(Says, film justifies Maoist ideology)
- NDFS Desk
New Delhi, June 22: Indian Censor Board has refused to certify ‘Flames of the Snow’, a documentary on Nepal, for public screening. The Board feels that the film ‘tells about Maoist movement in Nepal and justifies its ideology.’ It feels that ‘keeping in view the recent Maoist violence in some parts of the country’, the permission of its public screening can not be given. Produced under the joint banner of ‘GRINSO’ and ‘Third World Media’, the 125 minute film has been produced by Anand Swaroop Verma, a senior journalist and expert on Nepalese affairs. He has also written the script for the film. The film has been directed by Ashish Srivastava.
Reacting to the decision of the Board, Mr. Verma said it is quite surprising as the film does not have any reference at all to the current Maoist movement in India. The film is only about the struggle of the people of Nepal against the despotic Monarchy and the anarchic reign of Ranas. With the formation of Nepal in the year 1770 by Prithvi Narayan Shah, the foundation was laid for Monarchy in Nepal which was finally given a burial in the year 2008 when Nepal was declared a Republic. Thus 238 years of Monarchy also included 105-year rule of Rana dynasty which is known as the black chapter in the history of Nepal.
Talking about the film, Mr. Verma further said that the film actually shows how in 1876 Lakhan Thapa, a young man from Gorkha district organized the peasants against the atrocities being unleashed by the rulers of Rana dynasty and was, later, put on gallows by these rulers. Even today, Lakhan Thapa is remembered as the first Nepali martyr. Exploring the movements led by ‘Praja Parishad’ and ‘Nepali Congress’ against the despotic system, the film focuses on the armed struggle carried on under the leadership of the Maoists for 10 years and unfolds the story of how the movement mobilized the Nepalese people by first attacking and dismantling the feudal system in the rural areas and subsequently taking the people’s movement to the urban areas bringing more urbanites into its fold.
The film begins with the establishment of monarchy in Nepal, further touching the developments like the elections for the constituent assembly, the emergence of Maoists as the largest party in the elections and finally ends by showing the decline and complete disappearance of Monarchy and Nepal being declared a Republic.
Taking note of the objections put forward by the Censor Board, it seems that the Board will never give its certification to any political film made on Nepal since no political film on Nepal can escape underlying the prominent role of Maoists. Maoist party was heading the government in Nepal till May 2009 and even today is the largest party in the Constituent Assembly and is the main opposition party. Moreover its president Pushp Kamal Dahal ‘Prachand’ as the Prime Minister of Nepal had visited India on the invitation of the Government of India.
Mr Verma is now submitting his film to Revising Committee of the Board.
Note:
New Delhi Film Society is an e-society. We are not conducting any ground activity with this name. contact: filmashish@gmail.com
Thursday, June 24, 2010
हिंदी का 'जलसा'
जाने माने कवि असद ज़ैदी ने हाल ही में अपनी एक एक पुरानी महत्वाकांक्षी योजना को ठोस सूरत देते हुए जलसा नाम के प्रकाशन का पहला अंक निकाला है. इसे वे साहित्य और विचार का अनियतकालीन आयोजन कहते हैं. अंग्रेज़ी के विख्यात प्रकाशन ग्रान्टा की तर्ज़ पर इसे एक उपशीर्षक दिया गया है - अधूरी बातें. जाहिर है अगले अंकों में यह उपशीर्षक अलग अलग होंगे. बिना किसी विज्ञापन की मदद से छपी इस पत्रिका/पुस्तक की छपाई और समायोजन बेहतरीन है और देश के युवा और वरिष्ठ कवि-लेखकों की महत्वपूर्ण रचनाएं इसमें शामिल हैं. अगर आप अपनी लाइब्रेरी को थोड़ा और सम्पन्न बनाना चाहते हैं तो यक़ीनन जलसा आपके संग्रह में होनी चाहिये. जलसा को प्राप्त करने के लिए नीचे लिखे पते पर सम्पर्क किया जा सकता है: असद ज़ैदीबी- ९५७, पालम विहार, गुड़गांव १२२ ०१७, फोन : 09868126587,
ईमेल: jalsapatrika@gmail.com
जलसा से साभार देवी प्रसाद मिश्र की कविता
फ़्रेंच सिनेमा
(लगे हाथ नग्नता पर एक फ़ौरी विमर्श)
ख़ान मार्केट के पास जहां कब्रिस्तान है
वहां बस रुकती नहीं है - मैं चलती बस से
उतरा और मरते-मरते बचा : यह फ़्रेंच फ़िल्म का कोई
दृश्य होता जिनकी डीवीडी लेने मैं
करीब क़रीब हर हफ़्ते उसी तरफ़ जाया करता हूं
यह हिन्दी फ़िल्मों का कोई दृश्य शायद ही हो पाता क्योंकि
इन फ़िल्मों का नायक अमूमन कार में चलता है
और बिना आत्मा के शरीर में बना रहता है वह देश में भी
इसी तरह बहुत ग़ैरज़िम्मेदार तरीक़े से घूमता रहता है
वह विदेशियों की तरह टहलता है और सत्तर करोड़ की फ़िल्म में
हर दो मिनट में कपड़े बदलता है और अहमक पूरी फ़िल्म में
पेशाब नहीं करता है और अपने कपड़ों से नायिका के कपड़ों को इस तरह से
रगड़ता है कि जैसे वह संततियां नहीं विमल सूटिंग के थान पैदा करेगा
मतलब यह कि इन फ़िल्मों में बिना हल्ला मचाए निर्वस्त्र हुआ नहीं जाता
इन फ़िल्मों में सत्ता को नंगा नहीं किया जाता
जो कलाओं की दो बुनियादी वैधताएं हैं.
ईमेल: jalsapatrika@gmail.com
जलसा से साभार देवी प्रसाद मिश्र की कविता
फ़्रेंच सिनेमा
(लगे हाथ नग्नता पर एक फ़ौरी विमर्श)
ख़ान मार्केट के पास जहां कब्रिस्तान है
वहां बस रुकती नहीं है - मैं चलती बस से
उतरा और मरते-मरते बचा : यह फ़्रेंच फ़िल्म का कोई
दृश्य होता जिनकी डीवीडी लेने मैं
करीब क़रीब हर हफ़्ते उसी तरफ़ जाया करता हूं
यह हिन्दी फ़िल्मों का कोई दृश्य शायद ही हो पाता क्योंकि
इन फ़िल्मों का नायक अमूमन कार में चलता है
और बिना आत्मा के शरीर में बना रहता है वह देश में भी
इसी तरह बहुत ग़ैरज़िम्मेदार तरीक़े से घूमता रहता है
वह विदेशियों की तरह टहलता है और सत्तर करोड़ की फ़िल्म में
हर दो मिनट में कपड़े बदलता है और अहमक पूरी फ़िल्म में
पेशाब नहीं करता है और अपने कपड़ों से नायिका के कपड़ों को इस तरह से
रगड़ता है कि जैसे वह संततियां नहीं विमल सूटिंग के थान पैदा करेगा
मतलब यह कि इन फ़िल्मों में बिना हल्ला मचाए निर्वस्त्र हुआ नहीं जाता
इन फ़िल्मों में सत्ता को नंगा नहीं किया जाता
जो कलाओं की दो बुनियादी वैधताएं हैं.
Saturday, June 12, 2010
ये कौन सी राजनीति है?
-शैलेंद्र कुमार
दरअसल रवीश कुमार के ब्लॉग पर फिल्म की समीक्षा पढ़ने के बाद ही मैंने इसे देखने का मन बनाया, लेकिन देखने के बाद घोर निराशा हुई..फिल्म से भी और टिप्पणीकर्ता से भी। मुझे ऐसे किसी निर्देशक से आपत्ति नहीं है..जो खुद कल्पना की दुनिया में रहता हो और लोगों को अपना दिमाग घर पर छोड़कर फिल्म देखने की सलाह देता हो...। मुझे दिक्कत उन निर्माताओं से होती है..जो यथार्थपरक फिल्में बनाने का दावा करते हैं..और फिर दर्शकों को बेवकूफ बनाने की कोशिश करते हैं। मैं फिल्म के बारे में कुछ निष्कर्ष बताना चाहता हूं..जो उन लोगों को अच्छी तरह समझ में आएगी..जिन्होंने फिल्म देखी होगी..। मुझे उम्मीद है पाठकों में से शायद ही कोई बचा होगा..।
1. ये फिल्म राजनीति पर आधारित है, ये बात विश्वसनीय नहीं लगती..। ये किसी माफिया सरगना के परिवार में हो रही सत्ता के संघर्ष की कहानी ज्यादा लगती है..। जिस तरीके से फिल्म के कलाकार एक के बाद एक हत्याओं को अंजाम देते हैं, वो किसी भी तरह, किसी राजनीतिक परिवार का खेल नहीं लगता..। भारतीय राजनीति के इतिहास में क्या कोई ऐसी घटना याद है?
2. राजनीति में सभी को पता है कि नेता की हत्या से पार्टी को नुकसान के बजाय फायदा ही पहुंचता है..लेकिन फिल्म के धुरंधर नेता..हर समस्या का समाधान मर्डर में देखते हैं...। मुझे नहीं लगता..देश का अदना सा पॉलिटिशयन भी ऐसी गलती करता होगा...। निचले स्तर पर ऐसा संभव भी हो..लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठी पार्टी के लोग ये बात नहीं जानते होंगे...ये मानना मुश्किल है...। फिल्म में जब कभी निर्देशक को लगा कि राजनीतिक दांव-पेंच दिखाने के लिए दिमाग लगाना होगा, नई सिचुएशन क्रिएट करनी होगी....वहां उन्होंने हत्या का सहारा लिया और समस्या सुलझा ली...।
3. ये फिल्म महाभारत से ज्यादा मारियो पूजो के उपन्यास गॉड फादर से मिलती-जुलती है..। फिल्म में बिल्कुल वही सीन डाले गये हैं..जैसे रनवीर को पुलिस अफसर द्वारा रिवाल्वर के बट से चेहरे पर मारना, गाल का सूजना, विदेशी गर्लफ्रेंड का कार-ब्लास्ट में मारा जाना...बड़े भाई की मदद के लिए छोटे(सीधे-सादे) भाई का गैंगवार में शामिल होना...। ये ऐसे सीन हैं..जो इतनी बार अलग-अलग फिल्मों में रीपीट किये गये हैं कि कोई भी आसानी से पकड़ सकता है..।
4. प्रकाश झा ने गॉड फादर और महाभारत को मिलाने के चक्कर में चरित्रों के साथ खिलवाड़ किया..। गॉड फादर में बड़ा भाई उग्र होता है और इसी वजह से मारा जाता है...(जैसा कि फिल्म में अर्जुन रामपाल को दर्शाया गया है)। इसके बाद छोटा सामने आता है और सभी दुश्मनों का बेरहमी से खात्मा करता है..। अगर ये फिल्म इस उपन्यास से प्रेरित है..तो ठीक है...लेकिन जब महाभारत की बात आती है..तो कहानी बेसिर-पैर लगती है..। जैसे अगर बड़ा भाई युधिष्ठिर है.....और उसकी मदद और, उसे सत्ता दिलाने के लिए अर्जुन(रनवीर) आये तो बात ठीक लगती है....। लेकिन फिल्म में बड़ा भाई युधिष्ठिर नहीं, भीम के चरित्र से मिलता-जुलता है..। अब भला भीम को बचाने के लिए अर्जुन की क्या जरुरत है? बेहतर होता अगर अर्जुन रामपाल के चरित्र को सीधा-सच्चा दिखाया गया होता...और फिर उसकी मदद को गांडीवधारी अर्जुन (रनवीर) आते..। लेकिन जैसा मैने कहा....दो कथानकों को मिलाने के चक्कर में सब गड्ड-मड्ड हो गया...।
5. कैटरीना का अर्जुन रामपाल से विवाह करना और उसके लिए दी गई दलील इतनी हास्यास्पद है कि यकीन करना मुश्किल होता है..। आज के दौर में क्या कोई भी पढ़ी-लिखी लड़की...सिर्फ इसलिए हीरो के भाई से शादी कर लेगी...क्योंकि ऐसा नहीं करने पर उसका बाप जबरदस्ती उसकी शादी विलेन से करवा देगा ? आज के दौर में क्या कोई भी बाप अपनी पढ़ी-लिखी समझदार बेटी का ब्याह, जबरदस्ती करवा सकता है..? आजकल गांव-घर के बच्चे तो मां-बाप की सुनते ही नहीं...और कैटरीना जैसी आज़ाद ख्यालों वाली लड़की ऐसा कर लेगी...ये मानना मुश्किल है...। आज के दौर में बेटी को गाय-बैल की तरह किसी खूंटे में बांधना...संभव नहीं है..। प्रकाश झा को इसके लिए कोई अच्छी दलील देनी चाहिए थी..। (जैसे- कैटरीना का अपना लाल बत्ती में घूमने का सपना, ऐसे मामलों में फैसले हमेशा निजी स्वार्थ से प्रेरित होते हैं, या फिर रनवीर के परिवार या उसके सपने के लिए अपनी खुशियों का बलिदान करना)
6. फिल्म देखकर साफ लगता है कि प्रकाश झा और नाना पाटेकर के बीच रिश्ते ठीक नहीं रहे...। नाना को कृष्ण का रोल तो दिया गया...लेकिन धीरे-धीरे उन्हें अर्जुन (रनवीर) का पिछलग्गू बना दिया..। फिल्म में इक्का-दुक्का जगहों को छोड़ दें...तो हर जगह सोचने की मुद्रा में रनवीर हैं, और नाना उसकी हां में हां मिला रहे हैं..। अगर सारी प्लानिंग अर्जुन को ही करनी थी...तो कृष्ण के रोल की क्या जरुरत थी...। नाना को कभी खुलकर एक्टिंग का मौका नहीं दिया गया..फिर भी एक-दो जगहों पर वो अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे...।
7. कहानी में कुछ ऐसी चीजें भी हैं..जो यथार्थ से मेल नहीं खाती..। जैसे, जो राज्य की सबसे बड़ी पार्टी हो, वर्षों से जनता के विश्वास हासिल कर रही हो....उसकी पार्टी को बहुमत ना मिले (जबकि दलित वोट उसके साथ है) और उससे टूटकर नई पार्टी बनानेवाले को छह महीने के अंदर जीतता हुआ दिखाया जाए...तो ये बात हजम करना मुश्किल है...। खासकर तब, जब मुख्यमंत्री पद के दावेदार (अर्जुन रामपाल) पर मारपीट और रेप जैसे मामले चल रहे हों...। ये चीजें सिर्फ इसलिए डाली गईं...ताकि कैटरीना को चुनाव लड़ता दिखाया जा सके ( सोनिया के तौर पर पहले से ही उसका प्रोमोशन किया जा रहा था)। बेहतर होता..अर्जुन रामपाल की हत्या के लिए कोई ठोस वजह तलाशी जाती।
8. फिल्म का सबसे घटिया सीन था...कुंती का अपने बेटे कर्ण (सूरज) से मिलने जाना....। महाभारत में कुंती ने कभी भी राजनीति नहीं की...बल्कि एक आदर्श मां का रोल निभाया...। उनका कर्ण के पास जाने का मकसद था अपने बेटों की जान बचाना...या फिर य़ुद्ध को रोकना (अगर कर्ण पांडवों के साथ होता, तो दुर्योधन युद्ध करने का साहस नहीं करता)। फिल्म में ऐसा कोई भी डॉयलॉग नहीं था...बल्कि राजनीतिक बातें थीं...। ये सीन इमोशनल कम... कॉमेडी ज्यादा दिख रहा था..। सबसे ज्यादा अखरनेवाली चीज थी भाषा..। पूरी फिल्म में कलाकार, यूपी-बिहार की अपभ्रंश हिन्दी का प्रयोग करते हैं...लेकिन इस सीन में रनवीर की माता अचानक शुद्ध संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलने लगीं...। पता नहीं प्रकाश झा आधुनिक राजनीति और प्राचीन महाभारत में से किसी एक लीक पर क्यों नहीं चल पाये...।
9. फिल्म के एक सीन में रणवीर कपूर पिता की लाश के पास बैठे हैं...और कैमरे का फोकस उनके चेहरे से होते हुए लाश पर जाता है..। इसी वक्त लाश की आंखों की पुतलियां हिलने लगती हैं...। एडिटिंग की इतनी बड़ी गलती...सी-ग्रेड फिल्में बनानेवाले छोटे-मोटे निर्देशक भी नहीं करते..।
10. फिल्म के आखिर में मनोज वाजपेयी....गड़बड़ी की खबर मिलते ही अचानक उठकर निकल पड़ते हैं..और अकेले गाड़ी लेकर सुनसान फैक्ट्री पहुंच जाते हैं....। उनके पीछे अजय देवगन भी अकेले गाड़ी लेकर निकल पड़ते हैं...। इस सीन में प्रकाश झा की बॉलीवुडियन सोच ( इसमें निर्देशक दर्शकों को पूरी तरह बेवकूफ समझते हैं और चाहते हैं कि वो जो दिखाएं पब्लिक उस पर यकीन करे) पूरी तरह हावी है...। अब जो बंदा सारा दिन दूसरों को टपकाने का खेल कर रहा हो..क्या वो सपने में भी अकेले निकलने की सोचेगा? वो भी तब..जब दसियों बंदूकधारी आसपास हों...। चलिए मान लेते हैं कि मनोज वाजपेयी नशे में थे...लेकिन अजय देवगन तो पूरी होश में थे...। फोन पर उन्होंने मनोज से ये तो पूछा कि कहां जा रहे हो...लेकिन ना तो अपने लोगों को खबर की और ना ही पुलिस को...। दोनों अकेले पहुंच गये...। और तो और, सीधे-सादे दिमाग लगानेवाले रनवीर भी रिवॉल्वर लेकर शिकार करने पहुंच गये..। ये नेता थे या हार्डकोर क्रिमिनल? कुल मिलाकर अपनी कहानी पूरी करने के लिए प्रकाश झा ने आम निर्देशकों की तरह लॉजिक को बिल्कुल दरकिनार कर सीन फिल्मा दिया...।
अब प्रकाश झा की नहीं...कलाकारों और उनकी अदाकारी की बात करते हैं....। पूरी फिल्म में अजय देवगन छाये हुए हैं....और मनोज वाजपेयी ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है...। रनवीर कपूर..इतनी फुटेज के बाद भी औसत दिखे..। इतने मौकों के बावजूद रनवीर के चेहरे या आंखों से ना तो गुस्सा टपक रहा था और ना ही फौलादी इरादे जाहिर हो रहे थे....। ( याद कीजिए...सरकार में अभिषेक का रोल..उनकी तुलना में रनवीर फिसड्डी दिख रहे थे)। कमरे में बैठकर सिगरेट का धुआं उड़ाने को एक्टिंग नहीं कहा जा सकता। कैटरीना उम्रदराज लगने लगी हैं...और कुछ टुकड़ों में उनकी काबिलियत सामने आई है..लेकिन इसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता...। अर्जुन रामपाल औसत रहे हैं और कुछ जगहों पर ओवरएक्टिंग करते दिखे...। लेकिन पिछले कामों की तुलना में प्रोग्रेस माना जा सकता है..। नाना को यूज ही नहीं किया गया...लेकिन एक-दो जगहों पर ( जैसे, जब सूरज को मारने गये...और फिर जब रनवीर की मां को बताया) उन्होने अपना प्रभाव दिखाया...।
कुल मिलाकर ये एक औसत फिल्म है और जबरदस्त स्टारकास्ट और प्रोमोशन की वजह से इसे सफलता मिल रही है...। दूसरी बात ये है कि फिल्म का पेस बढ़िया है..और दर्शकों को बोर होने का मौका नहीं मिलता...। अन्यथा ऐसी कोई चीज नहीं है..जिसकी वजह से इसे दुबारा देखा जा सके....। हो सकता है बॉलीवुड के स्टैंडर्ड से ये फिल्म अच्छी कही जाए..लेकिन प्रकाश झा के खुद के स्तर से..उनकी बाकी फिल्मों की तुलना में... ये काफी नीचे है....।
1. ये फिल्म राजनीति पर आधारित है, ये बात विश्वसनीय नहीं लगती..। ये किसी माफिया सरगना के परिवार में हो रही सत्ता के संघर्ष की कहानी ज्यादा लगती है..। जिस तरीके से फिल्म के कलाकार एक के बाद एक हत्याओं को अंजाम देते हैं, वो किसी भी तरह, किसी राजनीतिक परिवार का खेल नहीं लगता..। भारतीय राजनीति के इतिहास में क्या कोई ऐसी घटना याद है?
2. राजनीति में सभी को पता है कि नेता की हत्या से पार्टी को नुकसान के बजाय फायदा ही पहुंचता है..लेकिन फिल्म के धुरंधर नेता..हर समस्या का समाधान मर्डर में देखते हैं...। मुझे नहीं लगता..देश का अदना सा पॉलिटिशयन भी ऐसी गलती करता होगा...। निचले स्तर पर ऐसा संभव भी हो..लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठी पार्टी के लोग ये बात नहीं जानते होंगे...ये मानना मुश्किल है...। फिल्म में जब कभी निर्देशक को लगा कि राजनीतिक दांव-पेंच दिखाने के लिए दिमाग लगाना होगा, नई सिचुएशन क्रिएट करनी होगी....वहां उन्होंने हत्या का सहारा लिया और समस्या सुलझा ली...।
3. ये फिल्म महाभारत से ज्यादा मारियो पूजो के उपन्यास गॉड फादर से मिलती-जुलती है..। फिल्म में बिल्कुल वही सीन डाले गये हैं..जैसे रनवीर को पुलिस अफसर द्वारा रिवाल्वर के बट से चेहरे पर मारना, गाल का सूजना, विदेशी गर्लफ्रेंड का कार-ब्लास्ट में मारा जाना...बड़े भाई की मदद के लिए छोटे(सीधे-सादे) भाई का गैंगवार में शामिल होना...। ये ऐसे सीन हैं..जो इतनी बार अलग-अलग फिल्मों में रीपीट किये गये हैं कि कोई भी आसानी से पकड़ सकता है..।
4. प्रकाश झा ने गॉड फादर और महाभारत को मिलाने के चक्कर में चरित्रों के साथ खिलवाड़ किया..। गॉड फादर में बड़ा भाई उग्र होता है और इसी वजह से मारा जाता है...(जैसा कि फिल्म में अर्जुन रामपाल को दर्शाया गया है)। इसके बाद छोटा सामने आता है और सभी दुश्मनों का बेरहमी से खात्मा करता है..। अगर ये फिल्म इस उपन्यास से प्रेरित है..तो ठीक है...लेकिन जब महाभारत की बात आती है..तो कहानी बेसिर-पैर लगती है..। जैसे अगर बड़ा भाई युधिष्ठिर है.....और उसकी मदद और, उसे सत्ता दिलाने के लिए अर्जुन(रनवीर) आये तो बात ठीक लगती है....। लेकिन फिल्म में बड़ा भाई युधिष्ठिर नहीं, भीम के चरित्र से मिलता-जुलता है..। अब भला भीम को बचाने के लिए अर्जुन की क्या जरुरत है? बेहतर होता अगर अर्जुन रामपाल के चरित्र को सीधा-सच्चा दिखाया गया होता...और फिर उसकी मदद को गांडीवधारी अर्जुन (रनवीर) आते..। लेकिन जैसा मैने कहा....दो कथानकों को मिलाने के चक्कर में सब गड्ड-मड्ड हो गया...।
5. कैटरीना का अर्जुन रामपाल से विवाह करना और उसके लिए दी गई दलील इतनी हास्यास्पद है कि यकीन करना मुश्किल होता है..। आज के दौर में क्या कोई भी पढ़ी-लिखी लड़की...सिर्फ इसलिए हीरो के भाई से शादी कर लेगी...क्योंकि ऐसा नहीं करने पर उसका बाप जबरदस्ती उसकी शादी विलेन से करवा देगा ? आज के दौर में क्या कोई भी बाप अपनी पढ़ी-लिखी समझदार बेटी का ब्याह, जबरदस्ती करवा सकता है..? आजकल गांव-घर के बच्चे तो मां-बाप की सुनते ही नहीं...और कैटरीना जैसी आज़ाद ख्यालों वाली लड़की ऐसा कर लेगी...ये मानना मुश्किल है...। आज के दौर में बेटी को गाय-बैल की तरह किसी खूंटे में बांधना...संभव नहीं है..। प्रकाश झा को इसके लिए कोई अच्छी दलील देनी चाहिए थी..। (जैसे- कैटरीना का अपना लाल बत्ती में घूमने का सपना, ऐसे मामलों में फैसले हमेशा निजी स्वार्थ से प्रेरित होते हैं, या फिर रनवीर के परिवार या उसके सपने के लिए अपनी खुशियों का बलिदान करना)
6. फिल्म देखकर साफ लगता है कि प्रकाश झा और नाना पाटेकर के बीच रिश्ते ठीक नहीं रहे...। नाना को कृष्ण का रोल तो दिया गया...लेकिन धीरे-धीरे उन्हें अर्जुन (रनवीर) का पिछलग्गू बना दिया..। फिल्म में इक्का-दुक्का जगहों को छोड़ दें...तो हर जगह सोचने की मुद्रा में रनवीर हैं, और नाना उसकी हां में हां मिला रहे हैं..। अगर सारी प्लानिंग अर्जुन को ही करनी थी...तो कृष्ण के रोल की क्या जरुरत थी...। नाना को कभी खुलकर एक्टिंग का मौका नहीं दिया गया..फिर भी एक-दो जगहों पर वो अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे...।
7. कहानी में कुछ ऐसी चीजें भी हैं..जो यथार्थ से मेल नहीं खाती..। जैसे, जो राज्य की सबसे बड़ी पार्टी हो, वर्षों से जनता के विश्वास हासिल कर रही हो....उसकी पार्टी को बहुमत ना मिले (जबकि दलित वोट उसके साथ है) और उससे टूटकर नई पार्टी बनानेवाले को छह महीने के अंदर जीतता हुआ दिखाया जाए...तो ये बात हजम करना मुश्किल है...। खासकर तब, जब मुख्यमंत्री पद के दावेदार (अर्जुन रामपाल) पर मारपीट और रेप जैसे मामले चल रहे हों...। ये चीजें सिर्फ इसलिए डाली गईं...ताकि कैटरीना को चुनाव लड़ता दिखाया जा सके ( सोनिया के तौर पर पहले से ही उसका प्रोमोशन किया जा रहा था)। बेहतर होता..अर्जुन रामपाल की हत्या के लिए कोई ठोस वजह तलाशी जाती।
8. फिल्म का सबसे घटिया सीन था...कुंती का अपने बेटे कर्ण (सूरज) से मिलने जाना....। महाभारत में कुंती ने कभी भी राजनीति नहीं की...बल्कि एक आदर्श मां का रोल निभाया...। उनका कर्ण के पास जाने का मकसद था अपने बेटों की जान बचाना...या फिर य़ुद्ध को रोकना (अगर कर्ण पांडवों के साथ होता, तो दुर्योधन युद्ध करने का साहस नहीं करता)। फिल्म में ऐसा कोई भी डॉयलॉग नहीं था...बल्कि राजनीतिक बातें थीं...। ये सीन इमोशनल कम... कॉमेडी ज्यादा दिख रहा था..। सबसे ज्यादा अखरनेवाली चीज थी भाषा..। पूरी फिल्म में कलाकार, यूपी-बिहार की अपभ्रंश हिन्दी का प्रयोग करते हैं...लेकिन इस सीन में रनवीर की माता अचानक शुद्ध संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलने लगीं...। पता नहीं प्रकाश झा आधुनिक राजनीति और प्राचीन महाभारत में से किसी एक लीक पर क्यों नहीं चल पाये...।
9. फिल्म के एक सीन में रणवीर कपूर पिता की लाश के पास बैठे हैं...और कैमरे का फोकस उनके चेहरे से होते हुए लाश पर जाता है..। इसी वक्त लाश की आंखों की पुतलियां हिलने लगती हैं...। एडिटिंग की इतनी बड़ी गलती...सी-ग्रेड फिल्में बनानेवाले छोटे-मोटे निर्देशक भी नहीं करते..।
10. फिल्म के आखिर में मनोज वाजपेयी....गड़बड़ी की खबर मिलते ही अचानक उठकर निकल पड़ते हैं..और अकेले गाड़ी लेकर सुनसान फैक्ट्री पहुंच जाते हैं....। उनके पीछे अजय देवगन भी अकेले गाड़ी लेकर निकल पड़ते हैं...। इस सीन में प्रकाश झा की बॉलीवुडियन सोच ( इसमें निर्देशक दर्शकों को पूरी तरह बेवकूफ समझते हैं और चाहते हैं कि वो जो दिखाएं पब्लिक उस पर यकीन करे) पूरी तरह हावी है...। अब जो बंदा सारा दिन दूसरों को टपकाने का खेल कर रहा हो..क्या वो सपने में भी अकेले निकलने की सोचेगा? वो भी तब..जब दसियों बंदूकधारी आसपास हों...। चलिए मान लेते हैं कि मनोज वाजपेयी नशे में थे...लेकिन अजय देवगन तो पूरी होश में थे...। फोन पर उन्होंने मनोज से ये तो पूछा कि कहां जा रहे हो...लेकिन ना तो अपने लोगों को खबर की और ना ही पुलिस को...। दोनों अकेले पहुंच गये...। और तो और, सीधे-सादे दिमाग लगानेवाले रनवीर भी रिवॉल्वर लेकर शिकार करने पहुंच गये..। ये नेता थे या हार्डकोर क्रिमिनल? कुल मिलाकर अपनी कहानी पूरी करने के लिए प्रकाश झा ने आम निर्देशकों की तरह लॉजिक को बिल्कुल दरकिनार कर सीन फिल्मा दिया...।
अब प्रकाश झा की नहीं...कलाकारों और उनकी अदाकारी की बात करते हैं....। पूरी फिल्म में अजय देवगन छाये हुए हैं....और मनोज वाजपेयी ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है...। रनवीर कपूर..इतनी फुटेज के बाद भी औसत दिखे..। इतने मौकों के बावजूद रनवीर के चेहरे या आंखों से ना तो गुस्सा टपक रहा था और ना ही फौलादी इरादे जाहिर हो रहे थे....। ( याद कीजिए...सरकार में अभिषेक का रोल..उनकी तुलना में रनवीर फिसड्डी दिख रहे थे)। कमरे में बैठकर सिगरेट का धुआं उड़ाने को एक्टिंग नहीं कहा जा सकता। कैटरीना उम्रदराज लगने लगी हैं...और कुछ टुकड़ों में उनकी काबिलियत सामने आई है..लेकिन इसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता...। अर्जुन रामपाल औसत रहे हैं और कुछ जगहों पर ओवरएक्टिंग करते दिखे...। लेकिन पिछले कामों की तुलना में प्रोग्रेस माना जा सकता है..। नाना को यूज ही नहीं किया गया...लेकिन एक-दो जगहों पर ( जैसे, जब सूरज को मारने गये...और फिर जब रनवीर की मां को बताया) उन्होने अपना प्रभाव दिखाया...।
कुल मिलाकर ये एक औसत फिल्म है और जबरदस्त स्टारकास्ट और प्रोमोशन की वजह से इसे सफलता मिल रही है...। दूसरी बात ये है कि फिल्म का पेस बढ़िया है..और दर्शकों को बोर होने का मौका नहीं मिलता...। अन्यथा ऐसी कोई चीज नहीं है..जिसकी वजह से इसे दुबारा देखा जा सके....। हो सकता है बॉलीवुड के स्टैंडर्ड से ये फिल्म अच्छी कही जाए..लेकिन प्रकाश झा के खुद के स्तर से..उनकी बाकी फिल्मों की तुलना में... ये काफी नीचे है....।
(शैलेंद्र कुमार युवा टीवी पत्रकार और लेखक हैं)
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