचर फिल्मों का प्रदर्शन होना है। हर फिल्म के बाद उस पर विशेष परिचर्चा का आयोजन होगा। चार दिनों के इस समारोह में हिस्सा लेने वाले प्रमुख लोगों में फिल्मकार सईद मिर्जा, गिरीश कसरावल्ली, आनंद स्वरुप वर्मा, जवरीमल्ल पारख, अनुपमा श्रीनिवासन, पारोमिता वोहरा, अशोक भौमिक, आशीष श्रीवास्तव, तरुण भारती और देबरंजन सारंगी के नाम शामिल हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर दास्तानगोई के अलावा असम के जनगायक लोकनाथ गोस्वामी भी अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे। समारोह में शामिल होने के लिए या किसी भी तरह की जानकारी के लिए गोरखपुर फिल्म सोसायटी के संयोजक मनोज कुमार सिंह (91-9415282206) या जन संस्कृति मंच के फिल्म ग्रुप के संयोजक संजय जोशी (91-9811577426) से संपर्क किया जा सकता है। विस्तृत विवरण के लिए गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का ब्लॉग देखें।
(सौजन्य- गोरखपुर फिल्म सोसायटी)
Sunday, January 24, 2010
All the Best Anusha!


Tuesday, January 19, 2010
V K Murthy to get Dada Saheb Phalke Award 2008

Legendary cinematographer VK Murthy has been chosen for the Dada Saheb Phalke Award for the year 2008.
The award is conferred annually by the Government of India for outstanding contributions to films, based on the recommendations of a Committee of eminent persons. This is the first time ever that a cinematographer has been selected for this award. Murthy is credited with providing some of Indian cinema’s most breathtaking visual moments embedded in the collective memory of the nation. He broke new grounds, ushered in modern and highly sophisticated techniques and brought in rich visual artistry into Indian cinema.
Murthy shot India’s first cinemascope movie ‘Kagaz Ke Phool’ and is best remembered as the cinematographer for all of Guru Dutt’s films. Murthy is regarded as one of the pioneers of colour cinematography. His picturization of the title song of ‘Chaudavin ka Chand’ mesmerised the audience. Murthy in fact started his career in cinema as a violinist. Classics like ‘Kagaz Ke Phool’ and ‘Sahib, Bibi aur Ghulam’ won him Filmfare Awards. Murthy’s other well known works include ‘Baazi’, ‘Jaal’, ‘Chaudavin ka Chand’, ‘Pyasa’, ‘12 O’Clock’, ‘Ziddi’ etc.
He also partnered for ‘Pakeezah’ and ‘Razia Sultan’. His working life spans four long decades, from his early collaboration with Guru Dutt from the 50’s to his work in Shyam Benegal’s mega-serial ‘Bharat Ek Khoj” and one of the most acclaimed Kannada movies titled ‘Hoova Hannu’ in 1993. He is an inspiration to a whole generation of cinematographers.
Saigal's Biography Re-released

The national-award winning biography of Bollywood's legendary singer Kundan Lal Saigal is re-released in paperback edition. In a function organised at Films Division auditorium former information and broadcasting minister Vasant Sathe unveiled the book titled 'Kundan' on 18th January, Saigal's 63rd death anniversary.Saigal's grandson Rabinder Chopra was also present in the function.The book has been penned by Sharad Dutt, a former director of the Delhi Doordarshan Kendra. A documentary on Saigal entitled 'Saigal aye, baso more man mein', directed by Dutt, was also screened at the function.
The book (in hardbound) and the film both were released on Saigal's birth centenary in 2004. The book also won the 2005 national award. Considering the mass popularity of the book the Penguin decided to publish it in paperback.
Recounting Saigal's contribution to music, Dutt says he has slammed 'most of the rumours and incorrect facts about Saigal' in the book.
'The book puts an end to all the rumours about Saigal. I've tried my best to do that. When I was researching for the book and the documentary simultaneously that I started in 1997, I realised there was not even a single correct fact about him in circulation,'.
'Take for example the correct date of his birth is April 4, 1904 and not April 11, as both are available. Then the reason of his death was diabetes as opposed to those floating in the industry. This research work of almost eight years is practically a correct work on his life,' he added.
Dutt also informed that Saigal was 'the first singer to bring (Mirza) Ghalib's poems on record'.
'He was the superstar of new cinema. By the time 'Devdas' was released in 1935, he was already a household name. He was the singer of the century and every singer from Mukesh to Kishore Kumar have been inspired by him,' said Dutt.

Some of Saigal's all time hits are 'Jab dil hi toot gaya', 'Ek bangla bane nyara', 'Dukhake din aab bitat nahin', 'Duniyamen hun duniyaka talabgaar nahin hun' and 'So ja rajkumari so ja'. Saigal was born in Jammu, where his father was a tehsildar at the court of the ruler of Jammu and Kashmir. He took to music in the 1930s after the Kolkata-based film studio New Theatres, owned by B.N. Sircar, hired him. Before that, he worked as a salesman at Remington Typewriters there.
Having received his grounding in Indian classical music from Ustad Fayyaz Khan, Saigal was afraid of his father who was against his singing. The multilingual artist thus started singing in his initial movies under the name of Saigal Kashmiri. The book has many more interesting stories of Saigal's life. It's price is Rs 150.
Sunday, January 17, 2010
'गुलज़ार करेले की सब्ज़ी हैं, यार!'

उस लड़कपन से जवानी की कारी बदरी तक लंबा वक़्त बीत चला है और इस दौरान कब गुलज़ार ज़ेहन मे जावेद अख़्तर की जगह हावी होते गए पता ही नहीं चला। ठीक उस अच्छे बच्चे की तरह जो बचपन में सारी सब्ज़ी-तरकारी खाता है सिवाय करेले की सब्ज़ी के क्यूंकि शायद उसकी ज़ुबान तक तक उस बेहतरीन ज़ायके को पकड़ने में नाकाम रहती है। बड़े होने पर वही करेला ख़ूब सुहाता है।तो गुलज़ार से अपनी दोस्ती भी कुछ इसी क़िस्म की रही। शब्द, कानों से गुज़रने के बाद दिमाग़ के सही ठिकानों पर टकराते गए और होठों पर कभी मुस्कान तो कभी चेहरे की उदासी में बदलते गए। वो गोरे रंग के बदले श्याम रंग दई दे के बार्टर सिस्टम की परतें एकदम खुलने लगीं, नायिका का कुछ सामान क्यूं नायक के पास पड़ा है समझ आने लगा, उसकी हंसी से फसल पका करती थी...कैसे...जानने की ज़रूरत नहीं रह गई, गोरे बदन पे उंगली से नाम अदा लिखने के मायने और पीपल के घने पेड़ के साये में गिलहरी के झूठे मटर खाने की इमेजरी दिल की धड़कन को बेतरह तेज़ कर गई।

और इन दिनों वही गुलज़ार, 'दिल तो बच्चा है जी' के साथ उथल-पुथल मचाए हुए हैं। एक ऐसा गाना जिसमें मुकेश, राजकपूर, 'दसविदानिया' का गिटार, 60 के दशक का ऑरकेस्ट्रा अरेंजमेंट, टैप डांस, राहत की मासूमियत सब गड्ड-मड्ड होने लगते हैं। लेकिन, ख़ुशकिस्मती से ये सब लफ़्ज़ों की उस लड़ी में गुंथे हैं जहां इनकी ख़ुशबू ख़त्म नहीं होती। बल्कि हर बार सुनने में कोई नया ही रंग नुमाया होता है। राहत ने बख़ूबी गाया है इसे। ज़रा ध्यान से सुनिएगा, गाने में पहली बार जब राहत ने 'बच्चा' बोला है, क्यूंकि बाक़ी के गाने में 'बच्चे' की साउंड, सपाट मिलेगी ऐसी अल्हड़ नहीं।ये गुलज़ार ही हैं जो दिल को कमीना कहने के बाद भी उसकी मासूमियत बरक़रार रख पाते हैं। ऐसा नहीं है कि जावेद अख़्तर अच्छे गीतकार नहीं है, लेकिन गुलज़ार...उनकी लीग ही अलग है।
(ये पोस्ट 'दिल तो बच्चा है जी' को रिपीट मोड में प्ले कर लिखी गई है ;-)