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Thursday, June 24, 2010

Censor Board denies certificate to 'Flames of the Snow'

(Says, film justifies Maoist ideology)




- NDFS Desk



New Delhi, June 22: Indian Censor Board has refused to certify ‘Flames of the Snow’, a documentary on Nepal, for public screening. The Board feels that the film ‘tells about Maoist movement in Nepal and justifies its ideology.’ It feels that ‘keeping in view the recent Maoist violence in some parts of the country’, the permission of its public screening can not be given. Produced under the joint banner of ‘GRINSO’ and ‘Third World Media’, the 125 minute film has been produced by Anand Swaroop Verma, a senior journalist and expert on Nepalese affairs. He has also written the script for the film. The film has been directed by Ashish Srivastava.
Reacting to the decision of the Board, Mr. Verma said it is quite surprising as the film does not have any reference at all to the current Maoist movement in India. The film is only about the struggle of the people of Nepal against the despotic Monarchy and the anarchic reign of Ranas. With the formation of Nepal in the year 1770 by Prithvi Narayan Shah, the foundation was laid for Monarchy in Nepal which was finally given a burial in the year 2008 when Nepal was declared a Republic. Thus 238 years of Monarchy also included 105-year rule of Rana dynasty which is known as the black chapter in the history of Nepal.
Talking about the film, Mr. Verma further said that the film actually shows how in 1876 Lakhan Thapa, a young man from Gorkha district organized the peasants against the atrocities being unleashed by the rulers of Rana dynasty and was, later, put on gallows by these rulers. Even today, Lakhan Thapa is remembered as the first Nepali martyr. Exploring the movements led by ‘Praja Parishad’ and ‘Nepali Congress’ against the despotic system, the film focuses on the armed struggle carried on under the leadership of the Maoists for 10 years and unfolds the story of how the movement mobilized the Nepalese people by first attacking and dismantling the feudal system in the rural areas and subsequently taking the people’s movement to the urban areas bringing more urbanites into its fold.
The film begins with the establishment of monarchy in Nepal, further touching the developments like the elections for the constituent assembly, the emergence of Maoists as the largest party in the elections and finally ends by showing the decline and complete disappearance of Monarchy and Nepal being declared a Republic.
Taking note of the objections put forward by the Censor Board, it seems that the Board will never give its certification to any political film made on Nepal since no political film on Nepal can escape underlying the prominent role of Maoists. Maoist party was heading the government in Nepal till May 2009 and even today is the largest party in the Constituent Assembly and is the main opposition party. Moreover its president Pushp Kamal Dahal ‘Prachand’ as the Prime Minister of Nepal had visited India on the invitation of the Government of India.
Mr Verma is now submitting his film to Revising Committee of the Board.

हिंदी का 'जलसा'

जाने माने कवि असद ज़ैदी ने हाल ही में अपनी एक एक पुरानी महत्वाकांक्षी योजना को ठोस सूरत देते हुए जलसा नाम के प्रकाशन का पहला अंक निकाला है. इसे वे साहित्य और विचार का अनियतकालीन आयोजन कहते हैं. अंग्रेज़ी के विख्यात प्रकाशन ग्रान्टा की तर्ज़ पर इसे एक उपशीर्षक दिया गया है - अधूरी बातें. जाहिर है अगले अंकों में यह उपशीर्षक अलग अलग होंगे. बिना किसी विज्ञापन की मदद से छपी इस पत्रिका/पुस्तक की छपाई और समायोजन बेहतरीन है और देश के युवा और वरिष्ठ कवि-लेखकों की महत्वपूर्ण रचनाएं इसमें शामिल हैं. अगर आप अपनी लाइब्रेरी को थोड़ा और सम्पन्न बनाना चाहते हैं तो यक़ीनन जलसा आपके संग्रह में होनी चाहिये. जलसा को प्राप्त करने के लिए नीचे लिखे पते पर सम्पर्क किया जा सकता है: असद ज़ैदीबी- ९५७, पालम विहार, गुड़गांव १२२ ०१७, फोन : 09868126587,
ईमेल: jalsapatrika@gmail.com

जलसा से साभार देवी प्रसाद मिश्र की कविता

फ़्रेंच सिनेमा
(लगे हाथ नग्नता पर एक फ़ौरी विमर्श)

ख़ान मार्केट के पास जहां कब्रिस्तान है
वहां बस रुकती नहीं है - मैं चलती बस से
उतरा और मरते-मरते बचा : यह फ़्रेंच फ़िल्म का कोई
दृश्य होता जिनकी डीवीडी लेने मैं
करीब क़रीब हर हफ़्ते उसी तरफ़ जाया करता हूं
यह हिन्दी फ़िल्मों का कोई दृश्य शायद ही हो पाता क्योंकि
इन फ़िल्मों का नायक अमूमन कार में चलता है
और बिना आत्मा के शरीर में बना रहता है वह देश में भी
इसी तरह बहुत ग़ैरज़िम्मेदार तरीक़े से घूमता रहता है
वह विदेशियों की तरह टहलता है और सत्तर करोड़ की फ़िल्म में
हर दो मिनट में कपड़े बदलता है और अहमक पूरी फ़िल्म में
पेशाब नहीं करता है और अपने कपड़ों से नायिका के कपड़ों को इस तरह से
रगड़ता है कि जैसे वह संततियां नहीं विमल सूटिंग के थान पैदा करेगा
मतलब यह कि इन फ़िल्मों में बिना हल्ला मचाए निर्वस्त्र हुआ नहीं जाता
इन फ़िल्मों में सत्ता को नंगा नहीं किया जाता
जो कलाओं की दो बुनियादी वैधताएं हैं.

Saturday, June 12, 2010

ये कौन सी राजनीति है?


-शैलेंद्र कुमार
दरअसल रवीश कुमार के ब्लॉग पर फिल्म की समीक्षा पढ़ने के बाद ही मैंने इसे देखने का मन बनाया, लेकिन देखने के बाद घोर निराशा हुई..फिल्म से भी और टिप्पणीकर्ता से भी। मुझे ऐसे किसी निर्देशक से आपत्ति नहीं है..जो खुद कल्पना की दुनिया में रहता हो और लोगों को अपना दिमाग घर पर छोड़कर फिल्म देखने की सलाह देता हो...। मुझे दिक्कत उन निर्माताओं से होती है..जो यथार्थपरक फिल्में बनाने का दावा करते हैं..और फिर दर्शकों को बेवकूफ बनाने की कोशिश करते हैं। मैं फिल्म के बारे में कुछ निष्कर्ष बताना चाहता हूं..जो उन लोगों को अच्छी तरह समझ में आएगी..जिन्होंने फिल्म देखी होगी..। मुझे उम्मीद है पाठकों में से शायद ही कोई बचा होगा..।
1. ये फिल्म राजनीति पर आधारित है, ये बात विश्वसनीय नहीं लगती..। ये किसी माफिया सरगना के परिवार में हो रही सत्ता के संघर्ष की कहानी ज्यादा लगती है..। जिस तरीके से फिल्म के कलाकार एक के बाद एक हत्याओं को अंजाम देते हैं, वो किसी भी तरह, किसी राजनीतिक परिवार का खेल नहीं लगता..। भारतीय राजनीति के इतिहास में क्या कोई ऐसी घटना याद है?
2. राजनीति में सभी को पता है कि नेता की हत्या से पार्टी को नुकसान के बजाय फायदा ही पहुंचता है..लेकिन फिल्म के धुरंधर नेता..हर समस्या का समाधान मर्डर में देखते हैं...। मुझे नहीं लगता..देश का अदना सा पॉलिटिशयन भी ऐसी गलती करता होगा...। निचले स्तर पर ऐसा संभव भी हो..लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठी पार्टी के लोग ये बात नहीं जानते होंगे...ये मानना मुश्किल है...। फिल्म में जब कभी निर्देशक को लगा कि राजनीतिक दांव-पेंच दिखाने के लिए दिमाग लगाना होगा, नई सिचुएशन क्रिएट करनी होगी....वहां उन्होंने हत्या का सहारा लिया और समस्या सुलझा ली...।
3. ये फिल्म महाभारत से ज्यादा मारियो पूजो के उपन्यास गॉड फादर से मिलती-जुलती है..। फिल्म में बिल्कुल वही सीन डाले गये हैं..जैसे रनवीर को पुलिस अफसर द्वारा रिवाल्वर के बट से चेहरे पर मारना, गाल का सूजना, विदेशी गर्लफ्रेंड का कार-ब्लास्ट में मारा जाना...बड़े भाई की मदद के लिए छोटे(सीधे-सादे) भाई का गैंगवार में शामिल होना...। ये ऐसे सीन हैं..जो इतनी बार अलग-अलग फिल्मों में रीपीट किये गये हैं कि कोई भी आसानी से पकड़ सकता है..।
4. प्रकाश झा ने गॉड फादर और महाभारत को मिलाने के चक्कर में चरित्रों के साथ खिलवाड़ किया..। गॉड फादर में बड़ा भाई उग्र होता है और इसी वजह से मारा जाता है...(जैसा कि फिल्म में अर्जुन रामपाल को दर्शाया गया है)। इसके बाद छोटा सामने आता है और सभी दुश्मनों का बेरहमी से खात्मा करता है..। अगर ये फिल्म इस उपन्यास से प्रेरित है..तो ठीक है...लेकिन जब महाभारत की बात आती है..तो कहानी बेसिर-पैर लगती है..। जैसे अगर बड़ा भाई युधिष्ठिर है.....और उसकी मदद और, उसे सत्ता दिलाने के लिए अर्जुन(रनवीर) आये तो बात ठीक लगती है....। लेकिन फिल्म में बड़ा भाई युधिष्ठिर नहीं, भीम के चरित्र से मिलता-जुलता है..। अब भला भीम को बचाने के लिए अर्जुन की क्या जरुरत है? बेहतर होता अगर अर्जुन रामपाल के चरित्र को सीधा-सच्चा दिखाया गया होता...और फिर उसकी मदद को गांडीवधारी अर्जुन (रनवीर) आते..। लेकिन जैसा मैने कहा....दो कथानकों को मिलाने के चक्कर में सब गड्ड-मड्ड हो गया...।
5. कैटरीना का अर्जुन रामपाल से विवाह करना और उसके लिए दी गई दलील इतनी हास्यास्पद है कि यकीन करना मुश्किल होता है..। आज के दौर में क्या कोई भी पढ़ी-लिखी लड़की...सिर्फ इसलिए हीरो के भाई से शादी कर लेगी...क्योंकि ऐसा नहीं करने पर उसका बाप जबरदस्ती उसकी शादी विलेन से करवा देगा ? आज के दौर में क्या कोई भी बाप अपनी पढ़ी-लिखी समझदार बेटी का ब्याह, जबरदस्ती करवा सकता है..? आजकल गांव-घर के बच्चे तो मां-बाप की सुनते ही नहीं...और कैटरीना जैसी आज़ाद ख्यालों वाली लड़की ऐसा कर लेगी...ये मानना मुश्किल है...। आज के दौर में बेटी को गाय-बैल की तरह किसी खूंटे में बांधना...संभव नहीं है..। प्रकाश झा को इसके लिए कोई अच्छी दलील देनी चाहिए थी..। (जैसे- कैटरीना का अपना लाल बत्ती में घूमने का सपना, ऐसे मामलों में फैसले हमेशा निजी स्वार्थ से प्रेरित होते हैं, या फिर रनवीर के परिवार या उसके सपने के लिए अपनी खुशियों का बलिदान करना)
6. फिल्म देखकर साफ लगता है कि प्रकाश झा और नाना पाटेकर के बीच रिश्ते ठीक नहीं रहे...। नाना को कृष्ण का रोल तो दिया गया...लेकिन धीरे-धीरे उन्हें अर्जुन (रनवीर) का पिछलग्गू बना दिया..। फिल्म में इक्का-दुक्का जगहों को छोड़ दें...तो हर जगह सोचने की मुद्रा में रनवीर हैं, और नाना उसकी हां में हां मिला रहे हैं..। अगर सारी प्लानिंग अर्जुन को ही करनी थी...तो कृष्ण के रोल की क्या जरुरत थी...। नाना को कभी खुलकर एक्टिंग का मौका नहीं दिया गया..फिर भी एक-दो जगहों पर वो अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे...।
7. कहानी में कुछ ऐसी चीजें भी हैं..जो यथार्थ से मेल नहीं खाती..। जैसे, जो राज्य की सबसे बड़ी पार्टी हो, वर्षों से जनता के विश्वास हासिल कर रही हो....उसकी पार्टी को बहुमत ना मिले (जबकि दलित वोट उसके साथ है) और उससे टूटकर नई पार्टी बनानेवाले को छह महीने के अंदर जीतता हुआ दिखाया जाए...तो ये बात हजम करना मुश्किल है...। खासकर तब, जब मुख्यमंत्री पद के दावेदार (अर्जुन रामपाल) पर मारपीट और रेप जैसे मामले चल रहे हों...। ये चीजें सिर्फ इसलिए डाली गईं...ताकि कैटरीना को चुनाव लड़ता दिखाया जा सके ( सोनिया के तौर पर पहले से ही उसका प्रोमोशन किया जा रहा था)। बेहतर होता..अर्जुन रामपाल की हत्या के लिए कोई ठोस वजह तलाशी जाती।
8. फिल्म का सबसे घटिया सीन था...कुंती का अपने बेटे कर्ण (सूरज) से मिलने जाना....। महाभारत में कुंती ने कभी भी राजनीति नहीं की...बल्कि एक आदर्श मां का रोल निभाया...। उनका कर्ण के पास जाने का मकसद था अपने बेटों की जान बचाना...या फिर य़ुद्ध को रोकना (अगर कर्ण पांडवों के साथ होता, तो दुर्योधन युद्ध करने का साहस नहीं करता)। फिल्म में ऐसा कोई भी डॉयलॉग नहीं था...बल्कि राजनीतिक बातें थीं...। ये सीन इमोशनल कम... कॉमेडी ज्यादा दिख रहा था..। सबसे ज्यादा अखरनेवाली चीज थी भाषा..। पूरी फिल्म में कलाकार, यूपी-बिहार की अपभ्रंश हिन्दी का प्रयोग करते हैं...लेकिन इस सीन में रनवीर की माता अचानक शुद्ध संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलने लगीं...। पता नहीं प्रकाश झा आधुनिक राजनीति और प्राचीन महाभारत में से किसी एक लीक पर क्यों नहीं चल पाये...।
9. फिल्म के एक सीन में रणवीर कपूर पिता की लाश के पास बैठे हैं...और कैमरे का फोकस उनके चेहरे से होते हुए लाश पर जाता है..। इसी वक्त लाश की आंखों की पुतलियां हिलने लगती हैं...। एडिटिंग की इतनी बड़ी गलती...सी-ग्रेड फिल्में बनानेवाले छोटे-मोटे निर्देशक भी नहीं करते..।
10. फिल्म के आखिर में मनोज वाजपेयी....गड़बड़ी की खबर मिलते ही अचानक उठकर निकल पड़ते हैं..और अकेले गाड़ी लेकर सुनसान फैक्ट्री पहुंच जाते हैं....। उनके पीछे अजय देवगन भी अकेले गाड़ी लेकर निकल पड़ते हैं...। इस सीन में प्रकाश झा की बॉलीवुडियन सोच ( इसमें निर्देशक दर्शकों को पूरी तरह बेवकूफ समझते हैं और चाहते हैं कि वो जो दिखाएं पब्लिक उस पर यकीन करे) पूरी तरह हावी है...। अब जो बंदा सारा दिन दूसरों को टपकाने का खेल कर रहा हो..क्या वो सपने में भी अकेले निकलने की सोचेगा? वो भी तब..जब दसियों बंदूकधारी आसपास हों...। चलिए मान लेते हैं कि मनोज वाजपेयी नशे में थे...लेकिन अजय देवगन तो पूरी होश में थे...। फोन पर उन्होंने मनोज से ये तो पूछा कि कहां जा रहे हो...लेकिन ना तो अपने लोगों को खबर की और ना ही पुलिस को...। दोनों अकेले पहुंच गये...। और तो और, सीधे-सादे दिमाग लगानेवाले रनवीर भी रिवॉल्वर लेकर शिकार करने पहुंच गये..। ये नेता थे या हार्डकोर क्रिमिनल? कुल मिलाकर अपनी कहानी पूरी करने के लिए प्रकाश झा ने आम निर्देशकों की तरह लॉजिक को बिल्कुल दरकिनार कर सीन फिल्मा दिया...।
अब प्रकाश झा की नहीं...कलाकारों और उनकी अदाकारी की बात करते हैं....। पूरी फिल्म में अजय देवगन छाये हुए हैं....और मनोज वाजपेयी ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है...। रनवीर कपूर..इतनी फुटेज के बाद भी औसत दिखे..। इतने मौकों के बावजूद रनवीर के चेहरे या आंखों से ना तो गुस्सा टपक रहा था और ना ही फौलादी इरादे जाहिर हो रहे थे....। ( याद कीजिए...सरकार में अभिषेक का रोल..उनकी तुलना में रनवीर फिसड्डी दिख रहे थे)। कमरे में बैठकर सिगरेट का धुआं उड़ाने को एक्टिंग नहीं कहा जा सकता। कैटरीना उम्रदराज लगने लगी हैं...और कुछ टुकड़ों में उनकी काबिलियत सामने आई है..लेकिन इसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता...। अर्जुन रामपाल औसत रहे हैं और कुछ जगहों पर ओवरएक्टिंग करते दिखे...। लेकिन पिछले कामों की तुलना में प्रोग्रेस माना जा सकता है..। नाना को यूज ही नहीं किया गया...लेकिन एक-दो जगहों पर ( जैसे, जब सूरज को मारने गये...और फिर जब रनवीर की मां को बताया) उन्होने अपना प्रभाव दिखाया...।
कुल मिलाकर ये एक औसत फिल्म है और जबरदस्त स्टारकास्ट और प्रोमोशन की वजह से इसे सफलता मिल रही है...। दूसरी बात ये है कि फिल्म का पेस बढ़िया है..और दर्शकों को बोर होने का मौका नहीं मिलता...। अन्यथा ऐसी कोई चीज नहीं है..जिसकी वजह से इसे दुबारा देखा जा सके....। हो सकता है बॉलीवुड के स्टैंडर्ड से ये फिल्म अच्छी कही जाए..लेकिन प्रकाश झा के खुद के स्तर से..उनकी बाकी फिल्मों की तुलना में... ये काफी नीचे है....।
(शैलेंद्र कुमार युवा टीवी पत्रकार और लेखक हैं)

Friday, April 9, 2010

बुला रहा है कोई मुझको, लुभा रहा है कोई...

- मिहिर पंड्या

बात पुरानी है, नब्बे का दशक अपने मुहाने पर था. अपने स्कूल के आख़िरी सालों में पढ़ने वाला एक लड़का राजस्थान के एक छोटे से कस्बे में कैसेट रिकार्ड करने की दुकान खोलकर बैठे दुकानदार से कुछ अजीब अजीब से नामों वाले गाने माँगा करता. जो उम्मीद के मुताबिक उसे कभी नहीं मिला करते. दुकानदार उसे गुस्सैल नज़रों से घूरता. इंडियन ओशियन और यूफ़ोरिया को मैं तब से जानता हूँ. उसे जयपुर शहर में (जहाँ वो अपनी छुट्टियों में जाया करता) अजमेरी गेट के पास वाली एक छोटी सी गली बहुत पसन्द थी. इसलिए क्योंकि ट्रैफ़िक कंट्रोल रूम ’यादगार’ से घुसकर टोंक रोड को नेहरू बाज़ार से जोड़ने वाली यह गली उसे उसकी पसन्दीदा तीन चीज़ें देती थी. एक – क्रिकेट सम्राट, दो – इंडियन ओशियन और यूफ़ोरिया की ऑडियो कैसेट्स और तीसरी गुड्डू की मशीन वाली सॉफ़्टी. और अगर कभी वो जयपुर न जा पाता तो वो अपनी माँ के जयपुर से लौटकर आने का इंतज़ार करता. और उसकी माँ उसे कभी निराश नहीं करतीं.
कितने दूर निकल आए हैं हम अपने-अपने घरों से. कल ओडियन, बिग सिनेमास में जयदीप वर्मा की बनाई ’लीविंग होम – लाइफ़ एंड म्यूज़िक ऑफ़ इंडियन ओशियन’ देखने हुए मुझे यह अहसास हुआ. ’लीविंग होम’ देखते हुए मैंने यह लम्बा सफ़र एक बार फिर से जिया. (और फ़िल्म के इंटरवल में आए ’वीको टरमरिक’ के विज्ञापन तो इसमें असरदार भूमिका निभा ही रहे थे!) और सच मानिए, मैं उल्लासित था. पहली बार अपने बीते कल को याद कर नॉस्टैल्जिक होते हुए भी मैं उदास बिलकुल नहीं था, प्रफ़ुल्लित हो रहा था. और यह असर था उस संगीत का जिसे सुनकर आप भर उदासी में भी फिर से जीना सीख सकते हैं. सीख सकते हैं छोड़ना, आगे बढ़ जाना. सीख सकते हैं भूलना, माफ़ करना. सीख सकते हैं खड़े रहना, आख़िर तक साथ निभाना.
’लीविंग होम’ किरदारों की कहानी नहीं है. यह उन किरदारों द्वारा रचे संगीत की कहानी है. इंडियन ओशियन के द्वारा रचित हर गीत का अपना व्यक्तित्व है, अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. इसीलिए फ़िल्म के लिए नए लेकिन बिलकुल माफ़िक कथा संरचना प्रयोग में निर्देशक जयदीप वर्मा इसे इंडियन ओशियन की कहानी द्वारा नहीं, उनके द्वारा रचे गीतों की कहानी से आगे बढ़ाते हैं. तो यहाँ जब ’माँ रेवा’ की कहानी आती है तो हम उस गीत के साथ नर्मदा घाटी के कछारों पर पहुँच जाते हैं और उस लड़के की शुरुआती कहानी से परिचित होते हैं जिसे आज पूरी दुनिया राहुल राम के नाम से जानती है. ’डेज़र्ट रेन’ की कहानी के साथ सुश्मित की कहानी खुलती है जो हमेशा से इंडियन ओशियन का आधार स्तंभ रहा है. ’कौन’ की कहानी एक नौजवान कश्मीरी लड़के की कहानी है. एक पिता हमें बात बताते हैं उन दिनों की जब एक पूरी कौम को उनके घर से बेदखल कर दिया गया था. और इसीलिए जब अमित किलाम कहते हैं कि मैं इसीलिए शुक्रगुज़ार हूँ भगवान का कि इतना सब होते हुए भी मेरे भीतर कभी वो साम्प्रदायिक विद्वेष नहीं आया, हमें भविष्य थोड़ा ज़्यादा उजला दिखता है. आगे जाकर ’झीनी’ की कथा है और अशीम अपने बचपन के दिनों के अकेलेपन को याद करते धूप के चश्मे के पीछे से अपनी नम आँखें छुपाते हैं. सुधीर मिश्रा कहते हैं कि अशीम को सुनते हुए मुझे कुमार गंधर्व की याद आती है. संयोग नहीं है कि इन दोनों ही गायकों ने कबीर की कविता को ऐसे अकल्पनीय क्षेत्रों में स्थापित किया जहाँ उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध थी. निर्गुण काव्य की ही तरह, इंडियन ओशियन भी एक खुला मंच है संगीत का. जहाँ विश्व के किसी भी हिस्से के संगीत की आमद का स्वागत होता है.
यह फ़िल्म डॉक्यूमेंट्री के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण एंगल के साथ आई है. आमतौर पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में मूलत: अपने निर्देशक के दिमाग में आए एक अदद ख़पती विचार की उपज होती हैं. और ऐसे में निर्देशक ही कहानी को विभिन्न तरीकों से आगे बढ़ाते हैं. लेकिन ’लीविंग होम’ की ख़ास बात है कि निर्देशक यहाँ सायास लिए गए फ़ैसले के तहत खुद पीछे हट जाता है और अपनी कहानी को बोलने देता है. न ख़ुद बीच में कूदकर कथा सूत्र को आगे बढ़ाने की कोई कोशिश है और न ही कोई वॉइस-ओवर. यहाँ तक की व्यक्तिगत बातचीत भी इस तरह एडिट की गई है कि सवाल पूछने वाला कभी नज़र नहीं आता. बेशक यह सायास है. जैसा दिबाकर बनर्जी की हालिया फ़िल्म में एक किरदार का संवाद है, “डाइरेक्टर को कभी नहीं दिखना चाहिए, डाइरेक्टर का काम दिखना चाहिए.” जयदीप वर्मा का काम बोलता है.
हाँ, एक छोटी सी नाराज़गी भी है मेरी. जिस तरह शुरुआत में फ़िल्म दिल्ली की सड़कों पर आम आदमी की तरह घूमती, उसकी नज़र से शहर को देखती करोलबाग की ओर बढ़ती है, वह मुझे बाँध लेता है. इंडियन ओशियन से हमारी पहली मुलाकात होती है. लेकिन फिर फ़िल्म के शुरुआती हिस्से में ही हम दिल्ली के कई नामी चेहरों को इंडियन ओशियन की तारीफ़ करते (जैसे उन्हें सर्टिफ़िकेट देते) देखते हैं. उनमें से कई बाद में फ़िल्म में लौटकर आते हैं, कई नहीं. यह शुरुआती मिलना-मिलाना मुझे अखरा. हम इंडियन ओशियन को सीधे जानना ज़्यादा पसन्द करेंगे (या कहें जानते हैं) या फिर उनके संगीत के माध्यम से, जो आगे फ़िल्म करती है. न कि किसी और ’सेलिब्रिटी’ के माध्यम से. इंडियन ओशियन को अपने चाहने वालों के बीच (जो इस फ़िल्म के संभावित दर्शक होने हैं) आने के लिए मीडिया या सिनेमा के सहारे की कोई ज़रूरत नहीं है. हो सकता है शायद यह उन लोगों को फ़िल्म से जोड़ने का एक प्रयास हो जो सीधे इंडियन ओशियन के संगीत से नहीं बँधे हैं. अगर ऐसा है तो मैं भी इस प्रयोग के सफल होने की पूरी अभिलाषा रखता हूँ. लेकिन एक पुराना इंडियन ओशियन फ़ैन होने के नाते फ़िल्म की ठीक शुरुआत में हुए इस ’सेलिब्रिटी समागम’ पर मैं अपनी छोटी सी नाराज़गी यहाँ दर्ज कराता हूँ.
फ़िल्म की जान हैं वो लाइव रिकॉर्डिंग्स जिन्हें यह फ़िल्म अपने मूल कथा तत्व की तरह बीच-बीच में पिरोए हुए है. सिनेमा हाल में इस संगीत के मेले का आनंद उठाने के बाद इन्हीं रिकॉर्डिंग्स की वजह से अब मैं इस फ़िल्म की अनकट डीवीडी के इंतज़ार में हूँ. सच है कि इंडियन ओशियन का संगीत ऐसे ही अच्छा लगता है. अपने मूल रूम में, बिना किसी मिलावट, एकदम रॉ. मैं वापस आकर अपनी अलमारी में से उनकी दो पुरानी ऑडियो कैसेट्स निकालता हूँ, धूल पौंछकर उनमें से एक को अपने कैसेट प्लेयर में डालता हूँ. अब कमरे में ’डेज़र्ट रेन’ का संगीत गूँज रहा है. मैं बत्ती बुझा देता हूँ. कुछ देर से बाहर मौसम ने अपना रुख़ पलट लिया है. मैं खिड़की पूरी खोल देता हूँ. बारिश…

(साभार: www.mihirpandya.com)

मन का काला सिनेमा

- वरुण ग्रोवर

Spoiler Alert : अगर आपने ये फिल्म अब तक नहीं देखी है, तो ये लेख पढ़ कर कुछ ज्यादा हाथ नहीं लगेगा। प्लॉट से जुडी दो चार बातें और खुल जाएंगी। आगे आपकी श्रद्धा.

लव
मैं तब करीब सोलह साल का था। (सोलह साल, हमें बताया गया है कि अच्छी उम्र नहींहोती। किसने बताया है, यह भी एक बहुत बड़ा मुद्दा है। लेकिन शायद मैं खुद से आगे निकलरहा हूं।) क्लास के दूसरे सेक्शन में एक लड़की थी जिसे मेरा एक जिगरी दोस्त बहुत प्यार करताथा। वाजिब सवाल – ‘प्यार करता था’ मतलब? वाजिब जवाब – जब मौका मिले निहारताथा, जब मौका मिले किसी बहाने से बात कर लेता था। हम सब उसे महान मानते थे। प्यार मेंहोना महानता की निशानी थी। ये बात और थी कि वो लड़की किसी और लड़के से प्यार करतीथी। यहां भी ‘प्यार करती थी’ वाला प्रयोग कहावती है। फाइन प्रिंट में जाएं तो – दूसरालड़का भी उसको बेमौका निहारता था, और (सुना है) उसके निहारने पर वो मुस्कुराती थी।दूसरा लड़का थोड़ा तगड़ा – सीरियस इमेज वाला था। जैसा कि हमने देखा है – एक दिन सामनेवाले खेमे को मेरे दोस्त के इरादे पता चल गये और बात मार-पीट तक पहुंच गयी। मैंने भीबीच-बचाव कराया। सामने वाले लड़के से दबी हुई आवाज़ में कहा कि असल में तुम्हारी पसंद(माने लड़की) है ही इतनी अच्छी कि इस बेचारे की बड़ी गलती नहीं है। (ये लाइन मैं रट केगया था। ‘डर’ फिल्म में है।) सुलह हो गयी पर उसके बाद मेरे दोस्त का प्यार कुर्बान होगया। उसने उस लड़की को भुलाने की कोशिश की। हम लोगों ने इस मुश्किल काम में उसकी मददकी। उसकी महानता ‘प्यार करने वाले’ खेमे से निकलकर ‘प्यार पूरा नहीं हो पाया’ वाले खेमेमें शिफ्ट हो गयी। पर कभी भी, अगले दो सालों तक, ऐसा नहीं हुआ कि उसने हिम्मत हारीहो या हमने ही ये माना हो कि किस्सा ख़त्म हो गया है। हम सब मानते थे कि दोस्त काप्यार सच्चा है और यही वजह काफी है कि वो सफल होगा।
आज सोच के लगता है कि हम लोग साले कितने फ़िल्मी थे। लेकिन फिर लगता है कौन नहींहोता? हमारे देश में (या आज की दुनिया में?) option ही क्या है? प्यार की परिभाषा,प्यार के दायरे, प्यार में कैसा feel करना चाहिए इसके हाव-भाव, और प्यार में होने परसारे universe की हमारी तरफ हो जाने की चुपचाप साज़िश – ये सब हमें हिंदी रोमांटिकफिल्मों से बाल्टी भर भर के मिला है। हमने उसे माना है, खरीदा है, और मौक़ा पड़ने पर बेचाभी है। लंबी परंपरा है – या कहें पिछली सदी की सबसे बड़ी conspiracy। राज कपूर नेप्यार को नौकरी और चरित्र के बराबर का दर्ज़ा दिया, गुरुदत्त ने कविता और दर्द कीरूमानियत से पोता, शम्मी कपूर, देव आनंद और राजेश खन्ना ने मस्ती का पर्याय बनाया,बच्चन एंड पार्टी ने सख्त मौसम में नर्मी का इकलौता outlet, और 80 के दशक के बाद यशचोपड़ा, करन जौहर, शाहरुख और अन्य खानों ने तो सब मर्जों की दवा।
मैं जानता हूं ये कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इसमें खास ये है कि ये अब तक पुरानी भी नहींहुई है। और एक खास बात है कि अब तक किसी ने भी ऊंची आवाज़ में ये नहीं कहा है कि इसconspiracy ने उसकी जिंदगी खराब कर दी। जब कभी ऐसा मौक़ा आया भी [एक दूजे के लिए(1981), क़यामत से क़यामत तक (1987), देवदास (2002)] जहां प्यार के चलते दुखांत हुआ,वहां भी प्यार को कभी कटघरे में खड़ा नहीं किया गया। बल्कि उल्टा ही असर हुआ – जमानेकी इमेज और ज़ालिम वाली हो गयी (मतलब प्यार में एक नया element जुड़ गया –adventure का), प्यार के सर पर कांटों का ताज उसे ईश्वरीय aura दे गया, और ‘हमारेघरवाले इतने illogical नहीं’ का राग दुखांत के परदे के पीछे लड़खड़ाती सुखांत की अगरबत्तीको ही सूरज बना गया। (और ये भी जान लें कि फिल्मकार यही चाहते थे। कभी जाने, कभीअनजाने।)
दिबाकर बनर्जी की ‘लव सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी लव की इस लंबी चली आ रहीconspiracy को तोड़ती है। बल्कि ये कहें कि उसकी निर्मम ह्त्या करती है। इस कहानी कोदेखते हुए मुझे वो सब बेवकूफियां याद आयीं जो मैंने कभी की हैं या दूसरों को सुझायी हैं – जैसेहाथ पर रूमाल बांध कर style मारना, पहली नज़र में प्यार हो जाना, आवाज़ बदल करबोलना, ‘प्यार करते हो तो भाग जाओ, बाकी हम देख लेंगे’ वाला भरोसा देना। और इसमें एकदिल दहला देने वाला अंत है जो मैंने अक्सर अखबारों में पढ़ा है, पर सिनेमा के परदे पर देखूंगा– ये कभी नहीं सोचा था। और सिनेमा के परदे पर इस तरह देखना कि सच से भी ज्यादाखतरनाक, कई गुना ज्यादा magnified और anti-glorified लगे इसके लिए मैं तैयार नहींथा। ये परदे पर राहुल और श्रुति की honour killing नहीं, मेरी जवानी की जमा की हुईnaivety का खून था। ये कुंदन शाह – अज़ीज़ मिर्ज़ा वाले फीलगुड शहर में कुल्हाड़ी लेकर आंखोंसे खून टपकाता, दौड़ता दैत्य था। (शायद ये उपमाएं खुद से खत्म न हों, इसलिए मुझे रुकना हीपड़ेगा)
और दिबाकर ने बहुत चतुराई से इस दैत्य को छोड़ा। जब तक हमें भरोसा नहीं हो गया कि परदेपर दिखने वाले राहुल और श्रुति हमीं हैं, जब तक हमने उन पर हंसना छोड़कर उनके साथ हंसनाशुरू नहीं किया, जब तक बार बार हिलते कैमरे के हम अभ्यस्त नहीं हो गये तब तक हमें उसकाली रात में सुनसान रास्ते पर अकेले नहीं भेजा। और उस वक्त, जब बाहर के परेशान कर देनेवाले सन्नाटे ने आगाह कर दिया कि अब कुछ बुरा होने वाला है, हम बेबस हो गये। कार रुकगयी, हमें उतारा गया, और…
मिहिर ने District 9 के बारे में लिखा था – ये दूर तक पीछा करती है और अकेलेपन में लेजाकर मारती है। मैं कहूंगा ‘लव सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी दूर तक आपके साथ चलतीहै, और आपके पसंदीदा अकेलेपन में ले जाकर मारती है। और तब आप सोचते हैं – ये आज तक सिनेमामें पहले क्यों नहीं हुआ? या शायद – अब भी क्यों हुआ?
सेक्स
अंग्रेज़ी में इसे ‘hot potato’ कहते हैं। और हमारे यहां नंगे हाथों की कमी नहीं। हमारे देश मेंसेक्स के बारे में बात करना कुंठा की पहली निशानी माना जाता है। साथ ही दुनिया में सबसेज्यादा पोर्न वीडियो देखने वाले देशों में भी हमारा नंबर है। दुनिया में सबसे ज्यादाबलात्कार भी किसी किसी दिन भारत में होते हैं और किसी मॉडल के तौलिया लपेटने पर सबसेज्यादा प्रदर्शन भी। मां-बहन-बीवी-बेटी से आगे हमारी मर्यादा के कोई symbol नहीं हैं, नही इनके बहुत आगे की गालियां। इतनी सारी complexities के बीच दिबाकर ने डाल दियेदो किरदार – जो भले भी हैं, बुरे भी। इतिहास की चादर भी ओढ़े हुए हैं, और भविष्य कीतरह नंगे भी हैं।
एक मर्द है। सभी मर्दों की तरह। अपने बहुत अंदर ये ज्ञान लिये हुए कि ये दुनिया उसी कीहै। ये जानते हुए कि women empowerment सिर्फ एक बचकाना खेल है – चार साल के बच्चे कोडाली गयी underarm गेंद ताकि वो बल्ले से कम से कम उसे छुआ तो पाये। ये जानते हुए किऔरत सिर्फ साक्षी है मर्द के होने की। मर्द के प्यार, गुस्से, बदतमीजी और उदारता कोमुकम्मल करने वाली चश्मदीद गवाह।
और सामने एक औरत है। ये जानते हुए कि दुनिया उसकी नहीं। ये जानते हुए कि साहब बीबी औरगुलाम में असली गुलाम कौन है। ये जानते हुए कि वो कुछ नहीं अपनी देह के बिना। कुछ नहीं देहके साथ भी, शायद।
जिस cold-blooded नज़र से दिबाकर ने ये कहानी दिखायी है, वो इसे दो बहुत ही अनोखे,एक बार फिर, परेशान कर देने वाले आयाम देती है। पहला – क्या दुनिया भर में लगे कैमरे‘मर्द’ ही नहीं हैं? ठंडे, वॉयर, सब पर नज़र रखते। दूसरा – इस नये world order, जिसमेंकैमरा हमेशा हमारे सर पर घूम रहा है, उससे हमारा आसान समझौता। सैम पित्रोदा ने हालही में कहा है कि तकनीकी क्रांति का पहला दौर खत्म हो गया है – सबके पास मोबाइल फोनहै, सबके पास इंटरनेट होगा। दूसरा दौर शुरू होने वाला है जिसमें सबको tag किया जाएगा –हर इंसान आसानी से ‘पकड़ा’ जा सकेगा। मेरे लिए ये दोनों आयाम बहुत ही डरा देने वाले हैं।(यहां याद आती है 2006 की शानदार जर्मन फिल्म ‘द लाइव्ज ऑव अदर्ज़’ – एक तानाशाहसरकार की ‘total control’ policy को अमल में लाते छुपे हुए रिकॉर्डर।) भरोसा, जैसाकि इस कहानी में निशा करती है आदर्श पर, बहुत खतरनाक चीज़ हो जाएगी, जल्द ही। खासकर के मर्द-औरत के बीच, सत्ता-प्रजा के बीच, देखनेवाले-दिखनेवाले के बीच।
इसलिए अगर कहा जाए कि इस कहानी में ‘सेक्स’ का असली मतलब सिर्फ ‘सेक्स’ की क्रिया सेनहीं बल्कि महिला-पुरुष के फर्क से भी है, तो गलत नहीं होगा। इतनी loaded होने की वजहसे ही इस कहानी में cinematic टेंशन सबसे ज्यादा है, (critics’-word-of-the-month)layers भी बहुत सारी हैं और किरदार भी सबसे ज्यादा relatable हैं। एक बार को आपकोकहानी अधूरी लग सकती है। मुझे भी लगा कि कुछ और होना चाहिए था – आदर्श का बदलनाया निशा का टूटना। लेकिन फिर याद आया कहानी दिबाकर नहीं दिखा रहे – कहानी वोकैमरा दिखा रहा है। जितनी दिखायी वो भी ज्यादा है।
धोखा
Sting operation हमारे लिए नये हैं। कुछ लोगों का मानना है ये ‘डेमोक्रेसी’ के मेच्योरहोने का प्रमाण है। कुछ का इससे उल्टा भी मानना है। और कुछ का बस यही मानना है किइससे उनके चैनल को फायदा होगा। इस तीन अध्याय वाली फिल्म की इस तीसरी कहानी मेंतीनों तरह के लोग हैं। ये कहानी बाकी दोनों कहानियों के मुकाबले हल्की और दूर की है। याशायद दूर की है, इसलिए हल्की लगी। लेकिन ये पक्का है कि दूर की है। इसलिए बहुत परेशानभी नहीं करती। इसमें भी, दूसरी कहानी की तरह, एक बहुत बड़ा moral decisionबीचों-बीच है। लेकिन पहली और दूसरी कहानी के personal सवालों के बाद इसके सवाल बहुतही दुनियावी, बहुत ही who-cares टाइप के लगते हैं।
शायद दिबाकर यही चाहते हों। कह नहीं सकते। लेकिन ये जरूर है कि तीनों कहानियों कीordering काफी दिलचस्प है। फिल्म बहुत ही impersonal note पर शुरू होती है – औरधीरे-धीरे personal होती जाती है। और फिर nudity की हद तक नज़दीक आने के बाद दूरजाना शुरू करती है। और अंत में इतनी दूर चली जाती है कि item song पर खत्म होती है।
लेकिन item song से कुछ बदलता नहीं। ये फिल्म अंधकार का ही उत्सव है। हमारी सभ्यता काएक बेहद disturbing दस्तावेज – जिसने पुराने मिथकों को तोड़ने की कोशिश की है, नये डरोंको जन्म दिया है, और अपने एक गीत में साफ़ कहा है – ‘सच सच मैं बोलने वाला हूं – मैं मनका बेहद काला हूं।’


(वरुण ग्रोवर आईआईटी से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद युवा फिल्‍मकार, पटकथा लेखक और समीक्षक हो गये। कई फिल्‍मों और टेलीविज़न कॉमेडी शोज़के लिए पटकथाएं लिखीं। 2008 में टावर्स ऑफ मुंबई नाम की एक डाक्यूमेंट्री फिल्‍म भी बनायी। प्रस्तुत लेख http://mohallalive.com से साभार)

Monday, April 5, 2010

इस रात की सुबह नहीं: LSD Footprints- 1


- मिहिर पंड्या



'लव, सेक्स और धोखा' पर व्यवस्थित रूप से कुछ भी लिख पाना असंभव है. बिखरा हुआ हूँ, बिखरे ख्यालातों को यूं ही समेटता रहूँगा अलग-अलग कथा शैलियों में. सच्चाई सही नहीं जाती, कही कैसे जाए.
मैं नर्क में हूँ.
यू कांट डू दिस टू मी. हाउ कैन यू शो थिंग्स लाइक दैट ? यार मैं तुम्हारी फ़िल्मों को पसंद करती थी. लेकिन तुमने मेरे साथ धोखा किया है. माना कि मेरे पिता थोड़े सख़्त हैं लेकिन मेरा स्कूल का ड्रामा देखकर तो खुश ही होते थे. यू कांट शो हिम लाइक दैट. और वो ’राहुल’… वो तो एकदम… दिबाकर मैं तुम्हें मार डालूंगी. यू डोन्ट हैव एनी राइट टू शो माई लाइफ़ लाइक दैट इन पब्लिक. अपनी इंटरप्रिटेशंस और अपनी सो-कॉल्ड रियलस्टिक एंडिंग्स तुम अपने पास रखो. हमेशा ही ’सबसे बुरा’ थोड़े न होता है. और हमारे यहाँ तो वैसे भी अब ’कास्ट-वास्ट’ को लेकर इतनी बातें कहाँ होती हैं. माना कि पापा उसे लेकर बड़े ’कॉशस’ रहते हैं लेकिन… शहरों में थोड़े न ऐसा कभी होता है. वो तो गाँवों में कभी-कभार ऐसा सुनने को मिलता है बस. और फ़िल्मों में, फ़िल्मों में तो कभी ऐसा नहीं होता. फ़िल्में ऐसी होती हैं क्या ? तुम फ़िल्म के नाम पर हमें कुछ भी नहीं दिखा सकते. यह फ़िल्म है ही नहीं. नहीं है यह फ़िल्म.
ठीक है, हमारे यहाँ कभी कास्ट से बाहर शादी नहीं हुई है. तो ? क्या हर चीज़ का कोई ’फ़र्स्ट’ नहीं होता ? पहले सब ऐसे ही बुरा-बुरा बोलते हैं, बाद में सब मान लेते हैं. वो निशा का याद नहीं, माना कि उसका वाला लड़का ’सेम कास्ट’ का था लेकिन थी तो ’लव मैरिज’ ना ? कैसे शादी के बाद सबने मान लिया था. दीपक के पापा ने तो पूरा दहेज भी लिया था दुबारा शादी करवाकर. देख लेना मेरा भी सब मान लेंगे. शुरु में प्रॉब्लम होगी उसकी कास्ट को लेकर लेकिन दिबाकर तुम देख लेना. और ‘उसे’ जानने के बाद कैसे कोई उसे नापसंद कर सकता है. पापा को मिलने तो दो, नाम-वाम सब भूल जायेंगे उससे मिलने के बाद. देख लेना सब मान लेंगे जब मैं उन्हें सब बताऊँगी. शादी के पहले नहीं बतायेंगे, और जब शादी के बाद उनसे मिलवाऊँगी… आई प्लान्ड एवरीथिंग. बट दिबाकर, यू मेस्ड अप ऑल इन माई माइंड. नाऊ व्हाट विल आई डू, हॉऊ विल आई गैट बैक ? इट्स नॉट ए मूवी एट-ऑल. आई हेट दिस मूवी.
एंड वन मोर थिंग… नोट दिस डाउन… माई सरनेम इस नॉट ’दहिया’.


(http://mihirpandya.com/ से साभार)

Things we lost in the fire: LSD Footprints:2

- मिहिर पंड्या

'आश्विट्ज़ के बाद कविता संभव नहीं है.’ – थियोडोर अडोर्नो.
जर्मन दार्शनिक थियोडोर अडोर्नो ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन शब्दों में अपने समय के त्रास को अभिव्यक्ति दी थी. जिस मासूमियत को लव, सेक्स और धोखा की उस पहली कहानी में राहुल और श्रुति की मौत के साथ हमने खो दिया है, क्या उस मासूमियत की वापसी संभव है ? क्या उस एक ग्राफ़िकल दृश्य के साथ, ’जाति’ से जुड़े किसी भी संदर्भ को बहुत दशक पहले अपनी स्वेच्छा से त्याग चुके हिन्दी के ’भाववादी प्रेम सिनेमा’ का अंत हो गया है ? क्या अब हम अपनी फ़िल्मों में बिना सरनेम वाले ’हाई-कास्ट-हिन्दू-मेल’ नायक ’राहुल’ को एक ’अच्छे-अंत-वाली-प्रेम-कहानी’ की नायिका के साथ उसी नादानी और लापरवाही से स्वीकार कर पायेंगे ? क्या हमारी फ़िल्में उतनी भोली और भली बनी रह पायेंगी जितना वे आम तौर पर होती हैं ? LSD की पहली कहानी हिन्दी सिनेमा में एक घटना है. मेरे जीवनकाल में घटी सबसे महत्वपूर्ण घटना. इसके बाद मेरी दुनिया अब वैसी नहीं रह गई है जैसी वो पहले थी. कुछ है जो श्रुति और राहुल की कहानी ने बदल दिया है, हमेशा के लिए.
LSD के साथ आपकी सबसे बड़ी लड़ाई यही है कि उसे आप ’सिनेमा’ कैसे मानें ? देखने के बाद सिनेमा हाल से बाहर निकलते बहुत ज़रूरी है कि बाहर उजाला बाकी हो. सिनेमा हाल के गुप्प अंधेरे के बाद (जहां आपके साथ बैठे गिनती के लोग वैसे भी आपके सिनेमा देखने के अनुभव को और ज़्यादा अपरिचित और अजीब बना रहे हैं) बाहर निकल कर भी अगर अंधेरा ही मिले तो उस विचार से लड़ाई और मुश्किल हो जाती है. मैंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में देखते हुए कई बार ऐसा अनुभव किया है, शायद राकेश शर्मा की बनाई ’फ़ाइनल सल्यूशन’. लेकिन किसी हिन्दुस्तानी मुख्यधारा की फ़िल्म के साथ तो कभी नहीं. और सिर्फ़ इस एक विचार को सिद्ध करने के लिए दिबाकर हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा ’रिस्क’ लेते हैं. तक़रीबन चालीस साल पहले ऋषिकेश मुख़र्जी ने अमिताभ को यह समझाते हुए ’गुड्डी’ से अलग किया था कि अगर धर्मेन्द्र के सामने उस ’आम लड़के’ के रोल में तुम जैसा जाना-पहचाना चेहरा (’आनंद’ के बाद अमिताभ को हर तरफ़ ’बाबू मोशाय’ कहकर पुकारा जाने लगा था.) होगा तो फ़िल्म का मर्म हाथ से निकल जायेगा. दिबाकर इससे दो कदम आगे बढ़कर अपनी इस गिनती से तीसरी फ़िल्म में एक ऐसी दुनिया रचते हैं जिसके नायक – नायिका लगता है फ़िल्म की कहानियों ने खुद मौहल्ले में निकलकर चुन लिये हैं. पहली बार मैं किसी आम सिनेमा प्रेमी द्वारा की गई फ़िल्म की समीक्षा में ऐसा लिखा पढ़ता हूँ कि ’देखो वो बैठा फ़िल्म का हीरो, अगली सीट पर अपने दोस्तों के साथ’ और इसी वजह से उन कहानियों को नकारना और मुश्किल हो जाता है.
पहले दिन से ही यह स्पष्ट है कि LSD अगली ’खोसला का घोंसला’ नहीं होने वाली है. यह ’डार्लिंग ऑफ़ द क्राउड’ नहीं है. ’खोसला का घोंसला’ आपका कैथार्सिस करती है, लोकप्रिय होती है. लेकिन LSD ब्रेख़्तियन थियेटर है जहाँ गोली मारने वाला नाटक में न होकर दर्शकों का हिस्सा है, आपके बीच मौजूद है. मैं पहले भी यह बात कर चुका हूँ कि हमारा लेखन (ख़ासकर भारतीय अंग्रेज़ी लेखन) जिस तरह ’फ़िक्शन’ – ’नॉन-फ़िक्शन’ के दायरे तोड़ रहा है वह उसका सबसे चमत्कारिक रूप है. ऐसी कहानी जो ’कहानी’ होने की सीमाएं बेधकर हक़ीकत के दायरे में घुस आए उसका असर मेरे ऊपर गहरा है. इसीलिए मुझे अरुंधति भाती हैं, इसिलिये पीयुष मिश्रा पसंद आते हैं. उदय प्रकाश की कहानियाँ मैं ढूंढ-ढूंढकर पढ़ता हूँ. खुद मेरे ’नॉन-फ़िक्शन’ लेखन में कथातत्व की सतत मौजूदगी इस रुझान का संकेत है. दिबाकर वही चमत्कार सिनेमा में ले आए हैं. इसलिए उनका असर गहरा हुआ है. उनकी कहानी सोने नहीं देती, परेशान करती है. जानते हुए भी कि हक़ीकत का चेहरा ऐसा ही वीभत्स है, मैं चाहता हूँ कि सिनेमा – ’सिनेमा’ बना रहे. मेरी इस छोटी सी ’सिनेमाई दुनिया’ की मासूमियत बची रहे. ‘हम’ चाहते हैं कि हमारी इस छोटी सी ’सिनेमाई दुनिया’ की मासूमियत बची रहे. हम LSD को नकारना चाहते हैं, ख़ारिज करना चाहते हैं. चाहते हैं कि उसे किसी संदूक में बंद कर दूर समन्दर में फ़ैंक दिया जाए. उसकी उपस्थिति हमसे सवाल करेगी, हमारा जीना मुहाल करेगी, हमेशा हमें परेशान करती रहेगी.
LSD पर बात करते हुए आलोचक उसकी तुलना ’सत्या’, ’दिल चाहता है’, और ’ब्लैक फ़्राइडे’ से कर रहे हैं. बेशक यह उतनी ही बड़ी घटना है हिन्दी सिनेमा के इतिहास में जितनी ’सत्या’ या ’दिल चाहता है’ थीं. ’माइलस्टोन’ पोस्ट नाइंटीज़ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में. उन फ़िल्मों की तरह यह कहानी कहने का एक नया शास्त्र भी अपने साथ लेकर आई है. लेकिन मैं स्पष्ट हूँ इस बारे में कि यह इन पूर्ववर्ती फ़िल्मों की तरह अपने पीछे कोई परिवार नहीं बनाने वाली. इस प्रयोगशील कैमरा तकनीक का ज़रूर उपयोग होगा आगे लेकिन इसका कथ्य, इसका कथ्य ’अद्वितीय’ है हिन्दी सिनेमा में. और रहेगा. यह कहानी फिर नहीं कही जा सकती. इस मायने में LSD अभिशप्त है अपनी तरह की अकेली फ़िल्म होकर रह जाने के लिए. शायद ’ओम दर-ब-दर’ की तरह. क्लासिक लेकिन अकेली.

(http://mihirpandya.com/ से साभार)

Friday, April 2, 2010

Return of 'EMERGENCY' in JNU?

- Prakash K Ray

After attempts to bulldoze its agenda of commercialization and to tamper with reservation, the JNU administration is now going all out to muzzle freedom of expression and speech with a series of draconian measures. In a meeting of the Provosts held on 26th March, the Dean of Students has come up with a Proforma for all hostels regarding organizing Public Meetings and Film Screenings. The guidelines formulated unanimously in the meeting are nothing short of attempts on the part of the administration to suppress the democratic rights of the students. The guidelines stipulates that no film can be screened that doesn’t have a Censor Board certificate. Also, all details on the movie, its makers, and time duration need to be mentioned while filling the form for seeking permission to organize screenings in the hostels. This implies that Documentaries/Films made by independent film makers, cannot be screened. Furthermore, the guidelines also make it mandatory on individuals/organizations holding Public Meetings to provide all details of the topic, and list of speakers. According to the circular, any meeting the administration feels would be in contravention of ‘national harmony’ or ‘national integration’ or ' national security' could be disallowed and denied permission. Permission must be taken a week before.
These new guidelines under the garb of standardizing procedures for all hostels, are in fact draconian attempts to muzzle the voices of dissent, thereby seeking to curtail the freedoms of speech and expression. The pretext of the national interest and harmony is another excuse of suppressing the heterodox views. These terms are always defined conveniently to suit the hegemonic projects of those in power and against those who are challenging this hegemony. These anti-democratic guidelines thus are a systematic effort on part of administration to curb the progressive student movement and launching fresh onslaughts on the student community. In the absence of elections and an elected JNUSU, the administration has been increasingly getting high-handed and pushing through such anti-student policies. The administration has sought to conveniently use the stay on JNUSU elections surreptitiously to bulldoze such anti-democratic measures. It is a sad thing that most of teachers of JNU are either silent or supporting the JNU administration. It is pertinent that the student community in JNU remains vigilant and fight against such assaults on our democratic rights that have been won after hard-fought struggles. All right-thinking people should join hands with the progressive students of JNU in their fight against these draconian measures tooth and nail.

(Prakash K Ray is a Research Scholar in Cinema Studies at JNU)

Thursday, March 25, 2010

मर्द, सेक्स और कैमरा



-रवीश कुमार

लव,सेक्स और धोखा। पूरी फिल्म में कैमरा वैसे ही देखता है जैसे हमारे समाज में मर्दों की नज़र मौका देखकर लड़कियों को देखती है। इस नज़र को बनाने में कई तरह की परिस्थितियां सहायक होती हैं। कैमरा अलग-अलग एंगल से अपनी नायिकाओं को तंग नज़रों की ऐसी गहराई में धकेलता है जहां हास्य पैदा करने की कोशिश, मर्दवादी विमर्श को ही स्थापित करती है। धोखा कुछ भी नहीं है। सब हकीकत है। हिलता-ड़ुलता एमेच्योर कैमरा अपने बोल्ड दृश्यों को उलट कर लड़कियों की निगाहों से भी मर्दों को देखता तो बराबरी की बात सामने आती। लड़कियों को बेचारी और शिकार की तरह देखकर अब अच्छा नहीं लगता। फिल्म में वो सेक्स को अपने हथियार की तरह इस्तेमाल करने की बजाय उसके साथ सरेंडर करती लगती हैं। फिल्म से यह उम्मीद इसलिए कि लव-सेक्स और धोखा बालीवुडीय सिनेमा और न्यूज़ चैनलों का क्रिटिक बनने की कोशिश करता है। निर्देशक की कोशिश है कि जैसा मर्द देखता है वैसा ही दिखा दो। नीतीश कटारा हत्याकांड की झलक और डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करने वाली लड़कियां और टीआरपी की कैद में फंसा एक ईमानदार पत्रकार। चालू गोरी लड़की शादी का कार्ड बांट कर निकल लेती है और सांवली लड़की अपने रूप के बेचारेपन का शिकार होकर यूट्यूब की गलियों में पहुंच जाती है। आत्महत्या से बचकर लौटी मिरिगनयना तू नंगी(बंदी) अच्छी लगती है गाने वाले लकी को फंसाने आती है। नहीं फंसा पाती। कैमरा सेक्स के मर्दवादी नज़रिये के हिसाब से ज़ूम इन होता रहता है। मर्दवादी नज़रिया अपने कैमरे के इस एंगल को जस्टीफाई करने के लिए कहानी का सहारा लेता है। एक तरह से आप देख सकते हैं कि हमारे समाज में लड़कों की नज़र में लड़कियों को कैसे बड़ा किया गया है। रूप-रंग-अंग। उपभोक्तावादी नज़रिया। जिन पर मर्दों की आंखों का अधिकार है। दिवाकर इस तस्वीर को मुंह पर दे मारते हैं। समाज के इस चिर सत्य को यह फिल्म क्यों बदल दे। इसी विमर्श के हिसाब से एक सवाल उठता है कि सारी बेकार लगने वाली लड़कियां ही नायिका क्यों हैं। कोई सेक्स बम जैसी नायिका नहीं है। उनकी लाचारी ही फिल्म के घटनाक्रम को क्यों आगे बढ़ाती है। किसी का पिता मर गया है तो कोई भाग कर आई है। फिर ठीक है ऐसी लाचार शिकार लड़कियों की कथा क्यों न कही जाए। कहानी के किरदार बीच बीच में लौट कर अच्छा प्रसंग बनाते हैं। स्टिंग आपरेशन की दुनिया में सरकार गिराने वाला पत्रकार खुद मीडिया के भीतर के स्टिंग में फंसा लगता है। चश्मा,मूंछ और उसका अनस्मार्ट लुक बेचारेपन के साथ मौजूद है। स्टिंग और ब्लैकमेल के विमर्श में अटका हुआ है। फिल्मकार ने संपादिका और चंपू का सही चित्रण किया है। आज मीडिया में जो भी हो रहा है वो इसी तरह के काबिल लोगों की देन है। न कि बाज़ार का दबाव। संपादिका अपने फार्मूले पर कायम है। फार्मूले से उसका विश्वास नहीं हिलता। फिल्मकार उसे जवाब देने की कोशिश नहीं करता। सिर्फ दो दिन का पेमेंट भरवा लेता है। वैसे ही जैसे सूचना मंत्रालय के नोटिसों का जवाब देकर पीछा छुड़ा लिया जाता है।हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने फिल्म कथाकारों को काफी खुराक दी है। चर्चगेट की चुड़ैल। स्टिंग की दुनिया का सच। जिसे अब न्यूज़ चैनलों ने खुद करना छोड़ दिया है। पर मीडिया का मज़ाक उड़ाना अच्छा लगता है। मीडिया मिशन नहीं है। सत्ता के करीब दिखने के लिए संविधान का अघोषित-अलिखित चौथा स्तंभ बन गया। खुद ही बोलता रहता है कि हम वाचडॉग है। बिना वॉच का डॉग बन गया है मीडिया। ये एक चाल है मीडिया को सत्ता प्रतिष्टान के रूप में कायम करने के लिए। चंद पत्रकारों के मिशन और संघर्षपूर्ण जीवन को भुना कर मीडिया उद्योग बाकी करतूतों को छुपाने के लिए नैतिकता का जामा पहन लेता है। पत्रकार के लिए पत्रकारिता मिशन है। कंपनी के लिए नहीं। एकाध मामूली अपवादों को छोड़ दें तो इसका प्रमाण लाना मुश्किल हो जाएगा। पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ एक धंधा है। जैसे साबुन बेचने वाला अपने साबुन को गोरा कर देने के अचूक मंत्र की तरह पेश करता है वैसे ही मीडिया कंपनी अपनी ख़बरों को। वरना उन लोगों से पूछिये जो न्यूज़ रूम में फोन करते रहते हैं कि बिल्डर ने सोसायटी में ताला बंद कर दिया है। आप प्लीज़ आ जाइये और कोई नहीं जाता। अच्छा है कि अब इस कंफ्यूज़न को विभिन्न मंचों से साफ किया जा रहा है।फिल्म बालीवुडीय सिनेमा का मज़ाक उड़ाती है। पिछले बीस सालों की एक बड़ी कथा राहुल और सिमरन का मज़ाक। उसे हास्य में बदलकर हमारे समय के सबसे बड़े नायक शाहरूख़ ख़ान की अभिनय क्षमता (जिस पर खुद उन्हें भी संदेह रहता है) का पोल खोल देती है। शाहरूख़ ख़ान बनना सिर्फ एक चांस की बात है। लव सेक्स और धोखा का एक मैसेज यह भी है। लुगदी साहित्य की तरह बनी यह फिल्म हमारे समय की तमाम लुगदियों की ख़बर लेती है। आदी सर का शुक्रिया अदा कर दिवाकर दिखा देते हैं कि फिल्मों का असर कल्पनाओं के कोने कोने में कैसा होता है। कैमरा का बांकपन ही बेहद आकर्षक पहलु है। यह एक बड़ा काम है। होम वीडियो सी लगने वाली कर्मिशयल फिल्म बनाना आसान काम नहीं। एक तरह से आप यह भी देख सकते हैं कि बंबई गए तमाम असफल फिल्मकारों,कथाकारों,नायक-नायिकाओं के सपने इस तरह की फिल्मों के पर्दे पर आकर सुपरहिट फिल्मों और फिल्मकारों को जूता मार रहे हैं। कहानी का नायक इंस्टीट्यूट के लिए फिल्म बना रहा है। यह फिल्म नहीं है। अ-फिल्म है। किसी महान फिल्म की बची खुची कतरनों से बनाई एक फिल्म। बहुत अच्छा प्रयोग है। फिल्म लोकप्रिय नहीं हो सकती। इंटरवल में जब काफी मांगा तो लड़के ने कहा कि फिल्म ने पका दिया न। कोई देखने नहीं आ रहा। मैंने कहा कि ऐसी बात तो नहीं। तो जवाब मिला कि अच्छा आप पके नहीं। प्रयोग बनाम फार्मूला के बीच फिल्म फंस गई है। वैसे ही जैसे न्यूज टीवी की दुनिया में ईमानदार पत्रकार फंस गया है। वैसे ही जैसे हमलोगों से लोग पूछ देते हैं कि भाई साहब आपके शो की रेटिंग क्यों नहीं आती। इसका जवाब तो है मगर देकर क्या फायदा। जीवन एकरेखीय नहीं होता। कई तरह की धारायें साथ चलती हैं। कभी कोई धारा ऊपर आ जाती है तो कभी कोई नीचे चली जाती है।कुछ लोगों को पसंद आने वाली फिल्म है। दिवाकर बनर्जी ने फिल्म पर आयोजित सेमिनारों में दिखाये जाने के लिए एक अच्छी फिल्म बना दी है। धीरजधारी लोगों को फिल्म पसंद आएगी। वर्ना न्यूज़ चैनलों के कबाड़ से पात्र उठाकर बनाई गई कहानियों का वही हश्र होता है जो रण से लेकर तमाम फिल्मों का हो चुका है। लगता है कि हमारे समय के कथाकार भी टीआरपी के झांसे में फंस कर अपना पैसा डुबा दे रहे हैं। उन्हें लगता है कि न्यूज़ चैनलों पर दिख रहा है, ज़रूर लोकप्रिय होगा तो बस उससे प्रेरणा लेकर फिल्म ही बना देते हैं। अख़बारों के कॉलमकारों ने इस फिल्म को चार-चार स्टार दिये हैं। फिर भी फिल्म को जनप्रिय बनाने में मदद नहीं मिल रही। कई बार निर्देशक शिकायत करते हैं कि उनकी फिल्म को रिव्यू नहीं मिली इसलिए नहीं चली। इस फिल्म के लिए यह शिकायत नहीं होनी चाहिए। वैसे चलने के लिए ही क्यों कोई फिल्म बनाये। दिवाकर का यही फैसला बड़ा लगता है।

(courtesy: http://www.naisadak.blogspot.com/)

Saturday, March 20, 2010

ऑडिएंस को मैच्योर करनेवाली फिल्मः लव,सेक्स,धोखा


- विनीत कुमार


जाहिर है जब सिनेमा के शीर्षक में ही सेक्स शब्द जुड़ा हुआ हो तो उसके भीतर की कहानी आध्यात्म की नहीं होगी। लेकिन ये भी है कि फिल्म LSD(लव,सेक्स,धोखा)सिर्फ और सिर्फ सेक्स की कहानी नहीं है और न ही अब तक की हिन्दी सिनेमा की ग्रामेटलॉजी पर बनी प्यार और धोखे की कहानी है। प्रोमोज के फुटेज से कहीं ज्यादा इन तीनों शब्दों ने फिल्म के प्रोमोशन के फेवर में काम किया हो लेकिन अगर सामान्य ऑडिएंस इन दिनों शब्दों के लालच में आकर फिल्म देखने जाती है तो संभव है कि उन्हें निराश होना पड़े। ले-देकर सुपर मार्केट के सीसीटीवी कंट्रोल रुम की करीब 40-45 सेकंड की सीन है जो फिल्म शीर्षक में जुड़े सेक्स शब्द को सीधे तौर पर जस्टीफाई करती है जहां आदर्श(राजकुमार यादव) और रश्मि(नेहा चौहान)को सेक्स करते हुए दिखाया गया है,सीन का एक बड़ा हिस्सा ब्लर किया हुआ है। इंटरनेट पर आवाजाही करनेवाले लोगों के लिए ये सीन कोई अजूबा नहीं है। हां ये जरुरी है कि फिल्म के भीतर कई ऐसे मौके और घटनाएं हैं जहां कभी प्यार तो कभी धोखा की लेबलिंग में सेक्स एम्बीएंस पैदा करने की मजबूत कोशिशें हैं। लेकिन इस पकड़ने के लिए बारीक नजर और गहरी समझ की जरुरत पड़ती है जो सामान्य ऑडिएंस के लिए मेहनत का काम लगे।
इस सिनेमा की खासियत है कि सिर्फ नाम से ही एक धारणा बन जाती है कि फिल्म के भीतर क्या होगा,नाम और पोस्टर देखकर ही थिएटर के बाहर ही हम फाइनल एंड तक पहुंच जाते हैं कि फिल्म की कहानी क्या होगी। लेकिन दिलचस्प है कि फिल्म देखते हुए धारणा एकदम से टूटती है। अंत क्या कुछ मिनटों बाद समझ आ जाता है कि इन तीनों शब्दों में दिलचस्पी लेनेवाले लोगों के लिए ये फिल्म लगभग धोखे जैसा साबित होती है जबकि जो लोग इन तीन शब्दों को अछूत और'हमारी फैमिली अलाउ नहीं करेगी' मूल्यों को ढोते हुए इसे नहीं देखते हैं तो समझिए कि उन्होंने एक 'रिच फिल्म'को मिस कर दिया। खालिस मनोरंजन और ऑडिएंस की हैसियत से थोड़ा हटकर अगर आप फिल्म और मीडिया स्टूडेंट की हैसियत से इस फिल्म को देख पाते हैं तो ये आपकी सिनेमा की समझ को रिडिफाइन करने के काम जरुर आएगी।
सिनेमा बनानेवालों ने जिस तरह से बॉक्स ऑफिस,कमाई,मार्केटिंग,पॉपुलरिटी आदि मानकों को ध्यान में रखकर सिनेमा का एक फार्मूला गढ़ लिया है,कमोवेश उन तमाम सिनेमा को देखते हुए ऑडिएंस ने भी सिनेमा के भीतर से मनोरंजन हासिल करने का एक चालू फार्मूला गढ़ लिया है। ये फार्मूला कई बार तो बहुत ही साफ तौर पर दिखाई देता है लेकिन कई बार सबकॉन्शस तरीके से। इसलिए LSD के बारे में ये कहा जाए कि इसने बने-बनाए हिन्दी सिनेमा के फार्मूले को तोड़ने की कोशिश की है तो ऐसा कहना उतना ही सही होगा कि इस सिनेमा को देखते हुए ऑडिएंस के मनोरंजन हासिल करने का फार्मूला भी टूटता है। जिस तरह से फिल्म शुरु होते ही घोषणा कर दी जाती है कि इसमें वो सबकुछ नहीं है जो कि बाकी के सिनेमा शुरु से देखते आए हैं और न ही ये उन फिल्मों की उस अभ्यस्त ऑडिएंस के लिए हैं। अगर आप नैतिकता, फैमिली इन्टरटेन्मेंट,ढिंचिक-ढिंचिक गानों की मुराद लेकर इस फिल्म को देखने जाते हैं तो आपकी सलाह है कि घर पर रहकर आराम कीजिए। हिम्मत जुटाकर लव और धोखे की कहानी देखने जाना चाहते हैं तो भी रहने दीजिए। अगर सेक्स के लोभ में जा रहे हैं तो वही 40-45 सेकंड की सीन है जिसके लिए आप इतनी मशक्कत क्यों करेंगे? आप इस फिल्म को तभी देखने जाइए जब आप फिल्म देखने के तरीके और बनी-बनायी आदत को छोड़ना चाहते हैं,आपको सिनेमा के नयापन के साथ-साथ इस बात में भी दिलचस्पी है कि 'हाउ टू वाच सिनेमा?'
सिनेमा की कंटेट पर बात करें तो नया कुछ भी नहीं है। तीन कहानी है और ये तीनों कहानियों से सिनेमा तो सिनेमा हिन्दी के टीवी सीरियल अटे पड़े हैं। पहली कहानी फिल्म स्कूल के एक स्टूडेंट राहुल(अंशुमन झा)की है जो डिप्लोमा के लिए आदित्य चोपड़ा और दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे से प्रेरित होकर एक फिल्म बनाना चाहता है और इसी क्रम में उसे श्रुति(श्रुति) से अफेयर हो जाता है। श्रुति को पाने के लिए वो उसकी फैमिली तक एप्रोच करता है, अपने सिनेमा की सिक्वेंस में उसके बाप की मर्जी से रद्दोबदल करता है और बाप को भी उसमें शामिल करता है। श्रुति की शादी तय हो जाने की स्थिति में दोनों भागकर शादी कर लेते हैं। बाद में श्रुति का बाप दोनों को कॉन्फीडेंस में लेकर वापस अपने घर बुलाता है लेकिन रास्ते में ही उसकी शह पर उसका भाई दोनों के टुकड़े-टुकड़े करके दफना देता है। राहुल और श्रुति का बैग्ग्राउंड अलग है और इस फिल्म को देखते हुए हमें डीयू में हुई ऐसी ही एक घटना की याद आती है। दूसरी कहानी सुपर मार्केट की है जहां सुरक्षा के नाम पर लगे सीसीटीवी कैमरे के फुटेज को चैनलों के हाथों बेचा जाता है,उससे ब्लैकमेलिंग की जाती है। यही रश्मि और आदर्श के बीच अफेयर होता है और उसी सीसीटीवी कंट्रोल रुम में रश्मि अपनी दोस्त श्रुति की मौत की खबर सुनकर हाइपर इमोशनल होती है और आदर्श के साथ सेक्स के स्तर पर जुड़ती है। यहां पर आकर फिल्म का ट्रीटमेंट जरुर नया है। आदर्श इस पूरे सीन को एमएमएस का रुप दे रहा होता है जो कि बाद में इन्टरनेट पर सुपरमार्केट स्कैंडल के नाम से देखा जाता है।..और तीसरी कहानी टीवी जर्नलिस्ट प्रभात(अमित सियाल)और उसका सहारा लेकर मीडिया के भीतर स्टिंग ऑपरेशन को लेकर की जानेवाली तिकड़मों को लेकर है। प्रभात संजीदा टीवी पत्रकार है और वो प्रोफेशन की शर्तों के बीच भी इंसानियत को बचाए रखना चाहता है। इस क्रम में वो मेरठ में नंगी लड़की की तस्वीर नहीं दिखा पाता है और अपनी बॉस से जब-तब ताने सुनता है। वो कास्टिंग काउच की शिकार डांसर मृगनयना/नैना विश्वास(आर्य बनर्जी)को सुसाइड करने से बचाता है। प्रभात के स्टिंग ऑपरेशन से देश की सरकार गिर चुकी है और जो कहानी वो सिनेमा में बताता है वो तहलका की कहानी के करीब है। तहलका को स्टिंग ऑपरेशन का ब्रांड के तौर पर स्थापित किया जाता है। इसी क्रम में वो नैना का बदला लेने के लिए पॉप स्टार लॉकी लोकल(हेनरी टेंगड़ी)का स्टिंग ऑपरेशन करता है। इस हिस्से में मीडिया की जो छवि बनायी गयी है वो फिल्म 'रण'में पहले से मौजूद है। सुपर मार्केट पर जो स्टोरी है वो दरअसल मधुर भंडारकर की एप्रोच का ही विस्तार है जो सिटी स्पेस में नए-नए प्रोफेशन के बीच के खोखलेपन को समेटती है। इसलिए ये फिल्म कंटेंट के स्तर पर अलग और बेहतर होने के बजाय ट्रीटमेंट के स्तर पर ज्यादा अलग है। सिनेमा के तीनों शब्द एक क्रम में अपनी थीसिस पूरी न करके वलय बनाते हैं और कहानी एक जगह सिमटकर आ जाती है। कहानी फिर वहां से अलग-अलग हिस्सों में बिखरती है इसलिए ये सीधे-सीधे फ्लैशबैक में न जाकर रिवर्स,फार्वर्ड में चलती है जो कि हम अक्सर काउंटर नोट करते हुए करते हैं। हां ये जरुर है कि डायलॉग डिलिवरी में कहीं कहीं ओए लक्की लक्की ओए का असर साफ दिखता है।
अव्वल तो ये कि फिल्म को देखते हुए कहीं से नहीं लगता कि हम वाकई कोई फिल्म दे रहे हैं। स्क्रीन पर कैमरे का काउंटर लगातार चलता है,एक तरफ बैटरी का सिबंल है और ठीक उसके नीचे सिकार्डिंग और लाइट स्टेटस। जिन लोगों ने मीडिया में काम किया है उन्हें महसूस होगा कि वो पूरे रॉ शूट से काम के फुटेज का काउंटर नोट करने के लिए वीटीआर में टेप को तेजी से भगा रहे हैं। श्रुति,रश्मि और नैना की कहानी को देखते हुए आपके मुंह से अचानक से निकल पड़ेगा- अरे,ऐसा ही तो होता है,यही तो हमने वहां नोएडा में भी देखा था। फुटेज का जो कच्चापन है जिसमें कि कई बार कुछ भी स्टैब्लिश नहीं होता लेकिन दिखाया जाता है वो संभव है कई बार असंतोष पैदा करे कि इतना तो हम भी कर लेते हैं,इसमें नया क्या है? लेकिन यही से सिनेमा के डीप सेंस पैदा होते हैं। कई अखबारों और चैनलों ने तो कहा ही है कि इस फिल्म की खूबसूरती इस बात में है कि कहीं से नहीं लगता कि किसी भी कैरेक्टर ने सिनेमा के लिए अपने चरित्र को जिया है बल्कि वो स्वाभाविक रुप से ऐसै ही हैं। मुझे लगता है कि इसमें ये भी जोड़ा जाना चाहिए कि ये सिनेमा हमें रिसाइकल बिन में फेंके गए फुटेज से सिनेमा बनाने की तकनीक औऱ समझ पैदा करती है। ऐसा लगता है कि यहां वीडियो एडीटर गायब है लेकिन असर को लेकर कही भी कुछ अनुपस्थित नहीं है।बीच-बीच में पर्दे का ब्लैक आउट हो जाना,दूरदर्शन की तरह रंगीन पट्टियों का आना,तस्वीरों का हिलना जिसमें कोई कहता है इसका सिग्नल खराब है,इसमें चोर मामू और मामू चोर दिखता है,ये सबकुछ हमें उन दिनों की तरफ वापस ले जाता है जहां से हमने सिनेमा को देखना शुरु किया,खासकर दूरदर्शन पर सिनेमा को देखना शुरु किया। इसमें दूरदर्शन की ऑडिएंस का इतिहास शामिल है। संभवतः हमलोग वो अंतिम पीढ़ी हैं जिसने कि दूरदर्शन पर धुंआधार फिल्में देखी जिसे कि LSD ने पकड़ा है,नहीं तो लगता है ये इतिहास यही थम जाएगा।
कुल मिलाकर ये फिल्म जिसमें कि न गाने हैं,न कोई शोबाजी है ऑडिएंस को 'सिनेमा लिटरेट' करने का काम करती है। एक गहरा असर छोड़ती है कि अच्छा सिनेमा को ऐसे भी दिखाया जा सकता है/अच्छा ऐसे भी देखा जा सकता है? हां ये जरुर है कि सिंगल स्क्रीन में देखनेवाली ऑडिएंस को ये सिनेमा मनोरंजन के स्तर पर निराश करे या फिर ये भी संभव है कि वो थियेटर से ये कहते हुए निकले- चालीस सेकेंड के सीन में ही पूरा पैसा वसूल हो गया,हम तो यही देखने आए थे,बाकी तो सब पहिले से देखा हुआ था। ऐसे में ये फिल्म सेक्स के नाम पर फुसफुसाहट पैदा करने से बाहर निकालती है।

Thursday, March 11, 2010

ऑस्कर 2010 : क्या ’डिस्ट्रिक्ट 9′ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कहलाने की हक़दार नहीं है?

मिहिर पंड्या का ये लेख 7 मार्च को यानी ऑस्कर नाइट से ठीक एक दिन पहले उनके ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था। लेख की सामग्री अब भी प्रासंगिक है। यहां इस ब्लॉग के नियमित पाठकों के लिए...
यह ऑस्कर भविष्यवाणियाँ नहीं हैं. सभी को मालूम है कि इस बार के ऑस्कर जेम्स कैमेरून द्वारा रचे जादुई सफ़रनामे ’अवतार’ और कैथेरीन बिग्लोव की युद्ध-कथा ’दि हर्ट लॉकर’ के बीच बँटने वाले हैं. मालूम है कि मेरी पसन्दीदा फ़िल्म ’डिस्ट्रिक्ट 9’ को शायद एक पुरस्कार तक न मिले. लेकिन मैं इस बहाने इन तमाम फ़िल्मों पर कुछ बातें करना चाहता हूँ. नीचे आई फ़िल्मों के बारे में आप आगे बहुत कुछ सुनने वाले हैं. कैसा हो कि आप उनसे पहले ही परिचित हो लें, मेरी नज़र से…

अवतार: मेरी नज़र में इस फ़िल्म की खूबियाँ और कमियाँ दोनों एक ही विशेषता से निकली हैं. वो है इसकी युनिवर्सल अपील और लोकप्रियता. यह दरअसल जेम्स कैमेरून की ख़ासियत है. उनकी पिछली फ़िल्में ’टाइटैनिक’ और ’टर्मिनेटर 2 : जजमेंट डे’ इसकी गवाह हैं. मुझे आज भी याद है कि ’टर्मिनेटर 2’ ही वो फ़िल्म थी जिसे देखते हुए मुझे बचपन में भी ख़ूब मज़ा आया था जबकि उस वक़्त मुझे अंग्रेज़ी फ़िल्में कम ही समझ आती थीं. तो ख़ूबी ये कि इसकी कहानी सरल है, आसानी से समझ आने वाली. जिसकी वजह से इसे विश्व भर में आसानी से समझा और सराहा जा रहा है. और कमी भी यही कि इसकी कहानी सरल है, परतदार कहानियों की गहराईयों से महरूम. जिसकी वजह से इसके किरदार एकायामी और सतही जान पड़ते हैं.
इस फ़िल्म की अच्छी बात तो यही कही जा सकती है कि यह नष्ट होती प्रकृति को इंसानी लिप्सा से बचाए जाने का ’पावन संदेश’ अपने भीतर समेटे है. लेकिन यह ’पावन संदेश’ ऐसा मौलिक तो नहीं जिसे सारी दुनिया एकटक देखे. सच्चाई यही है कि ’अवतार’ का असल चमत्कार उसका तकनीकी पक्ष है. किरदारों और कहानी के उथलेपन को यह तकनीक द्वारा प्रदत्त गहराई से ढकने की कोशिश करती है. यही वजह है कि फ़िल्म की हिन्दुस्तान में प्रदर्शन तिथि को दो महीने से ऊपर बीत जाने के बावजूद कनॉट प्लेस के ’बिग सिनेमा : ओडियन’ में सप्ताहांत जाने पर हमें टिकट खिड़की से ही बाहर का मुँह देखना पड़ता है. मानना पड़ेगा, थ्री-डी अनुभव चमत्कारी तो है. पैन्डोरा के उड़ते पहाड़ और छूते ही बंद हो जाने वाले पौधे विस्मयकारी हैं. और एक भव्य क्लाईमैक्स के साथ वो मेरी उम्मीदें भी पूरी करती है. लेकिन मैं अब भी नहीं जानता हूँ कि अगर इसे एक सामान्य फ़िल्म की तरह देखा जाए तो इसमें कितना ’सत्त’ निकलेगा.

दि हर्ट लॉकर : बहुत उम्मीदों के साथ देखी थी शायद, इसलिए निराश हुआ. बेशक बेहतर फ़िल्म है. लेकिन ’आउट ऑफ़ दि बॉक्स’ नहीं है मेरे लिए. कुछ खास पैटर्न हैं जो इस तरह की हॉलिवुडीय ’वॉर-ड्रामा’ फ़िल्में फ़ॉलो करती हैं, हर्ट लॉकर भी वो करती है. फिर भी, मेरी समस्याएं शायद इससे हैं कि वो जो दिखा रही है, आखिर बस वही क्यों दिखा रही है? लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि वो जिस पक्ष की कहानी दिखाना चाहती है उसे असरदार तरीके से दिखा रही है. एक स्तर पर ’दि हर्ट लॉकर’ की तुलना स्टीवन स्पीलबर्ग की फ़िल्म ’सेविंग प्राइवेट रेयान’ से की जा सकती है. लेकिन यहाँ मैं यह कहना चाहूँगा कि एक महिला द्वारा निर्देशित होने के बावजूद यह बहुत ही मर्दवादी फ़िल्म है. बेशक युद्ध-फ़िल्मों में एक स्तर पर ऐसा होना लाज़मी भी है. इसका नायक एक ’सम्पूर्ण पुरुष नायकीय छवि’ वाला नायक है. तुलना के लिए बताना चाहूँगा कि ’सेविंग प्राइवेट रेयान’ में जिस तरह टॉम हैंक्स अपने किरदार में एक फ़ेमिनिस्ट अप्रोच डाल देते हैं उसका यहाँ अभाव है.
मेरी नज़र में हर्ट लॉकर का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है उसका ’तनाव निर्माण’ और ’तनाव निर्वाह’. और तनाव निर्माण का इससे बेहतर सांचा और क्या मिलेगा, फ़िल्म का नायक एक बम निरोधक दस्ते का सदस्य है और इराक़ में कार्यरत है. मुझे न जाने क्यों हर्ट लॉकर बार-बार दो साल पहले आई हिन्दुस्तानी फ़िल्म ’आमिर’ की याद दिला रही थी. कोई सीधा संदर्भ बिन्दु नहीं है. लेकिन दोनों ही फ़िल्मों का मुख्य आधार तनाव की सफ़ल संरचना है और दोनों ही फ़िल्मों में विपक्ष का कोई मुकम्मल चेहरा कभी सामने नहीं आता. और गौर से देखें तो हर्ट लॉकर में वही अंतिम प्रसंग सबसे प्रभावशाली बन पड़ा है जहाँ अंतत: ’फ़ेंस के उधर’ मौजूद मानवीय चेहरा भी नज़र आता है. ’दि हर्ट लॉकर’ आपको बाँधे रखती है. और कुछ दूर तक बना रहने वाला प्रभाव छोड़ती है.

इनग्लेरियस बास्टर्ड्स: मैं मूलत: टैरेन्टीनो की कला का प्रशंसक नहीं हूँ. मेरे कुछ अज़ीज़ दोस्त उसके गहरे मुरीद हैं. इस ज़मीन पर खड़े होकर मेरी टैरेन्टीनो से बात शुरु होती है. ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ शुद्ध एतिहासिक संदर्भों के साथ एक शुद्ध काल्पनिक कहानी है. ख़ास टैरेन्टीनो की मोहर लगी. इस फ़िल्म को आप टैरेन्टीनो के पुराने काम के सन्दर्भ में पढ़ते हैं. ’पल्प फ़िक्शन’ के संदर्भ में पढ़ते हैं. पिछली संदर्भित फ़िल्म ’दि हर्ट लॉकर’ की तरह ही ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ भी अपनी कथा-संरचना में ’तनाव निर्माण’ और ’तनाव निर्वाह’ को अपना आधार बनाती है. फ़िल्म का शुरुआती प्रसंग ही देखें, उसमें ’तनाव निर्माण’ और उसके साथ बदलता इंसानी व्यवहार देखें. आप समझ जायेंगे कि टैरेन्टीनो इस पद्धति के साथ हमारा परिचय इंसानी व्यव्हार की कमज़ोरियों, उसकी कुरूपताओं से करवाने वाले हैं.
और इस शुरुआती प्रसंग के साथ ही क्रिस्टोफर वॉल्टज़ परिदृश्य में आते हैं. मैं अब भी मानता हूँ कि फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाने वाले ब्रैड पिट का काम भी नज़र अन्दाज़ नहीं किया जाना चाहिए लेकिन वॉल्टज़ यहाँ निर्विवाद रूप से बहुत आगे हैं. उनका लोकप्रियता ग्राफ़ इससे नापिए कि अपने क्षेत्र में (सहायक अभिनेता) आई.एम.डी.बी. पर उन अकेले को जितने वोट मिले हैं वो बाक़ी चार नामांकितों को मिले कुल वोट के दुगुने से भी ज़्यादा है. ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ को सम्पूर्ण फ़िल्म के बजाए अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर पढ़ा जाना चाहिए. यह टैरेन्टीनो को पढ़ने का पुराना तरीका है, उन्हीं का दिया हुआ. हिंसा की अति होते हुए भी उनकी फ़िल्म कुरूप नहीं होती, बल्कि वह एक दर्शनीय फ़िल्म होती है. जैसा मैंने पहले भी कहा है, वे हिंसा का सौंदर्यशास्त्र गढ़ रहे हैं. यह फ़िल्म उस किताब का अगला पाठ है. कई सारे उप-पाठों में बँटा.

अप इन दि एयर : जार्ज क्लूनी. जार्ज क्लूनी. जार्ज क्लूनी. और ढेर सारा स्टाइल. इस फ़िल्म का सबसे बड़ा बिन्दु मेरी नज़र में यही है. यह एक बेहतर तरीके से बनाई, सेंसिबल कहानी है जिसकी जान इसके ट्रीटमेंट में छिपी है. तुलना के लिए फ़रहान अख़्तर की फ़िल्में देखी जा सकती हैं. शहर दर शहर उड़ती इस फ़िल्म के किरदार कॉर्पोरेट में काम करने वाले मेरे दोस्तों को बहुत रिलेटेबल लग सकते हैं. फ़िल्म में बहुत से तीखे प्रसंग हैं जिन्हें कसी स्क्रिप्ट में पेश किया गया है. और वो बहन-साढू की तसवीर के साथ एयरपोर्ट-एयरपोर्ट घूमना तो बहुत ही मज़ेदार है. क्या पुरस्कार मिलेगा ये तो पता नहीं लेकिन सुना है कि यह कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों की दौड़ में दूसरे नम्बर पर भाग रही है. अगर आप इस रविवार एक ’अच्छी’ फ़िल्म देखकर अपनी शाम सुकून से बिताना चाहते हैं तो यह फ़िल्म आपके लिए ही बनी है.

डिस्ट्रिक्ट 9 : नामांकनों की लम्बी सूची में यह सबसे चमत्कारी फ़िल्म है. जी हाँ, यह मैं बहुचर्चित ’अवतार’ थ्री-डी में देखने के बाद कह रहा हूँ. दरअसल मैं इसी फ़िल्म पर बात करना चाहता हूँ. ‘डिस्ट्रिक्ट 9’ आपको हिला कर रख देती है. ध्वस्त कर देती है. यह दूर तक पीछा करती है और अकेलेपन में ले जाकर मारती है. इस विज्ञान-फंतासी को इसका तकनीकी पक्ष नहीं, इसका विचार अद्भुत फ़िल्म बनाता है. ऐसा विचार जो आपको डराता भी है और आपकी आँखे भी खोलता है.
जिस तरह पिछले साल आयी फ़िल्म ’दि डार्क नाइट’ सुपरहीरो फ़िल्मों की श्रंखला में एक पीढ़ी की शुरुआत थी उसी तरह से ’डिस्ट्रिक्ट 9’ विज्ञान-फंतासी के क्षेत्र में एक नई पीढ़ी के कदमों की आहट है. ’डार्क नाइट’ एक सामान्य सुपरहीरो फ़िल्म न होकर एक दार्शनिक बहस थी. यह उस शहर के बारे में खुला विचार मंथन थी जिसकी किस्मत एक अनपहचाने, सिर्फ़ रातों को प्रगट होने वाले, मुखौटा लगाए इंसान के हाथों में कैद है. क्या उस शहर को किसी भी अन्य सामान्य शहर की तुलना में ज़्यादा सुरक्षित महसूस करना चाहिए? ठीक उसी तरह, ’डिस्ट्रिक्ट 9’ भी एक सामान्य ’एलियन फ़िल्म’ न होकर एक प्रतीक सत्ता है. हमारी धरती पर घटती एक ’एलियन कथा’ के माध्यम से यह आधुनिक इंसानी सभ्यता की कलई खोल कर रख देती है. विकास की तमाम बहसें, उसके भोक्ता, उसके असल दुष्परिणाम, हमारे शहरी संरचना के विकास की अनवरत लम्बी होती रेखा और हाशिए पर खड़ी पहचानों से उसकी टकराहट, भेदभाव, इंसानी स्वभाव के कुरूप पक्ष, सभी कुछ इसमें समाहित है. और इस बात की पूरी संभावना जताई जा रही है कि अपनी उस पूर्ववर्ती की तरह ’डिस्ट्रिक्ट 9’ को भी ऑस्कर में नज़रअन्दाज़ कर दिया जाएगा. ’सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म’ की दौड़ में उसका शामिल होना भी सिर्फ़ इसलिए सम्भव हो पाया है कि अकादमी ने इस बार नामांकित फ़िल्मों की संख्या 5 से बढ़ाकर 10 कर दी है.
अपनी शुरुआत से ही ’डिस्ट्रिक्ट 9’ एक प्रामाणिक डॉक्युड्रामा का चेहरा पहन लेती है. मेरे ख़्याल से यह अद्भुत कथा तकनीक फ़िल्म के लिए आगे चलकर अपने मूल विचार को संप्रेषित करने में बहुत कारगर साबित होती है. शुरुआत से ही यह अपना मुख्य घटनास्थल (जहाँ स्पेसशिप आ रुका है) अमरीका के किसी शहर को न बनाकर जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ़्रीका) को बनाती है और केन्द्रीकृत विश्व-व्यवस्था के ध्रुव को हिला देती है. एलियन्स का घेट्टोआइज़ेशन और उनका शहर से उजाड़ा जाना हमारे लिए ऐसा आईना है जिसमें हमारे शहरों को अपना विकृत होता चेहरा देखना चाहिए. और इस ’रियलिटी चैक’ के बाद कहानी जो मोड़ लेती है वो आपने सोचा भी नहीं होगा. फ़िल्म का अंतिम दृश्य एक कभी न भूलने वाला, हॉन्टिंग असर मेरे ऊपर छोड़ गया है. नए, बेहतरीन कलाकारों के साथ इस फ़िल्म का चेहरा और प्रामाणिक बनता है लेकिन तकनीक में यह कोई ओछा समझौता नहीं करती.
मैं आश्चर्यचकित हूँ इस बात से कि क्यों इस फ़िल्म के निर्देशक को हम इस साल के सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों की सूची में नहीं गिन रहे? और शार्लटो कोप्ले (Sharlto Copley) जिन्होंने इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाई है को क्यों नहीं इस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता गिना जा रहा? क्या, हिंसा की अति? इस फ़िल्म के मुख्य किरदार की समूची यात्रा (फ़िल्म की शुरुआत से आखिर तक का कैरेक्टर ग्राफ़) इतनी बदलावों से भरी, अविश्वसनीय और हृदय विदारक है कि उसका सर्वश्रेष्ठ की गिनती में न होना उस सूची के साथ मज़ाक है.
पोस्ट ’क्योटो’ और ’कोपनहेगन’ काल में यह कोरा संयोग नहीं है कि दो ऐसी विज्ञान फंतासियाँ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म की दौड़ में हैं जिनमें मनुष्य प्रजाति खलनायक की भूमिका निभा रही है. यह और भी रेखांकित करने लायक बात इसलिए भी बन जाती है जब पता चले कि बीते सालों में अकादमी विज्ञान-फंतासियों को लॆकर आमतौर से ज़्यादा नरमदिल नहीं रही है. असल दुनिया का तो पता नहीं, लेकिन लगता है कि अब ’साइंस-फ़िक्शन’ सिनेमा अपनी सही राह पहचान गया है.

अप: वाह, क्या फ़िल्म है. एक खडूस डोकरा (बूढ़ा) अपने घर के आस-पास फैलते जाते शहर से परेशान है. और वो अपने घर में ढेर सारे गुब्बारे लगाकर घर सहित उड़ जाता है, अपने सपनों की दुनिया की ओर! क्या कमाल की बात है कि यह एनिमेशन फ़िल्म भी हमारे यांत्रिक होते जा रहे शहरी जीवन और शहरी विकास के मॉडल पर एक तीखी टिप्पणी है. ’अप’ एनीमेशन फ़िल्म होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए नामांकित हुई है. इससे ही आप उसके चमत्कार का अंदाज़ा लगा सकते हैं. ख़ास बात देखने की है कि पिछले साल की विजेता ’वॉल-ई’ की तरह ही यह भी इंसानी सभ्यता के अंधेरे मोड़ की तरफ़ जाने की एक कार्टूनीकृत भविष्यवाणी है.
क्या आपको मालूम है :
- इस साल पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के दो सबसे बज़बूत दावेदार जेम्स कैमेरून (अवतार) और कैथेरीन बिग्लोव (दि हर्ट लॉकर) पूर्व पति-पत्नी हैं.
- तमाम अन्य पूर्ववर्ती पुरस्कार तथा सिनेमा आलोचक इस बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का मुकाबला इन्हीं दोनों पूर्व पति-पत्नी जोड़े के बीच गिन रहे हैं. लेकिन आम दर्शक के बीच आप क्वेन्टीन टैरेन्टीनो (इनग्लोरियस बास्टर्ड्स) की लोकप्रियता और प्रभाव का अन्दाज़ा इस तथ्य से लगा सकते हैं कि आई.एम.डी.बी. वेबसाइट पर पब्लिक पोल में ऑस्कर की पिछली रात तक भी वे दूसरे स्थान पर चल रहे थे.
- ऑस्कर के पहले मिलने वाला इंडिपेंडेंट सिनेमा का ’स्पिरिट पुरस्कार’ बड़ी मात्रा में ’प्रेशियस’ ने जीता है. कई सिनेमा आलोचक इस फ़िल्म में माँ की भूमिका निभाने वाली अदाकारा मोनिक्यू (Mo’nique) की भूमिका को इस साल का सर्वश्रेष्ठ अदाकारी प्रदर्शन गिन रहे हैं.
- अगर कैथरीन बिग्लोव ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीता (और जिसकी काफ़ी संभावना है.) तो वे यह पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला होंगी. इससे पहले केवल तीन महिलाएं सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए नामांकित हुई हैं. लीना वार्टमुलर (Lina Wertmuller) ’सेवन ब्यूटीज़’ के लिए (1976), जेन कैम्पियन (Jane Campion) ’दि पियानो’ (1993) के लिए और बहुचर्चित ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ (2003) के लिए सोफ़िया कोपोला (Sofia Coppola).
(courtesy: http://mihirpandya.com/)

Monday, March 8, 2010

‘Hurt Locker’ director makes history at 82nd Oscar Awards

(In the photo: ‘Avatar' director James Cameron congratulates his ex-wife Kathryn Bigelow, who won the Oscar for Best Director. courtesy: REUTERS )



Kathryn Bigelow became the first woman to win an Oscar for Best Director in the Academy Awards’ 58-year history. Her film, ‘The Hurt Locker’, stole the show at the 82nd Academy Awards on Sunday, March 7.
Beating ex-husband, James Cameron (‘Avatar’) , Lee Daniels (‘Precious’), Quentin Tarantino (‘Inglourious Basterds’), and Jason Reitman (‘Up In The Air’) to get the golden statuette, Bigelow, who won the award for Iraq War drama ‘The Hurt Locker’ said, “There’s no other way to describe it; this is the moment of a lifetime.”
Bigelow was handed her award by actress, Barbara Streisand, who co-wrote, produced, directed, and starred in 1983’s ‘Yentl!’. Before announcing the winner of the Best Director category, Streisand said, “It’s about time.”
Previous female nominees have been Lina Wertmuller in 1976 for ‘Seven Beauties’, Jane Campion in 1993 for ‘The Piano’ and most recently, Sofia Coppola in 2003 for ‘Lost in Translation’.
Making a total haul of six gongs on the award night, ‘The Hurt Locker’ also won for best picture, best original screenplay (by Mark Boal), best sound mixing, sound editing, and film editing. There was no ignoring the movie, despite the pre-awards drama that led to the ban of the film’s producer, Nicholas Chartrier, from the award ceremony. Chartrier was banned for sending e-mails to the Academy of Motion Picture Arts and Sciences, in charge of selecting the winning films, asking them not to vote for ‘Avatar’.
‘The Hurt Locker’ trounced its closest rival James Cameron’s ‘Avatar’ by three, with the 3D blockbuster winning for Art Direction, Cinematography and Visual Effects.
Sitting behind Bigelow at the event, Cameron burst into applause when his ex-wife was announced as Best Director for the $11 million movie, bringing an end to the PR ‘war’ that was already mounting before the awards.
Other success stories on the night included ‘Here Today, Gone Tomorrow’ actor Jeff Bridges, who won Best Actor for his role as a rundown country singer in ‘Crazy Heart’. He beat Colin Firth (‘A Single Man’), George Clooney (‘Up In The Air’), Jeremy Renner (‘The Hurt Locker’) and Morgan Freeman (‘Invictus’) to get the top award.
Sandra Bullock won Best Female Actor for her character as Leigh Anne Tuohy in ‘The Blind Side’, the film adaptation of the true life story of American football player, Michael Oher. Renowned for her tomboyish roles in romantic or action comedies, Bullock asked in her acceptance speech, “Did I really earn this or did I just wear you all down?” and to her fellow nominees in the category, she said “Gabby (Sidebe, ‘Precious’) I love you so much. You are exquisite. You are beyond words to me. Carey (Mulligan, ‘An Education’), your grace and your elegance and your beauty and your talent makes me sick. Helen (Mirren, ‘The Last Station’), I feel like we are family through family and I don’t have the words to express just what I think of you. And Meryl (Streep, ‘Julie & Julia’), you know what I think of you and you are such a good kisser.”
Mo’Nique received the Best Supporting Actress award for her role as an abusive parent in Lee Daniels’s ‘Precious’, based on the novel Push by Sapphire. She joins Hattie McDaniel (‘Gone With the Wind’, 1939), Whoopi Goldberg (‘Ghost’, 1990), and Jennifer Hudson (‘Dreamgirls’, 2006) as the only African-American winners in the category.Mo'Nique paid tribute to McDaniel in her acceptance speech, saying, "First, I would like to thank the Academy for showing that it can be about the performance and not the politics. I want to thank Miss Hattie McDaniel for enduring all that she had to so that I would not have to." ‘Precious’s screenplay by Geoffrey Fletcher also won for Best Adapted Screenplay.
Hollywood officially opened its doors to Austrian actor, Christopher Waltz, who won Best Supporting Actor for his Nazi character in ‘Inglourious Basterds’. He dusted off the more popular Christopher Plummer (‘The Last Station’), Matt Damon (‘Invictus’), Stanley Tucci (‘The Lovely Bones’) and Woody Harrelson (‘The Messenger’) to claim his place in the American film industry.
The award for Best Animated Feature Film and Best Original Score went to ‘Up’. ‘Crazy Heart’ won for Original Song, The Weary Kind by Ryan Bingham and T Bone Burnett.
Nicolas Scmerkin’s ‘Logorama’ won the Best Short Film (Animated), while Joachim Back and Tivi Magnusson’s ‘The New Tenants’ won for Best Short Film (Live Action).
‘The Cove’ won for Best Documentary Feature and 'Music' by Prudence was winner in the Best Documentary Short category.
This year’s Foreign Language winning film was ‘The Secret in Their Eyes’ (El Secreto de Sus Ojos) by Argentine director, Juan Jose Campanella.
‘The Young Victoria’ won for Best Costume and ‘Star Trek’ was awarded Best for Make-up.
As the winners of Sunday’s event revel in their success, the race for next year’s awards has definitely begun.

(courtesy.234next.com)

Thursday, February 18, 2010

India has dream run at Berlin film festival

-NDFS Desk
India has a dream run with eight feature films including My Name Is Khan, Peepli Live and Manthan at the ongoing Berlin International Film Festival.
In its 60th anniversary, the festival has selected a wide range of Indian Bollywood and arthouse films in several languages. They are represented across different festival sections.
There are also Indian films in the European Film Market that runs parallel to the Berlinale. No wonder there are nearly a 100 Indians at the festival.
The eight features include Karan Johar’s My Name is Khan, Dev Benegal’s Road, Movie, Anusha Rizvi’s Peepli Live, Laxmikant Shetgaonkar’s Paltadacho Munis (Man Beyond the Bridge, Konkani), Umesh Kulkarni’s Vihir (the Well, Marathi), Kaushik Ganguly’s Arekti Premer Golpo (Just Another Love Story, Bengali), Shyam Benegal’s Manthan, Satyajit Ray’s Charulata and Madhusree Dutta and team’s Cinema City.

Sunday, February 14, 2010

अब मत कहना ख़ान का मतलब...मुसलमान


- रवीश कुमार

माय नेम इज़ ख़ान हिन्दी की पहली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म है। हिन्दुस्तान,इराक,अफ़गानिस्तान,जार्जिया का तूफान और अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव। कई मुल्क और कई कथाओं के बीच मुस्लिम आत्मविश्वास और यकीन की नई कहानी है। पहचान के सवालों से टकराती यह फिल्म अपने संदर्भ और समाज के भीतर से ही जवाब ढूंढती है। किसी किस्म का विद्रोह नहीं है,उलाहना नहीं है बल्कि एक जगह से रिश्ता टूटता है तो उसी समय और उसी मुल्क के दूसरे हिस्से में एक नया रिश्ता बनता है। विश्वास कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसी कहानी शाहरूख जैसा कद्दावर स्टार ही कह सकता था। पात्र से सहानुभूति बनी रहे इसलिए वो एक किस्म की बीमारी का शिकार बना है। मकसद है खुद बीमार बन कर समाज की बीमारी से लड़ना। मुझे किसी मुस्लिम पात्र और नायक के इस यकीन और आत्मविश्वास का कई सालों से इंतज़ार था। राम मंदिर जैसे राष्ट्रीय सांप्रदायिक आंदोलन के बहाने हिन्दुस्तान में मुस्लिम पहचान पर जब प्रहार किया गया और मुस्लिम तुष्टीकरण के बहाने सभी दलों ने उन्हें छोड़ दिया,तब से हिन्दुस्तान का मुसलमान अपने आत्मविश्वास का रास्ता ढूंढने में जुट गया। अपनी रिपोर्टिंग और स्पेशल रिपोर्ट के दौरान मेरठ, देवबंद, अलीगढ़, मुंबई, दिल्ली और गुजरात के मुसलमानों की ऐसी बहुत सी कथा देखी और लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। जिसमें मुसलमान तुष्टीकरण और मदरसे के आधुनिकीकरण जैसे फालतू के विवादों से अलग होकर समय के हिसाब से ढलने लगा और आने वाले समय का सामना करने की तैयारी में शामिल हो गया। नुक़्ते के साथ ख़ान का तलफ्फ़ुज़ कैसे करें इस पर ज़ोर देकर बताता है कि आप मुसलमानों के बारे में कितना कम जानते हैं। मुझे आज भी वो दृश्य नहीं भूलता। अहमदाबाद के पास मेहसाणां में अमेरिका के देत्राएत से आए करोड़पति डॉक्टर नकादर। टक्सिडो सूट में। एक खूबसूरत बुज़ूर्ग मुसलमान। गांव में करोड़ों रुपये का स्कूल बना दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए। लेकिन पढ़ाने वाले सभी मज़हब के शिक्षक लिए गए। नकादर ने कहा था कि मैं मुसलमानों की एक ऐसी पीढ़ी बनाना चाहता हूं जो पहचान पर उठने वाले सवालों के दौर में खुद आंख से आंख मिलाकर दूसरे समाजों से बात कर सकें। किसी और को ज़रिया न बनाए। इसके लिए उनके स्कूल के मुस्लिम बच्चे हर सोमवार को हिन्दू इलाके में सफाई का काम करते हैं। ऐसा इसलिए कि शुरू से ही उनका विश्वास बना रहे। कोशिश होती है कि हर मुस्लिम छात्र का एक दोस्त हिन्दू हो। स्कूल में हिन्दू छात्रों को भी पढ़ने की इजाज़त है। नकादर साहब से कारण पूछा था। जवाब मिला कि कब तक हमारी वकालत दूसरे करेंगे। कब तक हम कांग्रेस या किसी सेकुलर के भरोसे अपनी बेगुनाही का सबूत देंगे। आज गुजरात में कांग्रेस हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों के भय से मुसलमानों को टिकट नहीं देती है। हम किसी को अपनी बेगुनाही का सबूत नहीं देना चाहते। हम चाहते हैं कि मुस्लिम पीढ़ी दूसरे समाज से अपने स्तर पर रिश्ते बनाए और उसे खुद संभाले। बीते कुछ सालों की यह मेरी प्रिय सत्य कथाओं में से एक है। लेकिन ऐसी बहुत सी कहानियों से गुज़रता चला गया जहां मुस्लिम समाज के लोग तालीम को बढ़ावा देने के लिए तमाम कोशिशें करते नज़र आए। उन्होंने मोदी के गुजरात में किसी कांग्रेस का इंतज़ार छोड़ दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए स्कूल बनाने लगे। रोना छोड़कर आने वाले कल की हंसी के लिए जुट गए। माइ नेम इज खान में मुझे नकादर और ऐसे तमाम लोगों की कोशिशें कामयाब होती नज़र आईं, जो आत्मविश्वास से भरा मुस्लिम मध्यमवर्ग ढूंढ रहे थे। फिल्म देखते वक्त समझ में आया कि इस कथा को पर्दे पर आने में इतना वक्त क्यों लगा। खुदा के लिए,आमिर और वेडनेसडे आकर चली गईं। इसके बाद भी ये फिल्म क्यों आई। ये तीनों फिल्में इंतकाम और सफाई की बुनियाद पर बनी हैं। इन फिल्मों के भीतर आतंकवाद के दौर में पहचान के सवालों से जूझ रहे मुसलमानों की झिझक,खीझ और बेचैनी थी। माइ नेम इज ख़ान में ये तीनों नहीं हैं। शाहरूख़ ख़ान आज के मुसलमानों के आत्मविश्वास का प्रतीक है। उसका किरदार रिज़वान ख़ान सफाई नहीं देता। पलटकर सवाल करता है। आंख में आंख डालकर और उंगलियां दिखाकर पूछता है। इसलिए यह फिल्म पिछले बीस सालों में पहचान के सवाल को लेकर बनी हिन्दी फिल्मों में काफी बड़ी है। अंग्रेज़ी में भी शायद ऐसी फिल्म नहीं बनी होगी। इस फिल्म में मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने की लाचारी भी नहीं है और न हीं उनकी पहचान को चुनौती देने वाले नरेंद्र मोदी जैसे फालतू के नेताओं की मौजूदगी है। यह फिल्म दुनिया के स्तर पर और दुनिया के किरदार-कथाओं से बनती है। हिन्दुस्तान की ज़मीं पर दंगे की घटना को जल्दी में छू कर गुज़र जाती है। यह बताने के लिए कि मुसलमान हिन्दुस्तान में जूझ तो रहा ही है लेकिन वो अब उन जगहों में भेद भाव को लेकर बेचैन है जिनसे वो अपने मध्यमवर्गीय सपनों को साकार करने की उम्मीद पालता है। अमेरिका से भी नफरत नहीं करती है यह फिल्म। माय नेम इज़ ख़ान की कथा में सिर्फ मुस्लिम हाशिये पर नहीं है। यह कथा सिर्फ मुसलमानों की नहीं है। इसलिए इसमें एक सरदार रिपोर्टंर बॉबी आहूजा है। इसलिए इसमें मोटल का मालिक गुजराती है। इसलिए इसमें जार्जिया के ब्लैक हैं। अमेरिका में आए तूफानों में मदद करने वाले ब्लैक को भूल गए। लेकिन माइ नेम इज़ ख़ान का यह किरदार किसी इत्तफाक से जार्जिया नहीं पहुंचता। जब बहुसंख्यक समाज उसे ठुकराता है,उससे सवाल करता है तो वो बेचैनी में अमेरिका के हाशिये के समाज से जाकर जुड़ता है। तूफान के वक्त रिज़वान उनकी मदद करता है। उसके पीछे बहुत सारे लोग मदद लेकर पहुंचते हैं। फिल्म की कहानी अमेरिका के समाज के अंतर्विरोध और त्रासदी को उभारती है और चुपचाप बताती है कि हाशिये का दर्द हाशिये वाला ही समझता है। इराक जंग में मंदिरा के अमेरिकी दोस्त की मौत हो जाती है। उसका बेटा मुसलमानों को कसूरवार मानता है। उसकी व्यक्तिगत त्रासदी उस सामूहिक पूर्वाग्रह में पनाह मांगती है जो एक दिन अपने दोस्त समीर की जान ले बैठती है। इधर व्यक्तिगत त्रासदी के बाद भी रिज़वान कट्टरपंथियों के हाथ नहीं खेलता। मस्जिद में हज़रत इब्राहिम का प्रसंग काफी रोचक है। यह उन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए है जो यथार्थ के किसी अन्याय के बहाने आतंकवाद के समर्थन में दलीलें पेश करते हैं। रिज़वान उन्हें पकड़वाने की कोशिश करता है। वो कुरआन शरीफ से हराता है फिर एफबीआई की मदद मांगता है। घटना और किरदार अमेरिका के हैं लेकिन असर हिन्दुस्तान के दर्शकों में हो रहा था। जार्ज बुश और बराक हुसैन ओबामा के बीच के समय की कहानी है। ओबामा मंच पर आते हैं और नई उम्मीद का संदेश देते हैं। यहीं पर फिल्म अमेरिका का प्रोपेगैंडा करती नज़र आती है। मेरी नज़र से इस फिल्म का यही एक कमज़ोर क्षण है। बराक हुसैन ओबामा रिज़वान से मिल लेते हैं। वैसे ही जैसे काहिरा में जाकर अस्सलाम वलैकुम बोलकर दिल जीतने की कोशिश करते हैं लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर उनकी कोई साफ नीति नहीं बन पाती। याद कीजिए ओबामा के हाल के भाषण को जिसमें वो युद्ध को न्यायसंगत बताते हैं और कहते हैं कि मैं गांधी का अनुयायी हूं लेकिन गांधी नहीं बन सकता।
इसके बाद भी यह हमारे समय की एक बड़ी फिल्म है। हॉल में दर्शकों को रोते देखा तो उनकी आंखों से संघ परिवार और सांप्रदायिक दलों की सोच को बहते हुए भी देखा। जो सालों तक हिन्दू मुस्लिम का खेल खेलते रहे। मुंबई में इसकी आखिरी लड़ाई लड़ी गई। कम से कम आज तक तो यही लगता है। एक फिल्म से दुनिया नहीं बदल जाती है। लेकिन एक नज़ीर तो बनती ही है। जब भी ऐसे सवाल उठाये जायेंगे कोई कऱण जौहर,कोई शाहरूख के पास मौका होगा एक और माइ नेम इज़ ख़ान बनाने का। फिल्म देखने के बाद समझ में आया कि क्यों शाहरूख़ ख़ान ने शिवसेना के आगे घुटने नहीं टेके। अगर शाहरूख़ माफी मांग लेते तो फिल्म की कहानी हार जाती है। ऐसा करके शाहरूख खुद ही फिल्म की कहानी का गला घोंट देते। शाहरूख़ ऐसा कर भी नहीं सकते थे। उनकी अपनी निजी ज़िंदगी भी तो इस फिल्म की कहानी का हिस्सा है। हिन्दुस्तान में तैयार हो रही नई मध्यमवर्गीय मुस्लिम पीढ़ी की आवाज़ बनने के लिए शाहरूख़ का शुक्रिया।


(साभार: naisadak.blogspot.com)

Friday, February 12, 2010

'Kavi' story of an Indian slave boy makes it to Oscars


-NDFS Desk

NEW DELHI: There may be no Indian hopefuls in this year's Oscar race after AR Rahman's ouster, but India still figures in the competition with 'Kavi', a short film about a young Indian boy trapped by child labour, which has been nominated in the 'Short Film (Live Action)' category.
The 19-minute-long fictional film in Hindi by American debutante director Gregg Helvey is about a boy who wants to escape from the brick kiln where he is forced to work as a modern-day slave. Helvey who shot the film on a shoe string budget in and around Wai, near Mumbai, said that the goal of the film was to "motivate action through awareness". "What incredible support for Kavi. 30% of our DVD proceeds are going to anti-slavery orgs. Hope this gets eyes on Human Trafficking," wrote Helvey, a student of the University of South California, on his Twitter account. "My goal is to reach at least 50,000 people with 'Kavi' in the first year. The purpose is to motivate action through awareness," he added in a statement. Last year's Oscars were dominated by the Mumbai-based-potboiler 'Slumdog Millionaire' which won eight Oscars, including two for musician Rahman and one for sound artiste Resul Pokutty. 'Smile Pinki' a documentary by American director Megan Mylan about a young Indian girl stigmatised due to her cleft lip had also won the Academy Award in the 'Best Documentary Short Subject' category.