Note:

New Delhi Film Society is an e-society. We are not conducting any ground activity with this name. contact: filmashish@gmail.com


Tuesday, January 19, 2010

Saigal's Biography Re-released



- NDFS Desk



The national-award winning biography of Bollywood's legendary singer Kundan Lal Saigal is re-released in paperback edition. In a function organised at Films Division auditorium former information and broadcasting minister Vasant Sathe unveiled the book titled 'Kundan' on 18th January, Saigal's 63rd death anniversary.Saigal's grandson Rabinder Chopra was also present in the function.The book has been penned by Sharad Dutt, a former director of the Delhi Doordarshan Kendra. A documentary on Saigal entitled 'Saigal aye, baso more man mein', directed by Dutt, was also screened at the function.
The book (in hardbound) and the film both were released on Saigal's birth centenary in 2004. The book also won the 2005 national award. Considering the mass popularity of the book the Penguin decided to publish it in paperback.
Recounting Saigal's contribution to music, Dutt says he has slammed 'most of the rumours and incorrect facts about Saigal' in the book.
'The book puts an end to all the rumours about Saigal. I've tried my best to do that. When I was researching for the book and the documentary simultaneously that I started in 1997, I realised there was not even a single correct fact about him in circulation,'.
'Take for example the correct date of his birth is April 4, 1904 and not April 11, as both are available. Then the reason of his death was diabetes as opposed to those floating in the industry. This research work of almost eight years is practically a correct work on his life,' he added.
Dutt also informed that Saigal was 'the first singer to bring (Mirza) Ghalib's poems on record'.
'He was the superstar of new cinema. By the time 'Devdas' was released in 1935, he was already a household name. He was the singer of the century and every singer from Mukesh to Kishore Kumar have been inspired by him,' said Dutt.

Some of Saigal's all time hits are 'Jab dil hi toot gaya', 'Ek bangla bane nyara', 'Dukhake din aab bitat nahin', 'Duniyamen hun duniyaka talabgaar nahin hun' and 'So ja rajkumari so ja'. Saigal was born in Jammu, where his father was a tehsildar at the court of the ruler of Jammu and Kashmir. He took to music in the 1930s after the Kolkata-based film studio New Theatres, owned by B.N. Sircar, hired him. Before that, he worked as a salesman at Remington Typewriters there.
Having received his grounding in Indian classical music from Ustad Fayyaz Khan, Saigal was afraid of his father who was against his singing. The multilingual artist thus started singing in his initial movies under the name of Saigal Kashmiri. The book has many more interesting stories of Saigal's life. It's price is Rs 150.

Sunday, January 17, 2010

'गुलज़ार करेले की सब्ज़ी हैं, यार!'



In a state of complete fascination with Vishal Bhardwaj's upcoming movie Ishqiya's song 'Dil to bachcha hai jee' Prabuddh, a young journalist and movie buff, recalls how he fell in love with the poetry of Gulzar. Although he has ignored (read forgotten) mentioning Vishal Bhardwaj's name while praising the composition in detail, accolade for Vishal, the music director is implied.

एक तरफ़ जावेद अख़्तर हैं तो दूसरी ओर गुलज़ार। दोनों ही बेहतरीन गीतकार। एक जो लड़कपन में आप ही के अरमानों को लफ़्ज़ दे रहा था तो दूसरा जिसका लिखा सुनने में तो अच्छा लगता था पर ज़्यादा समझ नहीं आ पाता था। इसलिए लड़कपन में जावेद अख़्तर से ज़्यादा दोस्ती हुई। 'कत्थई आंखों वाली इक लड़की' उस गोरी,चटखोरी पे भारी पड़ती थी जो कटोरी से खिलाती थी। पर हां, साउन्ड्स तो उस समय भी समझ आते थे, मेरा मतलब गाने के संगीत से अलग सिर्फ़ शब्दों के अपने साउन्ड, जैसे- छैंया, छैंया, चप्पा चप्पा चरखा या फिर छैया छप्पा छई। पर उसके बाद के शब्दों की रेलगाड़ी दिमाग़ के बहुत कम स्टेशनों पर दस्तक दे पाती थी।
उस लड़कपन से जवानी की कारी बदरी तक लंबा वक़्त बीत चला है और इस दौरान कब गुलज़ार ज़ेहन मे जावेद अख़्तर की जगह हावी होते गए पता ही नहीं चला। ठीक उस अच्छे बच्चे की तरह जो बचपन में सारी सब्ज़ी-तरकारी खाता है सिवाय करेले की सब्ज़ी के क्यूंकि शायद उसकी ज़ुबान तक तक उस बेहतरीन ज़ायके को पकड़ने में नाकाम रहती है। बड़े होने पर वही करेला ख़ूब सुहाता है।तो गुलज़ार से अपनी दोस्ती भी कुछ इसी क़िस्म की रही। शब्द, कानों से गुज़रने के बाद दिमाग़ के सही ठिकानों पर टकराते गए और होठों पर कभी मुस्कान तो कभी चेहरे की उदासी में बदलते गए। वो गोरे रंग के बदले श्याम रंग दई दे के बार्टर सिस्टम की परतें एकदम खुलने लगीं, नायिका का कुछ सामान क्यूं नायक के पास पड़ा है समझ आने लगा, उसकी हंसी से फसल पका करती थी...कैसे...जानने की ज़रूरत नहीं रह गई, गोरे बदन पे उंगली से नाम अदा लिखने के मायने और पीपल के घने पेड़ के साये में गिलहरी के झूठे मटर खाने की इमेजरी दिल की धड़कन को बेतरह तेज़ कर गई।
और इन दिनों वही गुलज़ार, 'दिल तो बच्चा है जी' के साथ उथल-पुथल मचाए हुए हैं। एक ऐसा गाना जिसमें मुकेश, राजकपूर, 'दसविदानिया' का गिटार, 60 के दशक का ऑरकेस्ट्रा अरेंजमेंट, टैप डांस, राहत की मासूमियत सब गड्ड-मड्ड होने लगते हैं। लेकिन, ख़ुशकिस्मती से ये सब लफ़्ज़ों की उस लड़ी में गुंथे हैं जहां इनकी ख़ुशबू ख़त्म नहीं होती। बल्कि हर बार सुनने में कोई नया ही रंग नुमाया होता है। राहत ने बख़ूबी गाया है इसे। ज़रा ध्यान से सुनिएगा, गाने में पहली बार जब राहत ने 'बच्चा' बोला है, क्यूंकि बाक़ी के गाने में 'बच्चे' की साउंड, सपाट मिलेगी ऐसी अल्हड़ नहीं।ये गुलज़ार ही हैं जो दिल को कमीना कहने के बाद भी उसकी मासूमियत बरक़रार रख पाते हैं। ऐसा नहीं है कि जावेद अख़्तर अच्छे गीतकार नहीं है, लेकिन गुलज़ार...उनकी लीग ही अलग है।
(ये पोस्ट 'दिल तो बच्चा है जी' को रिपीट मोड में प्ले कर लिखी गई है ;-)

(Can also be read at: http://www.prabuddhajain.com/)

Friday, January 15, 2010

Screening of 'Road to Sangam' at Press Club



Press Club of India is screening
'Road to Sangam'
(Winner of many Awards)
directed by
Amit Rai
on
16-01-2010 (Saturday)
at
7.30 P.M.
at
Press Club Lawns.
( For members only)



Synopsis:
A simple story of a God fearing, devout Muslim mechanic named Hashmat Ullah (Paresh Rawal) who has been entrusted the job of repairing an old V8 ford engine, not knowing the historic significance that it once carried the ashes of Mahatma Gandhi which were immersed in the holy river 'Sangam'. He is caught in a complex situation after a powerful bomb explosion rocks his town leading to the arrest of innocent Muslim youths of his locality. A strike to work is called by the prominent Leaders played by Om Puri and Pavan Mallhotra, of his community to protest against the unjust treatment meted out to those arrested youths by the police. Will he support the protest and abandon the repair of the engine or go against the wishes of his community. Thus begins his journey. A journey of Gandhian values and principles. A journey of patriotism. A journey called "Road To Sangam (CONFLUENCE)".
Cast:
Paresh Rawal, Om Puri, Javed Sheikh. Swati Chitnis, Pawan Malhotra.


Tuesday, January 12, 2010

आल इज नॉट वेल: वी आर पैथेटिक

- अभय तिवारी


आज थ्री इडियट्स देख ली। अच्छा हुआ कि सुबह के शो में नब्बे रुपये दे के ही देख ली। शाम के शो में देखता तो १३५ रुपये और मेरी जेब से निकलकर विनोद चोपड़ा की जेब में पहुँच जाते। पहले ही कामयाबी के सारे रिकाड तोड़ती फ़िल्म १३५ रुपये और कामयाबतर हो जाती।
वैसे तो थ्री इडियट्स बहुत ही कामयाब फ़िल्म है। कैसे है जी कामयाब? फ़िल्म पैसे बटोर रही है और शुहरत भी बटोर रही है। इतनी कि चेतन भगत जी को शिकायत है कि जो शुहरत उनके हिस्से की थी वो भी हीरानी जी, चोपड़ा जी और जोशी जो बटोर रहे हैं। और फ़िल्म ने इसी की कामना की थी जो उन्हे प्राप्त हो गया, सो हैं वो कामयाब (कामना-प्राप्ति)।
जैसे की आम हिट फ़िल्में होती हैं वैसे ही हिट फ़िल्म हैं। लेकिन कुछ यार लोग गदगद हैं और अभिभूत हुए जा रहे हैं कि बड़ी साहसी फ़िल्म है और न जाने क्या-क्या। मेरी समझ में तो ये एक बेईमान और नक़ली फ़िल्म है। क्यों? फ़िल्म उपदेश तो ये देती है हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी हो कि छात्र ए़क्सेलेन्स को पर्स्यू करे सक्सेज़ को नहीं। सक्सेज़ से यहाँ माएने पैसा और गाड़ी है, जो चतुर नाम के चरित्र के ज़रिये बार-बार हैमर किया जाता है। लेकिन ख़ुद फ़िल्म एक्सेलेन्स को नहीं सक्सेज़ के (मुन्नाभाई) समीकरण को लागू करती है। ये उस तरह के नक़ली बाबाओं के चरित्र जैसे है जो प्रवचन तो वैराग्य और त्याग का देते हैं, लेकिन खुद लोभ, और लालच के वासनाई दलदल में लसे रहते हैं।
जिस तरह के मोटे चरित्र बनाए गए हैं, जिस तरह की सड़कछाप बैकग्राउन्ड स्कोर तैयार किया गया है, जिस तरह की छिछोरी, चवन्नीछाप, सैक्रीन स्वीट सिचुएशन फ़िल्म में हर दस मिनट बाद टांकी गई है, जिस तरह से ‘आल इज वेल’ के अश्लील इस्तेमाल में एक बच्चे तक का शोषण किया गया है, वो सब इसी ओर इशारा करते हैं। मैं ये नहीं मान सकता कि एफ़ टी आई आई में तीन साल तक वर्ल्ड सिनेमा का आस्वादन करने और उसके बाद लगातार करते रहने के बाद राजकुमार हीरानी और विनोद चोपड़ा का मानसिक स्तर इसी फ़िल्म का है। निश्चित ही यह फ़िल्म उन्होने एक दर्शकवर्ग को खयाल में रखकर बनाई है। ये है बेईमानी नम्बर वन। यानी आप श्रेष्ठता के अपने पैमाने से इसलिए नीचे उतर आएं क्योंकि आप के पैमाने पर बनी एक्सेलेन्ट फ़िल्म को देखने और समझने वाले की संख्या बहुत सीमित होगी।
इसके जवाब में यह दलील आएगी कि जी नहीं हमने तो यह फ़िल्म दर्शक तक एक नोबेल मैसेज ले जाने के लिए बनाई है। सचमुच? अगर ऐसा है तो वो दर्शक आप की बात सुनते ही उसको लोक कैसे ले रहा है? यानी जिस बात को आप कम्यूनिकेट करने की कोशिश कर रहे हैं, उस बात से देखने वाले पहले से सहमत है; वो अपनी ही बात परदे पर देखकर ताली बजा रहा है। इसे राजनीति में पॉपुलिस्ट पॉलिटिक्स कहा जाता है, और लोकभाषा में ठकुर सुहाती। अगर कोई ये समझता है कि ये किसी की मानसिकता बदलने की कोई कोशिश है तो ग़लत समझता है, यह स्थापित मानसिकता को समर्पित फ़िल्म है, जिसे कॅनफ़ॉर्मिस्ट कहा जा सकता है।
जिस सच्चाई को फ़िल्म में दिखलाया गया है अगर वो आज से बीस साल पहले दिखाई गई होती तो मैं फिर भी मान लेता कि फ़िल्म में कुछ वास्तवकिता है, और कुछ ईमानदारी भी है। ये तब होता था कि पेशे के नाम पर दो ही पेशों का ख़्याल आता था, इंजीनियर और डॉक्टर। ये सच्चाई तो कब की बदल चुकी। वाइल्डलाइफ़ फोटोग्राफ़र कितने पैसे कमा सकते हैं, वो एक इंजीनियर कभी नहीं कमा सकता। मुझे लगता कि ईमानदारी की बात हो रही है अगर आज कल के कॉल सेन्टर कल्चर में पैसा कमाने वाले बच्चों में ज्ञानार्जन को लेकर जो उदासीनता है उस की बात की जाती।
लेकिन वो करने की हिम्मत फ़िल्ममेकर में नहीं थी क्योंकि अपने दर्शक को संशय में डालना मतलब बहुत बड़ा ख़तरा मोल लेना। और ये वैसी फ़िल्म है जिसने एक जगह भी ख़तरा नहीं उठाया। मुन्नाभाई फ़ार्मूले को जमकर इस्तेमाल किया। मेरे ज़ेहन में इस फ़िल्म को डिफ़ाइन करने के लिए जो सबसे उपयुक्त शब्द आता है वो है पैथेटिक।
मेरी अपनी राय में यह फ़िल्म न सिर्फ़ फूहड़ और बेईमान है बल्कि शर्मनाक भी है मेरे लिए। राजकुमार हीरानी और विनोद चोपड़ा तो धंधे वाले लोग है, और कामयाब धंधेवाले हैं; मेरे धंधे वाले लोग हैं, उनको मेरी बधाईयां हैं। अफ़सोस और शर्म तो अपनी पीढ़ी और नौजवान पीढ़ी के लोगों से है जो अभी तक इस तरह के नौटंकीछाप सिनेमा को एक्सेलेंस समझ लेने की बकलोली कर सकते हैं।
हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं उस से आप किसी तरह की नई ऊँचाईयों को छूने की उम्मीद नहीं कर सकते। पन्द्रह बीस प्रतिशत लोग मध्यम वर्ग हैं, उसमें से अधिकतर लोग नौकरी मिलते ही किताब को रद्दी में बेच कर नमक खरीद लेते हैं। जो चुटकी भर नमक जितने रह जाते हैं वे भी अगर समवेत स्वर से आल इज वेल गाने लगें तो समझ लीजिये कि अभी देश सुसुप्तावस्था में ही है, नेहरू जी को धोखा हुआ था कि इन्डिया विल अवेक टु लाइफ़ एन्ड फ़्रीडम, एट दि स्ट्रोक ऑफ़ मिडनाईट आवर, व्हेन दि वर्ल्ड स्लीप्स। मैं उम्मीद करता हूँ कि इस चुटकी के एक अच्छे हिस्से को फ़िल्म नहीं जंची है लेकिन वो चुप है।
अगर हम इसी तरह की लैयापट्टी में कला की नफ़ासत खोजते रहे तो भारतीय महापुरुष के लिए काल्सेन्टर से अधिक उम्मीद नहीं है। जो दक्षिणभारतीय चतुर और रामलिंगम जो अमरीकादि में सफल हो गए हैं वही अपनी हद है और ये बांगडू और चाचड एक दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं। जब मैं ने जामिया के एम सी आर सी में (हिन्दी फ़िल्मों) पर पेपर तैयार किया था तो उसकी आख़िरी लाइन थी, "हिन्दी फ़िल्में उसके दर्शक को अपनी आंकाक्षाओं के साथ हस्तमैथुन का खुला आमंत्रण है। तब से अब तक कुछ भी नहीं बदला है"
फ़िल्म के आख़िर में माधवन की आवाज़ आती है – काबिल बन जाओ कामयाबी अपने आप ही मिल जाएगी। ये धोखा देने वाला बयान है। इसी तरह का धोखा ‘तारे ज़मीन पर’ में भी दिया गया था। जो बच्चा सब से अलग, अनोखा है, उसे अपने अनोखेपन में ही स्वीकार किया जाना चाहिये, मगर उस फ़िल्म में अनोखे बच्चे को पेंटिग प्रतिस्पर्धा में जितवाया जाता है, उसे मुख्यधारा में कामयाबी दिलाई जाती है।
यानी मुख्यधारा में कामयाबी ही असली पैमाना है। इस फ़िल्म में भी चतुर नाम का चरित आमिर के आग चूतिया सिद्ध हो जाता है क्योंकि आमिर को दुनियावी कामयाबी भी मिल जाती है। तो माधवन का संवाद आता है - काबिल बन जाओ कामयाबी अपने आप ही मिल जाएगी। ये भुलावा है, धोखा है। असली एक्सेलेन्स खोजने वाले के लिए काबिलियत ही कामयाबी है।
हालांकि फ़िल्म तमाम सिनेमैटिक पैमानो से बेहद घटिया है फिर भी अगर उसे तमाम फ़िल्मी अवार्ड्स में कई सारे अवार्ड्स मिल जायं तो मुझे कोई हैरत नहीं होगी- पैसा पीटने वाली फ़िल्म ही कामयाबी और एक्सलेंस का असली पैमाना है।

(can also be read at http://nirmal-anand.blogspot.com/)

सिनेमा के शोधार्थियों के लिए

भारतीय जन संस्थान अपने हिंदी जर्नल संचार माध्यम का एक अंक सिनेमा पर केंद्रित करने जा रहा है। इसके लिए भारतीय या विश्व सिनेमा के किसी भी पहलू पर क़रीब पांच हज़ार शब्दों के शोध पत्र आमंत्रित किए जा रहे हैं। कोशिश हो कि लेख जल्द से जल्द भेजे जाएं।
लेख भेजने के लिए नीचे लिखे ईमेल पते या फोन नंबर पर बात की जा सकती है।

जर्नल- संचार माध्यम
प्रकाशक- भारतीय जनसंचार संस्थान,नई दिल्ली
सम्पर्क- भूपेन सिंह
bhupens@gmail.com
मोबाइल न. 09999169886

Wednesday, January 6, 2010

सिस्टम में फिट थ्री इडियट्स


- रवीश कुमार


साढ़े चार स्टार्स की फ़िल्म देख रहा था। तारे छिटकते थे और फिर कहीं कहीं जुड़ जाते थे। साल की असाधारण फिल्म की साधारण कहानी चल रही थी। चार दिनों में सौ करोड़ की कमाई का रिकार्ड बज रहा था और दिमाग के भीतर कोई छवि नहीं बन पा रही थी। थ्री इडियट्स की कहानी शिक्षा प्रणाली को लेकर हो रही बहसों के तनाव में कॉमिक राहत दिलाने की सामान्य कोशिश है। कामयाबी काबिल के पीछे भागती है। संदेश किसी बाबा रणछोड़दास का बार बार गूंज रहा था।
पढ़ाई का सिस्टम ख़राब है लेकिन विकल्प भी बहुत बेकार। इसी ख़राब सिस्टम ने कई प्रतिभाओं को विकल्प चुनने के मौके दिये हैं। इसी खराब सिस्टम ने लोगों को सड़ा भी दिये हैं। लेकिन यह टाइम दूसरा है। हम विकल्पों के लिए तड़प रहे हैं। लेकिन क्या हम वाकई विकल्प का कोई मॉडल बना पा रहे हैं? सवाल हम सबसे है।

मद्रास प्रेसिडेंसी में सबसे पहले इम्तहानों का दौर शुरू हुआ था। अंग्रेजों ने जब विश्वविद्यालय बनाकर इम्तहान लिये तो सर्वण जाति के सभी विद्यार्थी फेल हो गए। उसी के बाद पहली बार थर्ड डिविज़न का आगमन हुआ। हिंदुस्तान में सर्टिफिकेट आधारित प्रतिभा की यात्रा यहीं से शुरू होती है। डेढ़ सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में परीक्षा को लेकर हमने एक समाज के रूप में तनाव की कई मंज़िलें देखी हैं। ज़िला टॉपर और पांच बार मैट्रिक फेल अनुभव प्राप्त प्रतिभावान और नाकाबिल हर घर परिवार में रहे हैं। दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे में अनुपम खेर अपने खानदान के सभी मेट्रिक से पास या फेल पूर्वजों की तस्वीरें लगा कर रखते हैं। शाह रूख खान को दिल की सुनने के लिए भेज देते हैं। पंद्रह साल पहले आई यह कहानी सुपरहिट हो जाती है। अनुपम खेर शाहरूख खान से कहता है कि जा तू मेरी भी ज़िंदगी जी कर आ।
शिक्षा व्यवस्था से भागने के रास्ते को लेकर कई फिल्में बनीं हैं। भागने का रास्ता भी है। थ्री इडियट्स फिल्म पूंजीवादी सिस्टम को रोमांटिक बनाने का प्रयास करती है। काबिलियत पर ज़ोर से ही कामयाबी का रास्ता निकलता है। काबिल होना पूंजीवादी सिस्टम की मांग है। रणछोड़ दास का विकल्प भी किसी अमेरिकी कंपनी की कामयाबी के लिए डॉलर पैदा करने की पूंजी बन जाता है। कामयाबी के बिना ज़िंदा रहने का रास्ता नहीं बताती है यह फिल्म। शायद ये किसी भी फिल्म की ज़िम्मेदारी भी नहीं होती। उसका काम होता है जीवन से कथाओं को उठाकर मनोरंजन के सहारे पेश कर देना। ताकि हम तनाव के लम्हों में हंसने की अदा सीख सकें।

बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में ही प्रेमचंद की कहानी आ गई थी। बड़े भाई साहब। इम्तहान सिस्टम पर बेहतरीन व्यंग्य। बड़े भाई साहब अपने छोटे भाई साहब को नए सिस्टम में ढालने के बड़े जतन करते हैं। छोटा भाई कहता है कि इस जतन में वो एक साल के काम को तीन तीन साल में करते हैं। एक ही दर्जे में फेल होते रहते हैं। लिहाजा खेलने-कूदने वाला छोटा भाई हंसते खेलते पास होने लगात है और बड़े भाई के दर्जे तक पहुंचने लगते हैं।

कहानी में बड़े भाई का संवाद है। गौर कीजिएगा। "सफल खिलाड़ी वह है,जिसका कोई निशाना खाली न जाए। मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दांतों पसीना आ जाएगा। जब अलजेबरा और ज्योमेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे. इंग्लिस्तान का इतिहास पढ़ना प़ड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं, आठ-आठ हेनरी हुए हैं। कौन सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो। हेनरी सातवें की जगह हेनती आठवां लिखा और सब नंबर गायब। सफाचट। सिफर भी न मिलेगा, सिफर भी। दर्जनों तो जेम्स हुए हैं, दर्जनों विलियम, कौ़ड़ियों चार्ल्स। दिमाग चक्कर खाने लगता है।"
भारतीय शिक्षा प्रणाली को लेकर ऐसे किस्से इसके आगमन से ही भरे पड़े हुए हैं। प्रेमचंद की यह कहानी बेहतरीन तंज है। उस वक्त का व्यंग्य है जब इम्तहानों का भय और रूटीन आम जीवन के करीब पहुंच ही रहा था। थ्री इडियट्स की कहानी तब की है जब इम्तहानों को लेकर देश में बहस चल रही है। एक सहमति बन चुकी है कि नंबर या टॉप करने का सिस्टम ठीक नहीं है। दिल्ली के सरदार पटेल में कोई टॉपर घोषित नहीं होता। किसी को नंबर नहीं दिया जाता। ऐसे बहुत से स्कूल हैं जहां मौजूदा खामियों को दूर किया गया है या दूर करने का प्रयास हो रहा है। इसी साल सीबीएसई के बोर्ड में नंबर नहीं दिये जायेंगे। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में बोर्ड के इम्तहानों में करीब बीस लाख से ज़्यादा बच्चे फेल हो गए थे।

इन सभी हकीकतों के बीच आमिर की यह फिल्म एजुकेशन के सिस्टम को कॉमिक में बदल देती है। जो मन करो वही पढ़ो। यही आदर्श स्थिति है लेकिन ऐसा सिस्टम नहीं होता। न पूंजीवाद के दफ्तर में और न कालेज में। अभी तक कोई ठोस विकल्प सामने नहीं आया है। प्रतिभायें कालेज में नहीं पनपती हैं। यह एक मान्य परंपरा है। थ्री इडियट्स विकल्प नहीं है। मौजूदा सिस्टम से निकलने और घूम फिर कर वहीं पहुंच जाने की एक सामान्य फिल्म है। जिस तरह से तारे ज़मीन पर मज़ूबती से हमारे मानस पर चोट करती है और एक मकसद में बदल जाती है,उस तरह से थ्री इडियट्स नहीं कर पाती है। चंद दोस्तों की कहानियों के ज़रिये गढ़े गए भावुकता के क्षण सामूहिक बनते तो हैं लेकिन दर्शकों को बांधने के लिए,न कि सोचने के लिए मजबूर करने के लिए। फिल्मों के तमाम भावुक क्षण खुद ही अपने बंधनों से आजाद हो जाते हैं। तो सहपाठी आत्महत्या करता है उसका प्लॉट किसी मकसद में नहीं बदल पाता। दफनाने के साथ उसकी कहानी खतम हो जाती है। कहानी कालेज में तीन मसखरों की हो जाती है जो इस सिस्टम को उल्लू बनाने का रास्ता निकालने में माहिर हैं। ऐसे माहिर और प्रतिभाशाली बदमाश हर कालेज में मिल जाते हैं।

चेतन भगत की दूसरी किताब पढ़ी है। टू स्टेट्स। थ्री इडियट्स की कहानी अगर पहली किताब फाइव प्वाइंट्स समवन से प्रभावित है तो यह साबित हो जाता है कि फिल्म आईआईटी में गए एक कामयाब लड़के की कहानी है जो आईआईटी के सिस्टम को एक नॉन सीरीयस तरीके से देखता है। चेतन भगत का इस विवाद में उलझना बताता है कि उसकी कहानियों का यह किरदार लेखक एक चालू किस्म का बाज़ारू आदमी है। क्रेडिट और पैसा। दोनों बराबर और ठीक जगह पर चाहिए। विधु विनोद चोपड़ा का जवाब बताता है कि कामयाबी के लिए क्या-क्या किये जा सकते हैं। परदे पर चेतन को क्रेडिट मिली है। लेकिन कितनी मिली है उसे इंच टेप से नापा जाना बताता है कि फिल्म अपने मकसद में कमज़ोर है।

इसीलिए इस फिल्म की कहानी लगान और तारे ज़मीं पर जैसी नहीं है। हां दोस्ती के रिश्तों को फिर से याद दिलाने की कोशिश ज़रूर है। आमिर खान किसी कहानी में ऐसे फिट हो जाते हैं जैसे वो कहानी उन्हीं के लिए बनी हो। आमिर अपने किरदार में सही नाप के जूते में पांव की तरह फिट हो जाते हैं। कहानी इसलिए अपनी लगती है क्योंकि कंपटीशन अब एक व्यापक सामाजिक दायरे में हैं। शिक्षा और उससे पैदा होने वाली कामयाबी का विस्तार हुआ है। हम भी कामयाब हैं और आमिर भी कामयाब है। पहले ज़िले में चार लोग कामयाब होते थे, अब चार हज़ार होते हैं। मेरे ही गांव में ज़्यादातर लोगों के पास अब पक्के के मकान है। पहले तीन चार लोगों के होते थे। कामयाबी के सार्वजनिक अनुभव के इस युग में यह फिल्म कई लोगों के दिलों से जुड़ जाती है।

भारत महान के प्रखर चिंतकों के लेखों में एक कामयाब मुल्क बनने की ख्वाहिश दिखती है। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी का भारत या अगला दशक भारत का। भारत एक मुल्क के रूप में कंपटीशन में शामिल हो गया है। ज़ाहिर है नागरिकों के पास विकल्प कम होंगे। सब रेस में दौ़ड़ रहे हैं। आत्महत्या करने वालों की कोई कमी नहीं है। दिमाग फट रहे हैं। सिस्टम क्रूर हो रहा है। काश थ्री इडियट्स के ये किरदार मिलकर इसकी क्रूरता पर ठोस प्रहार करते। लेकिन ये क्या। ये तीनों कहानी की आखिर में लौटते हैं कामयाब ही होकर। अगर कामयाब न होते तो कहानी का मामूली संदेश की लाज भी नहीं रख पाते। बड़ी सी कार में दिल्ली से शिमला और शिमला से मनाली होते लद्दाख। साधारण और सिर्फ सर्जनात्मक किस्म के लोगों की कहानी नहीं हो सकती। ये कामयाब लोगों की कहानी है जो काबिल भी हैं। कामयाब चतुर रामालिंगम भी है। दोनों अंत में एक डील साइन करने के लिए मिलते हैं। एक दूसरे की सलामी ठोंकते हैं। थोड़ा मज़ा भी लेते हैं। वो सिस्टम से बगावत नहीं करते हैं, एडजस्ट होने के लिए टाइम मांग लेते हैं। सिस्टम का विकल्प नहीं देती है यह फिल्म। न ही तारे ज़मीं की तरह सिस्टम में अपने किरदार के लिए जगह देने की मांग करती है। मनोरजंन करने में कामयाब हो जाती है। शायद किसी फिल्म के लिए यही सबसे बड़ा पैमाना है। साढ़े चार स्टार्स की फिल्म।

Monday, January 4, 2010

FIRST PRAVASI FILM FESTIVAL


- NDFS Desk


New Delhi, 4 January: The first Pravasi Film Festival commenced in the capital with several filmmakers expressing how their cultural roots bind them to the country of their origin. Inaugurating the festival, renowned filmmaker Deepa Mehta said ‘we are like children who have left their mother and gone away. And we keep coming back because the mother is so good and pulls us back.’ The VIPs also lit the traditional lamp to declare the Festival open. Union Minister for Food Processing Industries Subodh Kant Sahay said cinema was an excellent medium for integrating NRIs with their motherland. The competitive Festival has been organized by the Pravasi Today Group in association with the Mauritius government at India Habitat Center from 3rd to 6th January. Around 35 films from different countries are being screened at the Festival and a large number of the filmmakers have come to India to attend the event. A large number of personalities were present at the inauguration.

Saturday, December 26, 2009

New Delhi boasts a unique Film Fest



- NDFS Desk

New Delhi is having a rare treat for the lovers of literature, films and arts. Its 2nd Sadho Poetry Film Fest, being organized on 26th and 27th Dec. 2009 at Alliance Francaise de Delhi, 72 Lodhi Estate, from 5pm to 8pm.

The Sadho Poetry Film Fest, the first of its kind in Asia, is a unique biennial festival that showcases the finest Poetry & Poetic Films from all over the world. The 1st Sadho PoetryFilm Festival 2007-08
featured 84 films from 23 countries. The 2nd Sadho Poetry Film Fest will present 45 films from 15 countries. A rare archival poetry films made two decades ago by poets like Allen Ginsberg and experimental filmmakers are additional attraction. These films have been sourced by Sadho with painstaking labour of love. There is also a special sections featuring the best films from the collections of some other organizations that have been working in this genre. These are Zebra from Germany, Video Bardo from Argentina and Rattapallax form the US. Poetry films made by Indian filmmakers under the Sadho Poetry Films Project will also be screened. There will also be a competitive section for student films.

The Poetry Films at the festival feature the work of some very important poets from all ages and many
languages. The poetry ranges from the work of the Sufis & Saint Poets to contemporary writing and even kids' poetry. The poets include the ancient, medieval and modern like the Sufis Jalaluddin Rumi & Bulle Shah, Kashmiri saint poets Lad Ded & Shaikh Nuruddin Alam, Haiku masters like Basho, Kyoshi, and Shiki, Modern poets like Sylvia Plathh and some beautiful poetry by children as well.

The concept of poetry cinema is undoubtedly a paradigm shift. An event like this is a must watch for all those who love the medium, to have a fresh viewpoint, to explore the new extension of cinema.

Friday, December 18, 2009

पा अमिताभ बच्चन की फ़िल्म नहीं है...


- रवीश कुमार


... न औरो की है। असाधारण बीमारी को साधारण बनाकर यह फिल्म कुछ और हो जाती है। फ़िल्म के छोटे-छोटे किस्से अपनी मूल कहानी से छिटक कर अलग दुनिया रचते हैं। जो ज़्यादा गंभीर और असाधारण है। बहुत ज़्यादा इमोशनल लोड नहीं डालती है यह फ़िल्म। बल्कि गहन भावुक क्षणों में सामान्य होने की सीख देती है। साफ़-सुथरी फ़िल्म है पा। लेकिन सिर्फ पा की नहीं है।
किसी ने नोटिस क्यों नहीं किया। यह फ़िल्म राजनेता के छवि को बेहतर तरीके से गढ़ती है और राजनेता के ज़रिये मीडिया को आईना दिखलवाती है। अच्छा सा नेता। कांग्रेस के युवा ब्रिगेड की तरह खादी का कुर्ता-पायजामा पहनने वाला नेता, जो राजनीति में शतरंजी चाल की परवाह किये बिना काम करना चाहता है। इससे पहले की किस फ़िल्म ने राजनेताओं में इतना भरोसा पैदा करने की कोशिश की है, याद नहीं है। हो सकता है मुझसे छूट गई हो। एक ऐसा नेता जो सरकारी मीडिया पर भरोसा करता है। दूरदर्शन पर। उसका इस्तेमाल करता है। दूरदर्शन की पहुंच का इस्तेमाल करता है और हम प्राइवेट न्यूज़ चैनल के पत्रकारों के मुंह पर गोबर फेंक देता है। तभी किसी पत्रकार ने फ़िल्म के इस पहलू की चर्चा नहीं की, या फिर मुझी से वैसी समीक्षा छूट गई होगी।
अब वाकई डर लगता है। हमारी साख क्या इतनी खत्म हो गई है कि कोई नेता हमारे घर अपने लोगों को भिजवा देगा और हमारे घरों पर धावा बोल दिया जाएगा। शैम्पेन के नशे में धुत पत्रकारों की लाइव तस्वीर दूरदर्शन से लाखों घरों में पहुंचेगी और फिर पत्रकारिता की तमाम बहसों के बीच हम भस्म कर दिये जायेंगे। मैं कांप रहा था। अब तक आदत पड़ जानी चाहिए थी। लेकिन मेरी आंखों के सामने दीवाली पर गिफ्ट लेने वाले और दलाली करने वाले पत्रकारों की शक्लें साबुत खड़ीं हो गईं। बहुत दिनों से इस तरह की छवियां कई फिल्मों में देख रहा था। किसी घटना के संदर्भ में मीडिया के आगमन को हास्यास्पद बनाने की कोशिश की जाने लगी है। हिंदुस्तान टाइम्स के विज्ञापन में 'कैसा लग रहा है' टाइप सवाल पूछती एक पत्रकार के सिर पर अखबार का बंडल फेंक दिया जाता है। पा में बाल्की जी ने तो ग़रीबों का हमला करवा दिया है पत्रकारों पर। एक टीवी चैनल के मालिक के घर में भी लोग धावा बोल देते हैं। दूरदर्शन और प्राइवेट न्यूज चैनलों के रिपोर्टर में बहस होती है। उसका लाइव प्रसारण होता है। दूरदर्शन के स्टूडियो से। जिसकी कमज़ोर साख के बदले प्राइवेट मीडिया का जन्म हुआ, आज प्राइवेट चैनलों की साख की ये हालत हो गई कि दूरदर्शन की साख बेहतर बताई जाने लगी है। जाने कितने पत्रकारों का पसीना पानी हो रहा है। मैं भी कभी-कभार कहता रहता था कि एक दिन पब्लिक हमें मारेगी। लेकिन अंदाज़ा नहीं था कि हम इस तरह कहानियों के क्रूर पात्र हो जायेंगे। कुपात्र हो जायेंगे।
युवा नेता अभिषेक बच्चन। एक अच्छा सा नेता। इसके ज़रिये घटिया स्तर से नीचे चल रही मीडिया पर लात-जूते बरसवाती है ये फ़िल्म। बाहर की असली मीडिया में इस पर सन्नाटा। फ़िल्म की कहानी से घोर सहमति बता रही है क्या? हम अपने भीतर बहस कर चुप हो जाते हैं। गले को कस कर नाक से हवा छोड़ते हुए कांय कांय आवाज़ निकालते हैं। हम सब राजनीतिक से लेकर इलाकाई और अन्य तरह के स्वार्थों पर केंद्रित खेमों में बंटे हैं। आलोचना अपने खेमे को बचाकर सामने वाले की की जाती है। इसलिए पत्रकारों की आलोचना भी सवालों के घेरे में है। हम किसी न किसी के हाथ में खेल रहे हैं। उसे सही ठहराने के लिए दलीलों की भरमार हैं। मीडिया का म नहीं जानने वाले आलोचक अख़बारों के कॉलम से उगाहने लगे हैं। इन्हीं सब के बीच कोई बाल्की जैसा काबिल निर्देशक आराम से अपनी फिल्म के पर्दे में दो छवि बनाता है। अच्छे नेता की और दूसरी, लतखोर मीडिया की। फिल्म अभिषेक के बहाने राहुल गांधी को प्रतिष्ठित करती है। उन राजनेताओं को कोई पूछने वाला नहीं जो ईमानदार भी रहे और गंवई भी। मर गए लेकिन किसी ने फिल्म तक नहीं बनाई।
अब डरना चाहिए। इतनी बेबस मीडिया न तो पत्रकारों के लिए ठीक है न समाज के लिए। पत्रकारों के बिकने की खबर आउटलुक जैसी पत्रिका का कवर बनती है। प्रभाष जोशी अखबारों का नाम अपने कॉलम में लिख विदा हो गए। सन्नाटा। चुप्पी। अपने भीतर आंदोलन कैसे हो? चलो इग्नोर कर दो। इसमें कोई बुराई नहीं। बुराई तो इसमें है कि चुप्पी का फ़ायदा उठाकर फिर से वही करने लग जाते हैं। सुधरते नहीं हैं। टीवी की आलोचना अपने माध्यम के लोगों के साथ करना मुश्किल है। सब स्वार्थों से एक दूसरे पर साधने लगते हैं। बोलने का अधिकार सबको होना चाहिए। कैसे रोका जाए। लेकिन जो फिल्म जिसकी नहीं है,उसकी तो मत कहो। एक पुलिस अधीक्षक हाल ही में फोन कर रोने लगे कि स्ट्रिंगर लोग दारोगा की बदली के लिए दबाव डालते हैं। उनसे महीने की दलाली लेते हैं। इनसे कैसे निबटें। बहुत सुनने के बाद उनसे यही कहा कि अगर आप के पास सबूत है और यकीन है तो पकड़ कर टांग तोड़ दीजिए। क्या यही छवि है हमारी पब्लिक में। फिर हम किस पब्लिक के नाम पर दुनिया के खात्मे वाले कार्यक्रमों को संवारेंगे। एक दिन वो भी फेल कर जायेगा।
पा, अमिताभ बच्चन की फ़िल्म नहीं है। एक अच्छे राजनेता की है। जो काम करते करते थका जा रहा है। जिसका कुर्ता सचिन पायलट से मिलता है। जो राहुल गांधी की तरह अंबेडकर बस्ती में जाकर हरिजनों को गंदगी से निजात दिलाने के लिए योजनाएं बनवाता है। सैंकड़ों लोगों के बीच आकर अपनी निजी ज़िंदगी की बात स्वीकार कर लेता है। 'हां उस रात मैंने कंडोम का इस्तमाल नहीं किया।' 'मैंने भी वही किया जो मेरी उम्र का लड़का कर जाता है।' 'लेकिन अच्छा हुआ कि उस रात कंडोम नहीं था।' 'वर्ना औरो जैसा बेटा कहां मिलता।' अमोल अर्ते की साफगोई ने सियासी साज़िशों को उलट दिया। वह एक ज़िम्मेदार नेता है। अपनी सुरक्षा को लेकर ज़िम्मेदार है। लोगों को सड़क पर पॉटी करता देख नाराज़ होता है। कहता है सरकार ने शौचालय बनवा रखे हैं। अब यहां बाल्की को मीडिया की मदद लेनी चाहिए थी। जो दिखाता कि सरकारी शौचालयों की क्या हालत है। हम भी यही कर देते हैं कभी-कभी। इकतरफा हो जाते हैं।
लेकिन बाल्की ने फिल्म मीडिया की छवि बनाने के लिए नहीं बनाई है। बल्कि छवियों को गढ़ने वाली मीडिया को गर्त में फेंक देने के लिए बनाई है। दूरदर्शन की महिमा है। फिल्मकार की आलोचना सही है। लेकिन इकतरफा है। मीडिया की तरफ से वकालत करने का कोई फायदा नहीं है। हमारे इतिहास और वर्तमान में बहुत कुछ अच्छा है। बहुत कुछ अच्छा भी हो रहा है। लेकिन जो बुरा है वो ज़्यादा हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि न्यूज़ चैनलों को प्रोजेरिया हो गया है। इतने कम समय में इतनी तेज़ी से बढ़ गए कि हांफने लगे हैं। दम तोड़ते से लगते हैं। उन्हीं की इस बीमारी की कहानी है पा। कोई शोध करेगा कि इक्कीसवीं सदी की हिन्दी फिल्मों में मीडिया के फटीचर काल का चित्रण।
नोट- पा एक मां और उसकी अनब्याही बेटी की भी कहानी है जो मां बनना चाहती है। दोनों के रिश्तों में आज के समय के हालात की चुनौतियों को परिपक्वता से गढ़ने की कोशिश है। ये वो मां है जो अपनी अनब्याही बेटी के मां बनने पर उसे कलमुंही और कुलबोरनी नहीं कहती है। पूर्वजों को याद कर माथा नहीं पीटती कि इसने आपका सत्यानाश कर दिया है। बल्कि मां अपनी बेटी से सवाल करती है कि ये बच्चा चाहिए या नहीं। उसके बाद पूरी ज़िंदगी अपनी बेटी का साथ देती है। पा दो मांओं की भी कहानी है।

Wednesday, December 16, 2009

'पा' से प्रोमोशन




-प्रबुद्ध


'पा' और '3 इडियट्स'... दो ऐसी फ़िल्में जो फ़िल्म प्रोमोशन का व्याकरण नए सिरे से लिख रही हैं। दो ऐसी फ़िल्में जिनके पास बड़े स्टार का तड़का है, बड़े निर्देशक की कमान है लेकिन फिर भी जिन्होंने मानो ठान रखा है कि लोग अगर इन्हें बेहतरीन फ़िल्म की तरह याद रखेंगे तो जुदा प्रोमोशन के लिए भी।

जब रॉकेट सिंह के विषय में सुना था तो लगा कि फ़िल्म का प्रोमोशन भी कमाल का होगा लेकिन मैं ग़लत निकला। सेल्समैनशिप के सबक तो 'पा' और '3 इडियट्स' दे रही हैं। दरअसल 'पा' का प्रोमोशन कहीं न कहीं उस असुरक्षा से भी उपजा है जहां जोख़िम उठाने की ताक़त कम हो जाती है। एबी कॉर्प, अपने नए अवतार में जोख़िम लेने के मूड में क़तई नहीं है। सो, एक कम बजट की अच्छी कहानी को बेचने के लिए जो करना पड़े वो तैयार है। एक 67 साल के कलाकार को, जिसके सीने पे सम्मान के तमाम तमगे जगमग हैं, टीवी स्क्रीन पर हर थोड़ी देर में ऑरो की आवाज़ में बात करते हुए कोई गुरेज़ नहीं है। और सच पूछिए तो हो भी क्यूं। अपना सामान बेचने में शर्म कैसी? अमिताभ बच्चन आपको चैनल-चैनल, उस स्पेशल डेंचर के साथ ऑरो बने मिल जाएंगे। अब तो ऑरो कमेंट्री भी कर चुका है। यानी अख़बार से लेकर टीवी, टीवी से वेब और वेब से आपके आइडिया मोबाइल तक, वो हर जगह मौजूद है।

ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर डालिए, बताइये इससे पहले बच्चन साहब इस तरह प्रचार करते नज़र आए थे कभी? अगर 'पा' का बोझ अमिताभ बच्चन ने अपने कंधों पे उठा ऱखा है तो '3 इडियट्स' के लिए मिस्टर परफ़ेक्शनिस्ट, आमिर ख़ान, अपने परफ़ेक्ट मेकओवर के साथ शहर दर शहर घूम रहे हैं। आपको याद होगा, 'गजनी' के प्रचार के दौरान आमिर का लोगों के बालों को वही स्टाइल देना। लेकिन इस बार वो अलग-अलग वेश में देश भ्रमण पर हैं। यानी वो केश की बात थी, ये वेश की है ! ख़बरिया चैनलों को बाक़ायदा इस 'भ्रमण' का वीडियो उपलब्ध कराया जाता है और हमारे चैनल इसे एक आज्ञा अथवा आदेश मानकर
बड़ी मासूमियत के साथ पूरा कर रहे हैं। आधे घंटे का अच्छा विजुअल मसाला जो है। चैनल को दर्शक मिलते हैं और आमिर की फ़िल्म को मुफ़्त का प्रचार। इसके लिए आमिर अपने चहेते क्रिकेटर और दोस्त सचिन को भी साथ ले आए हैं। पहला क्लू तो सचिन ने ही दिया था न।

इन दोनों फ़िल्म की प्रचार रणनीति ने कम से कम ये ज़रूर तय कर दिया है कि 2010 में अपनी फ़िल्म बेचने वालों को जमकर दिमाग़ी कसरत करनी पड़ेगी। तब तक, 2009 के 'सेल्समैन औफ़ द ईयर' सम्मान के हक़दार रॉकेट सिंह नहीं बल्कि 'पा' और '3 इडियट्स' हैं।

Sunday, September 13, 2009

Cinemala Festival

- NDFS Desk

Cinemala festival intends to take the films created by young artists to the young audience and is an effort to make a space for the new creative voices from all over the world which is denied by the crude logic of media industry. The previous editions of Cinemela film festival received overwhelming response from all quarters and the Limca Book of World Records has recognized the festival for its uniqueness. The festival also provides a platform where interactions among veteran film persons, young filmmakers, audience and others can be possible in informal manner. Final schedule can be looked at :
http://www.youthv.com/cinemela/content/view/20/40/

Friday, September 11, 2009

Anwar : Dream of a Dark Night

- NDFS Desk


The world we live in is in the throes of a desperate quest for peace and tranquility. But it is increasingly losing its way in an intractable maze of violent conflicts, ethnic skirmishes, economic meltdowns and corporate scams. Here, hope dies first. But dreamers do continue to dream. Meet Anwar. Anwar is Delhi slum-dweller, rag picker and car cleaner. He is a mere speck in the big picture of this bitter ongoing global struggle. But his story of resilience is no less significant, no less remarkable. Anwar has left behind a mortgaged piece of agricultural land in his pretty village in pursuit of a dream. He wants to build a movie hall of his own in his sleepy hamlet on the Indo-Bangladesh border. So he slogs from dawn to midnight in the big, heartless city. Four years on, and many ups and downs later, Anwar’s dream is a reality. His village picture hall is up and running and people are streaming in… This film – a story as much of one man as of Everyman – is an attempt to celebrate a defiant dream that illumines a night of all-enveloping, impenetrable darkness.


Director: Anwar Jamal, Script: Saibal Chatterjee, Camera: S. Chockalingam, Editor:Archit Rastogi, Producer: Rajiv Mehrotra


(This film is premiering at 8 PM on September 17 at the Open Frame international film festival. Venue- Stein Auditorium, India Habitat Centre, New Delhi.)

Tuesday, September 8, 2009

'कमीने' के मायने


- के बिक्रम सिंह

कई दफा भाषा इतना आगे बढ़ जाती है कि वह सिर्फ भाषा बनकर रह जाती है, उसके अलावा कुछ नहीं। मशहूर कहावत 'माध्यम स्वयं संदेश है' का एक यह भी मतलब है कि माध्यम के पास कोई संदेश देने लायक है ही नहीं। हाल ही में जब मैंने विशाल भारद्वाज की फिल्म 'कमीने' देखी तो मेरे मन में बार-बार यही ख्याल आता रहा। 'कमीने' में तकनीकी चमक है, अच्छी ध्वनि है, रहस्यपूर्ण छायांकन है जो कुछ चीजें साफ दिखाता है और बहुत सारी चीज़ें केवल सुझाता है। संगीत भी ठीक-ठाक ही है, लेकिन इसमें बदहवास तेज़ी है जो दर्शक को सोचने समझने का मौका नहीं देती और न ही ऐसे किरदार हैं जो दर्शक के मन पर हमेशा के लिए छाप छोडें। इसलिए यह फिल्म केवल फिल्म-भाषा के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है, न कि एक कलाकृति के रुप में।

यदि हम कला-सिनेमा, जिसे मैं विचार-सिनेमा कहना ज़्यादा पसंद करता हूं, को अलग छोड़ दें तो मनोरंजन प्रधान सिनेमा में कुछ गिनी-चुनी ही फिल्में हैं जो फिल्म-भाषा के लिहाज से मील का पत्थर मानी जा सकती हैं। सिनेमा में ध्वनि आने के बाद कई दशकों तक भारतीय मुख्यधारा का सिनेमा एक सीधी गीतों भरी कहानी बनाने में ही मशगूल रहा। इसीलिए कई कहानी लेखक फिल्म के साथ जुड़े जिन्हे पटकथा लिखना बिलकुल नहीं आता था। फिल्म की भाषा साहित्यिक नहीं है क्योंकि वह केवल शब्दों पर निर्भर नहीं करती। फिल्म के लिए शब्द केवल एक तत्व है। बाकी और बहुत तत्व हैं जैसे कैमरा, शॉट लेने का तरीका, प्रकाश-संयोजन, सेट तथा लोकेशन, वेशभूषा, श्रृंगार, ध्वनि, पार्श्व-संगीत, कलाकर, अभिनय और एडिटिंग यानी संकलन इत्यादि। जिस लेखक को इन चीज़ों के बारे में ज्ञान नहीं है, वह फिल्म के लिए अच्छा पटकथा-लेखन नहीं कर सकता, क्योंकि किसी भी माध्यम में काम करने के लिए उसी माध्यम में सोचने की आवश्यकता है, चाहे वह साहित्य हो, चित्रकला हो या फिर सिनेमा।

मेरे विचार में 1975 में बनी 'शोले' ऐसी फिल्म थी जो फिल्म माध्यम में ही सोची गई थी। यह दीगर बात है कि उसे कुछ हॉलीवुड और कुछ कुरोसावा की 'सेवन समुराई' से चुराया गया था। इस फिल्म में लैंडस्केप, खुली लेकिन वीरानी कृति, साधारण जीवन से बड़े किरदार, एक ऐसी शाब्दिक भाषा जो हिंदी होते हुए भी न ही खड़ी बोली है और न ही किसी विशेष क्षेत्र की हिंदी, अच्छे किरदार तथा उत्कृष्ट ध्वनि एवं संगीत का इस्तेमाल कर जो फिल्म की एक नई भाषा गढ़ी गई वह भारतीय सिनेमा में पहले कभी देखने में नहीं आई थी। बहुत सालों के बाद सन 2004 में मणि रत्नम की 'युवा' ने फिल्म भाषा के इतिहास में एक नए मील के पत्थर की स्थापना की। इस फिल्म में तीन कहानियां अलग-अलग शुरू होती हैं, जो अंत में जाकर एक ही धारा में मिल जाती हैं। साहित्य जगत में यह तकनीक कई दफा इस्तेमाल की गई है, लेकिन हिंदी सिनेमा में मेरे ख्याल से यह पहली दफा देखा गया था।

लगभग पांच साल पहले जब मैंने विशाल भारद्वाज की 'मकबूल' (2004) फिल्म देखी थी तो मुझे यह लगा था कि यह फिल्म-निर्देशक सिनेमा से प्रयोग करने की हिम्मत कर सकता है। लेकिन 'मकबूबल' की सफलता उसके बनाने के ढंग पर कम और उसके कलाकरों और किरदारों पर ज्यादा निर्भर थी। मकबूल में कई पाए के कलाकार थे, जैसे पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, इरफान खान, पीयूष मिश्रा और तब्बू। ये सब ऐसे कलाकार हैं जो छोटे किरदार को भी जीवंत बना सकते हैं। इसके अलावा 'मकबूल' शेक्सपियर के नाटक 'मैकबेथ' पर आधारित थी और उसमें अतिनाटकीयता का भरपूर योग था।

इसके दो साल बाद 'ओमकारा' आई जो 'ओथेलो' पर आधारित थी। 'मकबूल' और 'ओमकारा' में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था। 'ओमकारा' आधुनिक नाटक की भाषा को बिलकुल तज कर फिल्म की अपनी एक भाषा गढ़ती है जो एक तरफ कहीं जाकर 'शोले' से मिलती है और दूसरी तरफ स्वांग और तमाशा की लोक नाटक शैलियों से, जिनमें 'खेला' पर अधिक ज़ोर रहता था। 'ओमकारा' में कोई बड़े कलाकार नहीं थे। इसमें अजय देवगन और करीना कपूर जैसे स्टार ज़रुर थे, लेकिन वे अपने अभिनय के लिए कुछ ज़्यादा नहीं जाने जाते थे।

'ओमकारा' ने यह सिद्ध कर दिया कि विशाल भारद्वाज साधारण कलाकारों से भी प्रभावशाली भूमिकाएं करवा सकता है। 'ओमकारा' के सबसे महत्वूर्ण 'लंगड़ा त्यागी' का किरदार सैफ अली खान ने निभाया था जो उस समय तक कुछ नर्म-गर्म शहरी किरदार निभाने के लिए जाना जाता था। विशाल भारद्वाज के निर्देशन में वह एक बिल्कुल नए रुप में उभर कर सामने आया, जिसके बाद सैफ अली खान के करियर को दूसरा जन्म मिला। 'ओमकारा' किसी भी घटनाक्रम को विस्तार से नहीं कहती, केवल इतना बताती है कि बाकी चीज़ें दर्शक खुद समझ जाएं। यह फिल्म संवाद का भी बहुत कम सहारा लेती है। शाब्दिक भाषा की दृष्टि से 'शोले' की ही तरह यह फिल्म भी एक नई भाषा गढ़ती है, जो न ही बुंदेलखंड की है, न ही राजस्थान की और न ही पूरब की। एक तरह की खिचड़ी है, लेकिन यह खिचड़ी अच्छी लगती है, और एक ऐसे देश का ज़रुर आह्वान करती है जहां पर 'ओमकारा' का घटनाक्रम घट सकता था।

इसके विपरीत 'कमीने' केवल हिंसा, हैंड-हेल्ड यानी हस्तचालित कैमरा, अंधेरे के प्रयोग और शोर भर ध्वनि पर निर्भर करती है। प्रियंका चोपड़ा के किरदार के अलावा कोई भी किरदार मन को नहीं छूता। जिस संसार में 'कमीने' के लोग रहते हैं वह शायद हॉलीवुड के निर्देशक क्वेंटिन तरनतीनो के संसार से प्रेरित हुआ है जो साधारण भारतीय दर्शक की कल्पनाशक्ति के बाहर है। यह सही है कि अब भारत की लगभग पचास प्रतिशत आबादी छोड़े-बड़े शहरों में रहती है, लेकिन इनमें रहने वाले लोग अब भी शहरों के अंधेरों के बाशिंदे नहीं हैं क्योंकि वे आज भी गांव के बहुत करीब हैं। इसमें शक नहीं कि विशाल भारद्वाज एक निहायत ही प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, किंदु यदि उन्हे क्राइजिसटोफ किस्लोविस्की का थोड़ा सा भी ऋण चुकाना है, जिनक फिल्में देखकर उन्हे फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली थी, तो उन्हे फिल्म भाषा के साथ-साथ फिल्म में विचार की तरफ भी ध्यान देना होगा। हमारे यहां विचारहीन सिनेमा की बहुतायत है। इसे और उत्कृष्ट बनाने के लिए विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक की आवश्यकता नहीं है।

(K Bikram Singh is a very senior writer, filmmaker & journalist. This article has been published in the hindi daily 'Hindustan'. Mr Singh can be contacted at kbikramsingh@bol.net.in)

Thursday, August 27, 2009

The Female Nude

-NDFS Desk

The documentary The Female Nude has been shortlisted in the Asia Livelihood Documentary Film Festival 2009. It is going to be screened on 29th August 09 at Gulmohar Hall, Indian Habitat Centre. Produced by PSBT it has been jointly directed by reputed artist Hem Jyotika and very celebrated poet of our times Devi Prasad Mishra. The documentary has also been selected for screening at the annual Open Frame International Film Festival being jointly organized by INPUT, Max Muller Bhavan and, of course PSBT, in the month of September. The film has already been shown at Jamia Millia, New Delhi, Valmiki Rangshala, Lucknow, and telecast on DD1 to great critical acclaim. The film has been hailed as furthering the cause of gender discourse.

The film is about a model, who sits up for painters and sculptors. She lives in the slum of a metro where she lives with her four step sons, and her own daughter. She must have posed for so many artists but till date she has not been invited to any of the exhibitions. She feels alienated- she is a social margin in the power structure of art. And her wages are horribly low.
The film is also about attitudes – she is an easy target of male sexual fantasies. She has been abandoned by her husband; now she has to protect herself from the stalkers in her struggle to earn her livelihood. But not all has been lost - she has been immortalized in the paintings and sculptures, and, of course, in the documentary that has been made on her life.
It is the story of the struggle of a woman for livelihood, dignity and self respect. It is the story of a woman’s alienation in the cityscape; it is also the story of redemption and hope.

Tuesday, July 7, 2009

" We miss you Dada"


7th July is the birth anniversary of musical maestro Anil Biswas. Anil da's close associate and Delhi based singer-composer Indraneel Mukherjee racalls his memories with the musical genius.


For 6 years going now ….. not long ago that we lost him to time on 31st May 2003; I used to be with Dada Anil Biswas at his South Extension residence in New Delhi where he led a recluses’ life for a long time after he left Bombay in 1965 after Motilal’s last film “Choti Choti Baatein” never to return to the tinsel town which gave him so much yet, as happens mostly to good Godly persons one often get cheated and he was no exception … in his case there were other Gods and Goddesses who were in the fray who cheated on him! Dada was a kind of a Guru to Lata Mangeshkar (besides – Mukesh, Talat and even Manna Da acknowledged it!) Anilda taught Lata to steal breath while singing so that there were no unnecessary punctuations because of lack of breath in a song line … this could be one hell of an education in singing, as anyone who was someone as a singer those days had a great voice … but this technique is what a Guru is all about and Lata was a lucky chosen one who mastered the Master’s technique and everyone knows what a singer she was, but few know that Dada Anil Biswas was a prolific singer himself (of course amongst the few who knew was a Faiz Ahmed Faiz who once said … Kaash meray kalaam ko milay ik Anil ki aawaaz)! Coming back to guru’s, Gods and Goddesses’; Dada was certainly 25 years elder to the girl he met on the sets when he was already married once with a few children, but lost to complaints and intrigues in his personal life and an estranged wife Ashalata Biswas (close to Lata as a friend) … but Meena Kapoor a stunning looker, a Lotus (as Dada told me in as it meant purity) and he was ruling the roost at the time, she met her and the man’s heart was lost yet once again and they married with the song from Anokha Pyaar 1948 Dilip Kumar / Nargis starrer ‘Yaad rakhna chaand taaron , iss suhaani raat ko’ playing in the mind’s background ! Meena ji like many others during that time … all lady singers got drowned in the fierce competition of Lata craftsmanship! However this swan pair left with bags and baggage’s and bade goodbye to the dream city once ‘n for all, for some love was missing from the Goddess Lata Mangeshkar ! Everyone knows after that Dada became a cog in the wheel of the bureaucracy of the Govt. of India’s I&B Ministry where till his retirement he was the Chief Music Producer and Emeritus later and that’s how my fate was lucky, to be sitting at his feet to absorb filmy gossip and great musical subjects between the pair divine of music giants of timeless proportions! I have always felt tremendously sad about great music directors, lyricists and some great studio musicians who were born at that time creating endless masterpieces which we call Golden era melodies … and how not everyone ever remember any song by the name of these great composers and if ever the listeners ever remember anything it is the singers’ name, when a singer is only 3rd in the row for the creation; in a masterpiece the basic soul being that of the poet and the composer who actually provides the words with wings and teaches the singer to make it fly, but essentially it is the composers soul which you find in a musical score ! …. Then why does only a Lata, Rafi, Kishore, Mukesh and a Talat get their names and composers are all forgotten, not known at all ! Yes, barring a few, Anil Biswas remained in this world for 88 years … but what to talk of this generation … amongst previous generation very few handful can recollect about such a great genius in our midst but was essentially a lost musical note from our seven music notes! Lost Anil Biswas was ….. some deliberately saw to it that he was lost, as he did just about 100 movies during the 30 years of his Bombay life (Naushad did around 50 and same with Sachin Dev Burman) when he scored for …. Tarana, Laajawaab, Roti, Aarzoo, Kismat (everyone knows that the film held a world record of running at Roxy cinema in Calcutta for 3 and a half years!) Angulimaal, Sautela Bhai, Hamdard-(who can forget ‘Ritu aye ritu jaaye’ –the Lata - Manna da duet!) Jwar Bhaanta, Jeet, Laadli, Beqasoor, Pardesi, Aasra, Bahen, Nai Roshni, Apna Paraya, Gareeb, Jawaani, Vijay, Hamaari Baat, Char Ankhen, Pehli Nazar, Milan, Bhookh, Naiya etc. (to name few which came to mind without pressurizing it too much) but he was meant to be lost …. As he never was considered by the great Indian bureaucratic selectors to get the Dada Sahab Phalke Award from the Indian Govt. which perhaps he deserved the most; but fellow composer Naushaad Ali got it even when he told the audience of Sa Re Ga Ma … that Anilda was his Rehbar & Guru, “humein ungli pakad kar chalnaa sikhaayaa”, or a Bhupen Hazarika got it composing for a handful Hindi movies and may not have reached double figures what to talk of 100 movies by a certain Anil Biswas !! Anilda was my God and he used to say even if my music has touched the life of or moved one person … my work is rewarded / paid off … but make no mistakes … he was not lost here at all, he was the most loved composer musician as I found out on daily endless gossip sessions … the amount of women fan followings he had … and what not he had I just can’t mention in this small blogspot … Anil Biswas’ music meant sheer magic to me .. I always said that Sur, Taal, Laya, Voice, Talaffuz or Expressions are definite parts of a great song but Anilda had it in him and he never ever lost that … infinite control over ‘ras’ which I call … sheer magic which was what he had the final element which every singer craves. I could write keep writing on my God but I will invoke melancholy over myself and I don’t want to weep anymore even when I know immortal men are never lost … yes, he is always with me … in fact he once told me that I was his counter ego - I remained blessed ever after at heart !!