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Thursday, March 11, 2010

ऑस्कर 2010 : क्या ’डिस्ट्रिक्ट 9′ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कहलाने की हक़दार नहीं है?

मिहिर पंड्या का ये लेख 7 मार्च को यानी ऑस्कर नाइट से ठीक एक दिन पहले उनके ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था। लेख की सामग्री अब भी प्रासंगिक है। यहां इस ब्लॉग के नियमित पाठकों के लिए...
यह ऑस्कर भविष्यवाणियाँ नहीं हैं. सभी को मालूम है कि इस बार के ऑस्कर जेम्स कैमेरून द्वारा रचे जादुई सफ़रनामे ’अवतार’ और कैथेरीन बिग्लोव की युद्ध-कथा ’दि हर्ट लॉकर’ के बीच बँटने वाले हैं. मालूम है कि मेरी पसन्दीदा फ़िल्म ’डिस्ट्रिक्ट 9’ को शायद एक पुरस्कार तक न मिले. लेकिन मैं इस बहाने इन तमाम फ़िल्मों पर कुछ बातें करना चाहता हूँ. नीचे आई फ़िल्मों के बारे में आप आगे बहुत कुछ सुनने वाले हैं. कैसा हो कि आप उनसे पहले ही परिचित हो लें, मेरी नज़र से…

अवतार: मेरी नज़र में इस फ़िल्म की खूबियाँ और कमियाँ दोनों एक ही विशेषता से निकली हैं. वो है इसकी युनिवर्सल अपील और लोकप्रियता. यह दरअसल जेम्स कैमेरून की ख़ासियत है. उनकी पिछली फ़िल्में ’टाइटैनिक’ और ’टर्मिनेटर 2 : जजमेंट डे’ इसकी गवाह हैं. मुझे आज भी याद है कि ’टर्मिनेटर 2’ ही वो फ़िल्म थी जिसे देखते हुए मुझे बचपन में भी ख़ूब मज़ा आया था जबकि उस वक़्त मुझे अंग्रेज़ी फ़िल्में कम ही समझ आती थीं. तो ख़ूबी ये कि इसकी कहानी सरल है, आसानी से समझ आने वाली. जिसकी वजह से इसे विश्व भर में आसानी से समझा और सराहा जा रहा है. और कमी भी यही कि इसकी कहानी सरल है, परतदार कहानियों की गहराईयों से महरूम. जिसकी वजह से इसके किरदार एकायामी और सतही जान पड़ते हैं.
इस फ़िल्म की अच्छी बात तो यही कही जा सकती है कि यह नष्ट होती प्रकृति को इंसानी लिप्सा से बचाए जाने का ’पावन संदेश’ अपने भीतर समेटे है. लेकिन यह ’पावन संदेश’ ऐसा मौलिक तो नहीं जिसे सारी दुनिया एकटक देखे. सच्चाई यही है कि ’अवतार’ का असल चमत्कार उसका तकनीकी पक्ष है. किरदारों और कहानी के उथलेपन को यह तकनीक द्वारा प्रदत्त गहराई से ढकने की कोशिश करती है. यही वजह है कि फ़िल्म की हिन्दुस्तान में प्रदर्शन तिथि को दो महीने से ऊपर बीत जाने के बावजूद कनॉट प्लेस के ’बिग सिनेमा : ओडियन’ में सप्ताहांत जाने पर हमें टिकट खिड़की से ही बाहर का मुँह देखना पड़ता है. मानना पड़ेगा, थ्री-डी अनुभव चमत्कारी तो है. पैन्डोरा के उड़ते पहाड़ और छूते ही बंद हो जाने वाले पौधे विस्मयकारी हैं. और एक भव्य क्लाईमैक्स के साथ वो मेरी उम्मीदें भी पूरी करती है. लेकिन मैं अब भी नहीं जानता हूँ कि अगर इसे एक सामान्य फ़िल्म की तरह देखा जाए तो इसमें कितना ’सत्त’ निकलेगा.

दि हर्ट लॉकर : बहुत उम्मीदों के साथ देखी थी शायद, इसलिए निराश हुआ. बेशक बेहतर फ़िल्म है. लेकिन ’आउट ऑफ़ दि बॉक्स’ नहीं है मेरे लिए. कुछ खास पैटर्न हैं जो इस तरह की हॉलिवुडीय ’वॉर-ड्रामा’ फ़िल्में फ़ॉलो करती हैं, हर्ट लॉकर भी वो करती है. फिर भी, मेरी समस्याएं शायद इससे हैं कि वो जो दिखा रही है, आखिर बस वही क्यों दिखा रही है? लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि वो जिस पक्ष की कहानी दिखाना चाहती है उसे असरदार तरीके से दिखा रही है. एक स्तर पर ’दि हर्ट लॉकर’ की तुलना स्टीवन स्पीलबर्ग की फ़िल्म ’सेविंग प्राइवेट रेयान’ से की जा सकती है. लेकिन यहाँ मैं यह कहना चाहूँगा कि एक महिला द्वारा निर्देशित होने के बावजूद यह बहुत ही मर्दवादी फ़िल्म है. बेशक युद्ध-फ़िल्मों में एक स्तर पर ऐसा होना लाज़मी भी है. इसका नायक एक ’सम्पूर्ण पुरुष नायकीय छवि’ वाला नायक है. तुलना के लिए बताना चाहूँगा कि ’सेविंग प्राइवेट रेयान’ में जिस तरह टॉम हैंक्स अपने किरदार में एक फ़ेमिनिस्ट अप्रोच डाल देते हैं उसका यहाँ अभाव है.
मेरी नज़र में हर्ट लॉकर का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है उसका ’तनाव निर्माण’ और ’तनाव निर्वाह’. और तनाव निर्माण का इससे बेहतर सांचा और क्या मिलेगा, फ़िल्म का नायक एक बम निरोधक दस्ते का सदस्य है और इराक़ में कार्यरत है. मुझे न जाने क्यों हर्ट लॉकर बार-बार दो साल पहले आई हिन्दुस्तानी फ़िल्म ’आमिर’ की याद दिला रही थी. कोई सीधा संदर्भ बिन्दु नहीं है. लेकिन दोनों ही फ़िल्मों का मुख्य आधार तनाव की सफ़ल संरचना है और दोनों ही फ़िल्मों में विपक्ष का कोई मुकम्मल चेहरा कभी सामने नहीं आता. और गौर से देखें तो हर्ट लॉकर में वही अंतिम प्रसंग सबसे प्रभावशाली बन पड़ा है जहाँ अंतत: ’फ़ेंस के उधर’ मौजूद मानवीय चेहरा भी नज़र आता है. ’दि हर्ट लॉकर’ आपको बाँधे रखती है. और कुछ दूर तक बना रहने वाला प्रभाव छोड़ती है.

इनग्लेरियस बास्टर्ड्स: मैं मूलत: टैरेन्टीनो की कला का प्रशंसक नहीं हूँ. मेरे कुछ अज़ीज़ दोस्त उसके गहरे मुरीद हैं. इस ज़मीन पर खड़े होकर मेरी टैरेन्टीनो से बात शुरु होती है. ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ शुद्ध एतिहासिक संदर्भों के साथ एक शुद्ध काल्पनिक कहानी है. ख़ास टैरेन्टीनो की मोहर लगी. इस फ़िल्म को आप टैरेन्टीनो के पुराने काम के सन्दर्भ में पढ़ते हैं. ’पल्प फ़िक्शन’ के संदर्भ में पढ़ते हैं. पिछली संदर्भित फ़िल्म ’दि हर्ट लॉकर’ की तरह ही ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ भी अपनी कथा-संरचना में ’तनाव निर्माण’ और ’तनाव निर्वाह’ को अपना आधार बनाती है. फ़िल्म का शुरुआती प्रसंग ही देखें, उसमें ’तनाव निर्माण’ और उसके साथ बदलता इंसानी व्यवहार देखें. आप समझ जायेंगे कि टैरेन्टीनो इस पद्धति के साथ हमारा परिचय इंसानी व्यव्हार की कमज़ोरियों, उसकी कुरूपताओं से करवाने वाले हैं.
और इस शुरुआती प्रसंग के साथ ही क्रिस्टोफर वॉल्टज़ परिदृश्य में आते हैं. मैं अब भी मानता हूँ कि फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाने वाले ब्रैड पिट का काम भी नज़र अन्दाज़ नहीं किया जाना चाहिए लेकिन वॉल्टज़ यहाँ निर्विवाद रूप से बहुत आगे हैं. उनका लोकप्रियता ग्राफ़ इससे नापिए कि अपने क्षेत्र में (सहायक अभिनेता) आई.एम.डी.बी. पर उन अकेले को जितने वोट मिले हैं वो बाक़ी चार नामांकितों को मिले कुल वोट के दुगुने से भी ज़्यादा है. ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ को सम्पूर्ण फ़िल्म के बजाए अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर पढ़ा जाना चाहिए. यह टैरेन्टीनो को पढ़ने का पुराना तरीका है, उन्हीं का दिया हुआ. हिंसा की अति होते हुए भी उनकी फ़िल्म कुरूप नहीं होती, बल्कि वह एक दर्शनीय फ़िल्म होती है. जैसा मैंने पहले भी कहा है, वे हिंसा का सौंदर्यशास्त्र गढ़ रहे हैं. यह फ़िल्म उस किताब का अगला पाठ है. कई सारे उप-पाठों में बँटा.

अप इन दि एयर : जार्ज क्लूनी. जार्ज क्लूनी. जार्ज क्लूनी. और ढेर सारा स्टाइल. इस फ़िल्म का सबसे बड़ा बिन्दु मेरी नज़र में यही है. यह एक बेहतर तरीके से बनाई, सेंसिबल कहानी है जिसकी जान इसके ट्रीटमेंट में छिपी है. तुलना के लिए फ़रहान अख़्तर की फ़िल्में देखी जा सकती हैं. शहर दर शहर उड़ती इस फ़िल्म के किरदार कॉर्पोरेट में काम करने वाले मेरे दोस्तों को बहुत रिलेटेबल लग सकते हैं. फ़िल्म में बहुत से तीखे प्रसंग हैं जिन्हें कसी स्क्रिप्ट में पेश किया गया है. और वो बहन-साढू की तसवीर के साथ एयरपोर्ट-एयरपोर्ट घूमना तो बहुत ही मज़ेदार है. क्या पुरस्कार मिलेगा ये तो पता नहीं लेकिन सुना है कि यह कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों की दौड़ में दूसरे नम्बर पर भाग रही है. अगर आप इस रविवार एक ’अच्छी’ फ़िल्म देखकर अपनी शाम सुकून से बिताना चाहते हैं तो यह फ़िल्म आपके लिए ही बनी है.

डिस्ट्रिक्ट 9 : नामांकनों की लम्बी सूची में यह सबसे चमत्कारी फ़िल्म है. जी हाँ, यह मैं बहुचर्चित ’अवतार’ थ्री-डी में देखने के बाद कह रहा हूँ. दरअसल मैं इसी फ़िल्म पर बात करना चाहता हूँ. ‘डिस्ट्रिक्ट 9’ आपको हिला कर रख देती है. ध्वस्त कर देती है. यह दूर तक पीछा करती है और अकेलेपन में ले जाकर मारती है. इस विज्ञान-फंतासी को इसका तकनीकी पक्ष नहीं, इसका विचार अद्भुत फ़िल्म बनाता है. ऐसा विचार जो आपको डराता भी है और आपकी आँखे भी खोलता है.
जिस तरह पिछले साल आयी फ़िल्म ’दि डार्क नाइट’ सुपरहीरो फ़िल्मों की श्रंखला में एक पीढ़ी की शुरुआत थी उसी तरह से ’डिस्ट्रिक्ट 9’ विज्ञान-फंतासी के क्षेत्र में एक नई पीढ़ी के कदमों की आहट है. ’डार्क नाइट’ एक सामान्य सुपरहीरो फ़िल्म न होकर एक दार्शनिक बहस थी. यह उस शहर के बारे में खुला विचार मंथन थी जिसकी किस्मत एक अनपहचाने, सिर्फ़ रातों को प्रगट होने वाले, मुखौटा लगाए इंसान के हाथों में कैद है. क्या उस शहर को किसी भी अन्य सामान्य शहर की तुलना में ज़्यादा सुरक्षित महसूस करना चाहिए? ठीक उसी तरह, ’डिस्ट्रिक्ट 9’ भी एक सामान्य ’एलियन फ़िल्म’ न होकर एक प्रतीक सत्ता है. हमारी धरती पर घटती एक ’एलियन कथा’ के माध्यम से यह आधुनिक इंसानी सभ्यता की कलई खोल कर रख देती है. विकास की तमाम बहसें, उसके भोक्ता, उसके असल दुष्परिणाम, हमारे शहरी संरचना के विकास की अनवरत लम्बी होती रेखा और हाशिए पर खड़ी पहचानों से उसकी टकराहट, भेदभाव, इंसानी स्वभाव के कुरूप पक्ष, सभी कुछ इसमें समाहित है. और इस बात की पूरी संभावना जताई जा रही है कि अपनी उस पूर्ववर्ती की तरह ’डिस्ट्रिक्ट 9’ को भी ऑस्कर में नज़रअन्दाज़ कर दिया जाएगा. ’सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म’ की दौड़ में उसका शामिल होना भी सिर्फ़ इसलिए सम्भव हो पाया है कि अकादमी ने इस बार नामांकित फ़िल्मों की संख्या 5 से बढ़ाकर 10 कर दी है.
अपनी शुरुआत से ही ’डिस्ट्रिक्ट 9’ एक प्रामाणिक डॉक्युड्रामा का चेहरा पहन लेती है. मेरे ख़्याल से यह अद्भुत कथा तकनीक फ़िल्म के लिए आगे चलकर अपने मूल विचार को संप्रेषित करने में बहुत कारगर साबित होती है. शुरुआत से ही यह अपना मुख्य घटनास्थल (जहाँ स्पेसशिप आ रुका है) अमरीका के किसी शहर को न बनाकर जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ़्रीका) को बनाती है और केन्द्रीकृत विश्व-व्यवस्था के ध्रुव को हिला देती है. एलियन्स का घेट्टोआइज़ेशन और उनका शहर से उजाड़ा जाना हमारे लिए ऐसा आईना है जिसमें हमारे शहरों को अपना विकृत होता चेहरा देखना चाहिए. और इस ’रियलिटी चैक’ के बाद कहानी जो मोड़ लेती है वो आपने सोचा भी नहीं होगा. फ़िल्म का अंतिम दृश्य एक कभी न भूलने वाला, हॉन्टिंग असर मेरे ऊपर छोड़ गया है. नए, बेहतरीन कलाकारों के साथ इस फ़िल्म का चेहरा और प्रामाणिक बनता है लेकिन तकनीक में यह कोई ओछा समझौता नहीं करती.
मैं आश्चर्यचकित हूँ इस बात से कि क्यों इस फ़िल्म के निर्देशक को हम इस साल के सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों की सूची में नहीं गिन रहे? और शार्लटो कोप्ले (Sharlto Copley) जिन्होंने इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाई है को क्यों नहीं इस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता गिना जा रहा? क्या, हिंसा की अति? इस फ़िल्म के मुख्य किरदार की समूची यात्रा (फ़िल्म की शुरुआत से आखिर तक का कैरेक्टर ग्राफ़) इतनी बदलावों से भरी, अविश्वसनीय और हृदय विदारक है कि उसका सर्वश्रेष्ठ की गिनती में न होना उस सूची के साथ मज़ाक है.
पोस्ट ’क्योटो’ और ’कोपनहेगन’ काल में यह कोरा संयोग नहीं है कि दो ऐसी विज्ञान फंतासियाँ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म की दौड़ में हैं जिनमें मनुष्य प्रजाति खलनायक की भूमिका निभा रही है. यह और भी रेखांकित करने लायक बात इसलिए भी बन जाती है जब पता चले कि बीते सालों में अकादमी विज्ञान-फंतासियों को लॆकर आमतौर से ज़्यादा नरमदिल नहीं रही है. असल दुनिया का तो पता नहीं, लेकिन लगता है कि अब ’साइंस-फ़िक्शन’ सिनेमा अपनी सही राह पहचान गया है.

अप: वाह, क्या फ़िल्म है. एक खडूस डोकरा (बूढ़ा) अपने घर के आस-पास फैलते जाते शहर से परेशान है. और वो अपने घर में ढेर सारे गुब्बारे लगाकर घर सहित उड़ जाता है, अपने सपनों की दुनिया की ओर! क्या कमाल की बात है कि यह एनिमेशन फ़िल्म भी हमारे यांत्रिक होते जा रहे शहरी जीवन और शहरी विकास के मॉडल पर एक तीखी टिप्पणी है. ’अप’ एनीमेशन फ़िल्म होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए नामांकित हुई है. इससे ही आप उसके चमत्कार का अंदाज़ा लगा सकते हैं. ख़ास बात देखने की है कि पिछले साल की विजेता ’वॉल-ई’ की तरह ही यह भी इंसानी सभ्यता के अंधेरे मोड़ की तरफ़ जाने की एक कार्टूनीकृत भविष्यवाणी है.
क्या आपको मालूम है :
- इस साल पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के दो सबसे बज़बूत दावेदार जेम्स कैमेरून (अवतार) और कैथेरीन बिग्लोव (दि हर्ट लॉकर) पूर्व पति-पत्नी हैं.
- तमाम अन्य पूर्ववर्ती पुरस्कार तथा सिनेमा आलोचक इस बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का मुकाबला इन्हीं दोनों पूर्व पति-पत्नी जोड़े के बीच गिन रहे हैं. लेकिन आम दर्शक के बीच आप क्वेन्टीन टैरेन्टीनो (इनग्लोरियस बास्टर्ड्स) की लोकप्रियता और प्रभाव का अन्दाज़ा इस तथ्य से लगा सकते हैं कि आई.एम.डी.बी. वेबसाइट पर पब्लिक पोल में ऑस्कर की पिछली रात तक भी वे दूसरे स्थान पर चल रहे थे.
- ऑस्कर के पहले मिलने वाला इंडिपेंडेंट सिनेमा का ’स्पिरिट पुरस्कार’ बड़ी मात्रा में ’प्रेशियस’ ने जीता है. कई सिनेमा आलोचक इस फ़िल्म में माँ की भूमिका निभाने वाली अदाकारा मोनिक्यू (Mo’nique) की भूमिका को इस साल का सर्वश्रेष्ठ अदाकारी प्रदर्शन गिन रहे हैं.
- अगर कैथरीन बिग्लोव ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीता (और जिसकी काफ़ी संभावना है.) तो वे यह पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला होंगी. इससे पहले केवल तीन महिलाएं सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए नामांकित हुई हैं. लीना वार्टमुलर (Lina Wertmuller) ’सेवन ब्यूटीज़’ के लिए (1976), जेन कैम्पियन (Jane Campion) ’दि पियानो’ (1993) के लिए और बहुचर्चित ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ (2003) के लिए सोफ़िया कोपोला (Sofia Coppola).
(courtesy: http://mihirpandya.com/)

1 comment:

  1. यह रपट तो बहा के ले जा रही है....फिल्म से बेहतर तो रपट ही है
    लाजवाब

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