- रवीश कुमार
साढ़े चार स्टार्स की फ़िल्म देख रहा था। तारे छिटकते थे और फिर कहीं कहीं जुड़ जाते थे। साल की असाधारण फिल्म की साधारण कहानी चल रही थी। चार दिनों में सौ करोड़ की कमाई का रिकार्ड बज रहा था और दिमाग के भीतर कोई छवि नहीं बन पा रही थी। थ्री इडियट्स की कहानी शिक्षा प्रणाली को लेकर हो रही बहसों के तनाव में कॉमिक राहत दिलाने की सामान्य कोशिश है। कामयाबी काबिल के पीछे भागती है। संदेश किसी बाबा रणछोड़दास का बार बार गूंज रहा था।
पढ़ाई का सिस्टम ख़राब है लेकिन विकल्प भी बहुत बेकार। इसी ख़राब सिस्टम ने कई प्रतिभाओं को विकल्प चुनने के मौके दिये हैं। इसी खराब सिस्टम ने लोगों को सड़ा भी दिये हैं। लेकिन यह टाइम दूसरा है। हम विकल्पों के लिए तड़प रहे हैं। लेकिन क्या हम वाकई विकल्प का कोई मॉडल बना पा रहे हैं? सवाल हम सबसे है।
मद्रास प्रेसिडेंसी में सबसे पहले इम्तहानों का दौर शुरू हुआ था। अंग्रेजों ने जब विश्वविद्यालय बनाकर इम्तहान लिये तो सर्वण जाति के सभी विद्यार्थी फेल हो गए। उसी के बाद पहली बार थर्ड डिविज़न का आगमन हुआ। हिंदुस्तान में सर्टिफिकेट आधारित प्रतिभा की यात्रा यहीं से शुरू होती है। डेढ़ सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में परीक्षा को लेकर हमने एक समाज के रूप में तनाव की कई मंज़िलें देखी हैं। ज़िला टॉपर और पांच बार मैट्रिक फेल अनुभव प्राप्त प्रतिभावान और नाकाबिल हर घर परिवार में रहे हैं। दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे में अनुपम खेर अपने खानदान के सभी मेट्रिक से पास या फेल पूर्वजों की तस्वीरें लगा कर रखते हैं। शाह रूख खान को दिल की सुनने के लिए भेज देते हैं। पंद्रह साल पहले आई यह कहानी सुपरहिट हो जाती है। अनुपम खेर शाहरूख खान से कहता है कि जा तू मेरी भी ज़िंदगी जी कर आ।
शिक्षा व्यवस्था से भागने के रास्ते को लेकर कई फिल्में बनीं हैं। भागने का रास्ता भी है। थ्री इडियट्स फिल्म पूंजीवादी सिस्टम को रोमांटिक बनाने का प्रयास करती है। काबिलियत पर ज़ोर से ही कामयाबी का रास्ता निकलता है। काबिल होना पूंजीवादी सिस्टम की मांग है। रणछोड़ दास का विकल्प भी किसी अमेरिकी कंपनी की कामयाबी के लिए डॉलर पैदा करने की पूंजी बन जाता है। कामयाबी के बिना ज़िंदा रहने का रास्ता नहीं बताती है यह फिल्म। शायद ये किसी भी फिल्म की ज़िम्मेदारी भी नहीं होती। उसका काम होता है जीवन से कथाओं को उठाकर मनोरंजन के सहारे पेश कर देना। ताकि हम तनाव के लम्हों में हंसने की अदा सीख सकें।
बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में ही प्रेमचंद की कहानी आ गई थी। बड़े भाई साहब। इम्तहान सिस्टम पर बेहतरीन व्यंग्य। बड़े भाई साहब अपने छोटे भाई साहब को नए सिस्टम में ढालने के बड़े जतन करते हैं। छोटा भाई कहता है कि इस जतन में वो एक साल के काम को तीन तीन साल में करते हैं। एक ही दर्जे में फेल होते रहते हैं। लिहाजा खेलने-कूदने वाला छोटा भाई हंसते खेलते पास होने लगात है और बड़े भाई के दर्जे तक पहुंचने लगते हैं।
कहानी में बड़े भाई का संवाद है। गौर कीजिएगा। "सफल खिलाड़ी वह है,जिसका कोई निशाना खाली न जाए। मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दांतों पसीना आ जाएगा। जब अलजेबरा और ज्योमेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे. इंग्लिस्तान का इतिहास पढ़ना प़ड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं, आठ-आठ हेनरी हुए हैं। कौन सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो। हेनरी सातवें की जगह हेनती आठवां लिखा और सब नंबर गायब। सफाचट। सिफर भी न मिलेगा, सिफर भी। दर्जनों तो जेम्स हुए हैं, दर्जनों विलियम, कौ़ड़ियों चार्ल्स। दिमाग चक्कर खाने लगता है।"
भारतीय शिक्षा प्रणाली को लेकर ऐसे किस्से इसके आगमन से ही भरे पड़े हुए हैं। प्रेमचंद की यह कहानी बेहतरीन तंज है। उस वक्त का व्यंग्य है जब इम्तहानों का भय और रूटीन आम जीवन के करीब पहुंच ही रहा था। थ्री इडियट्स की कहानी तब की है जब इम्तहानों को लेकर देश में बहस चल रही है। एक सहमति बन चुकी है कि नंबर या टॉप करने का सिस्टम ठीक नहीं है। दिल्ली के सरदार पटेल में कोई टॉपर घोषित नहीं होता। किसी को नंबर नहीं दिया जाता। ऐसे बहुत से स्कूल हैं जहां मौजूदा खामियों को दूर किया गया है या दूर करने का प्रयास हो रहा है। इसी साल सीबीएसई के बोर्ड में नंबर नहीं दिये जायेंगे। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में बोर्ड के इम्तहानों में करीब बीस लाख से ज़्यादा बच्चे फेल हो गए थे।
इन सभी हकीकतों के बीच आमिर की यह फिल्म एजुकेशन के सिस्टम को कॉमिक में बदल देती है। जो मन करो वही पढ़ो। यही आदर्श स्थिति है लेकिन ऐसा सिस्टम नहीं होता। न पूंजीवाद के दफ्तर में और न कालेज में। अभी तक कोई ठोस विकल्प सामने नहीं आया है। प्रतिभायें कालेज में नहीं पनपती हैं। यह एक मान्य परंपरा है। थ्री इडियट्स विकल्प नहीं है। मौजूदा सिस्टम से निकलने और घूम फिर कर वहीं पहुंच जाने की एक सामान्य फिल्म है। जिस तरह से तारे ज़मीन पर मज़ूबती से हमारे मानस पर चोट करती है और एक मकसद में बदल जाती है,उस तरह से थ्री इडियट्स नहीं कर पाती है। चंद दोस्तों की कहानियों के ज़रिये गढ़े गए भावुकता के क्षण सामूहिक बनते तो हैं लेकिन दर्शकों को बांधने के लिए,न कि सोचने के लिए मजबूर करने के लिए। फिल्मों के तमाम भावुक क्षण खुद ही अपने बंधनों से आजाद हो जाते हैं। तो सहपाठी आत्महत्या करता है उसका प्लॉट किसी मकसद में नहीं बदल पाता। दफनाने के साथ उसकी कहानी खतम हो जाती है। कहानी कालेज में तीन मसखरों की हो जाती है जो इस सिस्टम को उल्लू बनाने का रास्ता निकालने में माहिर हैं। ऐसे माहिर और प्रतिभाशाली बदमाश हर कालेज में मिल जाते हैं।
चेतन भगत की दूसरी किताब पढ़ी है। टू स्टेट्स। थ्री इडियट्स की कहानी अगर पहली किताब फाइव प्वाइंट्स समवन से प्रभावित है तो यह साबित हो जाता है कि फिल्म आईआईटी में गए एक कामयाब लड़के की कहानी है जो आईआईटी के सिस्टम को एक नॉन सीरीयस तरीके से देखता है। चेतन भगत का इस विवाद में उलझना बताता है कि उसकी कहानियों का यह किरदार लेखक एक चालू किस्म का बाज़ारू आदमी है। क्रेडिट और पैसा। दोनों बराबर और ठीक जगह पर चाहिए। विधु विनोद चोपड़ा का जवाब बताता है कि कामयाबी के लिए क्या-क्या किये जा सकते हैं। परदे पर चेतन को क्रेडिट मिली है। लेकिन कितनी मिली है उसे इंच टेप से नापा जाना बताता है कि फिल्म अपने मकसद में कमज़ोर है।
इसीलिए इस फिल्म की कहानी लगान और तारे ज़मीं पर जैसी नहीं है। हां दोस्ती के रिश्तों को फिर से याद दिलाने की कोशिश ज़रूर है। आमिर खान किसी कहानी में ऐसे फिट हो जाते हैं जैसे वो कहानी उन्हीं के लिए बनी हो। आमिर अपने किरदार में सही नाप के जूते में पांव की तरह फिट हो जाते हैं। कहानी इसलिए अपनी लगती है क्योंकि कंपटीशन अब एक व्यापक सामाजिक दायरे में हैं। शिक्षा और उससे पैदा होने वाली कामयाबी का विस्तार हुआ है। हम भी कामयाब हैं और आमिर भी कामयाब है। पहले ज़िले में चार लोग कामयाब होते थे, अब चार हज़ार होते हैं। मेरे ही गांव में ज़्यादातर लोगों के पास अब पक्के के मकान है। पहले तीन चार लोगों के होते थे। कामयाबी के सार्वजनिक अनुभव के इस युग में यह फिल्म कई लोगों के दिलों से जुड़ जाती है।
भारत महान के प्रखर चिंतकों के लेखों में एक कामयाब मुल्क बनने की ख्वाहिश दिखती है। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी का भारत या अगला दशक भारत का। भारत एक मुल्क के रूप में कंपटीशन में शामिल हो गया है। ज़ाहिर है नागरिकों के पास विकल्प कम होंगे। सब रेस में दौ़ड़ रहे हैं। आत्महत्या करने वालों की कोई कमी नहीं है। दिमाग फट रहे हैं। सिस्टम क्रूर हो रहा है। काश थ्री इडियट्स के ये किरदार मिलकर इसकी क्रूरता पर ठोस प्रहार करते। लेकिन ये क्या। ये तीनों कहानी की आखिर में लौटते हैं कामयाब ही होकर। अगर कामयाब न होते तो कहानी का मामूली संदेश की लाज भी नहीं रख पाते। बड़ी सी कार में दिल्ली से शिमला और शिमला से मनाली होते लद्दाख। साधारण और सिर्फ सर्जनात्मक किस्म के लोगों की कहानी नहीं हो सकती। ये कामयाब लोगों की कहानी है जो काबिल भी हैं। कामयाब चतुर रामालिंगम भी है। दोनों अंत में एक डील साइन करने के लिए मिलते हैं। एक दूसरे की सलामी ठोंकते हैं। थोड़ा मज़ा भी लेते हैं। वो सिस्टम से बगावत नहीं करते हैं, एडजस्ट होने के लिए टाइम मांग लेते हैं। सिस्टम का विकल्प नहीं देती है यह फिल्म। न ही तारे ज़मीं की तरह सिस्टम में अपने किरदार के लिए जगह देने की मांग करती है। मनोरजंन करने में कामयाब हो जाती है। शायद किसी फिल्म के लिए यही सबसे बड़ा पैमाना है। साढ़े चार स्टार्स की फिल्म।