Note:

New Delhi Film Society is an e-society. We are not conducting any ground activity with this name. contact: filmashish@gmail.com


Thursday, August 2, 2012

Shock Waves 2012: A unique Film Festival in Capital


2nd International Film Festival on Disaster Risk Reduction

Global Forum for Disaster Reduction (GFDR) cordially invites you to Shock Waves 2012 (Second International Film Festival on Disaster Risk Reduction) on 3-4 Aug, 2012 at India Habitat Centre, New Delhi. This event is organized in collaboration with Japan Foundation. The Festival timings are 10 AM to 6 PM both days. Inaugural Function is at 10 AM on 3rd Aug and Valedictory Function will be at 4 PM on 4th Aug, 2012.
The Film Festival will screen films received from different parts of the world on following categories:

 (a)               Learnings from Japan
(b)               Living with Disasters
(c)                Beyond Disasters (Sustainable Development)
(d)               Indigenous Knowledge and Practices
(e)                Protecting our Earth (CCA and Environment issues)
(f)                 Culture of Disaster Preparedness (School and Community Focus)
 We are pleased to invite you to this prestigious event of great public importance. We request you to be a part of this event. Please feel free to ask for any further information or details pertaining to the event.  High level dignitaries and disaster management professionals, policy makers, film experts and students are expected to be present on the occasion.
 ( Released by Anwar Jamal, Festival  Director)

Friday, July 20, 2012

गैंग्स ऑफ़ वासेपुर- बदले की आग और तलछट का कोरस

-- 8 अगस्त करीब है, इसी दिन गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का सीक्वेल रिलीज़ हो रहा है। दूसरे भाग के प्रोमो रिलीज़ हो चुके हैं, और इसकी चर्चा अभी से शुरू हो चुकी है। एनडीएफएस पर हम पहली बार गैंग्स ऑफ़ वासेपुर पर चर्चा शुरू कर रहे हैं। इस सिलसिले में आगे कई लेख प्रकाशित किए जाएंगे। शुरुआत वरिष्ठ टीवी पत्रकार और सिनेमा के गहरे मर्मज्ञ अमिताभ के 24 जून को लिखे लेख से, जो उन्होने फेसबुक में अपनी वॉल पर डाला था। अपनी प्रतिक्रिया ज़रुर पोस्ट करें।

ज़िन्दगी में चाँद, रोटी, नींद, लोरी की चाहत और उसके लिए जद्दोजहद; सीप का सपना और सिसकी की मजबूरियां और इन सब पर भारी गोलियों की गूँज यानी गैंग्स ऑफ़ वासेपुर. ...ये समाज की तलछट के कोरस की कहानी है . वैसे कहानी की ज़मीन बिहार (अब झारखण्ड) है लेकिन ये कहीं की भी हो सकती थी . और क्या ज़बरदस्त अंदाज़े बयां है इस दास्तान का. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में नत्थी है एक समाज , एक कौम , एक राज्य , एक उद्योग और इन सब से बढ़कर इंसानी फितरत के बहुरुपियेपन की तस्वीरें-जिसमे बदला है, नफरत है ,मोहब्बत है, कमीनगी है और कामुकता भी है, रिश्तों में ठगे जाने का दर्द है और कहीं न कहीं खालीपन की छटपटाहट भी.

अनुराग ने फिर कमाल कर दिखाया है. हालाँकि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का कथानक और ट्रीटमेंट कहीं कहीं Godfather की याद भी दिलाता है. Sergio leone और Quentin Tarantino की शैली की झलक भी है.बुनियादी कहानी तो निजी दुश्मनी की है लेकिन उसके इर्द गिर्द बुना गया ताना बाना कोयला खदानों से शुरू होकर राजनीति के अपराधीकरण के रास्ते से मामूली लोगों के माफिया बनने की प्रक्रिया को उघाड़ता है.

मनोज बाजपेयी ने अपने पुराने दमदार अभिनय के दिनों की याद ताज़ा कर दी है- सत्या, शूल और पिंजर वाले मनोज यहाँ मौजूद हैं सरदार खान की खाल में. एक ऐसा किरदार जो अपने बाप की धोखे से हुई हत्या का बदला लेने के लिए किस तरह कमीनेपन और कुटिलता का सहारा लेकर अपने दुश्मन की नाक में दम किये रहता है. मनोज ने ज़बरदस्त काम किया है- सरदार खान की कामुकता को उजागर करने वाले द्रश्यों में तो वो ग़ज़ब हैं. पता नहीं क्यों मुझे सरदार खान की ठसक को देखते हुए कहीं कहीं आधा गाँव के फुन्नन मियां याद आ गए.

हालांकि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर अकेले मनोज बाजपेयी की फिल्म नहीं है. निर्देशक के तौर पर अनुराग की कामयाबी ये भी है कि उन्होंने हर किरदार के लिए ठोंक पीट कर एक्टर चुने और उनसे बेहतरीन काम लिया है .शाहिद खान बने जयदीप अहलावत ने बहुत शानदार काम किया है, सुल्तान के किरदार में पंकज त्रिपाठी खूब जमे हैं. अग्निपथ में उनका हकलाते हुए कांचा भाऊ कहना नोटिस किया गया था और अब कुरेशियों और पठानों की खानदानी दुश्मनी की आग में जलता सुल्तान भी भूलने वाला किरदार नहीं है. पियूष मिश्रा ने एक्टिंग तो ज़ोरदार की ही है (इसमें नया क्या है, वो एक बेहतरीन कलाकार हैं जिनको बहुत पहले नोटिस किया जाना चाहिए था ) गाना भी बहुत अच्छा गाया है.

लेकिन जिन लोगों ने चौंकाया है वो हैं- तिग्मांशु धूलिया, ऋचा चड्ढा और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी. बेहद कुटिल क्रूर ठेकेदार और शातिर नेता के रोल में तिग्मांशु ने बहुत सधा हुआ अभिनय किया है. अगर वो फेंटा कस कर एक्टिंग के मैदान में उतर आये तो अच्छे अच्छे खलीफाओं की छुट्टी कर सकते हैं ये उन्होंने इस फिल्म में दिखा दिया है. सरदार खान की बीवी नगमा के रोल में ऋचा चड्ढा ने शबाना और स्मिता की झलक दिखाई है.अनुराग ने देव डी में माही गिल को पेश किया था, अब ऋचा भी उनकी ही खोज हैं.

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को इस साल का सितारा कहा जा रहा है. कहानी की शोहरत के बाद अब वासेपुर की बदौलत वो हाल ही में कान फिल्म फेस्टिवल तक हो आये हैं. फैज़ल का किरदार इस फिल्म का एक मुश्किल किरदार है- बचपन में बाप को अपने घर पर अपनी माँ के साथ देखने के बजाय दूसरी औरत के साथ देखना, माँ की एक रात की कमजोरी का उसकी पूरी शख्सियत पर डंक मार जाना और उपेक्षा के साये में पलते हुए बड़े होना- इन गुत्थियों को ज़ाहिर करने में नवाज़ ने कमाल किया है. खास तौर पर त्रिशूल फिल्म के सीन के बाद सिनेमा हाल से निकलते हुए कमेन्ट और एक्सप्रेशन ज़बरदस्त है. मिथुन चक्रवर्ती के डांस की तो उन्होंने ग़ज़ब नक़ल की है. हुमा कुरैशी के साथ उनका रोमांस का ट्रैक दिलचस्प है और अगले पार्ट में वो कुछ धमाल करेंगे ऐसा लगता है.


स्नेहा खानविलकर ने क्या म्यूजिक दिया है. वुमनिया बड़ा दिलचस्प गाना है लेकिन मेरा फैवरिट है पियूष मिश्रा का गाया -एक बगल में चाँद होगा एक बगल में रोटियां. यशपाल शर्मा पर फिल्माया गया सलामे इश्क मज़ेदार है .

काफी पहले राजेंद्र यादव ने एक लेख लिखा था- गाली मत दो गोली मार दो - वासेपुर में लोग गाली भी खूब देते हैं और गोली भी खूब मारते हैं. मैं जिस हाल में फिल्म देखने गया था वहां अपने गाली भरे गानों के लिए युवा दिलों की धड़कन बन चुके पॉप सिंगर हनी सिंह भी पहुंचे थे. शायद फिल्म में धड़ल्ले से इस्तेमाल की गयी गालियों से उन्हें कुछ और जोशीले गाली वाले गाने बनाने की प्रेरणा मिले.

चूँकि फिल्म दो हिस्सों में बनायीं गयी है इसलिए कई लोगों को पहला पार्ट थोडा भटका हुआ या झूलता हुआ भी लग सकता है . ढाई घंटे से थोडा ऊपर की फिल्म ख़त्म हो गयी तो लगा कहानी जारी रहनी चाहिए थी. सीक्वेल की इतनी तत्काल तलब शायद ही कभी लगी हो .

Thursday, July 19, 2012

हमारी फिल्म का हीरो कौन है?

पहले आजमगढ़ फिल्म फेस्टिवल में अरुंधति राय

आजमगढ के नेहरू हाल में पहला आजमगढ फिल्म फेस्टिवल 14 और 15 जुलाई को आयोजित किया गया। जनसंस्कृति मंच और आजमगढ फिल्म सोसाइटी के संयुक्त तत्वावधान में प्रतिरोध का सिनेमा का यह 26 वां आयोजन था। पहले आजमगढ फिल्म फेस्टिवल का उद्घाटन प्रख्यात लेखिका एवं एकिटविस्ट अरुंधति राय ने किया।

 अरुंधति का वक्तव्य : 

 उद्घाटन वक्तव्य में अरुंधति ने कहा कि " वह आजमगढ में आकर खुश हैं। यह शहर कविता, गीत, संगीत का शहर है लेकिन मीडिया ने इसे तरह प्रचारित किया कि जैसे आजमगढ़ के खेतों में आतंकवादी उगते हैं और यहां के कारखानों में बम बनाए जाते हैं। इस मौके पर मै सिनेमा के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी लेकिन इतना कहना चाहूंगी कि जैसे देश में जंग लडी जाती है, बांध बनाए जाते हैं, निजीकरण होता है तो वह भी गरीबों के नाम पर ही होता है। उसकी तरह हमारे फिल्म स्टार, गरीबों के कंधे पर सवाल होकर फिल्म स्टार बने हैं। आप देखिए पहले फिल्म के कैरेक्टर गरीब होते थे, झुग्गी झोपड़ी में रहते थे। अमिताभ बच्चन की फिल्म कुली याद करिए जिसमें वह इकबाल नाम के कुली हैं और टेड यूनियन से जुडे हैं। वह जमाना गया; आज हमारी फिल्म का हीरो कौन है? अम्बानी है । गुरू फिल्म को याद करें। तो आज की फिल्मों के ये हीरों हैं। आज कुछ फिल्में गरीबी पर बन जाती हैं जैसे स्लमडाग मिलेनियर लेकिन इसमें गरीबी को साइक्लोन, भूकम्प की तरह भगवान का बनाया हुआ बताया जाता है। इसमें कोई विलेन नहीं होता और इस तरह से हमारे इमैजिनेशन पर कब्जा कर बत़ाया जाता है कि एनजीओ और कार्पोरेट की मदद से गरीबी को खत्म किया जा सकता है।

 30 वर्ष पहले हमारे देश में तो ताले एक साथ खुले । एक बाबरी मस्जिद का और दूसरा बाजार का। इस मैनुफैक्चरिंग प्रासेस प्रक्रिया ने एक तरफ मुस्लिम आतंकवाद को पैदा किया तो दूसरे माओवाद को । आज ऐसी स्थिति बना दी गई है कि जो भी पार्टी सत्ता में आएगी वह राइट विंग ही होगी और वह हमारे देश को और ज्यादा पुलिस स्टेट बनाएंगे। इंडिया में जो इकनामिक प्रोग्रेस चल रहा है उसमें 30 करोड़ मिडिल क्लास आ गया है लेकिन इसके लिए 80 करोड़ लोगों को गरीबी में डूबो दिया गया है। ये 80 करोड़ लोग सिर्फ 20 रूपया रोज पर गुजारा करते हैं। ढाई लाख से अधिक किसानों ने खुदकुशी की।
दुनिया के सबसे ज्यादे गरीब लोग हमारे देश में रहते हैं। इनको देने के लिए पानी, अस्पताल, स्कूल नहीं है लेकिन हम अरबों रूपयों का इथियार खरीदते हैं ताकि हमें सुपर पावर कहा जाए। मुकेश अम्बानी की रिलायंस इंडस्टीज के पास दो लाख करोड़ की पूंजी है तो खुद उनकी व्यक्त्तिगत सम्पति एक लाख करोड रूपए; देश के 100 सबसे अमीर लोगों के पास देश की जीडीपी की एक चौथाई के बराबर सम्पत्ति है। अम्बानी ने अभी 27 टीवी चैनलों को खरीद लिया। अब ये चैनल कया दिखएंगे और बताएंगे कि छत्तीसगढ़ में क्या हो रहा है। जिसके पास एक लाख करोड़ है वह क्या नहीं खरीद सकते। सरकार, इलेक्शन , कोर्ट , मीडिया और सब कुछ। ये सरकार चलाते हैं, एजुकेशन, हेल्थ पालिसी बनाते हैं और अब हमारी जिंदगी भी चलाना चाहते हैं।

भ्रष्टाचार व्यापक आर्थिक असंतुलन से पैदा होता है। यह है भ्रष्टाचार रूपी बीमारी का असली कारण। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड आदि प्रदेशों में 2004 में 100 से ज्यादा एमओयू किए गए। आदिवासियों को बंदूक देकर सलवा जुडूम बनाया गया और जंगल में बहुत बड़ी लड़ाई खड़ी की गयी है । 600 गांव जला दिए गए। तीन लाख लोगों को उनके घर से भगा दिया गया। जिसने विरोध किया उसे माओवादी कह कर मार डाला या जेल में डाल दिया। अभी छत्तीसगढ़ में 20 आदिवासियों को मार दिया। सोनी सोरी के साथ क्या हुआ, आप जानते हैं। आज देश का हालत ऐसा हो गया है। इस स्थिति में लेखकों, एक्टिविस्टों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन सरकार और कार्पोरेट घराने लेखकों से कहते हैं कि दूर जाकर बच्चों की कहानी लिखो, दिमाग बंद कर चिल्लाओ। ऐसा करने के लिए लिटरेचर, डांस, म्यूजिक फेस्टिवल को स्पान्सर किया जाता है। अमेरिका में राकफेलर फाउंडेशन ने सीआईए बनायी। काउंसिल फार फारेन रिलेशन (सीएफआर) बनाया। वर्ल्ड बैंक बनाया। अब ये संस्थान माइक्रोफाइनेन्स से सबसे गरीब लोगों से पैसा खींच रहे हैं। माइक्रोफाइनेन्स के जाल में फंसकर एक साल में 200 लोगों को खुदकुशी करनी पड़ी; आदिवासी, मुसलमान, किसान, मजदूर सब इसकी मार की जद में हैं लेकिन हम एक होकर लड़ नहीं पा रहे क्योंकि इन्होंने हमें बांट रखा है। दलितो और आदिवसियों में। मुसलमानों को शिया और सुन्नी में। यह बंटवारा खड़ा करने के लिए ये फाउंडेशन पहचान की राजनीति, धार्मिक अध्ययन के नाम पर स्कालरशिप, फेलोशिप देते हैं। जो इस परा सवाल खड़ा करता है, इन झांसों में नहीं आता उसे नक्सली, माओवादी, आतंकवादी कह कर जेल में डाला जाता है, मार दिया जाता है।

आज देश में बड़ा प्रेशर बनाया जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाओ। गुजरात में मुसलमानों का संहार भूल जाओ। यह वही लोग हैं जो एक समय बाजार को खोलने के लिए मनमोहन सिंह को सिर पर बैठाए घूम रहे थे। आज उन्हें एक कट्टर व्यक्ति की जरूरत है जो इस सिलसिले को तेजी से चलाये."

 इस मौके पर चर्चित फिल्मकार संजय काक ने कहा कि दो दशक में तकनीक का लाभ उठाकर अलग किस्म का सिनेमा बन रहा है जिसने हमारे सामने एक नई दुनिया खोली है। बालीबुड का सिनेमा पैसे के बोझ से दबा है। वह न एक कदम आगे बढा सकता है न दाएं या बाएं देख सकता है। उसकी सारी कोशिश सिनेमा में लगाए गए पैसे को वापस लाने की होती है इसलिए वह जनता से नहीं जुड़ सकता। डाक्यूमेटरी सिनेमा अलग-अलग कहानी को कई तरीके से हमारे सामने ला रहा है। बड़ा पैसा, कल्चर को हमसे दूर की चीज बना देता है जबकि प्रतिरोध का सिनेमा यह बताता है कि वह लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा हुआ है। (साभार- संजय जोशी, संयोजक, प्रतिरोध का सिनेमा अभियान/मनोज सिंह, सचिव, जन संस्कृति मंच)

Sunday, April 8, 2012

जब राज्य अपने हाथ वापस खींच लेता है:पान सिंह तोमर


-मिहिर पंड्या

“हम तो एथलीट हते, धावक. इंटरनेशनल. अरे हमसे ऐसी का गलती है गई, का गलती है गई कि तैनें हमसे हमारो खेल को मैदान छीन लेओ. और ते लोगों ने हमारे हाथ में जे पकड़ा दी. अब हम भग रए चम्बल का बीहड़ में. जा बात को जवाब को दैगो, जा बात को जवाब को दैगो?”
’पान सिंह तोमर’ अपने दद्दा से जवाब माँग रहा है. इरफ़ान ख़ान की गुरु-गम्भीर आवाज़ पूरे सिनेमा हाल में गूंज रही है. मैं उनकी बोलती आँखें पढ़ने की कोशिश करता हूँ. लेकिन मुझे उनमें बदला नहीं दिखाई देता. नहीं, ’बदला’ इस कहानी का मूल कथ्य नहीं. पीछे से उसकी टोली के और जवान आते हैं और अचानक विपक्षी सेनानायक की जीवनलीला समाप्त कर दी जाती है. पान सिंह को झटका लगता है. वो बुलन्द आवाज़ में चीख रहा है, “हमारो जवाब पूरो ना भयो.”
अचानक सिनेमा हाल की सार्वजनिकता गायब हो जाती है और पान सिंह की यह पुकार सीधे किसी फ़्लैश की तरह आँखों के पोरों में आ गड़ती है. हाँ, इस कथा में ’दद्दा’ मुख्य विलेन नहीं, गौण किरदार हैं. दरअसल यह कथा सीधे बीहड़ के किसान पान सिंह तोमर की भी नहीं, वह तो इस कथा को कहने का इंसानी ज़रिया बने हैं. यह कथा है उस महान संस्था की जिसके ’संगे-संगे’ पान सिंह तोमर की कहानी शुरु होती है और अगले पैंतीस साल किसी समांतर कथा सी चलती है. भारतीय राज्य, नेहरूवियन आधुनिकता को धारण करने वाली वो एजेंसी जिसके सहारे आधुनिकता का यह वादा समुदायगत पहचानों को सर्वोपरि रखने वाले हिन्दुस्तानी नागरिक के जीवन-जगत में पहुँचाया गया, यह उसके द्वारा दिखाए गए ध्वस्त सपनों की कथा है. उन मृगतृष्णाओं की कथा जिनके भुलावे में आकर पान सिंह तोमर का, सफ़लताओं की गाथा बना शुरुआती जीवन हमेशा के लिए पल्टी खा जाता है.
यह अस्सी के दशक की शुरुआत है. गौर कीजिए, स्थानीय पत्रकार (सदा मुख्य सूचियों से बाहर रहे, गज़ब के अभिनेता ब्रिजेन्द्र काला) पूछता है सूबेदार से डकैत बने पान सिंह से, “बन्दूक आपने पहली बार कब उठाई?” और पान सिंह का जवाब है, “अंगरेज़ भगे इस मुल्क से. बस उसके बाद. पन्डित जी परधानमंत्री बन गए, और नवभारत के निर्माण के संगे-संगे हमओ भी निर्माण शुउ भओ.” गौर कीजिए, अपने पहले ही संवाद में पान सिंह इस आधुनिकता के पितामह का ना सिर्फ़ नाम लेता है, उनके दिखाए स्वप्न ’नवभारत’ के साथ अपनी गहरी समानता भी स्थापित करता है.
पश्चिमी आधुनिकता की नकल पर तैयार किया ख़ास भारतीय आधुनिकता का मॉडल, जिसमें मिलावटी रसायन के तौर पर यहाँ की सामन्ती व्यवस्था चली आती है. यह अर्ध सामन्ती – अर्ध पूंजीवादी राष्ट्र-राज्य संस्था की कथा है जिसकी बदलती तस्वीर ’पान सिंह तोमर’ में हर चरण पर नज़र आती है. मुख्य नायक खुद पान सिंह तोमर इसी पुरानी सामन्ती व्यवस्था से निकलकर आया है और आप उसके शुरुआती संवादों में समुदायगत पहचानों के लिए वफ़ादारियाँ साफ़ पढ़ सकते हैं. अफ़सर द्वारा पूछे जाने पर कि क्या देश के लिए जान दे सकते हो, उसका जवाब है, “हा साब, ले भी सकते हैं. देस-ज़मीन तो हमारी माँ होती है. माँ पे कोई उँगली उठाए तो का फिर चुप बैठेंगे?” और यहीं उसके जवाबों में आप नवस्वतंत्र देश के नागरिकों की उन शुरुआती उलझनों को भी पढ़ सकते हैं जो राज्य संस्था, उसके अधिकार क्षेत्र और उसकी भूमिका को ठीक से समझ पाने में अभी तक परेशानी महसूस कर रहे थे. पूछा जाता है पान सिंह से कि क्या वो सरकार में विश्वास रखता है, और उसका दो टूक जवाब है, “ना साब. सरकार तो चोर है. जेई वास्ते तो हम सरकार की नौकरी न कर फ़ौज की नौकरी में आए हैं.”
स्पष्ट है कि पान सिंह के लिए राज्य द्वारा स्थापित किए जा रहे आधुनिकता के इस विचार की आहट नई है. लेकिन यह विचार सुहावना भी है. अपने समय और समाज के किसी प्रतिनिधि उदाहरण की तरह वो जल्द ही इसकी गिरफ़्त में आ जाता है. और इसी वजह से आप उसके विचारों और समझदारी में परिवर्तन देखते हैं. यह पान सिंह का सफ़र है, “हमारे यहाँ गाली के जवाब में गोली चल जाती है कोच सरजी” से शुरु होकर यह उस मुकाम तक जाता है जहाँ गाँव में विपक्ष से लेकर अपने पक्ष वाले भी उसका बन्दूक न उठाने और बार-बार कार्यवाही के लिए पुलिस के पास भागे चले जाने का मज़ाक उड़ा रहे हैं. अपने-आप में यह पूरा बदलाव युगान्तकारी है. और फ़िल्म के इस मुकाम तक यह उस नागरिक की कथा है जो आया तो हिन्दुस्तान के देहात की पुरातन सामन्ती व्यवस्था से निकलकर है, लेकिन जिसको आधुनिकता के विचार ने अपने मोहपाश में बाँध लिया है. जिसका आधुनिक ’राज्य’ की संस्था द्वारा अपने नागरिक से किए वादे में यकीन है. वह उससे उम्मीद करता है और व्यवस्था की स्थापना का हक सिर्फ़ उसे देता है.
विचारक आशिस नंदी भारतीय राष्ट्र-राज्य संस्था पर बात करते हुए लिखते हैं, “स्वाधीनता के पश्चात उभरे अभिजात्य वर्ग की राज्य संबंधी अवधारणा राजनीतिक रूप से ’विकसित’ समाजों में प्रचलित अवधारणा से उधार ली गई थी. चूंकि हमारा अभिजात्य वर्ग राज्य के इस विचार में निहित समस्याओं से अनभिज्ञ नहीं था, इसलिए उसने भारत की तथाकथित अभागी और आदम विविधताओं के साथ समझौता करके थोड़ा मिलावटी विचार विकसित किया.” यही वो मिलावटी विचार है जहाँ आधुनिकता के संध्याकाल में वही पुराना सामन्ती ढांचा फिर से सर उठाता है और ठीक यहीं किसी गठबंधन के तहत राज्य अपने हाथ वापस खींच लेता है.
इसीलिए, फ़िल्म में सबसे निर्णायक क्षण वो है जहाँ पान सिंह के बुलावे पर गाँव आया कलेक्टर यह कहकर वापस लौट जाता है, “देखो, ये है चम्बल का खून. अपने आप निपटो.” यह आधुनिकता द्वारा दिखाए उस सपने की मौत है जिसके सहारे नवस्वतंत्र देश के नागरिक पुरातन व्यवस्था की गैर-बराबरियों के चंगुल से निकल जाने का मार्ग तलाश रहे थे. फिर आप राज्य की एक दूसरी महत्वपूर्ण संस्था ’पुलिस’ को भी ठीक इसी तरह पीछे हटता पाते हैं. यहीं हिन्दुस्तानी राष्ट्र-राज्य संस्था और उसके द्वारा निर्मित ख़ास आधुनिकता के मॉडल का वो पेंच खुलकर सामने आता है जिसके सहारे मध्यकालीन समाज की तमाम गैर-बराबरियाँ इस नवीन व्यवस्था में ठाठ से घुसी चली आती हैं. पहले यह सामाजिक वफ़ादारियों को राज्य के प्रति वफ़ादारी में बदलने के लिए स्थापित गैर-बराबरीपूर्ण व्यवस्थाओं का अपने फ़ायदे में भरपूर इस्तेमाल करता है और इसीलिए बाद में उन्हें कभी नकार नहीं पाता. जाति जैसे सवाल इसमें प्रमुख हैं. नेहरूवियन आधुनिकता में मौजूद यह फ़ांक ही जाति व्यवस्था को कहीं गहरे पुन:स्थापित करती है. पान सिंह की उम्मीद राज्य रूपी संस्था और उसके द्वारा किए आधुनिकता के वादे से सदा बनी रहती है. वह खुद बन्दूक उठाता है लेकिन अपने बेटे को कभी उस रास्ते पर नहीं आने देता. वह दिल से चाहता है कि राज्य का यह आधुनिक सपना जिये. लेकिन राज्य उसके सामने कोई और विकल्प नहीं छोड़ता.

यह ऐतिहासिक रूप से भी सच्चाई के करीब है. अगर आप फ़िल्म में देखें तो यह अस्सी के दशक तक कहानी का वो हिस्सा सुनाती है जिसमें अगड़ी जाति के लोग ज़मीन पर कब्ज़े के लिए लड़ रहे हैं और राज्य संस्था इसे पारिवारिक अदावत घोषित कर इसे सुलझाने से अपने हाथ खींच लेती है. दरअसल आधुनिक राज्य संस्था ने स्थानीय स्तर पर उन सामन्ती शक़्तियों से समझौता कर लिया था जिनके खिलाफ़ उसे लड़ना चाहिए था. यह नवस्वतंत्र मुल्क़ में शासन स्थापित करने और अपनी वैधता स्थापित करने का एक आसान रास्ता था. ऐसे में ज़रूरत पड़ने पर भी वह उनकी गैरबराबरियों के खिलाफ़ कभी बोली नहीं. बन्दूक उठाने वाले यहीं से पैदा होते हैं. वे आधुनिक राज्य द्वारा किए उन वादों के भग्नावशेषों पर खड़े हैं जिनमें समता और समानता की स्थापना और समाज से तमाम गैर-बराबर पुरातन व्यवस्थाओं को खदेड़ दिए जाने की बातें थीं.
जय अर्जुन सिंह फ़िल्म पर अपने आलेख में इस बात का उल्लेख करते हैं कि फ़िल्म के अन्त में आया नर्गिस की मौत की खबर वाला संदर्भ इसे कल्ट फ़िल्म ’मदर इंडिया’ से जोड़ता है और यह उन नेहरूवियन आदर्शों की मौत है जिनकी प्रतिनिधि फ़िल्म हिन्दी सिनेमा इतिहास में ’मदर इंडिया’ है. मुझे यहाँ उन्नीस सौ सड़सठ में आई मनोज कुमार की ’उपकार’ याद आती है. एक सेना का जवान जो किसान भी है, ठीक पान सिंह की तरह, और जिसकी सामुदायिक वफ़ादारियाँ इस आधुनिक राष्ट्र राज्य के मिलावटी विचार के साथ एकाकार हो जाती हैं. तिग्मांशु धूलिया की ’पान सिंह तोमर’ इस आदर्श राज्य व्यवस्था की स्थापना वाली भौड़ी ’उपकार’ की पर्फ़ेक्ट एंटी-थिसिस है. यहाँ भी एक सेना का जवान है, जो मूलत: किसान है, लेकिन आधुनिकता का महास्वप्न अब एक छलावा भर है. इस जवान-किसान की भी वफ़ादारी में कोई कमी नहीं, उसने देश के लिए सोने के तमगे जीते हैं. लेकिन देखिए, वह पूछने पर मजबूर हो जाता है कि, “देश के लिए फ़ालतू भागे हम?” अन्त में वह व्यवस्था द्वारा बहिष्कृत समाज के हाशिए पर खड़ा है और उसके हाथ में बन्दूक थमा दी गई है. वह जवाब मांग रहा है कि उसके हाथ में थमाई गई इस बन्दूक के लिए ज़िम्मेदार कौन है, और कौन उन्हें सज़ा देगा?
गौर करने की बात है कि ’पान सिंह तोमर’ में मारे जाने वाले गूर्जर हैं जिनका स्थान सामाजिक पदक्रम में अगड़ी जातियों से नीचे आता है. और यह तीस-पैंतीस साल पुरानी बात है. आज यही गूर्जर राजस्थान में अपने हक की जायज़-नाजायज़ मांग करते निरन्तर आन्दोलनरत हैं. और इस जाति व्यवस्था के आधुनिकता के बीच भी काम करने का सबसे अच्छा उदाहरण खुद फ़िल्म में ही देखा जा सकता है. वहाँ देखिए जहाँ इंस्पेक्टर (सदा सर्वोत्कृष्ठ ज़ाकिर हुसैन) गोपी के ससुराल मिलने आए हैं. यह सामाजिक पदक्रम में नीचे खड़ा परिवार है. पुलिसिया थानेदार का उद्देश्य पान सिंह तोमर के गिरोह की टोह लेना है और वह कहते हैं, “जात पात कछू न होत कक्का. इंसान-इंसान के काम आनो चहिए. और जिसके हाथ के खाए हुवे थे धरम भरष्ट हो जावे, ऐसे धरम को तो भरष्ट ही हो जानो चहिए.” वे पानी पीने को भी मंगाते हैं. गौर कीजिए कि तमाम सूचनाएं निकलवा लेने के बाद किस चालाकी से वह बिना उनके घर का पानी पिये ही निकल जाते हैं. यही दोहरे मुखौटे वाला आधुनिक भारतीय राज्य का असल चेहरा है.

ज़िला टोंक अपने देश में कहाँ है, ठीक-ठीक जानने के लिए शायद आप में से बहुत को आज भी नक्शे की ज़रूरत पड़े. और क्योंकि मैं उन्हीं के गृह ज़िले से आता हूँ, इसलिए अच्छी तरह जानता हूँ कि चम्बल की ही एक सहायक नदी ’बनास’ के सहारे बसा होने के बावजूद टोंक की स्थानीय बोली बीहड़ की भाषा से कितनी अलग है. और इसीलिए इरफ़ान के जिस खूबी से उस लहज़े को अपनाया है, मेरे मन में उनके भीतर के कलाकार की इज़्ज़त और बढ़ गई है. जिस तरह वे पर्लियामेंट, मिलिट्री, स्पोर्ट्स जैसे ख़ास शब्दों के उच्चारण में एकदम माफ़िक अक्षर पर विराम लेते हैं और ठीक जगह पर बलाघात देते हैं, भरतपुर-भिंड-मुरैना-ग्वालियर की समूची चम्बल बैल्ट जैसे परदे पर जी उठती है. वे दौड़ते हैं और उनका दौड़ना घटना न रहकर जल्द ही किसी बिम्ब में बदल जाता है. बीहड़ में विपक्षी को पकड़ने के लिए भागते हुए जंगल में सामने आई बाधा कैसे स्टीपलचेज़ धावक को उसका मासूम लड़कपन याद दिलाती है, देखिए.
इस तमाम विमर्श से अलग ’पान सिंह तोमर’ कविता की हद को छूने वाली फ़िल्म है. पहली बार मैं सुनता हूँ जब कोच सर कहते हैं, “ओये तू पाणी पर दौड़ेगा.” और समझ खुश होता हूँ कि यह स्टीपलचेज़ जैसी दौड़ के लिए एक सुन्दर मुहावरा है. लेकिन दूसरी बार सिनेमाहाल में फ़िल्म देखते हुए अचानक समझ आता है कि इस वाक्य के कितने गहरे निहितार्थ हैं. यह संवाद पान सिंह तोमर की पूरी ज़िन्दगी की कहानी है. ज़िन्दगी भर वो बीहड़ में चम्बल के पानी पर ही तो दौड़ता रहा. सन्दीप चौटा का पार्श्वसंगीत फ़िल्म को विहंगम भाव प्रदान करता है और बेदाग़ सिनेमैटोग्राफ़ी महाकाव्य सी ऊँचाई. तिग्मांशु की अन्य फ़िल्मों की तरह ही यहाँ भी संवाद फ़िल्म की जान हैं, लेकिन सबसे विस्मयकारी वे दृश्य हैं जहाँ इरफ़ान बिना किसी संवाद वो कह देते हैं जिसे शब्दों में कहना सम्भव नहीं. मेरा पसन्दीदा दृश्य फ़िल्म के बाद के हिस्से में आया वो शॉट है जहाँ सेना के कंटोनमेंट एरिया में अपने जवान हो चुके बेटे से मिलने आए अधेड़ पान सिंह पीछे से अपने वर्दी पहने बेटे को जाता हुआ देख रहे हैं. आप सिर्फ़ उन आँखों को देखने भर के लिए यह फ़िल्म देखने जाएं. ऐसा विस्मयकारी दृश्य लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के लिए दुर्लभ है.
’पान सिंह तोमर’ जैसी फ़िल्में हिन्दी सिनेमा में दुर्लभ हैं और मुश्किल से नसीब होती हैं. हम इस राष्ट्र की किसी एक उपकथा के माध्यम से इस बिखरी तस्वीर के सिरे आपस में जोड़ पाते हैं. ’पान सिंह तोमर’ वह उपकथा है जिसमें आधुनिक राज्य अपना किया वादा पूरा नहीं करता और निर्णायक क्षण अपने हाथ वापस खींच लेता है. एक सामान्य नागरिक बन्दूक उठाने के लिए इसलिए मजबूर होता है क्योंकि उसके लिए दो ही विकल्प छोड़े गए हैं, पहला कि बन्दूक उठाओ या फिर दूसरा कि मारे जाओ. मरना दोनों विकल्पों में बदा है. वर्तमान में इसी राज्य द्वारा पोषित कथित ’विकास’ के अश्वमेधी घोड़े के रथचक्र में पिस रहे असहाय नागरिक द्वारा विरोध में उठाए जाते विद्रोह के झंडे को भी इसी संदर्भ में पढ़ने की कोशिश करें. देखें कि आखिर उसके लिए हमारी राज्य व्यवस्था ने कौन से विकल्प छोड़े हैं? और यह भी कि अगर निर्वाह के लिए वही विकल्प आपके या मेरे सामने होते तो हमारा चयन क्या होता?
---मिहिर पंड्या. साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के अप्रैल अंक में प्रकाशित

Thursday, April 5, 2012

है जवाब किसी के पास?






पान सिंह तोमर क्यों एक बेहतरीन और हमारे वक्त की एक ज़रुरी फिल्म है, इसे देखकर ही समझा जा सकता है। ‘कैसी है?’- ये फिल्म देखकर निकले किसी शख्स से जब आप ये सवाल पूछते हैं तो जवाब संक्षिप्त नहीं मिलता। फिल्म देखने के बाद युवा पत्रकार प्रबुद्ध से पूछे इसी सवाल का लंबा जवाब.





पान सिंह अपने अफ़सर से कहता है-- चौथी फ़ेल हूं, आदमी पढ़ा है। ये संवाद लिखा पान सिंह के लिए गया लेकिन संवाद का दूसरा हिस्सा इरफ़ान के लिए सटीक है...आदमी पढ़ा है। सच तो है। बिना आदमी पढ़े, इंसानी जज़्बात के तमाम रंग पान सिंह तोमर के कैनवस पर छिटकना मुमकिन नहीं था। एक ऐसे देश में जहां बायोपिक के नाम पर दूरदर्शन डॉक्यमेंट्री बनती हैं, वहां ये फ़िल्म विषय और उसकी प्रस्तुति का नायाब नमूना है। कलाकारों के चयन से लेकर लोकेशन तक, संवाद से लेकर स्क्रीनप्ले तक सब कुछ आला दर्जे का‍‌।फिल्म की रफ़्तार और थ्रिल पारंपरिक हिंदी फिल्म के खांचे से सट कर गुज़रते हैं, पर उसमें अपने को फंसाने की कोशिश नहीं करते। यही निर्देशक की कामयाबी भी है। क्योंकि, सिनेमा अगर जादू न चलाए तो बेकार है। उस अंधेरे में पान सिंह के साथ आप अपने अंदर के बाग़ी को तलाशने लगेंगे, उस किरदार को उभारने में इतना तो इरफ़ान ज़रूर कर गए हैं। फिर वो बॉस को जवाब देने का माद्दा हो, अपनी रोज़मर्रा की नौकरी से बग़ावत करना या फिर आपके किसी जायज़ काम में अड़ंगा डालने वाले व्यक्ति का गिरेबान पकड़कर उसे सबक सिखाना।


और फिर इन बग़ावती तेवरों को वजह बख़्शने वाला संवाद भी तो है जो कहता है कि जो किया वो ख़ुद नहीं किया बल्कि हालात ने करवाया। फिर उसका जवाब मांगा जाता है, दो बार---"जा बात कौ जवाब कौन देगौ" । एक बार पान सिंह के हाथों क़त्ल हुए आततायी भाई से और दूसरी बार थियेटर में बैठे दर्शकों से।

... और जवाब, वो तो न भाई के पास है और न ही दर्शकों के।


इंटरवल से पहले के पान सिंह से मोहब्बत सी होने लगती है। अपना सा लगता है वो। बेलौस अंदाज़, बेसाख़्ता सचबयानी, और वो चीते सी रफ़्तार। वो आदमी जो फौज में स्पोर्ट्स में भर्ती हुआ इसलिए कि वहां कम से कम खाने पर रोकटोक तो न होगी। लेकिन, जिसने अपनी मेहनत और रफ़्तार से देश का सिर ऊंचा किया। जब माटी और मां की याद ज़्यादा सताने लगी तो फ़ौज छोड़ दी, गांव का रूख़ किया। गांव में रफ़्तार के पांव में बग़ावत का लोहा भरने के सारे हालात पहले से तैयार थे। भाइयों ने सताया तो पुलिस और प्रशासन ने भी नहीं बख़्शा। तमाम मेडल और तस्वीरें बेमानी हो गए। बेटे को लथपथ कर घर में डाला गया। पान सिंह के हिस्से में आया तो धधकता हुआ गुस्सा और कुछ न कर पाने की छटपटाहट।

बस यहीं से जन्म हुआ बग़ावत का।


पान सिंह उन चुनिंदा फिल्मों की जमात में शामिल हो गई है जहां हर दूसरे मिनट आपको बेहतरीन सिनेमाई दृश्य और चुटीले संवादों का मेल मिलेगा। एक बानगी देखिए:

पान सिंह चंबल के बीहड़ों में अपने गैंग के साथ बैठा है। तभी एक साथी रेडियो ऑन करता है। रेडियो पर कमेंट्री--और कभी अंतर्राष्ट्रीय स्टीपलचेज़ धावक रहे पान सिंह ने पुलिस की नाक में दम कर रखा है(कुछ ऐसा ही) और पान सिंह का उस साथी को गरियाना...अबे बंद कर जाए...जब देश के लिए दौड़े, तब कऊ ने न पूछा और अब बागी है गए हैं तो हर तरफ़ पान सिंह।


या जब पान सिंह अपने फौजी बेटे से मिलने जाता है। बेटा, पिता के पैर छूना चाहता है लेकिन पिता बाक़ी लोगों के सामने अपनी पहचान ज़ाहिर करना नहीं। दोनों के बीच जो संवाद होता है वो आम होकर भी कितना ख़ास है, ये महज़ देखने नहीं महसूस करने की चीज़ है।


लेकिन एक सीन जिसकी एडिटिंग को देखकर लगा कि अरे एडिटर, सिर्फ़ दस फ्रेम और छोड़ देता तो उसका क्या जाता वो है जब पान सिंह फौज से विदा लेने के बाद अपने सीनियर अफ़सर से फोन पर बात कर रहा है। अफ़सर उसके लिए आइसक्रीम भिजवाता है। पान सिंह, फोन पकड़े पकड़े कहता है---ये हमारौ सबसे बड़ौ इनाम है। ये कहते हुए पान सिंह के चेहरे पर जो भाव आता है उसे एबरप्ट तरीक़े से काट कर दूसरे सीन पर जाने की जल्दबाज़ी समझ से परे है।


पान सिंह जिस दौर के सिस्टम से, जिस जगह पर लड़ रहा है वहां दुनाली बंदूक़ों से ख़ून बहना और बहाना मामूली बाते हैं। एक ऐसी जगह जहां कलक्टर भी कहने को मजबूर होता है कि ये तुम्हारा झगड़ा है, तुम्ही निपटो। जहां पुलिस स्टीपल चेज़ के मायनों में ह्यूमर तलाश रही है। ऐसे में बग़ावत को आप जस्टिफ़ाई नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे।


पान सिंह का एनकाउंटर करने वाले पुलिस अधिकारी को उसका सीनियर कहता है-- यार, इस पान सिंह ने देश के लिए कई मेडल जीते हैं। इस पर तपाक से इंसपेक्टर का जवाब आता है--सर, पान सिंह सिर्फ़ एक अपराधी है।
तब आपको पान सिंह का ये संवाद याद आता है---
हम तो एथलीट हते, धावक। इंटरनेसनल। अरे हमसे ऐसी का गलती है गई कि तैने हमसे हमायो खेल को मैदान छीन लओ। और तुम लोगन ने हमाये हाथ में जे पकड़ा दई। अब हम भग रए ऐं चंबल के बीहड़ में। जा बात कौ जवाब कौन देगौ, जा बात कौ जवाब कौन देगौ।


और जैसा मैंने पहले कहा--
जवाब, वो तो न भाई के पास है और न ही आपके।
और फिर से...जैसा मैने पहले कहा...
इंटरवल से पहले के पान सिंह से मोहब्बत सी होने लगती है। इंटरवल के बाद के पान सिंह से मिलने के बाद व्यवस्था से हताशा हमारे मन में कहीं गहरे तक पैवस्त होती है और फिर खुद बाग़ी न बन पाने को जस्टिफाई करने की वजहें ये बावला मन एक एक कर खुद को ही सुनाता है।

-प्रबुद्ध

Wednesday, February 29, 2012

ऑस्कर में अनिल अंबानी


किसी भारतीय फिल्म या कलाकार को हर बार की तरह इस बार भी ऑस्कर पुरस्कार भले ही न मिला हो लेकिन भारत ने ऑस्कर में अपनी मौजूदगी जरूर दर्ज करवाई है-ऑस्कर विजेता फिल्म 'द हेल्प 'के ज़रिए। इस फिल्म को जिस कंपनी ने बनाया है उसके आधे मालिक अनिल अंबानी हैं। ये पहला मौका है जब भारत से जुडी किसी फिल्म कंपनी को ऑस्कर मिला हो। 2009 में अनिल अंबानी, स्टीवन स्पीलबर्ग और स्टेसी स्नाइडर ने मिलकर ड्रीमवर्क्स स्टूडियो का गठन किया था जो हॉलीवुड में फिल्में बनाते हैं। इस ज्वाइंट वेंचर की आधी हिस्सेदारी अनिल अंबानी के पास है, इस बार के ऑस्कर समारोह में रिलयांस ड्रीमवर्क्स की तीन फिल्मों ने 11 नामांकन हासिल किए थे। जाहिर है जिस कंपनी ने इन फिल्मों का निर्माण किया, उसके मालिक के नाते अनिल अंबानी भी रेड कार्पेट पर मौजूद थे। रिलायंस ड्रीमवर्क्स की फ़िल्म 'द हेल्प' को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (वॉयला डेविस), सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री ( जेसिका चेसटैन और ऑक्टीविया स्पेंसर) और सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए नामांकित किया गया था। इस फ़िल्म में ऑक्टीविया स्पेंसर को सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री का पुरस्कार मिला है। अनिल अंबानी-स्टीवन स्पीलबर्ग की कंपनी की फिल्म 'वॉर हॉर्स' को छह नामांकन मिले थे- सर्वश्रेष्ठ ध्वनि संपादन, ऑरिजनल स्कोर, कला निर्देशन और सिनेमेटोग्राफ़ी। जबकि ह्यू जैकमैन अभिनित फिल्म 'रियल स्टील' को विजुयल इफेक्ट के लिए नामांकन दिया गया था।

अनिल अंबानी की कंपनी स्पीलबर्ग के अलावा हॉलीवुड के और कई दिग्गजों के साथ मिलकर काम कर रही है। इसमें जॉर्ज क्लूनी का स्मोकहाउस प्रोडकशन्स, टॉम हैंक्स का प्लेटोन प्रोडक्शन्स, जूलिया रॉबर्ट्स की रेड ओम फ़िल्मस और निकोलस केज की सेटर्न फ़िल्म शामिल है। हालांकि ये ऑस्कर सफलता रियालंस ग्रुप को हॉलीवुड में कदम रखने के कई वर्षों बाद मिली है। लेकिन रिलायंस ड्रीमवर्क्स को लेकर अब भी कई सवाल बरकरार हैं क्योंकि कंपनी की ज्यादातर फिल्मों ने बहुत अच्छा कारोबार नहीं किया है। हॉलीवुड के कई बड़े सितारों के साथ डील करने के सालों बाद भी अब तक कोई फिल्म शुरु नहीं हुई है।

रियल स्टील, फ्राइट नाइट, कॉयबॉयस एंड एलियंस, आई एम नंबर फोर का प्रदर्शन खराब से लेकर औसत रहा है। हालांकि बॉलीवुड की बात करें तो रिलायंस एंटरनेटमेंट की फ़िल्मों ने काफी धमाल किया है। 2011 की बड़ी फिल्में जैसे बॉडीगार्ड, सिंघम और डॉन 2 रिलायंस की ही थीं। एक ओर जहाँ रिलांयस ने बॉलीवुड में अपने पैर जमा लिए हैं तो हॉलीवुड में वो अब भी अपनी जमीन तलाश रहा है। ऐसे में उसकी फिल्म द हेल्प को मिला ऑस्कर उसके हौसले को बढाने में मददगार साबित होगा।

- साभार: बीबीसी

Tuesday, February 28, 2012

Oscars 2012 winners




-Desk








The full list



Best cinematography
Robert Richardson, Hugo
Best art direction
Hugo
Best costume design
The Artist
Best make up
The Iron Lady
Best foreign language film
A Separation
Best actress in a supporting role
Octavia Spencer, The Help
Best film editing
The Girl with the Dragon Tattoo
Best sound editing
Hugo
Best sound mixing
Hugo
Best documentary feature
Undefeated
Best animated film
Rango
Best visual effects
Hugo
Best actor in a supporting role
Christopher Plummer, Beginners
Best original score
Ludovic Bource, The Artist
Best song
Man or Muppet, The Muppets
Best adapted screenplay
Alexander Payne, Nat Faxon, and Jim Rash, The Descendants
Best original screenplay
Woody Allen, Midnight in Paris
Best live action short
The Shore
Best documentary short
Saving Face
Best animated short
The Fantastic Flying Books of Mr Morris Lessmore
Best director
Michel Hazavanicius, The Artist
Best actor in a leading role
Jean Dujardin, The Artist
Best actress in a leading role
Meryl Streep, The Iron Lady
Best picture
The Artist

Friday, February 24, 2012

A book on 'Awadh Culture' in Indian Cinema




Muntazir Qaimi's book on the representation of Awadh culture in Indian cinema to be released on 27th feb at 5pm by Prof Imiti...yaz Ahmed and Filmmaker Muzaffar Ali at the World Book Fair, 7E, Theme Pavalion on Books on Indian Cinema managed by National Book Trust (NBT). A special screening of Umrao Jaan will follow the book release. The entire programme is dedicated to the loving memory of Shaharyar, one of the most important poets of our times.
All are invited.
(Prakash K Ray on facebook)

Appeal for 2nd National Convention of Cinema of Resistance Initiative

-(released by The Group, Jan Sanskriti Manch)

प्रिय मित्रों,

जन संस्कृति मंच (जसम) के फिल्म समूह द ग्रुप की गतिविधियों के बारे में आपको समय -समय पर सूचनाएँ मिलती होंगी. हमें बताते हुए ख़ुशी हो रही है २००६ में गोरखपुर से शुरू हुआ प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का यह सिलसिला चार राज्यों के १२ केन्द्रों में नियमित हो चला है और जल्द ही इस अभियान से १० और केंद्र जुड़ने वाले हैं. इस सक्रियता को व्यवस्थित करने हेतु पिछले वर्ष छठे गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के मौके पर २४ मार्च २०११ को हमने ऐसे नए केन्द्रों का पहला राष्ट्रीय कन्वेंशन किया था.
अब मार्च १, २०१२ को दिल्ली में हम प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का दूसरा राष्ट्रीय कन्वेंशन करने जा रहे हैं. इस कन्वेंशन का मकसद तमाम समूहों के बीच बेहतर तालमेल के अलावा इस अभियान की दिशा और दशा को परखने और जांचने का भी है. इस बाबत दिल्ली के केंद्र में स्थित गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, दींनदयाल उपाध्याय मार्ग के हाल को १ मार्च के लिए बुक भी करवा लिया गया है.

इस राष्ट्रीय कन्वेंशन में ३० से ४० प्रतिनिधियों के भाग लेने की संभावना है. हर केंद्र के प्रतिनिधि हम सबको निम्न बिन्दुओं से अवगत करायेंगे.
१. कैसे उन्होंने अपने आयोजन किये
२. दर्शकों तक किस तरीके से पहुंचे
३. खर्चे कम करने के उपाय और फेस्टिवल का कुल खर्च
४. कमियाँ और उपलब्धियां
५. आयोजन के प्रभाव का मूल्यांकन
६. साल भर और किस तरह के आयोजन किये
७. सिनेमा गतिविधि को लेकर भावी योजनाएँ

कन्वेशन का जो प्रारूप हम लोगों ने सोचा है उसके मुताबिक़ दो सत्र होंगे.
पहला सत्र प्रतिनिधियों का होगा जो सुबह ११ से शाम ५.३० तक चलेगा जिसमे निम्न बिन्दुओं पर चर्चा होगी :


एक: प्रतिरोध का सिनेमा की अवधारणा
दो. २००६ से अब तक प्रतिरोध का सिनेमा अभियान की यात्रा का संछिप्त परिचय
तीन. प्रतिरोध का सिनेमा आयोजन कैसे करें
चार. अलग-अलग केन्द्रों के अपने अनुभव
पांच. प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के लिए नियमित आमदनी का प्रबंध और केन्द्रों की द ग्रुप के प्रति आर्थिक जिम्मेवारी
छह : वार्षिक कलेंडर का निर्माण
सात: द ग्रुप के पदाधिकारियों का चुनाव

शाम ५.३० से ६ के बीच चाय का ब्रेक होगा.

दूसरा सत्र शाम ६ से रात ८.३० तक चलेगा और यह खुला सत्र होगा. इस सत्र में हम प्रतिरोध का सिनेमा जैसे तमाम सिने अभियानों को केन्द्रित कर नए सिनेमा प्रयास : चुनौतियां , सवाल और उम्मीद का खुला सत्र आयोजित करेंगे जिसमे शहर के महत्वपूर्ण फिल्मकारों के अलावा हमारे अभियान से जुड़े कवि-लेखक, चित्रकार, पत्रकार और एक्टिविस्ट अपनी बात रखेंगे.इस सत्र में भी अनिवार्य रूप से हमारे पुराने केन्द्रों के प्रतिनिधि अपने अनुभव साझा करेंगे.

मित्रों और प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के शुभेच्छुओं,

आप सभी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि प्रतिरोध एक सिनेमा अभियान अपनी शुरुआत से अब तक छोटे -छोटे सहयोग के बल -बूते विकसित हुआ है जो इसकी सबसे ख़ास बात और पहचान भी है .आपसे हम अपील करते हैं कि इस बड़े और महत्वपूर्ण आयोजन को सफल बनाने के लिए हमारी आर्थिक मदद करें. आपकी मदद किसी भी रूप में हो सकती है . चाहे आयोजन के किसी खर्च में हिस्सेदारी बटाऐं, नकद सहयोग करें या स्मारिका के लिए विज्ञापन उपलब्ध करा दें. हमें पूरी उम्मीद है कि पहले की तरह इस बार भी हमें आप[का सहयोग मिलेगा .
इस पत्र के साथ स्मारिका में छपने वाले विज्ञापन का टेरिफ कार्ड सलंग्न है. अपना व्यक्तिगत सहयोग आप चेक के जरिये हमें दे सकते हैं. चेक EXPRESSION के नाम से बनाकर मेरे ग़ाज़ियाबाद के पते पर भेज सकते हैं या सीधे हमारे खाते में डाल सकते हैं. खाते में सहयोग जमा करवाके हमें इत्तिला जरुर करें.

EXPRESSION प्रतिरोध का सिनेमा अभियान की सबसे पहले केंद्र गोरखपुर फिल्म सोसाइटी का नाम है.

Bank Account name : Expression
Bank account no. : 558802010007442
Branch : 26 Battalion PAC, Bichia, Gorakhpur
Bank : Union Bank of India

अभिवादन सहित,


संजय जोशी
संयोजक, द ग्रुप, जन संस्कृति मंच
सी - 303 , जनसत्ता अपार्टमेन्ट
सेक्टर 9, वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद - 201012
फोन: +91-9811577426, +91-120-4108090

Friday, September 2, 2011

मणि कौल की याद में

प्रतिरोध का सिनेमा का पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल
सितम्बर १०-११, २०११
बापू भवन टाउन हाल, बलिया, उत्तर प्रदेश

संकल्प, बलिया और द ग्रुप, जन संस्कृति मंच आपको प्रतिरोध का सिनेमा के पहले बलिया फिल्म फेस्टिवल के लिए सादर आमंत्रित करते हैं. फिल्म फेस्टिवल का उदघाटन १० सितम्बर २०११ को सुबह १० बजे बीजू टोप्पो और मेघनाथ की फिल्म गाड़ी लोहरदगा मेल से होगा.
पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल २००६ में गोरखपुर से शुरू हुए प्रतिरोध का सिनेमा का उन्नीसवां आयोजन है. यह आयोजन किसी भी प्रकार की कारपोरेट, एनजीओ और सरकारी स्पांसरशिप से मुक्त है और पूरी तरह बलिया की मुक्तिकामी जनता और प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के शुभेच्छुओं भरोसे आयोजित किया जा रहा है. इस आयोजन में शिरकत करने के लिए किसी भी तरह के औपचारिक आमंत्रण की जरुरत नही है. फिल्म फेस्टिवल के

मुख्य
आकर्षण:

फीचर फिल्में:
दुविधा (मणि कौल), भूमिका (श्याम बेनेगल), दायें या बाएं (बेला नेगी ), चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन (माजिद मजीदी ) और छुटकन की महाभारत (संकल्प मेश्राम).

डाक्यूमेंटरी, लघु फिल्म और एनिमेशन:
गाड़ी लोहरदगा मेल (बीजू टोप्पो और मेघनाथ), गाँव छोड़ब नाही (के पी ससी), रिबंस फार पीस (आनंद पटवर्धन), अँधेरे से पहले (अजय टी जी), प्रिंटेड रेनबो (गीतांजलि राव), वाइसेस फ्राम बलियापाल (वसुधा जोशी और रंजन पालित), पी (अमुधन आर पी), सोना गहि पिंजरा (बीजू टोप्पो), द चेअरी टेल (नारमन मेक्लेरन), हद अनहद (शबनम विरमानी), रेड बैलून (अलबर्ट लैमूरेस्सी) ,मालेगांव का सुपरमैन(फैज़ा अहमद खान) और भालो खबर (अल्ताफ माजिद).
व्याख्यान प्रदर्शन :
समदृष्टि से जुड़े तरुण कुमार मिश्रा द्वारा उड़ीसा में संघर्ष और प्रतिरोध के नए स्वर विषय पर प्रस्तुति.

नाटक :
भिखारी ठाकुर द्वारा रचित बिदेशिया की संकल्प, बलिया द्वारा प्रस्तुति.

प्रदर्शनी :
चित्रकार अशोक भौमिक द्वारा संयोजित चित्तप्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के चित्रो की प्रदर्शनी जन चेतना के चितेरे.

संपर्क :

आशीष त्रिवेदी
सचिव, संकल्प, बलिया
09918377816, sankalp.ballia@gmail.com

संजय जोशी
संयोजक, द ग्रुप, जन संस्कृति मंच
09811577426, thegroup.jsm@gmail.com

Monday, August 29, 2011

K Asif on the sets of Sheesh Mahal



This is a rare photo of K Asif, the director of the legendary film Mughal-E-Azam. This picture alongwith two more photos have just been released by http://www.oldindianphotos.in/.



Friday, August 26, 2011

Screening of 'Dil Ki Basti Mein'



A Documentary film by Anwar Jamal
Music by- Ustad Iqbal Ahmed Khan of
'Dilli Gharana'
on
Sunday, 11-09-11, at 7.30 PM, at IIC, New Delhi.


Synopsis- The walled city of Old Delhi is a cultural universe unto itself, a sprawling, chaotic but infectiously spirited neighbourhood where life assumes many fascinating forms in a constant struggle for survival. This documentary film captures a vibrant city caught between the past and the present, between decay and renewal, between hope and despair, between tradition and modernity. A freewheeling journey through the varied aspects of Old Delhi - its heartbeats, its religious moorings, its food, its musical legacy, its poetry and its social identity - the film gets up close and personal with individuals and groups that are striving to keep the walled city's rich heritage alive in the face of constant flux, not all of which is salutary. Dil Ki Basti Mein is a tribute to the life-affirming soul of a resilient city with a glorious history, a none-too-stable present but, hopefully, a worthy future...

Friday, July 29, 2011

Retrospective of Nalini Jaywant's films



Retrospective of legendary Indian Actress Nalini Jaywant's films.It features films by Abdul Rashid Kardar, K.A. Abbas and Raj Khosla. These films will be followed by post film discussions.

Entry to this festival is completely free!!

Schedule:

30th July:
12:30 PM- Munim Ji
3:30 PM- Jaadu
6 PM- Samadhi

31st July:
1 PM- Rahi
3:30 PM- Kaala Pani

Tuesday, July 26, 2011

'डेल्ही बेली' के बहाने




- प्रियदर्शन




क्या कला की सार्थकता जीवन को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देने में है? चेखव की एक प्रशंसा यह की जाती है कि वे अपनी कहानियों में स्लाइस ऑफ लाइफ, यानी जीवन का टुकड़ा जैसे पूरा का पूरा उठाकर रख देते थे। लेकिन क्या यह जीवन को ज्यों का त्यों चित्रित कर देने की ख़ूबी भर थी जिसने चेखव को इतना बड़ा कथाकार बनाया? निश्चय ही चेखव का बड़प्पन इस तथ्य में निहित है कि वे जीवन के टुकड़े के भीतर मौजूद उस स्पंदन तक पहुंच जाते थे जो उस टुकड़े को मानी देता था, उनकी कहानी को अर्थ देता था। उनकी कहानी में दिखने वाले चाबुक किरदारों की पीठ पर नहीं, पाठकों की आत्मा पर पड़ते थे। वे घटनाओं या दृश्यों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करके अपन काम पूरा नहीं मान लेते थे, वे उनमें छुपी हई बहुत तीखी विडंबनाओं को, बहुत बारीक किस्म की मनुष्यता को, जैसे उसके रेशे-रेशे के साथ खोलकर पाठकों के सामने रख देते थे। इस लिहाज से देखें तो कला की चुनौती या सार्थकता जीवन को ज्यों का त्यों रख देने में नहीं है- यह काम तो फोटोग्राफी कहीं ज़्यादा कायदे और सटीकता से कर सकती है- वह उसके आगे जाकर उसमें छुपी अलग-अलग परतों को, पीड़ा और खुशी के अनुभवों को, रोज़मर्रा के कोलाहल में खो जाने वाले अलक्षित स्पंदनों को सामने लाने में है।
दरअसल कला और जीवन के बीच के इस अपरिहार्य द्वंद्व का खयाल बीते दिनों आमिर खान प्रोडक्शंस के बैनर से बनी फिल्म डेल्ही बेली देखते हुए आता रहा। महानगर के एक घर में रह रहे तीन दोस्तों की यह कहानी गालियों से भरी पड़ी है। कई दर्शकों को लग रहा है कि अगर यथार्थ का चेहरा यही है तो इसे सामने लाने में कोई हर्ज़ नहीं है। ख़ुद आमिर ख़ान मानते हैं कि उनकी फिल्म अपने इस दुस्साहसी प्रयोग की वजह से बच्चों के लिए नहीं है। उन्होंने सेंसर बोर्ड से अपनी ओर से आग्रह किया था कि उनकी फिल्म को ए सर्टिफिकेट दिया जाए- यानी सिर्फ वयस्कों के लिए माना जाए। शायद यह गालियों से भरी एक फिल्म को सेंसर बोर्ड से पास करान की युक्ति भी हो, लेकिन इसमें शक नहीं कि आमिर अपनी इस युक्ति की वजह से लोगों का ध्यान फिल्म की ओर खींचने में कामयाब रहे।
सतह पर देखें तो आमिर की बात तर्कसंगत लगती है। जीवन में अगर कुछ वीभत्स या गलीज़ है और कला उसे पकड़ने की कोशिश करती है तो वह उस यथार्थ से आंख चुराकर कैसे चल सकती है? अगर दिल्ली के तीन दोस्त या उनके आसपास के लोग अपनी बातचीत में धड़ल्ले से गाली का इस्तेमाल करते हैं तो इस पर एतराज करना एक नासमझ और डरे हुए शुद्धतावाद से ज़्यादा क्या है? आखिर हिंदी फिल्मों में गालियों के बिना भी फूहड़ दृश्यों और संवादों की भरमार रही है। आमिर ने तो बस इतना किया है कि अपनी फिल्म को एक यथार्थवादी शक्ल दी है।
लेकिन मुश्किल यह है कि शिल्प के स्तर पर आमिर जिस सख्त यथार्थवाद को अपना पैमाना बनाते हैं, कथ्य के स्तर पर उसकी बुरी तरह उपेक्षा करते हैं। अंततः वे फंतासी से भरी एक व्यावसायिक फिल्म बनाने ही दिखाई पड़ते हैं जिसके लिए उन्होंने मुहावरा यथार्थवादी चुन लिया है। क्या उनकी तरह के फिल्मकार को यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि कला- जिसमें फिल्म कला भी शामिल है- का शिल्प उसके कथ्य के हिसाब से ही तय होता है। जब एक फिल्मी किस्म के विषय को एक यथार्थवादी मुहावरे के रैपर में लपेट कर पेश करने की कोशिश की जाती है तो यह एक मिलावटी काम होता है जिससे कामयाब फिल्म तो बन सकती है, अच्छी फिल्म नहीं बन सकती।
वैसे सच्चाई यह है कि डेल्ही बेली का यह निहायत यथार्थवादी दिखने वाला शिल्प भी दरअसल अपनी समझ में बहुत इकहरा है। आमिर खान को सिर्फ यह दिखता है कि नौजवान जिस भाषा में बात करते हैं, वह गालियों से पटी पड़ी भाषा है। एक तो यह पूरा सच नहीं है- अगर किसी ख़ास तबके के लिए हो भी तो- ज़्यादा बड़ा सवाल यह है कि आखिर वह ऐसी भाषा क्यों इस्तेमाल करता है। यह लापरवाही है या बचपन से किशोरावस्था में जाते हुए मर्द दिखने की कोशिश जो बाकी जरियों के मुकाबले कुछ मर्दाना गालियों से कहीं ज़्यादा आसानी से कामयाब हो सकती है? या फिर यह कोई हताशा है जो इन गालियों की शक्ल में फूटती है। ध्यान से देखें तो हमारे समाज- या सभी समाजों- में गालियां मूलतः स्त्री को, उसकी लैंगिक पहचान को, उसकी यौन शुचिता को निशाना बनाकर गढ़ी गई हैं। उनमें सामंती अहंमन्यता की बू पकडना मुश्किल नहीं है। जो लोग गालियों को भदेस समाज की अभिव्यक्ति बताते हैं, वे भूल जाते हैं कि सामंती दबदबे का मारा यह भदेस समाज दरअसल अपनी हताश अभिव्यक्ति में ही गालियों का सहारा लेकर अपने लिए थोड़ा बहुत सुकून, राहत या मर्दानगी खोजने की कोशिश करता है।
लेकिन गालियों के इस समाजशास्त्र को भूलकर उन्हें सिर्फ यथार्थ के एक औजार की तरह इस्तेमाल करना हिंदी फिल्मकारों का नया शगल है। डेल्ही बेली से पहले हाल की कई फिल्मों, ये साली ज़िंदगी से लेकर नो वन किल्ड जेसिका तक में ये गालियां खूब दिखी हैं- और हैरानी की बात ये है कि लगभग इन सारी फिल्मों में यथार्थ पर आग्रह सिर्फ शिल्प के स्तर पर है, कथ्य के स्तर पर नहीं।
यथार्थ के ज्यों के त्यों चित्रण के इस तर्क को कुछ और आगे ले जाएं तो हमें कहीं ज़्यादा असुविधाजनक सवालों का सामना करना पड़ता है। कल को हत्या या बलात्कार के अनुभव को ज्यों का त्यों फिल्माने की कोशिश में क्या किसी निर्देशक को यह हक़ भी हासिल होगा कि वह बिल्कुल हिंसा और बलात्कार के वास्तविक दृश्य नियोजित करवाए?
दरअसल कला की असली चुनौती यही होती है कि वह जीवन को उसके सारे विद्रूप के साथ प्रस्तुत करे, उसकी सिर्फ तस्वीर न उतारे। सिर्फ तस्वीर उतारने का नतीजा वही होता है जो आमिर खान की फिल्म में दिखाई पड़ता है- गालियां सुनकर लोग हंसते हैं, ख़ुश होते हैं और फिल्म के खरेपन पर कुछ ज़्यादा भरोसा कर बैठते हैं- वे उसमें निहित विडंबना को नहीं समझते।
कहना मुश्किल है, आमिर ख़ान का मकसद ऐसी किसी विडंबना को पकड़ना था भी या नहीं। हो सकता है जिस कॉमिक रिलीफ की फिल्म वे बनाना चाहते हों, उसमें छौंक की तरह ये गालियां डाली गई हों। लेकिन इस क्रम में जो फिल्म बनी, वह बालिग लोगों के लिए भले हो, परिपक्व दर्शकों के लिए नहीं हो पाई।


(प्रियदर्शन वरिष्ठ हिंदी पत्रकार हैं। लंबे समय तक हिंदी दैनिक 'जनसत्ता 'से जु़ड़े रहने के बाद इन दिनों 'एनडीटीवी इंडिया 'चैनल में कार्यरत हैं। प्रस्तुत लेख जनसत्ता में रविवार 24 जुलाई को यथार्थवाद का इकहरापन के नाम से प्रकाशित हो चुका है। )

Sunday, July 17, 2011

पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल

प्रेस रिलीज़
प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल


मित्रों,
2006 से जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का उन्नीसवां और बलिया का पहला प्रतिरोध का सिनेमा फिल्म फेस्टिवल आगामी 10 और 11 सितम्बर को बलिया के बापू भवन टाउन हाल में सुबह 10 बजे से होगा. यह हाल बलिया रेलवे स्टेशन के बहुत नजदीक है. जल्द ही हम अपने ब्लॉग www.gorakhpurfilmfestival.blogspot.com पर कार्यक्रम का विस्तृत ब्योरा देंगे.
इस फेस्टिवल में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के वृत्त चित्र, लघु फिल्म और फीचर फिल्म के अलावा संकल्प, बलिया द्वारा भिखारी ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक बिदेशिया का मंचन, गोरख पाण्डेय की कविता पोस्टरों और जन चेतना के चितेरे के नाम से प्रगतिशील चित्रकार चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के प्रतिनिधि चित्रों की प्रदर्शनी भी आयोजित की जायेगी. फिल्म फेस्टिवल में प्रमुख भारतीय फिल्मकारों के शामिल होने की भी संभावना है.
प्रतिरोध के सिनेमा अभियान के दूसरे फिल्म फेस्टिवलों की तरह यह फेस्टिवल भी बिना किसी सरकारी, गैर सरकारी और एन जी ओ स्पांसरशिप के आयोजित किया जा रहा है . प्रतिरोध की संस्कृति के इच्छुक ईमानदार सामन्य जन ही इसके स्पांसर है. इसलिए आपसे अनुरोध है कि इस आयोजन में हर तरह से शामिल होकर प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को सफल और मजबूत बनाएँ. इस पूरे आयोजन में प्रवेश निशुल्क है और किसी भी प्रकार के औपचारिक निमंत्रण की जरुरत नही है.



संपर्क :
आशीष त्रिवेदी
सचिव, जन संस्कृति मंच, बलिया
9918377816, ashistrivedi1@gmail.com



संजय जोशी
संयोजक, द ग्रुप, जन संस्कृति मंच
9811577426, thegroup.jsm@gmail.com