- आलोक नंदन
पहले गाने के बोल को लेते हैं,सुनसान गली के नुक्कड़ पर जो कोई कुत्ता चीख चीख कर रोता है......वाह क्या बोल है....अब कोई बताएगा कि कुत्ता चीख चीख कर कैसे रोता है...जहां तक मुझे पता है कि कुत्ता हू हू कर के रोता है...बचपन से मैं कुत्तों को एसे ही रोते हुये सुनता और देखता हूं...भाई गीत कोई भी लिख सकता है...लेकिन गीतों को जोड़ने वाली कड़ी तो दुरुस्त होनी चाहिये...गालिब, मजाज़,फैज़, फिराक और मीर को लेकर बनाई लिखी गई पंक्तियां क्या कहना चाह रही है पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है...सबकुछ गड्मगड् कर रखा है....चंबल घाटी है, सिर्फ फिल्मों में ही चंबल में घोड़े दौड़ते हैं...यकीन नहीं हो तो फूलन देवी बता देंगी...ओह अफसोस वह नहीं रही...लेकिन चंबल तो है....भाई बहुत हुआ...हो सकता है ये बोल धुन पर सुनने में अच्छे लगे...लेकिन ग्रेटनेस वाली कोई बात नहीं है.....वैसे इसे कोई ग्रेट मान रहा है तो उसकी मर्जी....जब गीत के बोल रियलिज्म को कैरी कर रहे हैं तो उसमें पूरी तरह से रियलिज्म हो...तार्किकता को परे रख कर रोमांटिसिज्म की ओर बढ़ सकते हैं...यहां तो पूरा मामला अधकचरा हो गया है....उम्मीद है धुन पर इन्हें सुनने में अच्छा लगेगा....
( आलोक नंदन लंबे समय तक पत्रकारिता करने के बाद इन दिनों फिल्मों में सक्रिय हैं। प्रबुद्ध का लेख पढ़ने के बाद ये उनकी पहली प्रतिक्रिया थी जो उन्होने हमें भेजी )
पहले गाने के बोल को लेते हैं,सुनसान गली के नुक्कड़ पर जो कोई कुत्ता चीख चीख कर रोता है......वाह क्या बोल है....अब कोई बताएगा कि कुत्ता चीख चीख कर कैसे रोता है...जहां तक मुझे पता है कि कुत्ता हू हू कर के रोता है...बचपन से मैं कुत्तों को एसे ही रोते हुये सुनता और देखता हूं...भाई गीत कोई भी लिख सकता है...लेकिन गीतों को जोड़ने वाली कड़ी तो दुरुस्त होनी चाहिये...गालिब, मजाज़,फैज़, फिराक और मीर को लेकर बनाई लिखी गई पंक्तियां क्या कहना चाह रही है पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है...सबकुछ गड्मगड् कर रखा है....चंबल घाटी है, सिर्फ फिल्मों में ही चंबल में घोड़े दौड़ते हैं...यकीन नहीं हो तो फूलन देवी बता देंगी...ओह अफसोस वह नहीं रही...लेकिन चंबल तो है....भाई बहुत हुआ...हो सकता है ये बोल धुन पर सुनने में अच्छे लगे...लेकिन ग्रेटनेस वाली कोई बात नहीं है.....वैसे इसे कोई ग्रेट मान रहा है तो उसकी मर्जी....जब गीत के बोल रियलिज्म को कैरी कर रहे हैं तो उसमें पूरी तरह से रियलिज्म हो...तार्किकता को परे रख कर रोमांटिसिज्म की ओर बढ़ सकते हैं...यहां तो पूरा मामला अधकचरा हो गया है....उम्मीद है धुन पर इन्हें सुनने में अच्छा लगेगा....
( आलोक नंदन लंबे समय तक पत्रकारिता करने के बाद इन दिनों फिल्मों में सक्रिय हैं। प्रबुद्ध का लेख पढ़ने के बाद ये उनकी पहली प्रतिक्रिया थी जो उन्होने हमें भेजी )
'उम्मीद है इन्हे धुन पर सुनने में अच्छा लगेगा'। साफ़ है कि गुलाल का संगीत आपने सुना नहीं है...पर उसका पोस्टमॉर्टम ज़रुर कर दिया है। तीन लाइन के आधार पर पूरी एलबम का मर्सिया पढ़ दिया गया- इसे महज़ शब्दों की क़दमताल क़रार दे दिया गया। जिन तीन पंक्तियों को इसका आधार बनाया गया उनमें भी चंबल वाली बात को छोड़ कर बाक़ी आपका संशय ही है और कुछ नहीं। बेहतर हो कि हम अपनी प्रतिक्रिया किसी चीज़ को सुन-समझ कर ही दें।
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