Note:

New Delhi Film Society is an e-society. We are not conducting any ground activity with this name. contact: filmashish@gmail.com


Friday, July 29, 2011

Retrospective of Nalini Jaywant's films



Retrospective of legendary Indian Actress Nalini Jaywant's films.It features films by Abdul Rashid Kardar, K.A. Abbas and Raj Khosla. These films will be followed by post film discussions.

Entry to this festival is completely free!!

Schedule:

30th July:
12:30 PM- Munim Ji
3:30 PM- Jaadu
6 PM- Samadhi

31st July:
1 PM- Rahi
3:30 PM- Kaala Pani

Tuesday, July 26, 2011

'डेल्ही बेली' के बहाने




- प्रियदर्शन




क्या कला की सार्थकता जीवन को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देने में है? चेखव की एक प्रशंसा यह की जाती है कि वे अपनी कहानियों में स्लाइस ऑफ लाइफ, यानी जीवन का टुकड़ा जैसे पूरा का पूरा उठाकर रख देते थे। लेकिन क्या यह जीवन को ज्यों का त्यों चित्रित कर देने की ख़ूबी भर थी जिसने चेखव को इतना बड़ा कथाकार बनाया? निश्चय ही चेखव का बड़प्पन इस तथ्य में निहित है कि वे जीवन के टुकड़े के भीतर मौजूद उस स्पंदन तक पहुंच जाते थे जो उस टुकड़े को मानी देता था, उनकी कहानी को अर्थ देता था। उनकी कहानी में दिखने वाले चाबुक किरदारों की पीठ पर नहीं, पाठकों की आत्मा पर पड़ते थे। वे घटनाओं या दृश्यों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करके अपन काम पूरा नहीं मान लेते थे, वे उनमें छुपी हई बहुत तीखी विडंबनाओं को, बहुत बारीक किस्म की मनुष्यता को, जैसे उसके रेशे-रेशे के साथ खोलकर पाठकों के सामने रख देते थे। इस लिहाज से देखें तो कला की चुनौती या सार्थकता जीवन को ज्यों का त्यों रख देने में नहीं है- यह काम तो फोटोग्राफी कहीं ज़्यादा कायदे और सटीकता से कर सकती है- वह उसके आगे जाकर उसमें छुपी अलग-अलग परतों को, पीड़ा और खुशी के अनुभवों को, रोज़मर्रा के कोलाहल में खो जाने वाले अलक्षित स्पंदनों को सामने लाने में है।
दरअसल कला और जीवन के बीच के इस अपरिहार्य द्वंद्व का खयाल बीते दिनों आमिर खान प्रोडक्शंस के बैनर से बनी फिल्म डेल्ही बेली देखते हुए आता रहा। महानगर के एक घर में रह रहे तीन दोस्तों की यह कहानी गालियों से भरी पड़ी है। कई दर्शकों को लग रहा है कि अगर यथार्थ का चेहरा यही है तो इसे सामने लाने में कोई हर्ज़ नहीं है। ख़ुद आमिर ख़ान मानते हैं कि उनकी फिल्म अपने इस दुस्साहसी प्रयोग की वजह से बच्चों के लिए नहीं है। उन्होंने सेंसर बोर्ड से अपनी ओर से आग्रह किया था कि उनकी फिल्म को ए सर्टिफिकेट दिया जाए- यानी सिर्फ वयस्कों के लिए माना जाए। शायद यह गालियों से भरी एक फिल्म को सेंसर बोर्ड से पास करान की युक्ति भी हो, लेकिन इसमें शक नहीं कि आमिर अपनी इस युक्ति की वजह से लोगों का ध्यान फिल्म की ओर खींचने में कामयाब रहे।
सतह पर देखें तो आमिर की बात तर्कसंगत लगती है। जीवन में अगर कुछ वीभत्स या गलीज़ है और कला उसे पकड़ने की कोशिश करती है तो वह उस यथार्थ से आंख चुराकर कैसे चल सकती है? अगर दिल्ली के तीन दोस्त या उनके आसपास के लोग अपनी बातचीत में धड़ल्ले से गाली का इस्तेमाल करते हैं तो इस पर एतराज करना एक नासमझ और डरे हुए शुद्धतावाद से ज़्यादा क्या है? आखिर हिंदी फिल्मों में गालियों के बिना भी फूहड़ दृश्यों और संवादों की भरमार रही है। आमिर ने तो बस इतना किया है कि अपनी फिल्म को एक यथार्थवादी शक्ल दी है।
लेकिन मुश्किल यह है कि शिल्प के स्तर पर आमिर जिस सख्त यथार्थवाद को अपना पैमाना बनाते हैं, कथ्य के स्तर पर उसकी बुरी तरह उपेक्षा करते हैं। अंततः वे फंतासी से भरी एक व्यावसायिक फिल्म बनाने ही दिखाई पड़ते हैं जिसके लिए उन्होंने मुहावरा यथार्थवादी चुन लिया है। क्या उनकी तरह के फिल्मकार को यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि कला- जिसमें फिल्म कला भी शामिल है- का शिल्प उसके कथ्य के हिसाब से ही तय होता है। जब एक फिल्मी किस्म के विषय को एक यथार्थवादी मुहावरे के रैपर में लपेट कर पेश करने की कोशिश की जाती है तो यह एक मिलावटी काम होता है जिससे कामयाब फिल्म तो बन सकती है, अच्छी फिल्म नहीं बन सकती।
वैसे सच्चाई यह है कि डेल्ही बेली का यह निहायत यथार्थवादी दिखने वाला शिल्प भी दरअसल अपनी समझ में बहुत इकहरा है। आमिर खान को सिर्फ यह दिखता है कि नौजवान जिस भाषा में बात करते हैं, वह गालियों से पटी पड़ी भाषा है। एक तो यह पूरा सच नहीं है- अगर किसी ख़ास तबके के लिए हो भी तो- ज़्यादा बड़ा सवाल यह है कि आखिर वह ऐसी भाषा क्यों इस्तेमाल करता है। यह लापरवाही है या बचपन से किशोरावस्था में जाते हुए मर्द दिखने की कोशिश जो बाकी जरियों के मुकाबले कुछ मर्दाना गालियों से कहीं ज़्यादा आसानी से कामयाब हो सकती है? या फिर यह कोई हताशा है जो इन गालियों की शक्ल में फूटती है। ध्यान से देखें तो हमारे समाज- या सभी समाजों- में गालियां मूलतः स्त्री को, उसकी लैंगिक पहचान को, उसकी यौन शुचिता को निशाना बनाकर गढ़ी गई हैं। उनमें सामंती अहंमन्यता की बू पकडना मुश्किल नहीं है। जो लोग गालियों को भदेस समाज की अभिव्यक्ति बताते हैं, वे भूल जाते हैं कि सामंती दबदबे का मारा यह भदेस समाज दरअसल अपनी हताश अभिव्यक्ति में ही गालियों का सहारा लेकर अपने लिए थोड़ा बहुत सुकून, राहत या मर्दानगी खोजने की कोशिश करता है।
लेकिन गालियों के इस समाजशास्त्र को भूलकर उन्हें सिर्फ यथार्थ के एक औजार की तरह इस्तेमाल करना हिंदी फिल्मकारों का नया शगल है। डेल्ही बेली से पहले हाल की कई फिल्मों, ये साली ज़िंदगी से लेकर नो वन किल्ड जेसिका तक में ये गालियां खूब दिखी हैं- और हैरानी की बात ये है कि लगभग इन सारी फिल्मों में यथार्थ पर आग्रह सिर्फ शिल्प के स्तर पर है, कथ्य के स्तर पर नहीं।
यथार्थ के ज्यों के त्यों चित्रण के इस तर्क को कुछ और आगे ले जाएं तो हमें कहीं ज़्यादा असुविधाजनक सवालों का सामना करना पड़ता है। कल को हत्या या बलात्कार के अनुभव को ज्यों का त्यों फिल्माने की कोशिश में क्या किसी निर्देशक को यह हक़ भी हासिल होगा कि वह बिल्कुल हिंसा और बलात्कार के वास्तविक दृश्य नियोजित करवाए?
दरअसल कला की असली चुनौती यही होती है कि वह जीवन को उसके सारे विद्रूप के साथ प्रस्तुत करे, उसकी सिर्फ तस्वीर न उतारे। सिर्फ तस्वीर उतारने का नतीजा वही होता है जो आमिर खान की फिल्म में दिखाई पड़ता है- गालियां सुनकर लोग हंसते हैं, ख़ुश होते हैं और फिल्म के खरेपन पर कुछ ज़्यादा भरोसा कर बैठते हैं- वे उसमें निहित विडंबना को नहीं समझते।
कहना मुश्किल है, आमिर ख़ान का मकसद ऐसी किसी विडंबना को पकड़ना था भी या नहीं। हो सकता है जिस कॉमिक रिलीफ की फिल्म वे बनाना चाहते हों, उसमें छौंक की तरह ये गालियां डाली गई हों। लेकिन इस क्रम में जो फिल्म बनी, वह बालिग लोगों के लिए भले हो, परिपक्व दर्शकों के लिए नहीं हो पाई।


(प्रियदर्शन वरिष्ठ हिंदी पत्रकार हैं। लंबे समय तक हिंदी दैनिक 'जनसत्ता 'से जु़ड़े रहने के बाद इन दिनों 'एनडीटीवी इंडिया 'चैनल में कार्यरत हैं। प्रस्तुत लेख जनसत्ता में रविवार 24 जुलाई को यथार्थवाद का इकहरापन के नाम से प्रकाशित हो चुका है। )

Sunday, July 17, 2011

पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल

प्रेस रिलीज़
प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल


मित्रों,
2006 से जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का उन्नीसवां और बलिया का पहला प्रतिरोध का सिनेमा फिल्म फेस्टिवल आगामी 10 और 11 सितम्बर को बलिया के बापू भवन टाउन हाल में सुबह 10 बजे से होगा. यह हाल बलिया रेलवे स्टेशन के बहुत नजदीक है. जल्द ही हम अपने ब्लॉग www.gorakhpurfilmfestival.blogspot.com पर कार्यक्रम का विस्तृत ब्योरा देंगे.
इस फेस्टिवल में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के वृत्त चित्र, लघु फिल्म और फीचर फिल्म के अलावा संकल्प, बलिया द्वारा भिखारी ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक बिदेशिया का मंचन, गोरख पाण्डेय की कविता पोस्टरों और जन चेतना के चितेरे के नाम से प्रगतिशील चित्रकार चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के प्रतिनिधि चित्रों की प्रदर्शनी भी आयोजित की जायेगी. फिल्म फेस्टिवल में प्रमुख भारतीय फिल्मकारों के शामिल होने की भी संभावना है.
प्रतिरोध के सिनेमा अभियान के दूसरे फिल्म फेस्टिवलों की तरह यह फेस्टिवल भी बिना किसी सरकारी, गैर सरकारी और एन जी ओ स्पांसरशिप के आयोजित किया जा रहा है . प्रतिरोध की संस्कृति के इच्छुक ईमानदार सामन्य जन ही इसके स्पांसर है. इसलिए आपसे अनुरोध है कि इस आयोजन में हर तरह से शामिल होकर प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को सफल और मजबूत बनाएँ. इस पूरे आयोजन में प्रवेश निशुल्क है और किसी भी प्रकार के औपचारिक निमंत्रण की जरुरत नही है.



संपर्क :
आशीष त्रिवेदी
सचिव, जन संस्कृति मंच, बलिया
9918377816, ashistrivedi1@gmail.com



संजय जोशी
संयोजक, द ग्रुप, जन संस्कृति मंच
9811577426, thegroup.jsm@gmail.com


Saturday, July 16, 2011

डेल्ही बेलीः जहां से एडल्ट की विभाजन रेखा ब्लर होती है



- विनीत कुमार

फिल्म डेल्‍ही बेली आमिर खान के गैरजरूरी गुरूर की सिनेमाई अभिव्यक्ति है। बाजार की जबरदस्त सफलता ने उनके भीतर ये अंध भरोसा पैदा कर दिया है कि वो प्रयोग के नाम पर चाहे जो भी कर लें, दिखा दें, उन्हें पटकनी नहीं मिलनी है। उनका ये भरोसा अपनी जगह पर बिल्कुल सही भी है क्योंकि जब तक प्रोमोशन, मीडिया सपोर्ट, पीआर और डिस्ट्रीब्यूशन के स्तर पर उनका ढांचा कमजोर नहीं होता, आगे डेल्‍ही बेली जैसी फिल्मों से पुरानी शोहरत की कमाई तो खाते ही रहेंगे। हां, ये जरूर है कि इस फिल्म से ऑडिएंस की ओर से ये कहने की शुरुआत हो गयी कि आमिर खान में अब वो बात नहीं रही, वो भी बाजार की नब्ज समझकर सिनेमा का धंधेबाज हो गया है। आमिर खान के लिए इस जार्गन का प्रयोग अगर आनेवाली दो-तीन फिल्मों के लिए होता रहा और बाजार, मीडिया, पीआर के अलावा ऑडिएंस की पसंद-नापसंद की भी कोई सत्ता बचती है, तो आमिर खान का सितारा गर्दिश में ही समझिए।
वेव सिनेमा, नोएडा से निकलकर जब मैं अपने घर के लिए चला तो रास्तेभर सोचता रहा कि इस फिल्म पर इसी की भाषा में समीक्षा लिखी जानी चाहिए। मसलन लोडू आमिर खान ने झांटू टाइप की फिल्म बनाकर देश की ऑडिएंस को चूतिया बनाने का काम किया है। थ्री इडियट्स, तारे जमीं पर, लगान जैसी फिल्में बनानेवाला भोंसड़ी के ऐसी फिल्में बनाने लग जाएगा… ओफ्फ, उम्मीद नहीं थी। फिर ध्यान आया कि जिस तरह आमिर खान ने ए सर्टिफिकेट लेकर और टेलीविजन पर खुलेआम (इसे भी प्रोमोशन का ही हिस्सा मानें) कहकर कि ये फिल्म बच्चों के लिए नहीं है, वैधानिक तौर पर अपने को सुरक्षित करते हुए भी मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में एडल्ट और सामान्य फिल्म के बीच की विभाजन रेखा को खत्म या नहीं तो ब्लर ही करने की कोशिश की है, वही काम हम आलोचना की दुनिया में नहीं कर सकते। आलोचना के लिए कोई ए सर्टिफिकेट जैसी चीज नहीं होती है। आमिर खान ने इस वैधानिक सुविधा का बहुत ही कनिंग (धूर्त) तरीके से इस्तेमाल किया है।
ये बात इसलिए रेखांकित की जाने लायक है क्योंकि उनके और प्रोडक्शन हाउस के लाख घोषित किये जाने के वावजूद इस फिल्म को लेकर वो धारणा नहीं बन पाती है जो कि घाघरे में धूमधाम, हसीन रातें, कच्ची कली जैसी फिल्मों को लेकर बनती है। फिर दर्जनभर एफएम चैनल और उससे कई गुना न्यूज चैनल्स इसकी प्रोमो से लेकर कार्यक्रम में कसीदे पढ़ने में लगे हों तो वो ऑडिएंस को एडल्ट होने की वजह से नहीं देखने के बजाय और पैंपर करती है, उकसाती है कि वो अपनी भाषा में एडल्ट फिल्म देखें। नहीं तो उसने मेरा चूसा है, मैंने उसकी ली है, गदहे जब रिक्शे की लेते हैं तो ऐसी गाड़ी पैदा होती है जैसे प्रयोग तो अंतर्वासना डॉट कॉम में भी इतने धड़ल्ले से प्रयोग में नहीं आते। यही कारण है कि जिन एडल्ट फिल्मों को जाकर देखने में अभी भी खुले और बिंदास लोगों के पैर ठिठकते हैं, लड़कियां तमाम तरह की सुरक्षा के बावजूद एडल्ट और पोर्न फिल्में सिनेमाघरों में जाकर नहीं देखती, डेल्‍ही बेली में उनकी संख्या अच्छी-खासी होती है, बल्कि वो कपल में होकर इसे एनजॉय कर रहे होते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि इस फिल्म को लेकर सबसे ज्यादा ऑडिएंस को लेकर बात होनी चाहिए। बच्चों को अगर इस फिल्म से माइनस भी कर दें तो देखनेवालों की संख्या में कितना फर्क पड़ता है, इस पर बात हो। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है कि अधिकांश फिल्में इस तर्क पर बनती है कि बच्चों को टार्गेट करो, पैरेंट्स अपने आप चले आएंगे। ये फिल्म उससे ठीक विपरीत स्ट्रैटजी पर काम करती है।
इस लिहाज से देखें तो ये फिल्म एक नये किस्म की शैली या ट्रेंड को पैदा करने का काम करेगी। बच्चों को बतौर ऑडिएंस माइनस करके भी बिजनेस पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, तो ए सर्टिफिकेट के तहत ऐसी फिल्मों की लॉट सामने आने लगेगी जिनकी ऑडिएंस लगभग वही होगी जो बागवान, कभी खुशी कभी गम, इश्किया, दबंग जैसी फिल्में देखती आयी है। जबरदस्त मार-काट के बीच ये आमिर खान की नयी मार्केट की खोज है, जिसने कभी इस बात पर बहुत गौर नहीं किया कि इससे आगे चलकर सिनेमा की शक्ल कैसी होगी? माफ कीजिएगा, मैं इस फिल्म को लेकर किसी भी तरह की असहमति इसलिए व्यक्त नहीं कर रहा कि इसमें गालियों का खुलकर प्रयोग किया गया है या फिर एडल्ट फिल्मों से भी ज्यादा वल्गर लगे हैं। मैं इस बात को लेकर असहमत हूं कि जो आमिर खान बहुतत ही पेचीदा और संश्लिष्ट विषयों को बहुत ही बारीकी से समझते हुए, उसे खूबसूरती के साथ फिल्माता आया है, वो गालियों का समाजशास्त्र समझने में, उसके पीछे के मनोविज्ञान को छू पाने में बुरी तरह असमर्थ नजर आता है। ये इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है और यहीं पर आकर मिस्टर परफेक्शनिस्ट बुरी तरह पिट जाते हैं। गालियों का अत्यधिक प्रयोग और हर लाइन के साथ चूतिये न तो अश्लीलता पैदा करता है और न ही स्‍वाभाविक माहौल ही निर्मित करता है बल्कि बुरी तरह इरीटेट करता है। हम जैसे लोग जो कि दिन-रात गालियों से घिरे होते हैं, अक्सर सुनते हुए और कई बार देते हुए… उन्हें भी खीज होती है – ऐसा थोड़े ही न होता है यार कि हर लाइन के पीछे हर कैरेक्टर चूतिया बोले ही बोले। ये स्वाभाविक लगने के बजाय डिकोरम का हिस्सा लगने लग जाता है कि हर लाइन में इसे बोलना ही बोलना है। दरअसल इस फिल्म में जो गालियों का प्रयोग है, वो समाज के बीच जीनेवाले चरित्रों और जिन परिस्थितियों में उनका प्रयोग करते हैं, उनके ऑब्जर्वेशन के बाद शामिल नहीं की गयी है बल्कि ऐसा लगता है कि एमटीवी, चैनल वी और यूटीवी बिंदास पर टीआरपी के दबाव में जैसे तमाम प्रतिभागियों को गाली देने और चैनल की तरफ से अधूरी पर बीप लगाने के लिए ट्रेंड किया जाता है, उन कार्यक्रमों और फुटेज को देखकर स्ट्रैटजी बनायी गयी कि चरित्र इस तरह से गालियां देंगे। यही कारण है कि जिन गालियों को हम दिन में पचास बार सुनते हैं, उसे जब हम इस फिल्म में सुनते हैं तो लगता है इसकी यहां जरूरत नहीं थी। जो इन चैनलों की रेगुलर ऑडिएंस हैं, उनके मुंह से शायद निकल भी रहे होंगे – चूतियों ने हमें चूतिया बनाने की कोशिश की है, भोंसड़ी के एक बार तो देख लिये इस चक्कर में, अगली बार अपने ही हाथ से अपनी ही मारनी होगी, देख लियो अगली बार वीकएंड में ही पिट जाएगी फिल्म।
गालियों के मनोविज्ञान पर आमिर खान को जबरदस्त मेहनत करने की जरूरत थी लेकिन उन्होंने इसे जस्ट फॉर फन या जुबान के बदचलन हो जाने के स्तर पर इस्तेमाल किया। गाली देते हुए किसी भी चरित्र में वो तनाव, चेहरे पर वो भाव नहीं दिखता है, जो कि आमतौर पर हम देते वक्त एक्सप्रेस करते हैं। ये कई बार असहाय और बिल्कुल ही कमजोर शख्स की तरफ से मजबूत के लिए किया जानेवाला प्रतिरोध भी होता है लेकिन वो यहां तक नहीं पहुंच पाते। एक सवाल मन में बार-बार उठता है कि जब गालियों को इसी रूप में प्रयोग करना था तो तीनों के तीनों चरित्रों को मीडिया क्षेत्र से चुने जाने की क्या अनिवार्यता थी? कहीं इससे ये साबित करने की कोशिश तो नहीं कि मीडिया के लोग ही इस तरह खुलेआम गालियां बकते हैं। अगर इसका विस्तार वो समाज के दूसरे तबके और फैटर्निटी के लोगों तक कर पाते तब लगता कि ये दिल्ली या यूथ की जीवनशैली में स्वाभाविक रूप से धंसा हुआ है। ऐसे में ये आमिर खान की नीयत पर भी शक पैदा करता है। हां, मीडिया के लोगों और बहुत ही कम समय के लिए उसके एम्बीएंस को इस्तेमाल करके आमिर खान ने एक अच्छी बात स्थापित करने की कोशिश की है कि अब ये बहुत ही कैजुअल तरीके से लिया जानेवाला पेशा हो गया है। मीडिया को करप्ट और विलेन साबित करने के लिए लगभग आधी दर्जन फिल्में बन चुकी है लेकिन इस फिल्म में मीडियाकर्मी के कैजुअल होने को बारीकी से दिखाया गया है। हां, ये जरूर है कि इन तीनों मीडियाकर्मियों को जिस परिवेश में रहते दिखाया गया है और जिस तरह गरीब साबित करने की कोशिश की गयी है, वो फिल्म की जरूरत से कहीं ज्यादा मन की बदमाशी या चूक है।
मल्टीनेशनल कंपनी में काम करनेवाले कार्टूनिस्ट, फोटो जर्नलिस्ट और पत्रकार आर्थिक मोर्चे पर इतना लचर होगा कि किराया देने तक के पैसे नहीं होंगे और वैसी झंटियल सी जगह में रहेंगे, हजम नहीं होता। फोटो जर्नलिस्ट लैम्रेटा स्कूटर से चलता है। कोई आमिर खान को बताये कि दिल्ली में कितनी साल पुरानी गाड़ी चल सकती है, इसके लिए भी कानूनी प्रावधान है। पुरानी दिल्ली के कभी भी धंसनेवाले घर और छत को तो उन्होंने खोजकर बड़ा ही खूबसूरत माहौल पा लिया लेकिन पुराने परिवेश में जीनेवाले कार्पोरेट पत्रकारों की जिंदगी घुसा पाने में कई झोल साफ दिख जाते हैं। इधर तीन-चार साल से हिंदी सिनेमा ने मीडियाकर्मियों को जिन ग्लैमरस परिस्थितियों में दिखाया है, अचानक से ऐसा देखना विश्वसनीय नहीं लगता। फिर गरीब मां या मजबूर घर के हालात न दिखाकर टिपिकल इंडियन सिनेमा का लेबल लगने से बचने के लिए जो जुगत भिड़ायी गयी है, वो तमाम तरह की स्मार्टनेस के बावजूद कहानी का मिसिंग हिस्सा जान पड़ता है। और आखिरी बात…
आमिर खान ने आइटम सांग के नाम पर न्यूज चैनलों और मीडिया कवरेज में जो सोसा फैलाया, अगर सिनेमाघरों में हम जैसी ऑडिएंस के बीच होते तो सिर पटक लेते। जब उनका आइटम सांग शुरू होता है, आडिएंस उठकर जाने लगती है, उनमें इतनी भी पेशेंस नहीं होती कि वो रुक कर 377 मार्का आमिर खान को देख ले। इसे कहते हैं मुंह भी जलाना और भात भी न खाना। आमिर खान का आइटम सांग डीजे में कितना बजेगा, नहीं मालूम लेकिन फिलहाल इसे ऑडिएंस ने एक फालतू आइटम की तरह बुरी तरह नकार दिया या फिर टीवी, एफएम पर देख-सुनकर पक चुकी हो। फिल्म देखकर बाहर निकलने पर शायद मेरी तरह आपका भी मन कचोटता हो – हिंदी सिनेमा में स्त्रियां दबाने के लिए ही लायी जाती हैं, चाहे कोई भी बनाये। बाकी बनाये तो परिवार, समाज और अधिकार के स्तर पर दबाने के लिए और आमिर खान फिल्म बनाये तो उनके बूब्स दबाने के लिए।

(विनीत कुमार युवा मीडिया विश्‍लेषक और लेखक हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के साथ साथ अपने दो ब्लॉग्स हुंकार और टीवी प्‍लस
और तमाम ब्लॉग्स और वेबसाइट्स पर भी नियमित लेखन करते रहते हैं।)

Thursday, July 14, 2011

सत्य की सर्च: वाया 'डेल्ही बेली'



- मिहिर पंड्या


जिस तुलना से मैं अपनी बात शुरु करने जा रहा हूँ, इसके बाद कुछ दोस्त मुझे सूली पर चढ़ाने की भी तमन्ना रखें तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा. फिर भी, पहले भी ऐसा करता रहा हूँ. फिर सही एक बार…

सत्यजित राय की ’चारुलता’ के उस प्रसंग को हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में क्रांतिकारी कहा जाता है जहाँ नायिका चारुलता झूले पर बैठे स्वयं गुरुदेव का लिखा गीत गुनगुना रही हैं और उनकी नज़र लगातार नायक अमल पर बनी हुई है. सदा से व्यवस्था का पैरोकार रहा हिन्दुस्तानी सिनेमा भूमिकाओं का निर्धारण करने में हमेशा बड़ा सतर्क रहा है. ऐसे में यह ’भूमिकाओं का बदलाव’ उसके लिए बड़ी बात थी. ’चारुलता’ को आज भी भारत में बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शुमार किया जाता है.

यह तब भी बड़ी बात थी, यह आज भी बड़ी बात है. अध्ययन तो इस बात के भी हुए हैं कि लता मंगेशकर की आवाज़ को सबसे महान स्त्री स्वर मान लिए जाने के पीछे कहीं उनकी आवाज़ का मान्य ’स्त्रियोचित खांचे’ में अच्छे से फ़िट होना भी एक कारण है. जहाँ ऊँचे कद की नायिकाओं के सामने नाचते बौने कद के नायकों को ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी से बराबर कद पर लाया जाता हो, वहाँ सुष्मिता सेन का पीछे से आकर सलमान ख़ान को बांहों में भरना ही अपने आप में क्रांति है. बेशक ’देव डी’ के होते हम मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा में पहली बार देखे गए इस ’भूमिकाओं में बदलाव’ का श्रेय ’डेल्ही बेली’ को नहीं दे सकते, लेकिन यौन-आनंद से जुड़े एक प्रसंग में स्त्री का ’भोक्ता’ की भूमिका में देखा जाना हिन्दी सिनेमा के लिए आज भी किसी क्रांति से कम नहीं.’



  • देव डी’ में जब पहली बार हम सिनेमा के पर्दे पर इस ’भूमिकाओं के बदलाव’ को देखते हैं तो यह अपने आप में वक्तव्य है. ’डेल्ही बेली’ को इसके लिए ’देव डी’ का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वो उसके लिए रास्ता बनाती है. उसी के कांधे पर चढ़कर ’डेल्ही बेली’ इस प्रसंग को इतने कैज़ुअल तरीके से कह पाई है. हमारा सिनेमा आगे बढ़ रहा है और अब यह अपने आप में स्टेटमेंट भर नहीं रह गया, बल्कि अब कहानी इस दृश्य के माध्यम से दोनों किरदारों के बारे में, उनके आपसी रिश्ते के बारे में कुछ बातें कहने की कोशिश कर सकती है.


  • ठीक यही बात गालियों के बारे में है. यहाँ गालियाँ किसी स्टेटमेंट की तरह नहीं आई हैं. यही शब्द जिसे देकर ’डी के बोस’ इतना विवादों में है, जब गुलाल में आता है तो वो अपने आप में एक स्टेटमेंट है. लेकिन ’डेल्ही बेली’ में किरदार सामान्य रूप से गालियाँ देते हैं. लेकिन वहीं देते हैं जहाँ समझ में आती हैं. जैसे दो दोस्त आपस की बातचीत में गालियाँ देते हैं, लेकिन अपने माता-पिता के सामने बैठे नहीं. अब गालियाँ फ़िल्म में ’चमत्कार’ पैदा नहीं करतीं. और अगर करती भी हैं तो ज़रूरत उस दिशा में बढ़ने की है जहाँ उनका सारा ’चमत्कार’ खत्म हो जाए. विनीत ने फेसबुक पर बड़ी मार्के की बात लिखी थी, “मैं सिनेमा, गानों या किसी भी दूसरे माध्यमों में गालियों का समर्थन इसलिए करता हूं कि वो लगातार प्रयोग से अपने भीतर की छिपी अश्लीलता को खो दे, उसका कोई असर ही न रह जाए. ऐसा होना जरुरी है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि महज एक गाली के दम पर कोई गाना या फिल्म करोड़ों की बिजनेस डील करे और पीआर, मीडिया एजेंसी इसके लिए लॉबिंग करे. ऐसी गालियां इतनी बेअसर हो जाए कि कल को कोई इसके दम पर बाजार खड़ी न कर सके.” ’डेल्ही बेली’ में गालियाँ ऐसे ही हैं जैसे कॉस्ट्यूम्स हैं, लोकेशन हैं. अपने परिवेश के अनुसार चुने हुए. असलियत के करीब. नाकाबिलेगौर हद तक सामान्य.


  • तमाम अन्य हिन्दी फ़िल्मों की तरह इसमें समलैंगिक लोगों का मज़ाक नहीं उड़ाया गया है, बल्कि उन लोगों का मज़ाक उड़ाया गया है जो किसी के समलैंगिक होने को असामान्य चीज़ की तरह देखते हैं, उसे गॉसिप की चीज़ मानते हैं.


  • सच कहा, हम यह फ़िल्म अपने माता-पिता के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं. लेकिन क्या यह सच नहीं कि नए बनते विश्व सिनेमा का सत्तर से अस्सी प्रतिशत हिस्सा हम अपने माता-पिता के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं. न टेरेन्टीनो, न वॉन ट्रायर, न कितानो. अगर हिन्दी सिनेमा भी विश्व सिनेमा के उस वृहत दायरे का हिस्सा है जिसे हम सराहते हैं तो उसे भी वो आज़ादी दीजिए जो आज़ादी विश्व के अन्य देशों का सिनेमा देखते हुए उन्हें दी जाती है. माता-पिता नहीं, लेकिन ’डेल्ही बेली’ को अपनी महिला मित्र के साथ बैठकर बड़े आराम से देखा जा सकता है. क्योंकि यह फ़िल्म और कुछ भी हो, अधिकांश मुख्यधारा हिन्दी फ़िल्मों की तरह ’एंटी-वुमन’ नहीं है. इस फ़िल्म में आई स्त्रियाँ जानती हैं कि उन्हें क्या चाहिए. वे उसे हासिल करने को लेकर कभी किसी तरह की शर्मिंदगी या हिचक महसूस नहीं करतीं और सबसे महत्वपूर्ण यह कि वे फ़िल्म की किसी ढलती सांझ में अपने पिछले किए पर पश्चाताप नहीं करतीं.


  • मुझे अजीब यह सुनकर लगा जब बहुत से दोस्तों की नैतिकता के धरातल पर यह फ़िल्म खरी नहीं उतरी. कई बार सिनेमा में गालियों के विरोधियों के साथ एक दिक्कत यह हो जाती है कि वे चाहकर भी गालियों से आगे नहीं देख पाते. अगर आप सिनेमा में ’नैतिकता’ की स्थापना को अच्छे सिनेमा का गुण मानते हैं (मैं नहीं मानता) तो फिर तो यह फ़िल्म आपके लिए ही बनी है. आप उसे पहचान क्यों नहीं पाए. गौर से देखिए, प्रेमचंद की किसी शुरुआती ’हृदय परिवर्तन’ वाली कहानी की तरह यहाँ भी कहानी का एक उप-प्रसंग एकदम वही नहीं है?एक किरायदार किराया देने से बचने के लिए अपने मकान-मालिक को ब्लैकमेल करने का प्लान बनाता है. उसकी कुछ अनचाही तस्वीरें खींचता है और अनाम बनकर उससे पैसा मांगता है. तभी अचानक किसी अनहोनी के तहत खुद उसकी जान पर बन आती है. ऐसे में उसका वही मकान-मालिक आता है और उसकी जान बचाता है. ग्लानि से भरा किराएदार बार-बार शुक्रिया कहे जा रहा है और ऐसे में उसका मकान-मालिक जो उसके किए से अभी तक अनजान है उससे एक ही बात कहता है, “मेरी जगह तुम होते तो तुम भी यही नहीं करते?” किरायदार का हृदय परिवर्तन होता है और वो ब्लैकमेल करने वाला सारा कच्चा माल एक ’सॉरी नोट’ के साथ मकान-मालिक के लैटर-बॉक्स में डाल आता है.


  • लड़का इतने उच्च आदर्शों वाला है कि उनके लिए एक मॉडल का फ़ोटोशूट वाहियात है लेकिन किसी मृत व्यक्ति की लाश उन्हें शहर के किसी भी हिस्से में खींच ले जाती है. यह भी कि जब सवाल नायिका को बचाने का आता है तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बचाना है, पैसा रख लेना कहीं ऑप्शन ही नहीं है इन लड़कों के लिए. और यह तब जब उन्होंने अभी-अभी जाना है कि वही नायिका इस सारी मुसीबत की जड़ है. पूरी फ़िल्म में सिर्फ़ दो जगह ऐसी है जहाँ फ़िल्म मुझे खटकती है. जहाँ उसका सौंदर्यबोध फ़िल्म के विचार का साथ छोड़ देता है. लेकिन सैकड़ों दृश्यों से मिलकर बनती फ़िल्म में सिर्फ़ दो ऐसे दृश्यों का होना मेरे ख्याल से मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए अच्छा ही कहा जाएगा.


  • फिर, नायक ऐसे उच्च आदर्शों वाला है कि एक लड़की के साथ होते दूसरी लड़की से चुम्बन खुद उसके लिए नैतिक रूप से गलत है. एक क्षण उसके चेहरे पर ’मैंने दोनों के साथ बेईमानी की’ वाला गिल्ट भी दिखता है और दूसरे क्षण वो किसी प्राश्च्यित के तहत दोनों के सामने ’सच का सामना’ करता है, यह जानते हुए भी कि इसका तुरंत प्रभाव दोनों को ही खो देने में छिपा है.


  • मैं एक ऐसे परिवार से आता हूँ जहाँ घर के बड़े सुबह नाश्ते की टेबल पर पहला सवाल यही पूछते हैं, “ठीक से निर्मल हुए कि नहीं?” कमल हासन की ’पुष्पक’ आज भी मेरे लिए हिन्दुस्तान में बनी सर्वश्रेष्ठ हास्य फ़िल्मों मे से एक है. क्यों न हम इसे उस अधूरी छूटी परंपरा में ही देखें.


  • गालियों से आगे निकलकर देखें कि कि कैसे सिर्फ़ एक दृश्य वर्तमान शहरी लैंडस्केप में तेज़ी से मृत्यु की ओर धकेली जा रही कला का माकूल प्रतीक बन जाता है. घर की चटकती छत में धंसा वो नृतकी का घुंघरू बंधा पैर सब कुछ कहता है. कला की मृत्यु, संवेदना की मृत्यु, तहज़ीब की राजधानी रहे शहर में एक समूचे सांस्कृतिक युग की मृत्यु. कथक की ताल पर थिरकते उन पैरों की थाप अब कोई नई प्रेम कहानी नहीं पैदा करती, अब वह अनचाहा शोर है. अब तो इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वो कथक है या फिर भरतनाट्यम. सितार को गिटार की तरह बजाया जाता है और उसमें से चिंगारियाँ निकलती हैं.


  • शुभ्रा गुप्ता ने बहुत सही कहा, ’डेल्ही बेली’ की भाषा ’हिंग्लिश’ नहीं है. ’हिंग्लिश’ अब एक पारिभाषिक शब्द है. ऐसी भाषा जिसमें एक ही वाक्य में हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का घालमेल मिलता है. वरुण ने इसका बड़ा अच्छा उदाहरण दिया था कुछ दिन पहले, “बॉय और गर्ल घर से भागे. पेरेंट्स परेशान”. ’यूथ ओरिएंटेड’ कहलाए जाने वाले अखबारों जैसे नवभारत टाइम्स और आई नेक्स्ट के फ़ीचर पृष्ठों पर आप इस तरह की भाषा आसानी से पढ़ सकते हैं. इसके उलट ’डेल्ही बेली’ में भाषा को लेकर वह समझदारी है जिसकी बात हम पिछले कुछ समय से कर रहे हैं. यहाँ किरदार अपने परिवेश के अनुसार हिन्दी या अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे नायक आपस में हिन्दी में बात कर रहे हैं लेकिन उन्हें मारने आए गुंडो से हिन्दी में. जैसे नायिका अपने सहकर्मी से अंग्रेज़ी में बात कर रही है लेकिन पुरानी दिल्ली के जौहरी से हिन्दी में. उच्च-मध्यम वर्ग से आए पढ़े लिखे नायकों की गालियाँ आंग्ल भाषा में हैं लेकिन विजय राज की गालियाँ उसके किरदार के अनुसार शुद्ध देसी.
कहानी का अंत उस प्रसंग से करना चाहूँगा जिसने मेरे मन में भी कई सवाल खड़े किए हैं. फ़िल्म की रिलीज़ के अगले ही दिन जब मेरे घरशहरी दोस्त रामकुमार ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि ’क्यों न हम खुलकर यह कहें कि ’डेल्ही बेली’ एक ’एंटी-वुमन’ फ़िल्म है’ तो मुझे यह बात खटकी. मैंने अपनी असहमति दर्ज करवाई. फिर मेरा ध्यान गया, वहीं नीचे उन्होंने वह संवाद उद्धृत किया था जिसके आधार पर वे इस नतीजे तक पहुँचे थे. मेरी याद्दाश्त के हिसाब से संवाद अधूरा उद्धृत किया गया था और अगर उसे पूरा उतारा जाता तो यह भ्रम न होता. मैंने यही बात नीचे टिप्पणी में लिख दी.अगले ही पल रामकुमार का फ़ोन आया. पहला सवाल उन्होंने पूछा, “मिहिर भाई, आपने फ़िल्म इंग्लिश में देखी या हिंदी में?” बेशक दिल्ली में होने के नाते मैंने फ़िल्म इंग्लिश में ही देखी थी. पेंच अब खुला था. हम दोनों अपनी जगह सही थे. जो संवाद मूल अंग्रेज़ी में बड़ा जनतांत्रिक था उसकी प्रकृति हिन्दी अनुवाद में बिल्कुल बदल गई थी और वो एक खांटी ’एंटी-वुमन’ संवाद लग रहा था.



चेतावनी – आप चाहें तो आगे की कुछ पंक्तियाँ छोड़ कर आगे बढ़ सकते हैं. मैं बात समझाने के लिए आगे दोनों संवादों को उद्धृत कर रहा हूँ.

(Ye shadi nahi ho sakti. because this girl given me a BJ and being a 21st century man I also given her oral pleasure.)



(ये शादी नहीं हो सकती. क्योंकि इस लड़की ने मेरा चूसा है और बदले में मैंने भी इसकी ली है.)

इसी ज़मीन से उपजे कुछ मूल सवाल हैं जिनके जवाब मैं खुले छोड़ता हूँ आगे आपकी तलाश के लिए…


  • क्या ऐसा इसलिए होता है कि सिनेमा बनाने वाले तमाम लोग अब अंग्रेज़ी में सोचते हैं और अंग्रेजी में लिखे गए संवादों को ’आम जनता’ के उपयुक्त बनाने का काम कुछ अगंभीर और भाषा का रत्ती भर भी ज्ञान न रखने वाले सहायकों पर छोड़ दिया जाता है? क्या हमें सच में ऐसे असंवेदनशील अनुवादों की आवश्यकता है?


  • या यह एक सोची समझी चाल है. हिन्दी पट्टी के दर्शकों को लेकर सिनेमा ने एक ख़ास सोच बना ली है और ठीक वैसे जैसे ’इंडिया टुडे’ एक ही कवर स्टोरी का सुरुचिपूर्ण मुख्य पृष्ठ हिन्दी के पाठकों की ’सौंदर्याभिरुचि’ को देखते हुए बदल देती है, यह भी जान-समझ कर की गई गड़बड़ी है? यह मानकर कि हिन्दी का दर्शक बाहर चाहे कितनी गाली दे, भीतर ऐसे संवाद को इस बदले अंदाज़ में ही पसन्द करेगा? यह दृष्टि फ़िल्म के उन प्रोमो से भी सिद्ध होती है जहाँ इस संवाद को हमेशा आधा ही उद्धृत किया गया है.


  • क्या हमारी वर्तमान हिन्दी भाषा में वो अभिव्यक्ति ही नहीं है जिसके द्वारा हम ऊपर उद्धृत वाक्य के दूसरे हिस्से का ठीक हिन्दी अनुवाद कर पाएं?



भाषा का विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए आखिरी सवाल सबसे डरावना है. मैं चाहता हूँ कि कहीं से कोई आचार्य ह़ज़ारीप्रसाद द्विवेदी का शिष्य फिर निकलकर सामने आए और मुझे झूठा साबित कर दे. फिर कोई सुचरिता बाणभट्ट को याद दिलाए, “मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है. यह नारायण का पवित्र मंदिर है. पहले इस बात को समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता. गुरु ने मुझे अब यह रहस्य समझा दिया है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता समझ लेता आर्य?”


(courtesy: http://mihirpandya.com)

Thursday, March 17, 2011

Invitation for 6th Gorakhpur Film Festival

आधी दुनिया के संघर्षों की शताब्दी और लेखक- पत्रकार अनिल सिन्हा की स्मृति को समर्पित होगा प्रतिरोध का सिनेमा का छठा गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल

गोरखपुर. मार्च १३, २०११.प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का सोलहवां और गोरखपुर का छठा फिल्म फेस्टिवल इस बार आधी दुनिया के संघर्षों की शताब्दी और लेखक- पत्रकार अनिल सिन्हा की स्मृति को समर्पित होगा. यह वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का शताब्दी वर्ष है. इस मौके बहाने इस बार गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में महिला फिल्मकारों और महिला मुद्दों को ही प्रमुखता दी जा रही है. इसके अलावा जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य और लेखक-पत्रकार अनिल सिन्हा सिन्हा स्मृति को भी छठा फेस्टिवल समर्पित है. गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल से ही पहले अनिल सिन्हा स्मृति व्याख्यान की शुरुआत होगी. पहला अनिल सिन्हा स्मृति व्याख्यान फेस्टिवल के दूसरे दिन २४ मार्च को शाम मशहूर भारतीय चित्रकार अशोक भौमिक "चित्तप्रसाद और भारतीय चित्रकला की प्रगतिशीलधारा" पर देंगे.
२३ मार्च की शाम को ५ बजे प्रमुख नारीवादी चिन्तक उमा चक्रवर्ती के भाषण से फेस्टिवल की शुरुआत होगी.
पांच दिन तक चलने वाले छठे गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में इस बार १६ भारतीय महिला फिल्मकारों की फिल्मों को जगह दी गयी है. इन फिल्मकारों में से इफ़त फातिमा, शाजिया इल्मी, पारोमिता वोहरा और बेला नेगी समारोह में शामिल भी होंगी. छठे गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल को पिछले फेस्टिवल की तरह ही इस बार फिर दो नयी फिल्मों के पहले प्रदर्शन का गौरव हासिल हुआ है. ये फिल्में हैं - नितिन के की कवि विद्रोही की कविता और जीवन को तलाशती "मैं तुम्हारा कवि हूँ "और दिल्ली शहर और एक औरत के रिश्ते की खोज करती समीरा जैन की फिल्म "मेरा अपना शहर" . बेला नेगी की चर्चित कथा फिल्म "दायें या बाएं" से फेस्टिवल का समापन होगा.
इस बार के फेस्टिवल के साथ-साथ दूसरी कला विधाओं को भी प्रमुखता दी गयी है. अशोक भौमिक के व्याख्यान के अलावा उदघाटन वाले दिन उमा चक्रवर्ती पोस्टरों के अपने निजी संग्रह के हवाले महिला आन्दोलनों और राजनैतिक इतिहास के पहलुओं को खोलेंगी. मशहूर कवि बल्ली सिंह चीमा और विद्रोही का एकल काव्य पाठ फेस्टिवल का प्रमुख आकर्षण होगा. पटना और बलिया की सांस्कृतिक मंडलियाँ हिरावल और संकल्प के गीतों का आनंद भी दर्शक ले सकेंगे. महिला शताब्दी वर्ष के खास मौके पर हमारे विशेष अनुरोध पर संकल्प की टीम ने भिखारी ठाकुर के ख्यात नाटक बिदेशिया के गीतों की एक घंटे की प्रस्तुति तैयार की है. बच्चों के सत्र में रविवार के दिन उषा श्रीनिवासन बच्चों को चाँद -तारों की सैर करवाएंगी. फिल्म फेस्टिवल में ताजा मुद्दों पर बहस शुरू करने के इरादे से इस बार भोजपुरी सिनेमा के ५० साल और समकालीन मीडिया की चुनौती पर बहस के दो सत्र संचालित किये जायेंगे. इन बहसों में देश भर से पत्रकारों के भाग लेने की उम्मीद है.
गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल से ही २००६ में प्रतिरोध का सिनेमाका अभियान शुरू हुआ था. पांच वर्ष फिर से गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल ने ही इस बार एक महत्वपुर्ण पहलकदमी ली है. यह पहल है देश भर में स्वंतंत्र रूप से काम कर रही फिल्म सोसाइटियों के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन की. फेस्टिवल के दूसरे दिन इन सोसाइटियों का पहल सम्मेलन होगा जिसमे प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के बारे में महत्वपूर्ण विचार विमर्श होगा और के राष्ट्रीय नेटवर्क का निर्माण भी होगा.इरानी फिल्मकार जफ़र पनाही के संघर्ष को सलाम करते हुए उनकी दो महत्वपूर्ण कथा फिल्मों ऑफ़साइड और द व्हाइट बैलून को फेस्टिवल में शामिल किया गया है. गौरतलब है कि इरान की निरंकुश सरकार ने जफ़र पनाही के राजनैतिक मतभेद के चलते उन्हें ६ साल की कैद और २० साल तक किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगा दी है. प्रतिरोध का सिनेमा की मूल भावना का सम्मान करते हुए इस बार का फेस्टिवल भी स्पांसरशिप से परे है और पूरी तरह जन सहयोग के आधार पर संचालित किया जा रहा है. आयोजन गोकुल अतिथि भवन,सिविल लाइंस, गोरखपुर में सम्पन्न होगा . आयोजन में शामिल होने के लिए किसी भी तरह के प्रवेश पत्र या औपचारिकता की जरुरत नही है. आप सब सपरिवार सादर आमंत्रित हैं. सलंग्न फ़ाइल में फेस्टिवल का विस्तृत विवरण देखें. आपके सहयोग की उम्मीद में.

रामकृष्ण मणि त्रिपाठीअध्यक्ष, छठा गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल आयोजन समिति

Monday, March 14, 2011

80th Anniversary of Alam Ara

- NDFS Desk

14th March is a special day for the Indian film industry. This is the day when first Indian talkies Alam Ara was released in 1931. As mentioned at IMDB It was a period fantasy of the ageing king of Kamarpur, and his two rival queens, Navbahar and Dilbahar, and their rivalry when a fakir predicts that Navbahar will bear the king's heir. Dilbahar unsuccessfully tries to seduce the army chief Adil (Vithal) and vengefully destroys his family, leaving his daughter Alam Ara (Zubeida) to be raised by nomads. Eventually, Alam Ara's nomad friends invade the palace, expose Dilbahar's schemes, release Adil from the dungeon and she marries the prince of the realm.

Google also salutes Indian Film Industry and reminds us this historic date by putting a wonderful and most visible image from the film. NDFS blog has earlier published a piece on Alam Ara as excerpts of a wonderful book on Alam Ara written by Sharad Dutt. We will soon publish part 2 of that wonderful article. Till then go to archives and enjoy that piece on making of Alam Ara.

Tuesday, March 1, 2011

83rd Academy Awards

-NDFS Desk

It was a big night at the 2011 Oscars held at the Kodak Theater on Sunday (February 27) in Los Angeles. The big winners of the night were The King’s Speech, Inception, and The Social Network. The King’s Speech took home the award for Best Picture. Colin Firth picked up the award for Best Actor and Natalie Portman went home with the award for Best Actress!
Here is the complete list of the winners and the nominees for 83rd Oscar Awards:

Best Motion Picture of the Year
Black Swan
The Fighter
Inception
The Kids are All Right
The King’s Speech - WINNER
The Social Network
127 Hours
Toy Story 3
True Grit
Winter’s Bone

Performance by an Actress in a Leading Role
Annette Bening (The Kids are All Right)
Nicole Kidman (Rabbit Hole)
Jennifer Lawrence (Winter’s Bone)
Natalie Portman (Black Swan) - WINNER
Michelle Williams (Blue Valentine)

Performance by an Actor in a Leading Role
Javier Bardem (Biutiful)
Jesse Eisenberg (The Social Network)
Colin Firth (The King’s Speech) - WINNER
James Franco (127 Hours)
Jeff Bridges (True Grit)
Performance by an Actor in a Supporting Role
Christian Bale (The Fighter) - WINNER
John Hawkes (Winter’s Bone)
Jeremy Renner (The Town)
Mark Ruffalo (The Kids are All Right)
Geoffrey Rush (The King’s Speech)

Performance by an Actress in a Supporting Role
Amy Adams (The Fighter)
Helena Bonham Carter (The King’s Speech)
Melissa Leo (The Fighter) - WINNER
Hailee Steinfeld (True Grit)
Jacki Weaver (Animal Kingdom)
Best Animated Feature Film of the Year
How to Train Your Dragon
The Illusionist
Toy Story 3 - WINNER
Best Documentary Short Subject
Killing in the Name
Poster Girl
Strangers No More - WINNER
Sun Come Up
The Warriors of Qiugang

Best Short Film (Animated)
Day & Night
The Gruffalo
Let’s Pollute
The Lost Thing - WINNER
Madagascar, carnet de voyage (Madagascar, a Journey Diary)

Best Short Film (Live Action)
The Confession
The Crush
God of Love - WINNER
Na Wewe
Wish 143
Achievement in Art Direction
Alice in Wonderland - WINNER
Harry Potter and the Deathly Hallows Part 1
Inception
The King’s Speech
True Grit

Achievement in Cinematography
Black SwanInception - WINNER
The King’s Speech
The Social Network
True Grit

Achievement in Costume Design
Alice in Wonderland - WINNER
I Am Love
The King’s Speech
The Tempest
True Grit

Achievement in Directing
Darren Aronofsky (Black Swan)
David O. Russell (The Fighter)
Tom Hooper (The King’s Speech) - WINNER
David Fincher (The Social Network)
Joel and Ethan Coen (True Grit)

Best Documentary Feature
Exit through the Gift Shop
Gasland
Inside Job - WINNER
Restrepo
Waste Land

Achievement in Makeup
Barney’s Version
The Way Back
The Wolfman - WINNER

Achievement in Film Editing
Black Swan
The Fighter
The King’s Speech
127 Hours
The Social Network - WINNER

Best Foreign Language Film of the Year
Biutiful (Mexico)
Dogtooth (Greece)
In a Better World (Denmark) - WINNER
Incendies (Canada)
Hors la Loi (Algeria)

Achievement in Music Written for Motion Pictures (Original Score)
How to Train Your Dragon
Inception
The King’s Speech
127 Hours
The Social Network - WINNER

Achievement in Music Written for Motion Pictures (Original Song)
“Coming Home” from Country Strong
“I See the Light” from Tangled
“If I Rise” from 127 Hours
“We Belong Together” from Toy Story 3 - WINNER

Achievement in Sound Editing
Inception - WINNER
Toy Story 3
TRON: Legacy
True Grit
Unstoppable

Achievement in Sound Mixing
Inception - WINNER
The King’s SpeechSalt
The Social Network
True Grit

Achievement in Visual Effects
Alice in Wonderland
Harry Potter and the Deathly Hallows: Part 1
Hereafter
Inception - WINNER
Iron Man 2

Adapted Screenplay
127 Hours (Simon Beaufoy and Danny Boyle)
The Social Network (Aaron Sorkin) - WINNER
Toy Story 3 (Michael Arndt, story by John Lasseter, Andrew Stanton and Lee Unkrich)
True Grit (Joel Coen and Ethan Coen)
Winter’s Bone (Debra Granik and Anne Rossellini)

Original Screenplay
Another Year (Mike Leigh)
The Fighter (Paul Attanasio, Lewis Colich, Eric Johnson, Scott Silver and Paul Tamasy)
Inception (Christopher Nolan)
The Kids are All Right (Stuart Blumberg and Lisa Cholodenko)
The King’s Speech (David Seidler) - WINNER

Friday, February 18, 2011

‘Flames of the Snow’ on silver screen

- Sudeshna Sarkar/ (Courtesy: IANS)

(This is probably for the first time in Asia, when a documentary film has got a big commercial release with 42 screens.)

Kathmandu, Feb 17 (IANS) It was an unusual scene in Kathmandu Thursday with two top leaders of Nepal's Maoist party - chairman and former prime minister Pushpa Kamal Dahal Prachanda and his deputy Baburam Bhattarai - heading for a posh cinema early in the morning when the party remained in consultations to name its new ministers.
'It is especially important to us,' Prachanda told IANS at the premiere of 'Flames of the snow', a nearly two-hour documentary chronicling the rise of the pro-democracy movement in Nepal from the 19th century and culminating in the abolition of monarchy in 2008.
'This documentary is based on the People's War fought by our party.'
For the first time in Nepal, a documentary will be screened commercially across 42 theatres, marking a landmark in the republic's celluloid history.
It is the brainchild of Indian journalist Anand Swaroop Verma, who is associated with the leftist political movement in India, and directed by Ashish Srivastav, a New Delhi-based commercial film maker.
'The People's War of Nepal does not belong to Nepal alone,' said Verma. 'It belongs to every country where there is repression and struggle against it. The Maoist movement in Nepal was never truly represented. There was a calculated misinformation campaign against it. So we felt this was a story that needed to be told.'
The documentary, produced by India's Third World Media in collaboration with Nepal's GRINSO, traces the long and blood-drenched pro-democracy struggle against three regimes: the Shah kings of Nepal who ruled the country for 240 years, the repressive Rana prime ministers who reduced the kings to puppets for 104 years, and a succession of 12 governments in 13 years who sought to put down people's protests by force.
The revolt that started with peasant leader Lakhan Thapa in 1876 did not end with his hanging but continued in 1950 and 1990, finally becoming the Maoists' People's War that raged on for 10 years from 1996.

Starting with the fateful Friday night when a family dinner in Nepal's royal palace in June 2001 turned into a massacre, leading to the death of the king, queen and eight more royals, the documentary ends with the sun setting on the Shah dynasty May 28, 2008 when an elected parliament formally abolished monarchy and ordered the deposed king to vacate the palace so that it could become a national museum.
Weaving in interviews with Prachanda, Bhattarai, deputy commanders of the Maoists' People's Liberation Army and its fighters, 'Flames of the Snow' offers a rare insight into the reason that made Dahal, a poor farmer's son, become the mighty Prachanda, whose name is now an inspiration to communist movements worldwide.
'Prachanda was born near a stream in the field we used to farm,' says his father Mukti Ram Dahal, a farmer on southern Chitwan district. 'That will tell you how poor we were.'
As a young boy, Prachanda remembers following his father to the Narayangarh market and there, watching in helpless anger his father being abused and beaten up by landlords.
The impulse to avenge it shaped him as a rebel, though, as the movement snowballed, he says the individual emotion became an ideology.
'I realised (the repression of the poor by the rich) was not an isolated incident,' he says. 'It was everywhere in society. We have to change society...'
Though an uncritical praise of the Maoist movement, that had its dark side too, the film highlights one undoubted achievement: the emancipation of women from the villages and Dalit community, who were given a voice and treated as equals.
'If thousands of women had not joined the movement from the villages, it would not be where it is now,' Prachanda admits.
In the three years since then, Nepal has undergone further changes and the Maoists are now regarded as power-mongering and growing indifferent to people's woes.
Verma defends the documentary, saying that the revolution is still on.
'Only one phase is over with the People's War,' he says. 'There are ups and downs in every movement.'


Watch theatrical trailer of 'Flames of the snow '

http://www.youtube.com/watch?v=2rcyjGAmRng

Wednesday, October 6, 2010

Third Eye Film Fest to honour Shyam Benegal


-NDFS Desk

The ninth Third Eye Asian Film Festival to be held in Mumbai from 29 October to 4 November will felicitate renowned filmmaker Shyam Benegal with the Asian Film Culture award. The award honours the achievements of Asian directors and is given each year to the master of Asian cinema.Iraqi film SON OF BABYLON, which won the Best Movie Award at the Karlovy Vary International Film Festival in July this year, will open the festival. Said Festival director Sudhir Nandgaonkar, that in the last twenty years, Asian cinema has gained immense popularity by winning top awards at world's important film festivals. He said to recognise the talent and films made by Asian directors, the festival has organised ‘director's first or second film’ competition.The director must have debuted with the film not before one year of the festival. The competition would be adjudged by an international jury. Six films by Mrinal Sen would be screened this year under the Asian Masters section.The festival that will showcase 80 films and 50 short films from Asian countries will be held in Plaza in Dadar (central Mumbai), Y.B. Chavan Centre (Nariman Point in south Mumbai) and Fame Adlabs (Andheri).The festival will close with the screening of Marathi film MEE SINDHUTAI SAPKAL, based on a true story of a village woman's journey to overcome the adversities of life through her good deeds.

Saturday, September 25, 2010

'Peepli Live' is India's entry at Oscars

- NDFS Desk

‘Peepli Live’, the Hindi film directed by debutant director Anusha Rizvi and produced by actor Aamir Khan, will be India's official entry to this year's Academy Awards (Oscar) in the Best Foreign Language Film category.
Announcing this at a press meet here on Friday, selection committee chairman K.S. Sethumadhavan said: “Peepli Live is a reflection of India's culture and ethos, even as it highlights the burning problem-farmer suicides.” “During the selection process, Tamil movie Angadi Theru competed closely and we considered various criteria before selecting Peepli Live,” Film Federation of India president L. Suresh said. Calling Peepli Live a ‘social satire,' producer-director Ravi Kottarakara said it brought out the pain of poverty. The subtle humour, which runs throughout the film, sends across the message of social awareness in a far more effective way than a melancholic film would, he added.

The selection committee comprised 15 members, including directors S. Krishnaswamy, Jayaraj and Sekhar Das, sound recordist S.K. Srivastava, writers G. Neelakanta Reddy and C.G. Rajendra Babu, music director Gangai Amaran, and costume designer Anu Vishnu.
Five Tamil films- Singam, Madharasapattinam, Angadi Theru, Raavanan and Vinnaithandi Varuvaaya - were among the 27 films initially shortlisted. Paa, Raajneeti, My Name is Khan, 3 Idiots and Pazhassi Raja also made it to the list.

Peepli Live is about farmer suicides in the country and talks about how the media and politicians handle the issue. Anusha, the Director and Mahmood Farooqui, the film’s Co Director and Casting Director too, shared their feelings with new delhi film society blog, and wrote - “Its very nice that the film has been selected for the oscars from india, but there is a long way to go for the nomination yet. Of course its good that more people will see it now, but for us the most satisfactory thing was that people in india, especially in the hindi belt and in smaller towns enjoyed the film. No joy can be compared to that.”

Wednesday, September 22, 2010

Planning Commission gets taste of 'Peepli Live'


- NDFS Desk

It is possibly unprecedented in the history of the Planning Commission to make its officials watch Bollywood movie 'Peepli Live' to sensitise its members about the common man's perception of major government programmes, which they so meticulously plan and approve. The top brass of the Plan panel, led by deputy chairman Montek Singh Ahluwalia, today watched the movie.
Peepli Live has earned praise for aptly depicting the apathy of the bureaucracy, local politicians and a TRP-conscious media to the plight of a debt-ridden peasant who had pledged to commit suicide after failing to repay the loan he had taken for tilling his land. "Since the film talks about the perception of people on the development programmes and so on, we thought this will be quite useful for the Commission's officers to see the film," Ahluwalia said while proceeding to watch the special screening of the film. Talking about the need for a special screening of the film, Ahluwalia said this kind of initiative should enlighten the panel's experts to gauge the impression people have about development schemes. Sources said the Commission would soon begin a comprehensive review of the schemes and do a real time stock taking of their performance. Ahluwalia's assertions come in the midst of the Commission readying itself to draft the 12th five year plan in its quest to broadbase it and make it more common-man centric.
"We were not looking for answers. They will keep coming gradually. All we wanted that people should react and think about the plight of common man," writer-director Anusha Rizvi said, while talking about the reactions of the officers of the Commission.

Monday, September 20, 2010

तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010




तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010

प्रतिरोध का सिनेमा
8, 9 व 10 अक्तूबर 2010

वाल्मीकि रंगशाला (उ0 प्र0 संगीत नाटक अकादमी), गोमती नगर, लखनऊ

मित्रों,

कला माध्यमों से यह उम्मीद की जाती है कि वे हमारे समाज और जीवन की सच्चाइयों को अभिव्यक्त करें। सिनेमा आधुनिक कला का सबसे सशक्त और लोकप्रिय कला माध्यम है। लेकिन इस कला माध्यम पर बाजारवाद की शक्तियाँ हावी हैं। मुम्बइया व्यवसायिक सिनेमा द्वारा जिस संस्कृति का प्रदर्शन हो रहा है, वह जनचेतना को विकृत करने वाला है। सेक्स, हिंसा, मारधाड़ इन फिल्मों की मुख्य थीम है। यहाँ भारतीय समाज की कठोर सच्चाइयाँ, जनता का दुख.दर्द, हर्ष.विषाद और उसका संघर्ष व सपने गायब हैं। आज दर्शक विकल्प चाहता है। वह ऐसी फिल्में देखना चाहता है जो न सिर्फ उसका मनोरंजन करें बल्कि उसे गंभीर, संवेदनशील, जागरुक व जुझारू बनाये। दर्शकों की इसी इच्छा, आकांक्षा ने प्रतिरोध के सिनेमा या जन सिनेमा आन्दोलन को जन्म दिया है। जन सिनेमा के सिलसिले को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से हमने लखनऊ में 2008 से फिल्म समारोह के आयोजन द्वारा एक छोटी सी शुरूआत की है जिसकी अगली कड़ी के रूप में तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव 2010 का आयोजन किया जा रहा है। जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित यह उत्सव 8, 9 व 10 अक्तूबर 2010 को वाल्मीकि रंगशाला, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर, लखनऊ में होगा। तीन दिनों तक चलने वाले इस फिल्म उत्सव में करीब एक दर्जन से अधिक देशी, विदेशी वृतचित्रों और फीचर फिल्मों का प्रदर्शन होगा। आप हमारी ताकत हैं। आपके सक्रिय सहयोग की हमें जरूरत है। आप अपने परिवार व दोस्तों के साथ आयें, फिल्में देखें और इस आयोजन को सफल बनानें में अपना हर संभव सहयोग प्रदान करें, हमारी आपसे अपील है।

निवेदक: कौशल किशोर
संयोजक, जन संस्कृति मंच,
लखनऊ कार्यालय: एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मो - 09807519227, 09415220306, 09415568836, 09415114685

Friday, September 17, 2010

57th National Film Awards: Kutty Srank best film, Bachchan best actor


- NDFS Desk

Best Film: Shaji Karun’s Kutty Srank, the Sailor of Hearts (Malayalam)
Best Direction: Rituparno Ghosh for Abohoman (Bengali)
Best Actor: Amitabh Bachchan in Paa
Best Actress: Ananya Chatterjee in Abohoman
Indira Gandhi Award for the Best Debut Film of a Director: Lahore (Hindi) by Sanjay Puran Singh Chauhan
Best Popular Film Providing Wholesome Entertainment: 3 Idiots
Nargis Dutt Award for Best Feature Film on National Integration: Delhi 6

The complete award list is here : http://www.pib.nic.in/newsite/erelease.aspx?relid=65776

Sunday, September 5, 2010

दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल

-NDFS Desk

प्रिय मित्रों ,
दूसरे नैनीताल फिल्म फेस्टिवल संबंधी सूचना भेज रहा हूँ. मेहरबानी करके इसे अन्य जगहों पर भी प्रकाशित करवाने का प्रयास करें. नैनीताल में सितम्बर के महीने में मौसम सुहावना रहता है लेकिन फिर भी गरम कपड़ों की जरुरत पड़ सकती है. सस्ते और सुन्दर होटल के लिए आप फेस्टिवल के संयोजक ज़हूर आलम से बात कर सकते हैं या खुद भी internet के जरिये अच्छे विकल्प तलाश सकते हैं. फेस्टिवल 24 सितम्बर को दुपहर में 3.30 बजे शुरू होगा. उस दिन वसुधा जोशी की अल्मोड़े के दशहरे पर केन्द्रित डाक्यूमेंटरी अल्मोडियाना और बेला नेगी की पहाड़ के जीवन पर आधारित फीचर फ़िल्म दायें या बाएं का प्रदर्शन होगा. इस फ़िल्म में हाल ही में दिवंगत गिर्दा का भी जीवंत अभिनय है. अगले दोनों दिन यानि 25 और २६ सितम्बर को फेस्टिवल सुबह 10.30 बजे से शुरू होकर रात 9 बजे तक चलेगा .
आपके सहयोग की आकांक्षा में,

संजय जोशी
दूसरे नैनीताल फिल्म फेस्टिवल के लिए


दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल
२४ से २६ सितम्बर, २०१०
शैले हाल, नैनीताल क्लब, मल्लीताल, नैनीताल, उत्तराखंड
गिर्दा और निर्मल पांडे की याद में युगमंच और द ग्रुप, जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित
प्रमुख आकर्षण :
फीचर फिल्म:
दायें या बायें (निर्देशिका: बेला नेगी), खरगोश(निर्देशक: परेश कामदार), छुटकन की महाभारत (निर्देशक: संकल्प मेश्राम)
डाक्यूमेंटरी:
वसुधा जोशी की फिल्मों पर ख़ास फोकस ( फिल्में : अल्मोडियाना, फॉर माया, वायसेस फ्राम बालियापाल)जश्ने आज़ादी (निर्देशक: संजय काक), कित्ते मिल वे माह़ी (निर्देशक: अजय भारद्वाज ), फ्राम हिन्दु टू हिन्दुत्व (निर्देशक: देबरंजन सारंगी ), आई वंडर ( निर्देशिका: अनुपमा श्रीनिवासन ), अँधेरे से पहले (निर्देशक: अजय टी जी ) और मेकर्स ऑफ़ दुर्गा (निर्देशक: राजीव कुमार).

अन्य आकर्षण :
प्रयाग जोशी का सम्मान, बी मोहन नेगी के चित्रों और कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, अफ्रीका के जन जीवन पर पत्रकार राजेश जोशी का व्याख्यान -प्रदर्शन , युगमंच के बाल कलाकारों द्वारा लघु नाटक, तरुण भारतीय और के मार्क स्वेअर द्वारा संयोजित म्यूजिक विडियो का गुलदस्ता, लघु फिल्मों का पैकेज,फिल्मकारों के साथ सीधा संवाद और फैज़, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और गिर्दा की कविताओं के पोस्टरों का लोकार्पण .
ख़ास बात: यह आयोजन पूरी तरह निशुल्क है . फिल्म फेस्टिवल में प्रवेश के लिए किसी भी तरह के औपचारिक आमंत्रण की जरुरत नहीं है.

संपर्क:
ज़हूर आलम ,
संयोजक , दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल
इन्तखाब, मल्लीबाज़ार, मल्लीताल,
नैनीताल,
उत्तराखंड
फ़ोन: 09412983164, 05942- 237674
संजय जोशी,
फेस्टिवल निदेशक, दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल
C-303 जनसत्ता अपार्टमेंट्स , सेक्टर 9, वसुंधरा
गाज़ियाबाद , उत्तर प्रदेश -201012
फ़ोन: 09811577426, 0120-4108090