Note:

New Delhi Film Society is an e-society. We are not conducting any ground activity with this name. contact: filmashish@gmail.com


Thursday, February 7, 2013

Genre-ama: In February, at the Korean Cultural Centre


The Yeonghwa Film Club at the Korean Cultural Centre India explores the varied landscape of South Korean cinema through a selection of four films from four different genres. The films include both mainstream blockbusters and independent success stories that present fresh perspectives on established genres.
This Friday the Yeonghwa Film Club will be screening Daytime Drinking (2008), a deadpan comedy about three friends who go on a road trip.

Daytime Drinking (Natsul )
Noh Young-seok, 2008, 115 min

Date and time: 8th February at 6:30 PM

Synopsis: On a drunken night out with his friends, a broken-hearted young man is swayed into going to the countryside with them for a getaway. But when he gets there, he finds that not only have none of them showed up, but the tiny seaside town is shuttered - no shops are open, no tourists are around, the beach is freezing, and there’s no cell phone signal. Unable (and reluctant) to return to Seoul, he finds himself in the company of some very unusual locals and, subject to the rigid rules of 
Korean drinking culture, on an increasingly strange odyssey nursing a never-ending hangover. Shot on HD for $10,000, this dry, minimalist comedy heralded a new era of independent filmmaking in Korea.

(courtesy: Korean Cultural Centre)

Monday, January 21, 2013

Documentary based on Kanpur power crisis selected for Berlin Film Festival



A documentary film ‘Powerless’ based on the backdrop of Kanpur is selected for Berlin Film Festival. This film, already much acclaimed in the international circuit, is based on the power crisis of Kanpur district of Uttar Pradesh.

Watch the trailer here: 


The director of the film Fahad Mustafa’s first feature-length documentary ‘FC Chechnya’ was premiered at the 2010 ‘This Human World Film Festival’ in Vienna and won the Audience Award for Best Film. Born in Kanpur Fahad has lived, studied and worked in India, the Middle East, Europe and the United States. Previously, Fahad was a researcher with the UN Special Rapporteur on Torture, and a freelance writer on energy and development issues in India. He was also Assistant Director of Hot as Hell (2006), a documentary on underground fires that plague coal mines in India.
The Co-Director/Producer of the film Deepti Kakkar has worked on several projects in the field of sustainable livelihood development focusing on South Asia, with international NGOs and research groups. She was an Erasmus Mundus Scholar and has previously directed a film on microfinance in India for CARE. Deepti worked on story-development and as production manager on FC Chechnya.

Sunday, January 20, 2013

उस पैसे के गजक खा लीजिए, इन्कार देखने मत जाइए...


 Vineet Kumar is a renowned blogger and media analyst. He seems to be quite disappointed with the time and money he wasted in watching Sudhir Mishra’s new film Inkaar. Read why…

देख ली फिल्म इन्कार. इसके नाम में आचार्य कुंतक का वक्रोक्ति अलंकार है. मतलब सब जगह सब स्वीकार है लेकिन फिल्म का नाम इन्कार है, अब आप इसके भीतर के अर्थ मथते रहिए. सुधीर मिश्रा ने स्त्री-पुरुष को समान रुप से चरित्र प्रमाण पत्र जारी करने या क्लीन चिट देने का काम किया है जो शायद आपको बंडल भी लगे. फिल्म देखते हुए आपके मन में ये सवाल बार-बार उठेंगे कि क्या ये वही सुधीर मिश्रा हैं जिन्होंने कभी हजारों ख्वाहिशें ऐसी बनायी थी. हालांकि अभी इस फिल्म को लेकर जजमेंटल होना जल्दीबाजी होगी लेकिन इतना जरुर है कि खासकर इंटरवल के बाद जब आप फिल्म देखेंगे तो लगेगा कि किसी ने जबरद्स्ती उनसे फिल्म छीन ली हो और मनमानी तरीके से निर्देशित कर दिया हो. गौर करने पर बल्कि इस दिशा में रिसर्च किया जाना चाहिए कि बॉलीवुड में सुधीर मिश्रा जैसे समझदार और सम्मानित निर्देशक अपनी तमाम काबिलियित औऱ बारीकियों के बावजूद बाजार के किस मुहाने पर जाकर दवाब में आ जाते हैं..इन फिल्मकारों ने व्यावसायिक फिल्मों के बरक्स थोड़ी ही सही लेकिन हार्डकोर ऑडिएंस पैदा की है जो कि ऐसी फिल्म से बुरी तरह निराश होती है.
दूसरा कि अगर आपने हजारों, खोया-खोया चांद जैसी फिल्में देखी हो तो लगेगा कि सुधीर मिश्रा के पास ग्रेवी बनाने के लिए सॉस औऱ मसाले बहुत ही सीमित है. यही वजह है कि एड एंजेंसी और सेक्सुअल ह्रासमेंट जैसे गंभीर मसले पर फिल्म बनाते हुए भी वही पुराने सॉस इस्तेमाल कर जाते हैं. प्लॉट में नयापन के बावजूद अलग बहुत कम लगता है. कई जगहों पर छात्र की उस उबाउ कॉपी की तरह जिसमें सवाल चाहे कुछ भी किए जाएं, वो पहली लाइन लिखेगा- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. बहरहालअगर आप रिलेशनशिप में रहे हों या मामला टू वी कन्टीन्यूड है तो लगेगा कि फिल्म का बड़ा हिस्सा नार्मल है जिसे सुधीर जबरदस्ती इन्टलेक्चुअल फ्लेवर देने के चक्कर में उबाउ बनाने लग जाते हैं. केस की सुनवाई करती दीप्ति नवल दूरदर्शन समाचार वाचिका की याद दिलाती है. एक बात और कि जब आप मधुर भंडारकर की फैशन, कार्पोरेट, पेज थ्री जैसी फिल्में देखते हैं तो उसकी ट्रीटमेंट से सहमत-असहमत होते हुए भी उन आधारित इन्डस्ट्री के प्रति एख ठोस समझ बना पाते हैं, कम से कम सूचनात्मक और जानकारी के स्तर पर तो जरुर ही. लेकिन एड एजेंसी औऱ विज्ञापन की दुनिया को लेकर सुधीर मिश्रा का गंभीर रिसर्च नहीं रहा. ऐसा लगा कि देश में यौन उत्पीड़न का मामला गर्म है तो इसे अधपके तरीके से ही फाइनल करके मार्केट में उतार दो. मेले में जैसे लड्डू,चाट की क्वालिटी नही, उसकी उपलब्धता मायने रखती है, वैसे ही कुछ-कुछ. इन दिनों में विज्ञापन और उसकी दुनिया पर किताबें पढ़ रहा हूं. अमूल से लेकर मैकडोनॉल्ड तक के ब्रांड बनने की कथा और मैक्स सथरलैंड,जी बौद्रिआं,डार्थी कोहन की विज्ञापन,कन्ज्यूमर कल्चर पर लिखी किताबों से गुजर रहा हूं. इसी बीच इस फिल्म को आनन-फानन में देखना इसलिए भी जरुरी समझा कि शायद कोई मदद मिलेगी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. इस दुनिया को समझने की बहुत ही कम मेहनत की गई है.

आप अपने लोग हैं. मैं नहीं कहता कि मेरे कहने पर राय कायम करें लेकिन ये जरुर है कि बाजार में बहुत बढ़िया क्वालिटी की गजक, तिल पापड़ी उतरे हैं. गाजर का हलवा से लेकर मूंग दाल के लड्डू हैं..उनका मजा लीजिए..इस फिल्म की 30 में चार फिल्में वाली सीडी लाकर देख लें, पीवीआर में जाएंगे तो साथ अफसोस होगा. सुधीर मिश्रा,मधुर भंड़ारकर एक ब्रांड हो सकते हैं लेकिन इन ब्रांडों पर मार्केटिंग का जबरदस्त जाला लग चुका है. मैं तो पर्सनली निराश होकर लौटा.

सौजन्य: हुंकार ब्लॉग

मटरू की बिजली का मंडोला


Fusion of entertainment and being socially relevant with sensibility is undoubtedly very sensible genre of cinema for a society/country like ours, but at the same time it’s very challenging too. Vishal Bhardwaj’s latest flick qualifies for the same genre, but people are finding it to be a miss. Here is how a young viewer looks at the movie. Read what Vinay Singh thinks about the movie, Vinay is a young television journalist and has just started his career.

मटरू की बिजली का मंडोला: फ़िल्म को देखने के बाद मेरा मूड तो ज़रा भी नहीं था इस पर कुछ लिखकर अपना समय व्यर्थ करने का मगर मेरे एक मित्र के कहने पर मैंने सोचा कि कुछ लिखना तो बनता है।
अपनी ज़िन्दगी में हम सब कभी किसी एक किरदार में नहीं रहते..घर में हम किसी किरदार मे होते हैंदफ़्तर में हम किसी दूसरे किरदार में होते हैंदोस्तों के साथ हम एक फक्कड़ अंदाज़ में होते हैंकिसी महिला मित्र के साथ हम थोड़े संजीदे किरदार में होते हैं..कहने का मतलब बस इतना है कि अपनी ज़रूरत के अनुसार हम अपने किरदार में होते हैं और उसे बख़ूबी निभाते भी हैं।
 विशाल भारद्वाज ने भी अपनी नयी फ़िल्म मटरू की बिजली का मंडोला में यही प्रयोग किया हैऔर अपने मुख्य किरदारों को दोहरे चरित्र में पेश किया है फिर चाहे वो हैरी (पंकज कपूर) हो जो गुलाबो (देशी शराब) पी कर हरिया के किरदार में समा जाता है या फिर वो हुकम सिंह मटरू (इमरान ख़ान) हो जो गाँव वालों की मदद करने की ख़ातिर माओत्से तुंग बन कर आता है। मटरू और हैरी तो किसी कारणवश माओ और हरिया के किरदारों को पहनते हैं मगर चौधरी देवी (शबाना आज़मी) और उनका बेटा बादल (आर्य बब्बर) अपने स्वार्थ के लिये दोहरा चरित्र अपनाते हैं और अपने फ़ायदे की ख़ातिर किसी भी किरदार में ढलने को तैयार रहते हैं।
फ़िल्म हरियाणा के एक गाँव मंडोला पर आधारित है जहाँ गाँव का एक बहुत ही धनी व्यक्ति हैरी मंडोला (पंकज कपूर) गाँव वालों की ज़मीन हड़प कर उस पर अपनी फ़ैक्ट्री डालना चाहता है और इस नेक काज के लिये चौधरी देवी हैरी मंडोला को उकसाती हैं क्योंकि हैरी की बेटी बिजली से उन्होंने अपने बेटे बादल की शादी पहले ही तय कर रखी है। और बिजली से बादल की शादी करा वो हैरी की पूरी जायदाद पर कब्ज़ा करना चाहती हैं। वहीं दूसरी तरफ़ किसानों को हैरी से बचाने की ख़ातिर मटरू जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई करके आया हैमाओत्से तुंग बन किसानों की मदद करता है। हैरी की एक ही बेटी है बिजली जिसे वो बेहद प्यार करता है। पर सारा दोष तो उस गुलाबो (शराब) का है जिसे पी कर हैरी बौराकर हरिया बन जाता है। पर आख़िर में हैरी शराब छोड़ चौधरी देवी और उसके बेटे बादल की चाल समझ जाता है और गाँव वालों को उनकी ज़मीन वापस कर देता है।
      लचर कहानीबेदम स्क्रीनप्ले और गानों की ग़लत टाइमिंग फ़िल्म को बहुत ही ज़्यादा बोरिंग बना देते हैं। ख़ासकर इंटरवल के बाद तो फ़िल्म बहुत धीमी हो जाती है। फ़िल्म में अगर कुछ देखने लायक है तो वो है पंकज कपूर का दमदार अभिनयविशाल भारद्वाज के लिखे डायलॉग और फ़िल्म का संगीत। पंकज ने हैरी और हरिया के किरदारों को बखूबी अदा किया है। स्क्रीन पर आने के बाद पंकज सभी किरदारों पर भारी पड़ते हैं और अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीत लेते हैं। इमरान ख़ान ने भी हरियाणा के मस्त जाट का रोल निभाया है।पंकज जितनी आसानी से हैरी और हरिया के किरदार में घुस जाते थे वह देखने योग्य थाशायद इसीलिये लोग उनकी अदाकारी का लोहा मानते हैं। अनुष्का शर्मा ने एक चुलबुली लड़की का अभिनय किया है। सह-कलाकार के तौर पर शबाना आज़मी को कई सालों के बाद एक दमदार अभिनय करते देखा।
विशाल भारद्वाज जिन्होंने मक़बूलओमकाराकमीने और इश्क़िया जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनाई हैं उनसे ऐसी कमजोर फ़िल्म की उम्मीद नहीं थी। उम्मीद है कि विशाल अगली बार ये ग़लतियाँ नहीं दोहराएँगे।

Friday, January 18, 2013

Ladakh, Dharamshala, Gorakhpur, Patna: New hot nodes of the film festival circuit

-- By Anindita Datta Choudhury in The Economic Times

Glam queen Cannes was not built in a day . Neither will Dharamshala be as it aspires to be a shining dot in the map of the movie buff. But the sleepy Himachal town is taking the much-needed baby steps, and the organisers of the Dharamshala International Film Festival (DIFF) hope their efforts will bring about a sea change in how the world - tinsel or tell-tale - views their hometown . Well, that' a piece of very good news for Indian cinephiles.

But the better news is that a slew of Indian towns and tier-II cities are taking the same route, setting up their own film festivals, inviting legends of world cinema to tour their sleepy alleys, and hoping that someday the film festival circuit will talk about Leh, Patna or Gorakhpur with the same excitement as they now mention Locarno, Sundance or Tribeca .

BRINGING CINEMA TO THE HILLS 

Filmmaker couple Ritu Sarin and Tenzing Sonam had been planning to hold an international film festival in their hometown Dharamshala for years , but things finally came together last November . The two BBCdocumentarians had produced the first Tibetan feature film under their independent banner , White Crane Films.

"We are originally from Dharamashala and wanted to give back the town something," says Sarin. She managed to get about 25 sponsors and partners for the festival. Volunteers worked round the clock to make DIFF a success.

Right from painting "carrier" autorickshaws to blackening the windows of the screening theatre - they did it all.

Says Guy Davidi, an Israeli filmmaker, who gave four other international festivals a miss just to be in Dharamshala for the screening of his muchacclaimed film , Five Broken Cameras: "This is my first visit to India and I have been to no other city except Dharamshala. I had heard so much about the place that I couldn't resist myself," says Davidi.

EXOTIC LOCATION HELPS 

Melvin Williams of Monasse Films , director of Ladakh International Film Festival (LIFF), says exotic locations are best suited for film festivals.

"Cannes was just a small riverside town . And look what it is now ! We organised the first film festival on the roof of the world. It was both challenging and exciting," says Williams, who managed to get filmmaker Shyam Benegal on board as the chairperson besides Shekhar Kapur, Vishal Bharadwaj, Govind Nihalani and Mike Pandey as patrons.

Held at an altitude of 11,562 meters, the LIFF is the 'highest' of its kind festival in the world. While the venue was a big crowd puller, the challenges Williams had to face were innumerable.

"Infrastructure-wise it was a nightmare. Airfares skyrocketed when we announced the festival. But the biggest challenge was to get our guests acclimatised to the high altitude," says Williams and adds that it took people two days to acclimatise to the altitude. The Army and choppers were on standby in case anyone got sick, he says.

(courtesy: The Economic Times)

Saturday, January 12, 2013

‘Life of Pi’: An Oscar-nominated international film that’s a mostly international hit

 -Bryan Enk

"Life of Pi" has proven to be a modest hit in the States. But the fantastical adventure tale is truly enjoying the lucrative high "life" far from American shores.
Director Ang Lee's screen adaptation of Yann Martel's 2001 novel of the same name has certainly found something of a domestic audience, though with only a little over $91 million at the box office since its release on November 21, it's been considerably overshadowed by even more higher-profile holiday season offerings like "Les Miserables," "The Hobbit: An Unexpected Journey" and "Skyfall." Fox 2000 probably isn't worried about the $120 million production not making its money back, though, as the film has grossed more than $300 million internationally, bringing its current worldwide gross to just under $400 million.

It's an appropriate fate ("Life of Pi" is big on that concept) that international success should be achieved by a rather international production. "Life of Pi" marks a creative collaboration among representatives from many different countries, both in front of and behind the camera. Suraj Sharma and Irrfan Khan, who play the lead character of Pi at different ages, are Indian actors. Gerard Depardieu, who has a (rather inexplicable) cameo as a cranky cook, is French, and Rafe Spall, who plays The Writer, is British. Cinematographer Claudio Miranda is from Chile and composer Mychael Danna is Canadian. And screenwriter David Magee was born in Flint, Michigan. Go Blue!

The production went through a few international directors before Taiwanese-born Ang Lee signed on. Indian-American director M. Night Shyamalan was first approached to direct, though he ultimately turned it down due to the novel's ending possibly clashing with his own reputation for final-act twists. The project was offered to Mexican filmmaker Alfonso Cuaron, who turned it down for "Children of Men." French director Jean-Pierre Jeunet was also briefly attached.

Principal photography involved some rather formidable globe-hopping as well. Filming began in Pondicherry, India and other parts of the country before heading to Taiwan, where the crew shot for five and a half months in Taipei Zoo and Kenting National Park, located in Pingtung County where Lee was born. While in Taiwan, the ocean scenes were shot at a giant tank built in an abandoned airport (which came to be known as the world’s largest self-generating wave tank with a capacity of 1.7 million gallons). After photography was completed in Taiwan, the production moved back to India and wrapped in Montreal, Canada.

The complex visual effects for the film also brought together quite the international team. The lead effects company for the production was Rhythm & Hues Studios, based in El Segundo, California, though the 3D effects were created by artists from all of the R&H divisions, including locations in Mumbai and Hyderabad (India), Kuala Lumpur (Malaysia), Vancouver (Canada) and Kaohsiung (Taiwan).

"Life of Pi" has been nominated for 11 Academy Awards, including Best Picture, Best Director, Best Adapted Screenplay, Best Cinematography and Best Visual Effects. It's an honor that is indeed being felt all over the world.

courtesy: Yahoo! Movies Oscars Blog

Saturday, January 5, 2013

Great Korean films in Delhi...every friday!



- NDFS Desk

South Korean cinema has witnessed a dramatic transformation in the past few decades, growing from a fledgling local industry to a force of international repute. Korean films have not only managed to hold their own at home but are increasingly being exported and reworked in other parts of the world. The Yeonghwa Film Club at the Korean Cultural Centre India provides a platform for showcasing the best films from one of the most vibrant cinematic cultures in Asia.


Drawing its name from the Korean word for film, the Yeonghwa Film Club will encourage intensive engagement with Korean cinema through talks, workshops and discussions that explore its shifting cultural context within a globalizing world. Screenings will be organised every Friday around monthly themes that focus on film genres, directors and actors. Audiences are invited to join for conversations after the screenings over tea and Korean snacks.

In January, the club will be showing some of renowned Korean director Kim Ki Duk’s latest works. The month will close with a special session on 25th January where it will be charting Kim Ki Duk’s influence on Malayalam cinema through the documentary, Dear Kim (2009), followed by a talk by Bindu Menon, Assistant Professor, Lady Shri Ram College for Women. Film enthusiasts also stand a chance to win some of Kim’s acclaimed works in online DVD giveaways conducted every week in January on their Facebook page. For more updates, contests and forthcoming events, subscribe to it on Facebook!

Entry free and open to all persons above 18 years of age with valid photo identity card.

(courtesy: Korean Cultural Centre India)

Tuesday, December 11, 2012

Anurag replies within 3 hours...

Anurag Kashyap replied within 3 hours after putting this post on Kamayani's blog.

“Shilpa has been refunded the expenses she incurred on making the film and Showhouse’s Large Short Films has promised to give her copyright over her work soon subsequent to the circulation of the open letter. She is waiting for it in writing. She stands by the issues she raised and thanks everyone for the immense kind support” -- Anurag Kashyap

courtesy: http://kractivist.wordpress.com

An Open Letter to Anurag Kashyap and his 12.12.12 project.




(This letter has been put up by activist Kamayanibali Mahabal on her blog)


I am a Mysore based woman filmmaker who was chosen by you to be part of the Royal Stag Mega Movies project 12.12.12 executed by Showhouse Entertainment’s Large Short Films Wing. I am writing this open letter because I think public discourse is important given that over the years you have come to occupy such an important space within what you call ‘independent cinema’.

Also no one from the company that you endorse, as well as you, thinks it is important to have a dialogue with me about unpaid wages, disrespect and unfair dismissal which has caused me tremendous amount of financial, emotional stress. There is also a much touted save indie cinema doing the rounds and what it fails to add to the discourse (not surprising going by the kind of signatories it claims) is what I want to talk about. Changing the look of how you produce cinema and being backed by big studio capital isn’t really independent. I think it is important to bring this into the public domain as the silences around working practices result in the perpetuation of exploitative systems and weed out filmmakers based on their class, caste, gender, religion and language.

It was absolutely no surprise when I saw that the list of 12 directors included no woman. So apparently out of 600 entries only I, the sole woman, made it to the shortlist and because I decided to speak up and not be quiet about how my film was going to tortured and beaten into becoming the kind of objects that you seem to grant your blessings to, 12.12.12 is now officially an all male production.

I bring your notice to this because the tone of the company with regard to objections I raised has been patronising, condescending and dismissive. Well meaning friends and critics will tell me that’s how it works, that’s the industry, the industry that works on free labour, meant for those who have the money to afford the time to chase dreams. It’s not meant for women like me who have no big daddies or brothers or husbands supporting them. It isn’t meant for women like me who choose to work in a language other than Hindi and it definitely isn’t meant for women like me who don’t know how to waddle along consenting to practices that make people like you and the companies you endorse just richer on the back of such exploitative practices.

You sent me an email stipulating that I would not be in touch with any of the other 11 directors (an effective way I must say to curb dissent and this goes by the name of being collaborative!) The contract also stipulated that I would be paid once I handed over the film contrary to what the rules on the contest page initially stated wherein I was supposed to have been given the money before Ivmade the film. This I was informed after having worked a full month on the project. I did sign it and I take full responsibility for that sign because you were the carrot dangled to me, the one ruling the roost in the film festival circuit and of course the Indian public funding circuit, what seemed like the only way to make one’s film. And since you must have been paid handsomely to be the carrot, I only ask that you own up to the full responsibility of it and be accountable to the carrot desirers you create.

After insisting that I get paid at least half I went ahead, after funds were released, and borrowed money to complete it. I hand over the film and fulfil my contractual obligations and then am bullied into changing and reshooting it for a mistake made by Asmit Pathare (Project director not the 12th discovery – check the shortlist!) and Abhijit Das (the godfather of short films in the making). So I naturally said no. You must understand how difficult it is for a director to hurt their stories? It’s kind of like being okay with Abhijit Das (Creative head of Largeshortfilms) adding on a scene where Manoj Bajpai spouts Feminist Marxist dialogues in Gangs of Wasseypur and without telling you! Wouldn’t really fit with the ethos of the film no? Your company even told me that since I do not have the resources I cannot be involved in the reshoot. At such a juncture I asked you not to use my film if I was not being reimbursed and no, you go ahead and use it. The matchbox still from my film is still up on the company’s website.
In a country with absolutely zilch funding for independent films you exploit the hopes of thousands of aspirants. You reiterate a certain way of working which accommodates only a certain type of filmmaker. This in my world is called cheating, it’s called immoral and it’s called unfair. In your world all this is grey, this hijacking that you do of a space that has seen so much struggle and such amazing cinema, this hijacking of language – calling it collaborative when it’s more dictatorial, this hijacking of image, of new film waves, of new ways of working. One of the most exciting things about globalised capitalism’s current avatar (as Hardt and Negri will tell you) is that even though it creates systems like you it also provides for ruptures like me.

Before you come back with a reply to this I ask you to re‐look at emails that you sent me and words you relayed to me through the company about my filmmaking. Everything that I have said is backed by evidence (I know too well how important that is) I know this open dissent will cost me. I’m not naïve not to understand as to how you rule visibilities around distribution and production but I will walk away knowing that I have spoken and that this is just the beginning not the end of the road for me. For those of you reading this I understand that within the larger framework of what we call injustice in this country this is nothing but when we start to look at continuums everything does matter and support for this would really help not just me but for all those who are engaged in changing the way images speak.

From the 12th director who so mysteriously disappeared Shilpa Munikempanna munikempannaproductions@gmail.com

courtesy: http://kractivist.wordpress.com

Monday, October 8, 2012

रेलगाड़ी वाला शहर : बर्फ़ी



   -     मिहिर पंड्या

   “हर भले आदमी की एक रेल होती है
     जो माँ के घर की ओर जाती है
     सीटी बजाती हुई
     धुआँ उड़ाती हुई” ~ आलोक धन्वा


अनुराग बासु की ’बरफ़ी’ कुछ मायनों में चुनौतीपूर्ण फ़िल्म है और बहुत से मामलों में बहुत पारम्परिक। पारम्परिक इन मायनों में कि यह एक ख़ास समय, स्थान और किरदारों से जुड़ा नॉस्टेल्जिया तो रचती है, लेकिन उसे कभी खुद आलोचनात्मक निगाह से नहीं देखती। बहुत सारे ’अच्छे’ और कुछ ’बुरे’ किरदारों के बीच ’बरफ़ी’ में उस निगाह की कमी है जो सिनेमा को सिर्फ़ एक खुशनुमा अहसास से आगे ले जाकर एक विचारतलब माध्यम बनाती है। फिर भी, ’बरफ़ी’ एक स्तर पर चुनौती स्वीकार करती है, जहाँ वो हमारे सिनेमाई अनुभव को कथा आधारित बनाने के बजाए सिर्फ़ माहौल रचकर सम्पूर्ण बनाना चाहती है। मुझसे पूछें तो इस फ़िल्म का ’सत्व’ इसकी कथा में नहीं, इसके ’माहौल’ में है।


बरफ़ी और झिलमिल जैसे भिन्न रूप से सक्षम किरदारों के साथ फ़िल्म बनाने से जुड़ी सबसे बड़ी चुनौती, और वो भी ख़ासतौर से हमारे व्यावसायिक सिनेमा की हतबंदी में, यह होती है कि कैसे आप उन भावनात्मक मैलोड्रामा से बजबजाते दृश्यों से बचें जिनको दर्शक की भावनाओं के दोहन के लिए पीढ़ियों से रचा जाता रहा है। और ’बरफ़ी’ भी इनसे पूरी तरह कहाँ बच पाई है। झिलमिल का भरी महफ़िल में खुश होकर गाना और लोगों का उस पर हँसना, और फिर झिलमिल का चिल्लाना, इसे जैसे सीधे संजय लीला भंसाली की उस ’निर्वात में बसी’ दुनिया में ले जाते हैं। या उस सिंगल फ्रेम दृश्य में जहाँ आप एक ओर बरफ़ी के पिता को मौत के आग़ोश में जाता देख रहे हैं और दूसरी ओर ऊपर बरफ़ी को चैन की नींद सोता दिखाया जा रहा है, फ़िल्म जहाँ थी उससे अचानक बहुत नीचे गिर जाती है। जहाँ बरफ़ी श्रुति के घर शादी का प्रस्ताव लेकर आता है, ठीक वहीं उसका नायिका के होनेवाले पति से साक्षात्कार होना है, ठीक वहीं उस होनेवाले पति को बरफ़ी से अपना जन्मजात अंतर देखांकित करते हुए ग्रामोफ़ोन पर कोई गीत चलाना है, और ठीक वहीं बरफ़ी की साइकिल की चेन उतरनी है, और ठीक वहीं उसे श्रुति के पिता द्वारा पैसे माँगने वाला समझ लिया जाना है।


और अब तो चार्ली चैप्लिन से लेकर कोरियन सिनेमा तक, ’नोटबुक’ से लेकर यूरोपियन अखबार के विज्ञापनों तक इसके तमाम ’प्रेरणास्रोत’ भी पब्लिक में खुल चुके हैं। (तफ़सील में यहां  देखें)



फिर हम ’बरफ़ी’ की बित्ता भर भी तारीफ़ क्यूं करें? आखिर वो क्या है जो इसे संजय लीला भंसाली की ’निर्वात में बसी’ दुनिया से अलगाता है? वो क्या है जिसके चलते ’बरफ़ी’ किसी मैलोड्रामा से भरी मुख्यधारा हिन्दी फ़िल्म से ज़रा अलग है?


’बरफ़ी’ अपने ख़ास देस और काल में बसी फ़िल्म है और यही विशेषता इसे बाक़ी तमाम नकल के बावजूद असलियत के चंद रंग देती है। सत्तर के दशक के बंगाल का एक छोटा, उनींदा सा पहाड़ी शहर जिसकी दुनिया रेल की पटरियों के सहारे ऊपर-नीचे घूमती है। अगर आप इसे बड़े शहर से आई श्रुति की नज़रों से देखें तो पायेंगे कि कैसे ज़िन्दगी जीने का इक भिन्न तरीक़ा ’बरफ़ी’ के किरदार में ढलकर उसके सामने आ जाता है। यहाँ दर्जिलिंग और महानगर कलकत्ता का, उनकी भिन्न गतियों का, उनके रहन-सहन के तरीकों का विलोम है और बरफ़ी उसका जैसे सबसे खुशमिजाज़ प्रतीक है। वो सिर्फ़ बड़े घर के ड्राइवर का लड़का नहीं, पूरे ’शहर’ का अपना लड़का है। यहाँ एक पहाड़ी शहर का सामुदायिक जीवन है और बरफ़ी जैसे उस शहर का गोद लिया लड़का। उससे ख़ार खाया पुलिसवाला भी यहाँ उसे ऐसे मोह से याद करता है जैसे घनघोर बुढ़ापे में पिता अपने घर से दूर जा बसे जवान लड़कों को याद करते हैं। और क्यूंकि वो अपना लड़का है इसीलिए वो शहर उसकी पूरी-पूरी कद्र नहीं जानता। शहर के मुख्य चौराहे पर विमोचित की जा रही सार्वजनिक प्रतिमा की गोद में सोया बरफ़ी और उसके सामने लगी कुर्सियों पर बैठी ताली बजाती जनता, यही दृश्य इस फ़िल्म के सामुदायिक जीवन और उसमें बरफ़ी की जगह का सबसे सुन्दर प्रतीक है। और यही सार्वजनिकता इसे संजय लीला भंसाली की ’निर्वात में बसी’ दुनिया से अलगाती है। इस फ़िल्म के सबसे खूबसूरत दृश्य सार्वजनिक जगहों के, लोगों के ऐन बीच अपनी सपनों की दुनिया रचते बरफ़ी और झिलमिल हैं। हिचकोले खाती और डगमग चलती बस में, चक्करदार सड़कों पर साइकिल में, एक दूसरे के हाथ की चिटकी उंगली थामे रेलगाड़ियों में, सबके बीच अपने प्यार के सबसे दुर्लभ क्षण जीते नायक-नायिका। बरफ़ी समाज से अगल किसी भिन्न दुनिया में नहीं रहता, और उसे रहना भी नहीं चाहिए। वो इस शहर का उतना ही अभिन्न हिस्सा है जितना उसकी सदा की हमसफ़र रेल की वो समांतर पटरियाँ।


यह फ़िल्म छोटे शहर से जुड़ी कुछ और यादें अपने साथ लाती है। फ़रमाईशी गाने बजाता मर्फ़ी का रेडियो, साइकिल की रफ़्तार से चलती धीमी रफ़्तार शहरी सुबह, लकड़ी के खंबो वाले ऊंचे लैम्पपोस्ट, और सबसे ख़ास रेल की पटरियाँ। यहाँ पहले तमाम बिम्ब जहाँ सत्तर-अस्सी के दशक के हिन्दुस्तानी शहरों की स्मृतियों से जुड़े हैं, वहीं अंतिम बिम्ब ख़ास दार्जिलिंग शहर का अपना है। और यही इस फ़िल्म को मेरे लिए ख़ास बनाता है। फ़िल्म देखें तो आप जानेंगे कि किस तरह यहाँ चलने वाली दुर्लभ ’टॉय ट्रेन’ को यहाँ के सामुदायिक जीवन में एक रोज़मर्रा के अंग की तरह अपना लिया गया है। उसी की कांच की खिड़कियों से पलटकर आते दृश्य में बरफ़ी पहली बार नायिका को देखता है, उसी के सहारे उनकी प्रेम कहानी आगे बढ़ती है। वही ट्रेन है जिसका टिकट हाथ में लिए-लिए कभी एक माँ स्टेशन पर ही अपनी मर्यादाओं के साथ खड़ी रह गई थी और उसके सपने धुआँ उड़ाते उसके सामने से गुज़र गए थे। वही ट्रेन है जिसका टिकट हाथ में लिए एक बेटी भीगे हुए प्लेटफ़ॉर्म पर भागती है और दौड़कर अपने सपनों की गाड़ी पकड़ लेती है।



न सिर्फ़ ट्रेन, उसकी पटरियाँ भी शहरी जीवन का हिस्सा हैं। उनके इर्द गिर्द शहरी जीवन चलता है और उनपर न सिर्फ़ ट्रेन चलती है, जब ट्रेन का वक़्त न हो तो उनपर बाज़ार भी लगते हैं। बरफ़ी उनका जैसे अपने घर को जानेवाली पगडण्डी की तरह इस्तेमाल करता है और रात में चलती ट्रेन से बच्चों को खुशियाँ बांटता है। और इन्हीं पटरियों पर अपनी ठेलागाड़ी चलाता वो झिलमिल को उसके सपनों की दुनिया में ले जाता है। यह शहर की अपनी ख़ासियत है जिस तरह ’बरफ़ी’ इसको बिना कहे अपने भीतर उतार लायी है, देखना बहुत खूबसूरत है।


पिछले दिनों आई कलकत्ता शहर को कथाकेन्द्र बनाती फ़िल्म ’कहानी’ भी अपनी कथा में एक औसत फ़िल्म होने के बावजूद अपनी इसी परिवेश की बारीकियों को पकड़ने की कला के चलते समकालीन सिनेमा में ख़ास बनती है। शहर की, उसके लोगों की, उनकी रोज़मर्रा की आदतों की बारीक परख सिनेमा को ज़्यादा प्रामाणिक बनाती है और कई बार कथा के झोल को ढक लेती है। ’कहानी’ ने भी कलकत्ता के सामुदायिक जीवन की एक ज़रूरी आदत, भिन्न ’घर के नाम’ और ’सार्वजनिक नाम’ होने की प्रथा को जिस खूबसूरती से पकड़ा और कथा का हिस्सा बनाया, उससे फ़िल्म ने विश्वसनीयता हासिल कर ली। यही अनुराग बासु की ’बरफ़ी’ करती है और उन रेल की घुमावदार पटरियों की वजह से, रेडियो सिलोन के फ़र्माइशी गानों वाले कार्यक्रम की वजह से, साइकिलों के पैडलों पर पलते लड़कपन के प्यार और एक नन्हीं सी दोस्ती की खातिर घंटाघर की उल्टी घुमा दी गई सुइयों की वजह से ही उनके पटकथा के झोल और नकल चुटकुले कुछ कम तीखे लगते हैं।

फिर भी, मेरे लिए इस ’बरफ़ी’ की खूबी और ख़ामी एक ही है, कि यह बहुत मीठी है।


(courtesy: http://mihirpandya.com/) ;

साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित

Thursday, August 2, 2012

Shock Waves 2012: A unique Film Festival in Capital


2nd International Film Festival on Disaster Risk Reduction

Global Forum for Disaster Reduction (GFDR) cordially invites you to Shock Waves 2012 (Second International Film Festival on Disaster Risk Reduction) on 3-4 Aug, 2012 at India Habitat Centre, New Delhi. This event is organized in collaboration with Japan Foundation. The Festival timings are 10 AM to 6 PM both days. Inaugural Function is at 10 AM on 3rd Aug and Valedictory Function will be at 4 PM on 4th Aug, 2012.
The Film Festival will screen films received from different parts of the world on following categories:

 (a)               Learnings from Japan
(b)               Living with Disasters
(c)                Beyond Disasters (Sustainable Development)
(d)               Indigenous Knowledge and Practices
(e)                Protecting our Earth (CCA and Environment issues)
(f)                 Culture of Disaster Preparedness (School and Community Focus)
 We are pleased to invite you to this prestigious event of great public importance. We request you to be a part of this event. Please feel free to ask for any further information or details pertaining to the event.  High level dignitaries and disaster management professionals, policy makers, film experts and students are expected to be present on the occasion.
 ( Released by Anwar Jamal, Festival  Director)

Friday, July 20, 2012

गैंग्स ऑफ़ वासेपुर- बदले की आग और तलछट का कोरस

-- 8 अगस्त करीब है, इसी दिन गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का सीक्वेल रिलीज़ हो रहा है। दूसरे भाग के प्रोमो रिलीज़ हो चुके हैं, और इसकी चर्चा अभी से शुरू हो चुकी है। एनडीएफएस पर हम पहली बार गैंग्स ऑफ़ वासेपुर पर चर्चा शुरू कर रहे हैं। इस सिलसिले में आगे कई लेख प्रकाशित किए जाएंगे। शुरुआत वरिष्ठ टीवी पत्रकार और सिनेमा के गहरे मर्मज्ञ अमिताभ के 24 जून को लिखे लेख से, जो उन्होने फेसबुक में अपनी वॉल पर डाला था। अपनी प्रतिक्रिया ज़रुर पोस्ट करें।

ज़िन्दगी में चाँद, रोटी, नींद, लोरी की चाहत और उसके लिए जद्दोजहद; सीप का सपना और सिसकी की मजबूरियां और इन सब पर भारी गोलियों की गूँज यानी गैंग्स ऑफ़ वासेपुर. ...ये समाज की तलछट के कोरस की कहानी है . वैसे कहानी की ज़मीन बिहार (अब झारखण्ड) है लेकिन ये कहीं की भी हो सकती थी . और क्या ज़बरदस्त अंदाज़े बयां है इस दास्तान का. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में नत्थी है एक समाज , एक कौम , एक राज्य , एक उद्योग और इन सब से बढ़कर इंसानी फितरत के बहुरुपियेपन की तस्वीरें-जिसमे बदला है, नफरत है ,मोहब्बत है, कमीनगी है और कामुकता भी है, रिश्तों में ठगे जाने का दर्द है और कहीं न कहीं खालीपन की छटपटाहट भी.

अनुराग ने फिर कमाल कर दिखाया है. हालाँकि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का कथानक और ट्रीटमेंट कहीं कहीं Godfather की याद भी दिलाता है. Sergio leone और Quentin Tarantino की शैली की झलक भी है.बुनियादी कहानी तो निजी दुश्मनी की है लेकिन उसके इर्द गिर्द बुना गया ताना बाना कोयला खदानों से शुरू होकर राजनीति के अपराधीकरण के रास्ते से मामूली लोगों के माफिया बनने की प्रक्रिया को उघाड़ता है.

मनोज बाजपेयी ने अपने पुराने दमदार अभिनय के दिनों की याद ताज़ा कर दी है- सत्या, शूल और पिंजर वाले मनोज यहाँ मौजूद हैं सरदार खान की खाल में. एक ऐसा किरदार जो अपने बाप की धोखे से हुई हत्या का बदला लेने के लिए किस तरह कमीनेपन और कुटिलता का सहारा लेकर अपने दुश्मन की नाक में दम किये रहता है. मनोज ने ज़बरदस्त काम किया है- सरदार खान की कामुकता को उजागर करने वाले द्रश्यों में तो वो ग़ज़ब हैं. पता नहीं क्यों मुझे सरदार खान की ठसक को देखते हुए कहीं कहीं आधा गाँव के फुन्नन मियां याद आ गए.

हालांकि गैंग्स ऑफ़ वासेपुर अकेले मनोज बाजपेयी की फिल्म नहीं है. निर्देशक के तौर पर अनुराग की कामयाबी ये भी है कि उन्होंने हर किरदार के लिए ठोंक पीट कर एक्टर चुने और उनसे बेहतरीन काम लिया है .शाहिद खान बने जयदीप अहलावत ने बहुत शानदार काम किया है, सुल्तान के किरदार में पंकज त्रिपाठी खूब जमे हैं. अग्निपथ में उनका हकलाते हुए कांचा भाऊ कहना नोटिस किया गया था और अब कुरेशियों और पठानों की खानदानी दुश्मनी की आग में जलता सुल्तान भी भूलने वाला किरदार नहीं है. पियूष मिश्रा ने एक्टिंग तो ज़ोरदार की ही है (इसमें नया क्या है, वो एक बेहतरीन कलाकार हैं जिनको बहुत पहले नोटिस किया जाना चाहिए था ) गाना भी बहुत अच्छा गाया है.

लेकिन जिन लोगों ने चौंकाया है वो हैं- तिग्मांशु धूलिया, ऋचा चड्ढा और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी. बेहद कुटिल क्रूर ठेकेदार और शातिर नेता के रोल में तिग्मांशु ने बहुत सधा हुआ अभिनय किया है. अगर वो फेंटा कस कर एक्टिंग के मैदान में उतर आये तो अच्छे अच्छे खलीफाओं की छुट्टी कर सकते हैं ये उन्होंने इस फिल्म में दिखा दिया है. सरदार खान की बीवी नगमा के रोल में ऋचा चड्ढा ने शबाना और स्मिता की झलक दिखाई है.अनुराग ने देव डी में माही गिल को पेश किया था, अब ऋचा भी उनकी ही खोज हैं.

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को इस साल का सितारा कहा जा रहा है. कहानी की शोहरत के बाद अब वासेपुर की बदौलत वो हाल ही में कान फिल्म फेस्टिवल तक हो आये हैं. फैज़ल का किरदार इस फिल्म का एक मुश्किल किरदार है- बचपन में बाप को अपने घर पर अपनी माँ के साथ देखने के बजाय दूसरी औरत के साथ देखना, माँ की एक रात की कमजोरी का उसकी पूरी शख्सियत पर डंक मार जाना और उपेक्षा के साये में पलते हुए बड़े होना- इन गुत्थियों को ज़ाहिर करने में नवाज़ ने कमाल किया है. खास तौर पर त्रिशूल फिल्म के सीन के बाद सिनेमा हाल से निकलते हुए कमेन्ट और एक्सप्रेशन ज़बरदस्त है. मिथुन चक्रवर्ती के डांस की तो उन्होंने ग़ज़ब नक़ल की है. हुमा कुरैशी के साथ उनका रोमांस का ट्रैक दिलचस्प है और अगले पार्ट में वो कुछ धमाल करेंगे ऐसा लगता है.


स्नेहा खानविलकर ने क्या म्यूजिक दिया है. वुमनिया बड़ा दिलचस्प गाना है लेकिन मेरा फैवरिट है पियूष मिश्रा का गाया -एक बगल में चाँद होगा एक बगल में रोटियां. यशपाल शर्मा पर फिल्माया गया सलामे इश्क मज़ेदार है .

काफी पहले राजेंद्र यादव ने एक लेख लिखा था- गाली मत दो गोली मार दो - वासेपुर में लोग गाली भी खूब देते हैं और गोली भी खूब मारते हैं. मैं जिस हाल में फिल्म देखने गया था वहां अपने गाली भरे गानों के लिए युवा दिलों की धड़कन बन चुके पॉप सिंगर हनी सिंह भी पहुंचे थे. शायद फिल्म में धड़ल्ले से इस्तेमाल की गयी गालियों से उन्हें कुछ और जोशीले गाली वाले गाने बनाने की प्रेरणा मिले.

चूँकि फिल्म दो हिस्सों में बनायीं गयी है इसलिए कई लोगों को पहला पार्ट थोडा भटका हुआ या झूलता हुआ भी लग सकता है . ढाई घंटे से थोडा ऊपर की फिल्म ख़त्म हो गयी तो लगा कहानी जारी रहनी चाहिए थी. सीक्वेल की इतनी तत्काल तलब शायद ही कभी लगी हो .

Thursday, July 19, 2012

हमारी फिल्म का हीरो कौन है?

पहले आजमगढ़ फिल्म फेस्टिवल में अरुंधति राय

आजमगढ के नेहरू हाल में पहला आजमगढ फिल्म फेस्टिवल 14 और 15 जुलाई को आयोजित किया गया। जनसंस्कृति मंच और आजमगढ फिल्म सोसाइटी के संयुक्त तत्वावधान में प्रतिरोध का सिनेमा का यह 26 वां आयोजन था। पहले आजमगढ फिल्म फेस्टिवल का उद्घाटन प्रख्यात लेखिका एवं एकिटविस्ट अरुंधति राय ने किया।

 अरुंधति का वक्तव्य : 

 उद्घाटन वक्तव्य में अरुंधति ने कहा कि " वह आजमगढ में आकर खुश हैं। यह शहर कविता, गीत, संगीत का शहर है लेकिन मीडिया ने इसे तरह प्रचारित किया कि जैसे आजमगढ़ के खेतों में आतंकवादी उगते हैं और यहां के कारखानों में बम बनाए जाते हैं। इस मौके पर मै सिनेमा के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी लेकिन इतना कहना चाहूंगी कि जैसे देश में जंग लडी जाती है, बांध बनाए जाते हैं, निजीकरण होता है तो वह भी गरीबों के नाम पर ही होता है। उसकी तरह हमारे फिल्म स्टार, गरीबों के कंधे पर सवाल होकर फिल्म स्टार बने हैं। आप देखिए पहले फिल्म के कैरेक्टर गरीब होते थे, झुग्गी झोपड़ी में रहते थे। अमिताभ बच्चन की फिल्म कुली याद करिए जिसमें वह इकबाल नाम के कुली हैं और टेड यूनियन से जुडे हैं। वह जमाना गया; आज हमारी फिल्म का हीरो कौन है? अम्बानी है । गुरू फिल्म को याद करें। तो आज की फिल्मों के ये हीरों हैं। आज कुछ फिल्में गरीबी पर बन जाती हैं जैसे स्लमडाग मिलेनियर लेकिन इसमें गरीबी को साइक्लोन, भूकम्प की तरह भगवान का बनाया हुआ बताया जाता है। इसमें कोई विलेन नहीं होता और इस तरह से हमारे इमैजिनेशन पर कब्जा कर बत़ाया जाता है कि एनजीओ और कार्पोरेट की मदद से गरीबी को खत्म किया जा सकता है।

 30 वर्ष पहले हमारे देश में तो ताले एक साथ खुले । एक बाबरी मस्जिद का और दूसरा बाजार का। इस मैनुफैक्चरिंग प्रासेस प्रक्रिया ने एक तरफ मुस्लिम आतंकवाद को पैदा किया तो दूसरे माओवाद को । आज ऐसी स्थिति बना दी गई है कि जो भी पार्टी सत्ता में आएगी वह राइट विंग ही होगी और वह हमारे देश को और ज्यादा पुलिस स्टेट बनाएंगे। इंडिया में जो इकनामिक प्रोग्रेस चल रहा है उसमें 30 करोड़ मिडिल क्लास आ गया है लेकिन इसके लिए 80 करोड़ लोगों को गरीबी में डूबो दिया गया है। ये 80 करोड़ लोग सिर्फ 20 रूपया रोज पर गुजारा करते हैं। ढाई लाख से अधिक किसानों ने खुदकुशी की।
दुनिया के सबसे ज्यादे गरीब लोग हमारे देश में रहते हैं। इनको देने के लिए पानी, अस्पताल, स्कूल नहीं है लेकिन हम अरबों रूपयों का इथियार खरीदते हैं ताकि हमें सुपर पावर कहा जाए। मुकेश अम्बानी की रिलायंस इंडस्टीज के पास दो लाख करोड़ की पूंजी है तो खुद उनकी व्यक्त्तिगत सम्पति एक लाख करोड रूपए; देश के 100 सबसे अमीर लोगों के पास देश की जीडीपी की एक चौथाई के बराबर सम्पत्ति है। अम्बानी ने अभी 27 टीवी चैनलों को खरीद लिया। अब ये चैनल कया दिखएंगे और बताएंगे कि छत्तीसगढ़ में क्या हो रहा है। जिसके पास एक लाख करोड़ है वह क्या नहीं खरीद सकते। सरकार, इलेक्शन , कोर्ट , मीडिया और सब कुछ। ये सरकार चलाते हैं, एजुकेशन, हेल्थ पालिसी बनाते हैं और अब हमारी जिंदगी भी चलाना चाहते हैं।

भ्रष्टाचार व्यापक आर्थिक असंतुलन से पैदा होता है। यह है भ्रष्टाचार रूपी बीमारी का असली कारण। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड आदि प्रदेशों में 2004 में 100 से ज्यादा एमओयू किए गए। आदिवासियों को बंदूक देकर सलवा जुडूम बनाया गया और जंगल में बहुत बड़ी लड़ाई खड़ी की गयी है । 600 गांव जला दिए गए। तीन लाख लोगों को उनके घर से भगा दिया गया। जिसने विरोध किया उसे माओवादी कह कर मार डाला या जेल में डाल दिया। अभी छत्तीसगढ़ में 20 आदिवासियों को मार दिया। सोनी सोरी के साथ क्या हुआ, आप जानते हैं। आज देश का हालत ऐसा हो गया है। इस स्थिति में लेखकों, एक्टिविस्टों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन सरकार और कार्पोरेट घराने लेखकों से कहते हैं कि दूर जाकर बच्चों की कहानी लिखो, दिमाग बंद कर चिल्लाओ। ऐसा करने के लिए लिटरेचर, डांस, म्यूजिक फेस्टिवल को स्पान्सर किया जाता है। अमेरिका में राकफेलर फाउंडेशन ने सीआईए बनायी। काउंसिल फार फारेन रिलेशन (सीएफआर) बनाया। वर्ल्ड बैंक बनाया। अब ये संस्थान माइक्रोफाइनेन्स से सबसे गरीब लोगों से पैसा खींच रहे हैं। माइक्रोफाइनेन्स के जाल में फंसकर एक साल में 200 लोगों को खुदकुशी करनी पड़ी; आदिवासी, मुसलमान, किसान, मजदूर सब इसकी मार की जद में हैं लेकिन हम एक होकर लड़ नहीं पा रहे क्योंकि इन्होंने हमें बांट रखा है। दलितो और आदिवसियों में। मुसलमानों को शिया और सुन्नी में। यह बंटवारा खड़ा करने के लिए ये फाउंडेशन पहचान की राजनीति, धार्मिक अध्ययन के नाम पर स्कालरशिप, फेलोशिप देते हैं। जो इस परा सवाल खड़ा करता है, इन झांसों में नहीं आता उसे नक्सली, माओवादी, आतंकवादी कह कर जेल में डाला जाता है, मार दिया जाता है।

आज देश में बड़ा प्रेशर बनाया जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाओ। गुजरात में मुसलमानों का संहार भूल जाओ। यह वही लोग हैं जो एक समय बाजार को खोलने के लिए मनमोहन सिंह को सिर पर बैठाए घूम रहे थे। आज उन्हें एक कट्टर व्यक्ति की जरूरत है जो इस सिलसिले को तेजी से चलाये."

 इस मौके पर चर्चित फिल्मकार संजय काक ने कहा कि दो दशक में तकनीक का लाभ उठाकर अलग किस्म का सिनेमा बन रहा है जिसने हमारे सामने एक नई दुनिया खोली है। बालीबुड का सिनेमा पैसे के बोझ से दबा है। वह न एक कदम आगे बढा सकता है न दाएं या बाएं देख सकता है। उसकी सारी कोशिश सिनेमा में लगाए गए पैसे को वापस लाने की होती है इसलिए वह जनता से नहीं जुड़ सकता। डाक्यूमेटरी सिनेमा अलग-अलग कहानी को कई तरीके से हमारे सामने ला रहा है। बड़ा पैसा, कल्चर को हमसे दूर की चीज बना देता है जबकि प्रतिरोध का सिनेमा यह बताता है कि वह लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा हुआ है। (साभार- संजय जोशी, संयोजक, प्रतिरोध का सिनेमा अभियान/मनोज सिंह, सचिव, जन संस्कृति मंच)

Sunday, April 8, 2012

जब राज्य अपने हाथ वापस खींच लेता है:पान सिंह तोमर


-मिहिर पंड्या

“हम तो एथलीट हते, धावक. इंटरनेशनल. अरे हमसे ऐसी का गलती है गई, का गलती है गई कि तैनें हमसे हमारो खेल को मैदान छीन लेओ. और ते लोगों ने हमारे हाथ में जे पकड़ा दी. अब हम भग रए चम्बल का बीहड़ में. जा बात को जवाब को दैगो, जा बात को जवाब को दैगो?”
’पान सिंह तोमर’ अपने दद्दा से जवाब माँग रहा है. इरफ़ान ख़ान की गुरु-गम्भीर आवाज़ पूरे सिनेमा हाल में गूंज रही है. मैं उनकी बोलती आँखें पढ़ने की कोशिश करता हूँ. लेकिन मुझे उनमें बदला नहीं दिखाई देता. नहीं, ’बदला’ इस कहानी का मूल कथ्य नहीं. पीछे से उसकी टोली के और जवान आते हैं और अचानक विपक्षी सेनानायक की जीवनलीला समाप्त कर दी जाती है. पान सिंह को झटका लगता है. वो बुलन्द आवाज़ में चीख रहा है, “हमारो जवाब पूरो ना भयो.”
अचानक सिनेमा हाल की सार्वजनिकता गायब हो जाती है और पान सिंह की यह पुकार सीधे किसी फ़्लैश की तरह आँखों के पोरों में आ गड़ती है. हाँ, इस कथा में ’दद्दा’ मुख्य विलेन नहीं, गौण किरदार हैं. दरअसल यह कथा सीधे बीहड़ के किसान पान सिंह तोमर की भी नहीं, वह तो इस कथा को कहने का इंसानी ज़रिया बने हैं. यह कथा है उस महान संस्था की जिसके ’संगे-संगे’ पान सिंह तोमर की कहानी शुरु होती है और अगले पैंतीस साल किसी समांतर कथा सी चलती है. भारतीय राज्य, नेहरूवियन आधुनिकता को धारण करने वाली वो एजेंसी जिसके सहारे आधुनिकता का यह वादा समुदायगत पहचानों को सर्वोपरि रखने वाले हिन्दुस्तानी नागरिक के जीवन-जगत में पहुँचाया गया, यह उसके द्वारा दिखाए गए ध्वस्त सपनों की कथा है. उन मृगतृष्णाओं की कथा जिनके भुलावे में आकर पान सिंह तोमर का, सफ़लताओं की गाथा बना शुरुआती जीवन हमेशा के लिए पल्टी खा जाता है.
यह अस्सी के दशक की शुरुआत है. गौर कीजिए, स्थानीय पत्रकार (सदा मुख्य सूचियों से बाहर रहे, गज़ब के अभिनेता ब्रिजेन्द्र काला) पूछता है सूबेदार से डकैत बने पान सिंह से, “बन्दूक आपने पहली बार कब उठाई?” और पान सिंह का जवाब है, “अंगरेज़ भगे इस मुल्क से. बस उसके बाद. पन्डित जी परधानमंत्री बन गए, और नवभारत के निर्माण के संगे-संगे हमओ भी निर्माण शुउ भओ.” गौर कीजिए, अपने पहले ही संवाद में पान सिंह इस आधुनिकता के पितामह का ना सिर्फ़ नाम लेता है, उनके दिखाए स्वप्न ’नवभारत’ के साथ अपनी गहरी समानता भी स्थापित करता है.
पश्चिमी आधुनिकता की नकल पर तैयार किया ख़ास भारतीय आधुनिकता का मॉडल, जिसमें मिलावटी रसायन के तौर पर यहाँ की सामन्ती व्यवस्था चली आती है. यह अर्ध सामन्ती – अर्ध पूंजीवादी राष्ट्र-राज्य संस्था की कथा है जिसकी बदलती तस्वीर ’पान सिंह तोमर’ में हर चरण पर नज़र आती है. मुख्य नायक खुद पान सिंह तोमर इसी पुरानी सामन्ती व्यवस्था से निकलकर आया है और आप उसके शुरुआती संवादों में समुदायगत पहचानों के लिए वफ़ादारियाँ साफ़ पढ़ सकते हैं. अफ़सर द्वारा पूछे जाने पर कि क्या देश के लिए जान दे सकते हो, उसका जवाब है, “हा साब, ले भी सकते हैं. देस-ज़मीन तो हमारी माँ होती है. माँ पे कोई उँगली उठाए तो का फिर चुप बैठेंगे?” और यहीं उसके जवाबों में आप नवस्वतंत्र देश के नागरिकों की उन शुरुआती उलझनों को भी पढ़ सकते हैं जो राज्य संस्था, उसके अधिकार क्षेत्र और उसकी भूमिका को ठीक से समझ पाने में अभी तक परेशानी महसूस कर रहे थे. पूछा जाता है पान सिंह से कि क्या वो सरकार में विश्वास रखता है, और उसका दो टूक जवाब है, “ना साब. सरकार तो चोर है. जेई वास्ते तो हम सरकार की नौकरी न कर फ़ौज की नौकरी में आए हैं.”
स्पष्ट है कि पान सिंह के लिए राज्य द्वारा स्थापित किए जा रहे आधुनिकता के इस विचार की आहट नई है. लेकिन यह विचार सुहावना भी है. अपने समय और समाज के किसी प्रतिनिधि उदाहरण की तरह वो जल्द ही इसकी गिरफ़्त में आ जाता है. और इसी वजह से आप उसके विचारों और समझदारी में परिवर्तन देखते हैं. यह पान सिंह का सफ़र है, “हमारे यहाँ गाली के जवाब में गोली चल जाती है कोच सरजी” से शुरु होकर यह उस मुकाम तक जाता है जहाँ गाँव में विपक्ष से लेकर अपने पक्ष वाले भी उसका बन्दूक न उठाने और बार-बार कार्यवाही के लिए पुलिस के पास भागे चले जाने का मज़ाक उड़ा रहे हैं. अपने-आप में यह पूरा बदलाव युगान्तकारी है. और फ़िल्म के इस मुकाम तक यह उस नागरिक की कथा है जो आया तो हिन्दुस्तान के देहात की पुरातन सामन्ती व्यवस्था से निकलकर है, लेकिन जिसको आधुनिकता के विचार ने अपने मोहपाश में बाँध लिया है. जिसका आधुनिक ’राज्य’ की संस्था द्वारा अपने नागरिक से किए वादे में यकीन है. वह उससे उम्मीद करता है और व्यवस्था की स्थापना का हक सिर्फ़ उसे देता है.
विचारक आशिस नंदी भारतीय राष्ट्र-राज्य संस्था पर बात करते हुए लिखते हैं, “स्वाधीनता के पश्चात उभरे अभिजात्य वर्ग की राज्य संबंधी अवधारणा राजनीतिक रूप से ’विकसित’ समाजों में प्रचलित अवधारणा से उधार ली गई थी. चूंकि हमारा अभिजात्य वर्ग राज्य के इस विचार में निहित समस्याओं से अनभिज्ञ नहीं था, इसलिए उसने भारत की तथाकथित अभागी और आदम विविधताओं के साथ समझौता करके थोड़ा मिलावटी विचार विकसित किया.” यही वो मिलावटी विचार है जहाँ आधुनिकता के संध्याकाल में वही पुराना सामन्ती ढांचा फिर से सर उठाता है और ठीक यहीं किसी गठबंधन के तहत राज्य अपने हाथ वापस खींच लेता है.
इसीलिए, फ़िल्म में सबसे निर्णायक क्षण वो है जहाँ पान सिंह के बुलावे पर गाँव आया कलेक्टर यह कहकर वापस लौट जाता है, “देखो, ये है चम्बल का खून. अपने आप निपटो.” यह आधुनिकता द्वारा दिखाए उस सपने की मौत है जिसके सहारे नवस्वतंत्र देश के नागरिक पुरातन व्यवस्था की गैर-बराबरियों के चंगुल से निकल जाने का मार्ग तलाश रहे थे. फिर आप राज्य की एक दूसरी महत्वपूर्ण संस्था ’पुलिस’ को भी ठीक इसी तरह पीछे हटता पाते हैं. यहीं हिन्दुस्तानी राष्ट्र-राज्य संस्था और उसके द्वारा निर्मित ख़ास आधुनिकता के मॉडल का वो पेंच खुलकर सामने आता है जिसके सहारे मध्यकालीन समाज की तमाम गैर-बराबरियाँ इस नवीन व्यवस्था में ठाठ से घुसी चली आती हैं. पहले यह सामाजिक वफ़ादारियों को राज्य के प्रति वफ़ादारी में बदलने के लिए स्थापित गैर-बराबरीपूर्ण व्यवस्थाओं का अपने फ़ायदे में भरपूर इस्तेमाल करता है और इसीलिए बाद में उन्हें कभी नकार नहीं पाता. जाति जैसे सवाल इसमें प्रमुख हैं. नेहरूवियन आधुनिकता में मौजूद यह फ़ांक ही जाति व्यवस्था को कहीं गहरे पुन:स्थापित करती है. पान सिंह की उम्मीद राज्य रूपी संस्था और उसके द्वारा किए आधुनिकता के वादे से सदा बनी रहती है. वह खुद बन्दूक उठाता है लेकिन अपने बेटे को कभी उस रास्ते पर नहीं आने देता. वह दिल से चाहता है कि राज्य का यह आधुनिक सपना जिये. लेकिन राज्य उसके सामने कोई और विकल्प नहीं छोड़ता.

यह ऐतिहासिक रूप से भी सच्चाई के करीब है. अगर आप फ़िल्म में देखें तो यह अस्सी के दशक तक कहानी का वो हिस्सा सुनाती है जिसमें अगड़ी जाति के लोग ज़मीन पर कब्ज़े के लिए लड़ रहे हैं और राज्य संस्था इसे पारिवारिक अदावत घोषित कर इसे सुलझाने से अपने हाथ खींच लेती है. दरअसल आधुनिक राज्य संस्था ने स्थानीय स्तर पर उन सामन्ती शक़्तियों से समझौता कर लिया था जिनके खिलाफ़ उसे लड़ना चाहिए था. यह नवस्वतंत्र मुल्क़ में शासन स्थापित करने और अपनी वैधता स्थापित करने का एक आसान रास्ता था. ऐसे में ज़रूरत पड़ने पर भी वह उनकी गैरबराबरियों के खिलाफ़ कभी बोली नहीं. बन्दूक उठाने वाले यहीं से पैदा होते हैं. वे आधुनिक राज्य द्वारा किए उन वादों के भग्नावशेषों पर खड़े हैं जिनमें समता और समानता की स्थापना और समाज से तमाम गैर-बराबर पुरातन व्यवस्थाओं को खदेड़ दिए जाने की बातें थीं.
जय अर्जुन सिंह फ़िल्म पर अपने आलेख में इस बात का उल्लेख करते हैं कि फ़िल्म के अन्त में आया नर्गिस की मौत की खबर वाला संदर्भ इसे कल्ट फ़िल्म ’मदर इंडिया’ से जोड़ता है और यह उन नेहरूवियन आदर्शों की मौत है जिनकी प्रतिनिधि फ़िल्म हिन्दी सिनेमा इतिहास में ’मदर इंडिया’ है. मुझे यहाँ उन्नीस सौ सड़सठ में आई मनोज कुमार की ’उपकार’ याद आती है. एक सेना का जवान जो किसान भी है, ठीक पान सिंह की तरह, और जिसकी सामुदायिक वफ़ादारियाँ इस आधुनिक राष्ट्र राज्य के मिलावटी विचार के साथ एकाकार हो जाती हैं. तिग्मांशु धूलिया की ’पान सिंह तोमर’ इस आदर्श राज्य व्यवस्था की स्थापना वाली भौड़ी ’उपकार’ की पर्फ़ेक्ट एंटी-थिसिस है. यहाँ भी एक सेना का जवान है, जो मूलत: किसान है, लेकिन आधुनिकता का महास्वप्न अब एक छलावा भर है. इस जवान-किसान की भी वफ़ादारी में कोई कमी नहीं, उसने देश के लिए सोने के तमगे जीते हैं. लेकिन देखिए, वह पूछने पर मजबूर हो जाता है कि, “देश के लिए फ़ालतू भागे हम?” अन्त में वह व्यवस्था द्वारा बहिष्कृत समाज के हाशिए पर खड़ा है और उसके हाथ में बन्दूक थमा दी गई है. वह जवाब मांग रहा है कि उसके हाथ में थमाई गई इस बन्दूक के लिए ज़िम्मेदार कौन है, और कौन उन्हें सज़ा देगा?
गौर करने की बात है कि ’पान सिंह तोमर’ में मारे जाने वाले गूर्जर हैं जिनका स्थान सामाजिक पदक्रम में अगड़ी जातियों से नीचे आता है. और यह तीस-पैंतीस साल पुरानी बात है. आज यही गूर्जर राजस्थान में अपने हक की जायज़-नाजायज़ मांग करते निरन्तर आन्दोलनरत हैं. और इस जाति व्यवस्था के आधुनिकता के बीच भी काम करने का सबसे अच्छा उदाहरण खुद फ़िल्म में ही देखा जा सकता है. वहाँ देखिए जहाँ इंस्पेक्टर (सदा सर्वोत्कृष्ठ ज़ाकिर हुसैन) गोपी के ससुराल मिलने आए हैं. यह सामाजिक पदक्रम में नीचे खड़ा परिवार है. पुलिसिया थानेदार का उद्देश्य पान सिंह तोमर के गिरोह की टोह लेना है और वह कहते हैं, “जात पात कछू न होत कक्का. इंसान-इंसान के काम आनो चहिए. और जिसके हाथ के खाए हुवे थे धरम भरष्ट हो जावे, ऐसे धरम को तो भरष्ट ही हो जानो चहिए.” वे पानी पीने को भी मंगाते हैं. गौर कीजिए कि तमाम सूचनाएं निकलवा लेने के बाद किस चालाकी से वह बिना उनके घर का पानी पिये ही निकल जाते हैं. यही दोहरे मुखौटे वाला आधुनिक भारतीय राज्य का असल चेहरा है.

ज़िला टोंक अपने देश में कहाँ है, ठीक-ठीक जानने के लिए शायद आप में से बहुत को आज भी नक्शे की ज़रूरत पड़े. और क्योंकि मैं उन्हीं के गृह ज़िले से आता हूँ, इसलिए अच्छी तरह जानता हूँ कि चम्बल की ही एक सहायक नदी ’बनास’ के सहारे बसा होने के बावजूद टोंक की स्थानीय बोली बीहड़ की भाषा से कितनी अलग है. और इसीलिए इरफ़ान के जिस खूबी से उस लहज़े को अपनाया है, मेरे मन में उनके भीतर के कलाकार की इज़्ज़त और बढ़ गई है. जिस तरह वे पर्लियामेंट, मिलिट्री, स्पोर्ट्स जैसे ख़ास शब्दों के उच्चारण में एकदम माफ़िक अक्षर पर विराम लेते हैं और ठीक जगह पर बलाघात देते हैं, भरतपुर-भिंड-मुरैना-ग्वालियर की समूची चम्बल बैल्ट जैसे परदे पर जी उठती है. वे दौड़ते हैं और उनका दौड़ना घटना न रहकर जल्द ही किसी बिम्ब में बदल जाता है. बीहड़ में विपक्षी को पकड़ने के लिए भागते हुए जंगल में सामने आई बाधा कैसे स्टीपलचेज़ धावक को उसका मासूम लड़कपन याद दिलाती है, देखिए.
इस तमाम विमर्श से अलग ’पान सिंह तोमर’ कविता की हद को छूने वाली फ़िल्म है. पहली बार मैं सुनता हूँ जब कोच सर कहते हैं, “ओये तू पाणी पर दौड़ेगा.” और समझ खुश होता हूँ कि यह स्टीपलचेज़ जैसी दौड़ के लिए एक सुन्दर मुहावरा है. लेकिन दूसरी बार सिनेमाहाल में फ़िल्म देखते हुए अचानक समझ आता है कि इस वाक्य के कितने गहरे निहितार्थ हैं. यह संवाद पान सिंह तोमर की पूरी ज़िन्दगी की कहानी है. ज़िन्दगी भर वो बीहड़ में चम्बल के पानी पर ही तो दौड़ता रहा. सन्दीप चौटा का पार्श्वसंगीत फ़िल्म को विहंगम भाव प्रदान करता है और बेदाग़ सिनेमैटोग्राफ़ी महाकाव्य सी ऊँचाई. तिग्मांशु की अन्य फ़िल्मों की तरह ही यहाँ भी संवाद फ़िल्म की जान हैं, लेकिन सबसे विस्मयकारी वे दृश्य हैं जहाँ इरफ़ान बिना किसी संवाद वो कह देते हैं जिसे शब्दों में कहना सम्भव नहीं. मेरा पसन्दीदा दृश्य फ़िल्म के बाद के हिस्से में आया वो शॉट है जहाँ सेना के कंटोनमेंट एरिया में अपने जवान हो चुके बेटे से मिलने आए अधेड़ पान सिंह पीछे से अपने वर्दी पहने बेटे को जाता हुआ देख रहे हैं. आप सिर्फ़ उन आँखों को देखने भर के लिए यह फ़िल्म देखने जाएं. ऐसा विस्मयकारी दृश्य लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के लिए दुर्लभ है.
’पान सिंह तोमर’ जैसी फ़िल्में हिन्दी सिनेमा में दुर्लभ हैं और मुश्किल से नसीब होती हैं. हम इस राष्ट्र की किसी एक उपकथा के माध्यम से इस बिखरी तस्वीर के सिरे आपस में जोड़ पाते हैं. ’पान सिंह तोमर’ वह उपकथा है जिसमें आधुनिक राज्य अपना किया वादा पूरा नहीं करता और निर्णायक क्षण अपने हाथ वापस खींच लेता है. एक सामान्य नागरिक बन्दूक उठाने के लिए इसलिए मजबूर होता है क्योंकि उसके लिए दो ही विकल्प छोड़े गए हैं, पहला कि बन्दूक उठाओ या फिर दूसरा कि मारे जाओ. मरना दोनों विकल्पों में बदा है. वर्तमान में इसी राज्य द्वारा पोषित कथित ’विकास’ के अश्वमेधी घोड़े के रथचक्र में पिस रहे असहाय नागरिक द्वारा विरोध में उठाए जाते विद्रोह के झंडे को भी इसी संदर्भ में पढ़ने की कोशिश करें. देखें कि आखिर उसके लिए हमारी राज्य व्यवस्था ने कौन से विकल्प छोड़े हैं? और यह भी कि अगर निर्वाह के लिए वही विकल्प आपके या मेरे सामने होते तो हमारा चयन क्या होता?
---मिहिर पंड्या. साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के अप्रैल अंक में प्रकाशित

Thursday, April 5, 2012

है जवाब किसी के पास?






पान सिंह तोमर क्यों एक बेहतरीन और हमारे वक्त की एक ज़रुरी फिल्म है, इसे देखकर ही समझा जा सकता है। ‘कैसी है?’- ये फिल्म देखकर निकले किसी शख्स से जब आप ये सवाल पूछते हैं तो जवाब संक्षिप्त नहीं मिलता। फिल्म देखने के बाद युवा पत्रकार प्रबुद्ध से पूछे इसी सवाल का लंबा जवाब.





पान सिंह अपने अफ़सर से कहता है-- चौथी फ़ेल हूं, आदमी पढ़ा है। ये संवाद लिखा पान सिंह के लिए गया लेकिन संवाद का दूसरा हिस्सा इरफ़ान के लिए सटीक है...आदमी पढ़ा है। सच तो है। बिना आदमी पढ़े, इंसानी जज़्बात के तमाम रंग पान सिंह तोमर के कैनवस पर छिटकना मुमकिन नहीं था। एक ऐसे देश में जहां बायोपिक के नाम पर दूरदर्शन डॉक्यमेंट्री बनती हैं, वहां ये फ़िल्म विषय और उसकी प्रस्तुति का नायाब नमूना है। कलाकारों के चयन से लेकर लोकेशन तक, संवाद से लेकर स्क्रीनप्ले तक सब कुछ आला दर्जे का‍‌।फिल्म की रफ़्तार और थ्रिल पारंपरिक हिंदी फिल्म के खांचे से सट कर गुज़रते हैं, पर उसमें अपने को फंसाने की कोशिश नहीं करते। यही निर्देशक की कामयाबी भी है। क्योंकि, सिनेमा अगर जादू न चलाए तो बेकार है। उस अंधेरे में पान सिंह के साथ आप अपने अंदर के बाग़ी को तलाशने लगेंगे, उस किरदार को उभारने में इतना तो इरफ़ान ज़रूर कर गए हैं। फिर वो बॉस को जवाब देने का माद्दा हो, अपनी रोज़मर्रा की नौकरी से बग़ावत करना या फिर आपके किसी जायज़ काम में अड़ंगा डालने वाले व्यक्ति का गिरेबान पकड़कर उसे सबक सिखाना।


और फिर इन बग़ावती तेवरों को वजह बख़्शने वाला संवाद भी तो है जो कहता है कि जो किया वो ख़ुद नहीं किया बल्कि हालात ने करवाया। फिर उसका जवाब मांगा जाता है, दो बार---"जा बात कौ जवाब कौन देगौ" । एक बार पान सिंह के हाथों क़त्ल हुए आततायी भाई से और दूसरी बार थियेटर में बैठे दर्शकों से।

... और जवाब, वो तो न भाई के पास है और न ही दर्शकों के।


इंटरवल से पहले के पान सिंह से मोहब्बत सी होने लगती है। अपना सा लगता है वो। बेलौस अंदाज़, बेसाख़्ता सचबयानी, और वो चीते सी रफ़्तार। वो आदमी जो फौज में स्पोर्ट्स में भर्ती हुआ इसलिए कि वहां कम से कम खाने पर रोकटोक तो न होगी। लेकिन, जिसने अपनी मेहनत और रफ़्तार से देश का सिर ऊंचा किया। जब माटी और मां की याद ज़्यादा सताने लगी तो फ़ौज छोड़ दी, गांव का रूख़ किया। गांव में रफ़्तार के पांव में बग़ावत का लोहा भरने के सारे हालात पहले से तैयार थे। भाइयों ने सताया तो पुलिस और प्रशासन ने भी नहीं बख़्शा। तमाम मेडल और तस्वीरें बेमानी हो गए। बेटे को लथपथ कर घर में डाला गया। पान सिंह के हिस्से में आया तो धधकता हुआ गुस्सा और कुछ न कर पाने की छटपटाहट।

बस यहीं से जन्म हुआ बग़ावत का।


पान सिंह उन चुनिंदा फिल्मों की जमात में शामिल हो गई है जहां हर दूसरे मिनट आपको बेहतरीन सिनेमाई दृश्य और चुटीले संवादों का मेल मिलेगा। एक बानगी देखिए:

पान सिंह चंबल के बीहड़ों में अपने गैंग के साथ बैठा है। तभी एक साथी रेडियो ऑन करता है। रेडियो पर कमेंट्री--और कभी अंतर्राष्ट्रीय स्टीपलचेज़ धावक रहे पान सिंह ने पुलिस की नाक में दम कर रखा है(कुछ ऐसा ही) और पान सिंह का उस साथी को गरियाना...अबे बंद कर जाए...जब देश के लिए दौड़े, तब कऊ ने न पूछा और अब बागी है गए हैं तो हर तरफ़ पान सिंह।


या जब पान सिंह अपने फौजी बेटे से मिलने जाता है। बेटा, पिता के पैर छूना चाहता है लेकिन पिता बाक़ी लोगों के सामने अपनी पहचान ज़ाहिर करना नहीं। दोनों के बीच जो संवाद होता है वो आम होकर भी कितना ख़ास है, ये महज़ देखने नहीं महसूस करने की चीज़ है।


लेकिन एक सीन जिसकी एडिटिंग को देखकर लगा कि अरे एडिटर, सिर्फ़ दस फ्रेम और छोड़ देता तो उसका क्या जाता वो है जब पान सिंह फौज से विदा लेने के बाद अपने सीनियर अफ़सर से फोन पर बात कर रहा है। अफ़सर उसके लिए आइसक्रीम भिजवाता है। पान सिंह, फोन पकड़े पकड़े कहता है---ये हमारौ सबसे बड़ौ इनाम है। ये कहते हुए पान सिंह के चेहरे पर जो भाव आता है उसे एबरप्ट तरीक़े से काट कर दूसरे सीन पर जाने की जल्दबाज़ी समझ से परे है।


पान सिंह जिस दौर के सिस्टम से, जिस जगह पर लड़ रहा है वहां दुनाली बंदूक़ों से ख़ून बहना और बहाना मामूली बाते हैं। एक ऐसी जगह जहां कलक्टर भी कहने को मजबूर होता है कि ये तुम्हारा झगड़ा है, तुम्ही निपटो। जहां पुलिस स्टीपल चेज़ के मायनों में ह्यूमर तलाश रही है। ऐसे में बग़ावत को आप जस्टिफ़ाई नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे।


पान सिंह का एनकाउंटर करने वाले पुलिस अधिकारी को उसका सीनियर कहता है-- यार, इस पान सिंह ने देश के लिए कई मेडल जीते हैं। इस पर तपाक से इंसपेक्टर का जवाब आता है--सर, पान सिंह सिर्फ़ एक अपराधी है।
तब आपको पान सिंह का ये संवाद याद आता है---
हम तो एथलीट हते, धावक। इंटरनेसनल। अरे हमसे ऐसी का गलती है गई कि तैने हमसे हमायो खेल को मैदान छीन लओ। और तुम लोगन ने हमाये हाथ में जे पकड़ा दई। अब हम भग रए ऐं चंबल के बीहड़ में। जा बात कौ जवाब कौन देगौ, जा बात कौ जवाब कौन देगौ।


और जैसा मैंने पहले कहा--
जवाब, वो तो न भाई के पास है और न ही आपके।
और फिर से...जैसा मैने पहले कहा...
इंटरवल से पहले के पान सिंह से मोहब्बत सी होने लगती है। इंटरवल के बाद के पान सिंह से मिलने के बाद व्यवस्था से हताशा हमारे मन में कहीं गहरे तक पैवस्त होती है और फिर खुद बाग़ी न बन पाने को जस्टिफाई करने की वजहें ये बावला मन एक एक कर खुद को ही सुनाता है।

-प्रबुद्ध