Note:

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Monday, August 30, 2010

Daayen Ya Baayen...

- Abhay Tiwari

( Daayen ya Baayen, directed by Bela Negi, is a film about her conviction. For so many other reasons this film becomes special also because of its cast that includes Girda. For those who dont know, Girda was known as the man of masses, the voice that moved the conscience of the Uttarakhandis. Girish Tewari, the multifaceted man, better known as Girda, was the first to turn up wherever people's issues were being taken up. He wrote and sang many poems and songs that were sung during the movement for a separate hill State of Uttarakhand. His compositions lately lamented the near total absence of development of the hills as dreamt by the Uttarakhand agitation leaders. He passed away after a brief illness on 22nd August 2010.)

We have a new film in the horizon, a film which, surges far ahead of the monolithic narrative tradition of Hindi cinema, and has been invented on an entirely new level of story-telling.
Seeing the film is like taking a deep sip of life. Its finely nuanced portrayal of life’s many colours is sometimes found in novels but rarely seen in films – and never in Hindi novels or films. However the film manages to pack dense complexity of ordinary life in the story and yet remains a light-hearted, feel good entertainer, which is no mean achievement. I have no doubt that this debut film by Bela Negi, graduate of FTII, Pune, will prove to be a milestone in Hindi film.
The film recounts the story of a village lad called Deepak who tries out his luck in the big city. Unable to gain a foothold after years of struggle, he returns in frustration to his family back in the village. At first, the villagers are enthusiastic about this city-returned young man with plans about their future. Their enthusiasm soon dies down when he gets into the specifics. His idealism only provokes their amusement, and soon enough, the ground reality of village life begins to bruise his high-flown dreams. All this is told, however, without any laborious graveness, and with amusing ease.
One day, he wins, quite unexpectedly, a bumper prize in the form of a car. He learns, to his wonder, that a sample from his dabblings in poetry was sent to a contest for the best jingle for an advertisement. He becomes an instant celebrity, and the recognition that his talent has craved from the rural folk finally comes his way. His newly acquired status also lands him into unnecessary debt, and soon the car is put into use as a taxi, even a milk carrier.
The plot is rich and complex. Most films have been made on much less substance. It is next to impossible to pen down the richness of the story on paper. Every character is a world in itself. Every misadventure an independent story. The film’s narrative opens hitherto closed windows into our social life.
Yet the vicissitudes and continual disappointments of life are not enough to shake Deepak’s optimism and hope for the future. What is cutting to him, however, is the gradual disappointment with life’s promises he begins to see in his son’s eyes, and the consequent loss of confidence in him. The final part of the story of his struggle to retrieve the respect that he thinks he has lost in his eyes.
I wish Bela Negi the best for the splendid debut with which she has begun her film’s career. I am sure that, with every new film, she will continue to excel herself.

(courtesy: http://nirmal-anand.blogspot.com/)

Wednesday, August 18, 2010

पीपली में 'मौत की रौनक' ज़ाया नहीं गई



- प्रबुद्ध


अगर आपको पता है आपकी तस्वीर अच्छी नहीं आती और कोई बार बार आके तस्वीर खींचने की ज़िद करे तो बड़ा गुस्सा आता है। बस, इस ग़ुस्से की क़िस्म ज़रा अलग होती है। ऐसा गुस्सा जिसका पता है कि इससे शक्ल बदल नहीं जाएगी। ये फ़िल्म देखते हुए ऐसा अनगिनत बार होता है। एक टीवी पत्रकार के लिए पीपली [लाइव] देखना बुरा सपना है, सज़ा है। अच्छा है, थियेटर में अंधेरा रहता है, वर्ना हमारे प्रफ़ेशन की चीरफाड़ के दृश्यों के दौरान उभरते अट्टाहस में मेरा शामिल न होना, आसपास वालों को अजूबा दिखाई देता, सोचते कैसे बिना सेंस ऑफ़ ह्यूमर के लोग आजकल मल्टीप्लेक्स का रुख़ करने लगे हैं...अच्छा है थियेटर में अंधेरा रहता है, वर्ना ऐसी तस्वीरों के दौरान चेहरा पता नहीं कौन से भावों की तस्वीर पेश कर देता और मैं मुंह छुपाया पाया जाता। फिल्म की अंग्रेज़ी पत्रकार, नंदिता कहती है- If you can't handle it, you are in the wrong profession.फिल्म का राकेश, हो सकता है खुद अनुषा रिज़वी हों, रॉन्ग प्रफेशन में हैं, ऐसे ही किसी लम्हे में एहसास हुआ होगा और छोड़ दिया। ख़ैर, उसे छोड़ जो लपका उसे माशाअल्लाह बेहतरीन तरीक़े से कहने की काबिलियत रखती हैं। राकेश भी उसी रॉन्ग प्रफेशन में था...आज़ाद हो गया, प्रफेशन से...और ज़िंदगी से भी। एक टीवी पत्रकार जब पीपली [लाइव] देख रहा हो, तो उसे ज़्यादा हंसी नहीं आती, आ ही नहीं सकती और स्साला सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि हम शायद चाहकर भी इसकी सटीक, बेबाक समीक्षा नहीं कर पाएंगे। क्यूंकि अगर ऐसा किया तो डर है कहीं लोग प्रिंट आउट लेकर फिर से चिढ़ाने न आ धमकें। या फिर मैं कुछ ज़्यादा ही सोच रहा हूं और सच ये हो कि हम ऐसा करना नहीं चाहते, इसलिए महंगाई डायन और बकलोल करती अम्माजी की आड़ में बाक़ी सारी असलियत डकार गए। सच...क्या है, कौन जाने?
लेकिन शुक्र है कि ये फिल्म सिर्फ़ मीडिया के बारे में नहीं है। हमने व्यंग्य की ताक़त को हमेशा अनदेखा किया। किताबों में भी औऱ सिनेमा में भी। लेकिन जो बात व्यंग्य अपनी पैनी धार और चुटीले अंदाज़ में कह जाता है, उसकी बराबरी शायद सीधी कहानी कभी न कर पाए। अनुषा ने व्यंग्य की धार से बहुत सारे जाले काटे हैं। ये धार कहीं कहीं इतनी पैनी है कि दिल रोने रोने जैसा होता है। होरी महतो रोज़ाना एक 'ख़ज़ाना' खोदता है, दो जून की रोटी के वास्ते। आज़ादी के 63 साल बाद और इस कृषि प्रधान देश में जन्म लेने के 75 साल (गोदान-1936) बाद भी होरी महतो आज तमाम गांवों में मिट्टी खोद रहा है या यूं कहिए अपनी क़ब्र खुद खोद के वहीं दफ़्न हो रहा है। एक, दूसरा किसान खुदकुशी से लाख रुपये कमाना चाहता है। एक एग्रीकल्चर सेक्रेटरी, नये नवेले आइएएस अफ़सर को 'फ़ाइन दार्जिंलिंग टी' के सहारे आंखें मूंदने की घुट्टी पिला रहा है। एक डीएम, नत्था 'बहादुर' को लाल बहादुर दिला रहा है। पीपली के चुनावों में नत्था की खुदकुशी के ऐलान ने सारे समीकरणों को तोड़-मरोड़ दिया है और अद्भुत तरीक़े से बुने और फिल्माए गए सीन में एक बड़ा भाई छोटे को ख़ुदकुशी के लिए राज़ी कर रहा है। 14-15 बरस के अल्हड़ लड़के (पढ़ें-मीडिया) को ये सब बेहतरीन तमाशा नज़र आता है सो वो चीख़-चीख़कर इस स्टोरी के सारे पहलुओं पर अपनी चौकस नज़र जमाता है शायद ये सोचकर भी कि 'मौत की रौनक' ज़ाया नहीं होनी चाहिए। मौत की रौनक---प्रिंस, कुंजीलाल, सूरज और भी कुछ छितरे हुए नाम इस डायलॉग के बाद दिमाग़ में कौंध जाते हैं। ये तमाम ताम-झाम, ये मेला अगर नाकाबिल हाथों में रहा होता तो ऐसा बिखरता कि आप माथा ठोंकते पर गनीमत है कि अनुषा की मीडिया बैकग्राउंड ने फ़िल्म को साधारण से असाधारण के स्तर तक उठा दिया है।
फिल्म कई मायनों में तय समीकरण तोड़ती है। एक ऐसे सिनेमाई माहौल में जहां रिश्तों और पीआर से कास्टिंग तय होती हो, वहां अनुषा और महमूद ने किरदार चुने और बुने हैं। फिल्म का गांव कोई सेट नहीं है, बल्कि अपनी पूरी धूप-छांव, खेत खलिहान, गली, नुक्कड़, चबूतरे के साथ मौजूद गांव है। फिल्म बिना शक़ हमारे वक़्त के सबसे अहम दस्तावेज़ों में से है।
और हां, सैफ़ अली ख़ान का सालों पुराना चुंबन अगर कहीं ज़िंदा है, विद 2 बाइट्स तो यक़ीन मानिए आज हमारे वक़्त की सबसे बड़ी स्टोरी होगी। अं, अं, क्या हम किसान आत्महत्या पर किसी फ़िल्म की चर्चा कर रहे थे???

(प्रबुद्ध एक युवा टीवी पत्रकार हैं।)

Tuesday, August 17, 2010

पीपली का परजातंतर

- अमिताभ

जिस तरह प्रेमचंद ने कफन में घीसू माधो के जरिये गरीबी की अमानवीयता को उजागर किया था, पीपली लाइव नत्था और बुधिया के इर्द गिर्द मचे तमाशे के जरिये समूचे चौखंभा राज में लगी दीमक पर से पर्तें हटाती है। रघुवीर यादव ने उस सीन में यादगार अभिनय किया है जब दारू पीकर बुधिया और नत्था निकलते हैं और बुधिया कहता है- सरकार आत्महत्या का पइसा देती है पइसा। कफन याद कीजिए- ठगिनी क्यों नैना झमकावे कहीं न कहीं कौध जाएगा। बैकग्राउंड में बजता इंडियन ओशन का गाना देस मेरा रंगरेज ये बाबू- बड़े धारदार लहजे में रंग बिरंगे परजातंतर की उलटबांसियों को बेनकाब करता चलता है। ये महज इत्तिफाक नहीं हो सकता कि अनुषा और महमूद की फिल्म में होरी और धनिया भी बतौर किरदार मौजूद हैं। अपनी गुरबत के गड्ढ़े में मरता होरी कहीं न कहीं पीपली लाइव को प्रेमचंद की शैली और सरोकारों से जोड़ता है। समूची फिल्म एक मार्मिक व्यंग्य है। चालू मुहावरों की कैद में फंसे हिंदी सिनेमा के कैनवस पर कुछ नये स्ट्रोक्स की कोशिश के लिए इस जोड़ी का हौसला बढ़ाना चाहिए ताकि ऐसे और लोग आगे आएं ।

आमिर खान बेहतरीन एक्टर के अलावा मार्केटिंग मैनेजर भी हैं और उन्होंने इस फिल्म को 15 अगस्त के ऐन पहले रिलीज करके आजादी की सार्थकता पर डिबेट के लिए एक मुद्दा दे दिया है। ये बात अलग है कि विदर्भ में अब उनके पोस्टर जलाए जाने की शुरुआत भी हो चुकी है और किसान अपने संघर्ष की इस सिनेमाई तस्वीर से नाराज हैं।

बहरहाल, फिल्म के बहाने चर्चाएं मीडिया (क्या सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया?) की भूमिका पर ज्य़ादा हो रही हैं। इसे मीडिया के मखौल के तौर पर देखना एकतरफा होगा। आखिर भुखमरी के कगार पर पहुंचे किसान को सूखा हैंडपंप यानी लालबहादुर (जय जवान जय किसान ?) देने वाली ब्यूरोक्रेसी पर क्या कहेंगे ? याद कीजिये हैंडपंप देनेवाला बी़डीओ नत्था और बुधिया से क्या कह कर जाता है- अबे शास्त्री जी ने बचा लिया तुझे । क्रेडिट कार्ड की तरह नत्था कार्ड की प्लानिंग करने वाली सरकार को किस खाने में रखेंगे? मीडिया चौखंभा राज का बेहद अहम हिस्सा है इस नाते सामाजिक सरोकारों पर उसकी भूमिका और नजरिये के सिलसिले में बातचीत होनी ही चाहिए और इससे मीडियावालों को भी परहेज नहीं होना चाहिए। खुद मीडिया के भीतर की संस्थाएं खबरों के चुनाव और उन्हें दिखाने के तौरतरीकों पर काफी चिंतित हैं ऐसे में अगर कोई दूसरा भी आईना दिखाये तो बुरा नहीं मानना चाहिए । हां, अतिरंजना के लिए फिल्मकारों या कहानीकारों को मीडिया अपने हिसाब से कटघरे मे खड़ा कर सकता है। ये मीडिया की कुटाई का कोई पहला मौका तो है नहीं. रामगोपाल वर्मा ने जब अमिताभ बच्चन के जरिये खबरों की रणभूमि बनाम टीआरपी की रनभूमि की डिबेट छेड़ी थी तब भी ऐसी ही चर्चा चली थी। लेकिन पीपली लाइव का व्यंग्यात्मक लहजा शायद ज्यादा चुभ रहा है। फिल्म में नत्था नहीं मरता लेकिन नत्था की कहानी को चैनलों का चारा बनाने वाला कस्बाई पत्रकार राकेश चुपचाप हलाक हो जाता है। वो भी मीडिया की कांश्नस का ही एक हिस्सा है । अब इसके बहाने पत्रकारिता के कस्बाई और महानगरीय सरोकारों पर बहस का रास्ता भी खुल सकता है जो शायद फिल्म बनाने वालों का मकसद ही न रहा हो।

(अमिताभ वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं)

Monday, August 16, 2010

पीपली लाइवः चैनल की चंडूखाना संस्कृति पर बनी फिल्म


-विनीत कुमार

पीपली लाइव "इन्क्वायरिंग माइंड" की फिल्म है। हममें से कुछ लोग जो काम सोशल एक्टिविज्म, आरटीआई, ब्लॉग्स,फेसबुक,ट्विटर के जरिए करने की कोशिश करते हैं,वो काम अनुषा रिजवी,महमूद फारुकी और उनकी टीम ने फिल्म बनाकर की है। इसलिए हम जैसे लोगों को ये फिल्म बाकी फिल्मों की तरह कैरेक्टर के स्तर पर खुद भी शामिल होने से ज्यादा निर्देशन के स्तर पर शामिल होने जैसी लगती है। फिल्म देखते हुए हमारा भरोसा पक्का होता है कि सब कुछ खत्म हो जाने के बीच भी,संभावना के बचे रहने की ताकत मौजूद है। इस ताकत से समाज का तो पता नहीं लेकिन खासकर मीडिया और सिनेमा को जरुर बदल जा सकता है। ऐसे में ये हमारे समुदाय के लोगों की बनायी गयी फिल्म है। इस फिल्म में सबसे ज्यादा इन्क्वायरिंग मीडिया को लेकर है,किसानों की आत्महत्या और कर्ज की बात इस काम के लिए एक सब्जेक्ट मुहैया कराने जैसा ही है।
फिल्म की शुरुआत जिस तरह से एक लाचार किसान परिवार के कर्ज न चुकाने, जमीन नीलाम होने की स्थिति,फिर नत्था(ओंकार दास) के आत्महत्या करने की घोषणा से होती है, उससे ये जरुर लगता है कि ये किसान समस्या पर बनी फिल्म है। लेकिन आगे चलकर कहानी का सिरा जिस तरफ मुड़ता है,उसमें ये बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि ये सिर्फ किसानों की त्रासदी और उन पर राजनीतिक तिगड़मों की फिल्म नहीं है। सच बात तो ये है कि ये फिल्म जितनी किसानों के कर्ज में दबकर मरने और आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाने की कहानी है,उससे कहीं ज्यादा बिना दिमाग के, भेड़चाल में चलनेवाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बीच से जर्नलिज्म के खत्म होने और जेनुइन पत्रकार के पिसते-मरते जाने की कहानी है। ये न्यूज चैनलों के एडीटिंग मशीन की उन संतानों पर बनायी गई फिल्म है जो बताशे चीनी के नहीं, खबरों के बनाते हैं। न्यूज चैनल्स किस तरह से अपनी मौजूदगी, गैरबाजिव दखल और अपाहिज ताकतों के दम पर पहले से बेतरतीब समाज और सिस्टम को और अधिक वाहियात और चंडूखाने की शक्ल देते हैं, फिल्म का करीब-करीब आधा हिस्सा इस बात पर फोकस है। लेकिन
मेनस्ट्रीम मीडिया( यहां पर न्यूज चैनल्स) ने इसे किसान पर बनी फिल्म बताकर इसके पूरे सेंस को फ्रैक्चर करने की कोशिश की है। वो इस फिल्म में मीडिया ऑपरेशन और ट्रीटमेंट के दिखाए जाने की बात को सिरे से पचा जाती है जिसकी बड़ी वजह है कि दुनिया की आलोचना करनेवाले चैनलों की आलोचना सिनेमा या नए माध्यम करें, ये उसे बर्दाश्त नहीं। चैनल्स इस बात को पचा नहीं सकते इसलिए वो फिल्म में मीडिया चैनल्स की बेशर्मी की बात को पचा गए। साथ ही जमकर आलोचना के लिए भी चर्चा नहीं कि तो उसकी भी बड़ी वजह है कि उनके पास ये कहने को नहीं है कि बनानेवाले को चैनल की समझ नहीं है। वो निर्देशक की बैकग्राउंड को बेहतर तरीके से जानते हैं। फिल्म "रण" (2010) की तरह तो इस फिल्म के विरोध में दिखावे के लिए ही सही पंकज पचौरी की पंचायत नहीं बैठी और न ही आशुतोष(IBN7) का रंज मिजाज खुलकर सामने आया। हां अजीत अंजुम को अपने फैसले पर जरुर अफसोस हुआ कि पहले बिना फिल्म देखे जो उऩ्होंने इसे बनानेवाले को सैल्यूट किया और फाइव स्टार दे दी,अब फेसबुक पर लिखकर भूल सुधार रहे हैं कि-बहुत से सीन जबरन ठूंसे गए हैं , ताकि टीवी चैनलों के प्रति दर्शकों के भीतर जमे गुस्से को भुनाया जा सके . दर्शक मजे भी लें और हाय - हाय भी करें . लेकिन अतिरंजित भी बहुत किया गया है । इन सबके बीच हमें हैरानी हुई एनडीटीवी इंडिया और उसके सुलझे मीडियाकर्मी विजय त्रिवेदी पर जिन्होंने पीपली लाइव को लेकर सैंकड़ों बोलते शब्दों के बीच एक बार भी मीडिया शब्द का नाम नहीं लिया। छ मिनट तो जो हमने देखा उसमें सिर्फ किसान पर बनी फिल्म पीपली लाइव स्लग आता रहा। हमें हैरानी हुई आजतक पर जिसने "सलमान को छुएंगे आमिर,वो हो जाएगा हीरा" नाम से स्पेशल स्टोरी चलायी लेकिन एक बार भी पीपीली लाइव के साथ चैनल शब्द नहीं जोड़ा( गोलमोल तरीके से मीडिया शब्द,वो भी व्ऑइस ओवर में)। न्यूज चैनलों की जब भी आलोचना की जाती है,वो इसमें मीडिया शब्द घुसेड़ देते हैं ताकि उसमें प्रिंट भी शामिल हो जाए और उन पर आलोचना का असर कम हो। ये अलग बात है कि खबर का असर में अपने चैनल का नाम चमकाने में रत्तीभर भी देर नहीं लगाते। इस पूरे मामले में पीपली लाइव फिल्म देखकर न्यूज चैनलों की जो इमेज बनती है वो इस फिल्म की कवरेज को लेकर बननेवाली इमेज से मेल खाती है। ऐसे में फिल्म के भीतर चैनल्स ट्रीटमेंट को पहले से और अधिक विश्वसनीय बनाता है। हमें अजीत अंजुम की तरह जबरदस्ती ठूंसा गया बिल्कुल भी नहीं लगता। हां ये जरुर है कि..

घोषित तौर पर मीडिया को लेकर बनी फिल्म "रण"की तरह पीपली लाइव ने मीडिया पर बनी फिल्म के नाम पर स्टार न्यूज पर दिनभर का मजमा नहीं लगाया, IBN7 को स्टोरी चलाने के लिए नहीं उकसाया, आजतक को घसीटने का मौका नहीं दिया। लेकिन ये रण से कहीं ज्यादा असरदार तरीके से न्यूज चैनलों के रवैये पर उंगली रखती है। रण पर हमारा भरोसा इसलिए भी नहीं जमता कि उसमें चैनलों की आलोचना के वाबजूद तमाम न्यूज चैनलों से एक किस्म की ऑथेंटिसिटी बटोरी जाती है। जिस चैनल संस्कृति की आलोचना फिल्म रण करती है,वही दिन-रात इन चैनलों की गोद का खिलौना बनकर रह जाता है और सबके सब विजय मलिक( अमिताभ बच्चन) के पीछे भागते हैं। नतीजा फिल्म देखे जाने के पहले ही अविश्वसनीय और मजाक लगने लगती है। फिल्म के भीतर की कहानी इस अविश्वास को और मजबूत तो करती ही है,हमें रामगोपाल वर्मा की मीडिया समझ पर संदेह पैदा करने को मजबूर करती है। स्टार न्यूज पर दीपक चौरसिया के साथ टहलते हुए अमिताभ बच्चन भले ही बोल गए हों कि उन्होंने इस फिल्म के लिए चैनल को समझा,लगातार वहां गए लेकिन फिल्म के भीतर वो एक मीडिया प्रैक्टिसनर के बजाय क्लासरुम के मीडिया उपदेशक ज्यादा लगे। चैनल ऑपरेशन को जिसने गोलमोल तरीके से दिखाया गया, विजय मलिक चरित्र को जिस मीडिया देवदूत के तौर पर स्टैब्लिश किया है,ऐसे में ये फिल्म चैनल की संस्कृति की वाजिब आलोचना करने से चूक जाती है। इस लिहाज से कहीं बेहतर फिल्म शोबिज(2007) है जिसकी बहुत ही कम चर्चा हुई।न्यूज चैनलों को लेकर लोगों के बीच जो बाजिव गुस्सा और अजूबे की दुनिया के तौर पर जो कौतूहल है उस लिहाज से सिनेमा में चैनलों को शामिल किए जाने का ट्रेंड शुरु हो गया है। फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी से लेकर शोबिज,मोहनदास,रण,एलएसडी और अब पीपली लाइव हमारे सामने है। दूसरी तरफ मीडिया पार्टनरशिप के तहत रंग दे बसंती,देवडी,गजनी,फैशन,कार्पोरेट जैसी तमाम फिल्में हैं जिसे देखते हुए सिनेमा के भीतर के न्यूज चैनल्स पर बात की जा सकती है। लेकिन इन सबके बीच एक जरुरी सवाल है कि न्यूज चैनलों के मामले में सिनेमा ऑडिएंस रिएक्शन को,चैनल संस्कृति को और आलोचना के टूल्स को कितनी बारीकी और व्यावहारिक तरीके से पकड़ पाता है? इस स्तर पर पीपली लाइव की न्यूज चैनलों की समझ बाकी फिल्मों से एकदम से अलग करती है।
पीपली लाइव चैनल संस्कृति की आलोचना के लिए किसी चैनल से अपने को ऑथराइज नहीं कराती है। हां ये जरुर है कि फिल्म की जरुरत के लिए एनडीटीवी 24x7 और IBN7 का सहयोग लेती है। ये फिल्म रण की तरह विजय मलिक के इमोशनल स्पीच की बदौलत चैनल के बदल जाने का भरोसा पैदा करने की कोशिश नहीं करती है। न ही रामगोपाल वर्मा की तरह पूरब( रीतेश देशमुख) को खोज लेती है जिसके भीतर एस पी सिंह या प्रणव रॉय की मीडिया समझ फिट करने में आसानी हो। मोहनदास( 2009) का स्ट्रिंगर दिल्ली में आकर चकाचक पत्रकार हो जाता है। लेकिन ये फिल्म ट्रू जर्नलिज्म का उत्तराधिकारी चुनकर हमें देने के बजाय चैनल को कैसे बेहतर किया जाए,ये सवाल ऑडिएंस पर छोड़ देती है। इस फिल्म के मुताबिक नत्था की संभावना शहर में है लेकिन राकेश जैसे पत्रकार की संभावना कहां है,इसका जबाब कहीं नहीं है। फिल्म, ये सवाल चैनल के उन तमाम लोगों पर छोड़ देती है जिन्होंने इसे एस संवेदनशील माध्यम के बजाय चंडूखाना बनाकर छोड़ दिया है। फिल्म को लेकर जिस इन्क्वायरी माइंड की बात हमने की, चैनल को लेकर ये माइंड हमें फिल्म के भीतर राकेश( नवाजउद्दीन) नाम के कैरेक्टर में दिखाई देता है। राकेश( नवाजउद्दीन) नंदिता( मलायका शिनॉय) से जर्नलिज्म को लेकर दो मिनट से भी कम के जो संवाद हैं,अगर उस पर गौर करें तो चैनल इन्डस्ट्री पर बहुत भारी पड़ती है। ये माइंड वहीं पीप्ली में ट्रू जर्नलिज्म करते हुए मर जाता है। ऐसे में ये फिल्म मोहनदास और रण के चैनल्स से ज्यादा खतरनाक मोड़ की तरफ इशारा करती है जहां न तो दिल्लीः संभावना का शहर है और न ही कोई उत्तराधिकारी होने की गुंजाइश है। फिल्म की सबसे बड़ी मजबूती कोई विकल्प के नहीं रहने,दिखाने की है। कुमार दीपक( विशाल शर्मा) के जरिए हिन्दी चैनल की जमीनी पत्रकारिता के नाम पर जो शक्ल उभरकर सामने आती है,संभव है ये नाम गलत रख दिए गए हों लेकिन चैनल का चरित्र बिल्कुल वही है। अजीत अंजुम जिसे जबरदस्ती का ठूंसा हुआ मान रहे हैं,इस पर तर्क देने के बजाय एक औसत ऑडिएंस को एक न्यूज चैनल के नाम पर क्या और कैसी लाइनें याद आती हैं,इस पर बात हो तो नतीजा कुछ अलग नहीं होगा। नंदिता के चरित्र से जिस एलीट अंग्रेजी चैनलों का चरित्र उभरकर सामने आता है,वो राजदीप सरदेसाई की अपने घर की आलोचना से मेल खाती है। वो बार-बार नत्था के अलावे बाकी लोगों को कैमरे की फ्रेम से बाहर करवाती है। फ्रेम से बाहर किए गए लोग समाज से,खबर से हाशिए पर जाने पर की कथा है। ये अंग्रेजी जर्नलिज्म की सरोकारी पत्रकारिता है। ऐसे में ये बहस भी सिरे से खारिज हो जाती है कि ये महज हिन्दी चैनलों की आलोचना है। हां ये जरुर है कि अंग्रेजी चैनल को ज्यादा तेजतर्रार और अपब्रिंग होते दिखाया गया है। इन सबके वाबजूद जिस किसी को भी ये फिल्म चैनलों की जरुरत से ज्यादा खिंचाई जैसा मामला लग रहा है,उसकी बड़ी वजह है कि इस फिल्म ने चैनलों की पॉपुलिज्म सडांध को बताने के लिए कॉउंटर पॉपुलिज्म मेथड अपनाया। उसने उसी तरह के संवाद रचे,शब्दों का प्रयोग किया,जो कि चैनल खबरों के नाम पर किया करते हैं। चैनल को अपने ही औजारों से आप ही बेपर्द हो जाने का दर्द है।प्राइवेट न्यूज चैनलों को पिछले कुछ सालों से जो इस बात का गुरुर है कि वो देश चलाते हैं,उनमें सरकार बदलने की ताकत है,वो सब इस फिल्म में ऑपरेट होते दिखाया गया है। कई बार सचमुच पूरी मशीनरी इससे ड्राइव होती नजर आती है लेकिन जब चैनलों की हेडलाइंस खुद सलीम साहब(नसरुद्दीन शाह) की भौंहें के इशारे से बदलती हैं तो फिर खुद चैनल को अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए नहीं बचता।
चैनल के लिए गंध मचाना एक मेटाफर की तरह इस्तेमाल होता आया है। लेकिन फिल्म में ये गंध अपने ठेठ अर्थ गंदगी फैलाने के अर्थ में दिखाई देता है। नत्था के पीपली से गायब हो जाने की खबर के बाद से मौत का जो मेला लगा था,वो सब समेटा जाने लगता है। सारे चैनल क्र्यू और उनकी ओबी वैन धूल उड़ाती चल देती है। उसके बाद गांव को लेकर फुटेज है। ये फुटेज करीब 10-12 सेकण्ड तक स्क्रीन पर मौजूद रहती है- चारो तरफ पानी की बोतलें,गंदगी,कचरे। पूरा गांव शहरी संस्कार के कूड़ों से भर जाता है।...फिल्म देखने के ठीक एक दिन पहले मैं नोएडा फिल्म सिटी की मेन गेट के बजाय बैक से इन्ट्री लेता हूं। मुझे वहां का नजारा पीपली लाइव की इस फुटेज से मेल खाती नजर आती है। बल्कि उससे कई गुना ज्यादा जायन्ट। दिल्ली या किसी शहर में जहां हम गंदगी के मामले में किसी को भी ट्रेस करके कह नहीं सकते कि ये गंदगी फैलानेवाले लोग कौन है,नोएडा फिल्म सिटी के इस कचरे की अटारी को देखकर आप बिना कुछ किए उन्हें खोज सकते हैं? बल्कि थोड़ा टाइम दें तो काले कचरे की प्रेत पैकटों को ट्रेस कर सकते हैं कि कौन किस हाउस से आया? इस तरह पूरी की पूरी फिल्म लचर व्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौन के सवाल से जूझने और खोजने का नाटक करनेवाले चैनलों सेल्फ एसेस्मेंट मोड(MODE) की तरफ ले जाती है। अब अगर महमूद फारुकी कहते हैं कि हम फिल्म तो बनाने चले थे किसान पर लेकिन बना ली तो पता चला कि हमने तो मीडिया पर फिल्म बना - तो ऐसे में चैनल के लोग इसे एक ईमानदार स्टेटमेंट मानकर ऑडिएंस को भरमाने की जगह किसान के बजाय मीडिया एनलिसिस नजरिए से फिल्म को देखना शुरु करें तो शायद इस फर्क को समझ पाएं कि होरी महतो के मर जाने और नत्था के मरने की संभावना के बीच भी कई खबरें हैं,कई पेचीदगियां हैं।

Saturday, August 14, 2010

पीपली लाइवः जब स्टेज पर महमूद और दानिश थे लाइव



- विनीत कुमार


फिल्म पीपली लाइव के इस शो में इन्टर्वल के दौरान पीवीआर साकेत के पर्दे पर लुई फिलिप, बिसलरी और अलसायी हुई लड़की के साथ पल्सर के विज्ञापन नहीं आते हैं। ..और न ही एक तरफ फुफकारती हुई डंसने पर आमादा नागिन और दूसरी तरफ सुर्ख लाल पानी से भरी बोतल जिसे दिखाकर सरकार हमारे बीच चुनने के टेंशन पैदा करना चाहती है। म्यूजिक बंद करने की अपील के साथ पर्दे के आगे मंच पर माइक लिए हमारे सामने होते हैं महमूद फारुकी और दानिश हुसैन। वो हमें वो वजह बता रहे होते हैं जिससे जेब में पड़ी पूरी टिकट के वाबजूद आधी फिल्म निकल गयी थी। हमने जो समझा वो साफ तौर पर ये कि मीडिया की आलोचना और उसे कोसने की एक परंपरा तो विकसित हो चली है लेकिन डिस्ट्रीब्यूशन के निर्मम खेल की तरफ लोगों का ध्यान नहीं गया है। इस पर बात किया जाना जरुरी है, महमूद हैं तो अब बात क्या पूरी फिल्म बनायी जा सकती है, उनसे ये डिमांड रखकर। हम सिनेमा और मीडिया के कंटेंट में ही फंसे हैं जबकि डिस्ट्रीब्यूशन किस तरह कंटेंट और एडिटोरियल के आगे बेशर्मी से दांत निपोरने लग जाता है, इसे हमने महसूस किया। बहरहाल...



महमूद और दानिश फिल्म के छूट गए हिस्से को जिस तरह से बता रहे थे, वो फिल्म देखने से रत्ती भर भी कम दिलचस्प नहीं था। दोनों के लिए एक लाइन- अब तो फिल्म भी बना दी लेकिन दास्तानगोई की आदत बरकरार है, सही है हजूर। उनके ऐसा करने से हम पहली बार पीवीआर में होमली फील करते हैं, एकबारगी चारों तरफ नजरें घुमाई तो दर्जनों परिचित पत्रकार, सराय के साथी, डीयू और जेएनयू के सेमिनार दोस्त दिख गए। आप सोचिए न कि पीवीआर में दो शख्स जिसमें एक बिना माइक के ऑडिएंस से बातें कर रहा हो और किसी के खांसने तक कि आवाज न हो, कैसा लगेगा? लौंडों के अट्टाहास करने, पीवीआर इज बेसिकली फॉर कपल्स के अघोषित एजेंडे, एक-दूसरे की उंगलियों में उंगलियां फंसाकर जिंदगी की सबसे मजबूत गांठ तैयार करने की जगह अगर ये सिनेमा पर बात करने की जगह बन जाती है तो कैसा लग रहा होगा? सच पूछिए तो महमूद से लगातार मेलबाजी करके इसी किसी अलग "एक्सक्लूसिव" अनुभव के लालच में पड़कर मैं और मिहिर मार-काट मचाए जा रहे थे। एक तो अपनी लाइफ में ये पहली फिल्म रही जिसकी टिकट खुद बनानेवाला नाम पुकारकर भाग-भागकर दे रहा था और हमारी बेशर्मी तब सारी हदें पार कर जाती हैं जब हम अपनी आंखें सिर्फ महमूद पर टिकाए हैं कि देख रहें हैं न हमें, हम भी हैं। हमें अनुराग कश्यप के साथ बहसतलब का पूरा सीन याद आ गया जहां अनुराग, सिनेमा जिस राह पर चल पड़ा है, बदल नहीं सकता...ये राह लागत की नहीं डिस्ट्रीव्यूशन की है, की बात करते हैं। फिर सारी बहस इस पर कि सिनेमा समाज को बदल सकता है कि नहीं? पीपली लाइव देखने के दौरान जो नजारा हमने देखा उससे ये बात शिद्दत से महसूस की कि समाज का तो पता नहीं लेकिन कुछ जुनूनी लोग धीमी ही सही अपने जज्बातों को, ड्रीम प्लान को आंच देते रहें तो सिनेमा को तो जरुर बदल सकते हैं। इन सबके बीच अनुषा रिज़वी ( फिल्म की राइटर-डायरेक्टर) बहुत ही कूल अंदाज में पेप्सी के साथ चिल हो रही होती हैं। महमूद के मेल के हिसाब से सचमुच ये फैमिली शो था, अनुभव के स्तर पर सचमुच एक पारिवारिक आयोजन। लोग घर बनाने पर दिखाते हैं, बच्चे पैदा होने पर बुलाते हैं। उऩ्होंने फिल्म बनाने पर हम सबको बुलाया था।



इन्टर्वल के बाद फिल्म शुरु से पहले दोनों ने हमें जो कुछ बताया और जो बातें हमें याद रह गयी उसमें तीन बातें बहुत जरुरी है। पहली तो ये कि नत्था के आत्महत्या करने की योजना के बीच उनके बच्चों पर जिस किस्म के दबाव बनते हैं वो दबाव कम्युनिस्ट परिवार में पैदा होनेवाले बच्चे ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। दूसरा कि शुरुआत में तो ये फिल्म हम किसान-समस्या पर बनाने चले थे लेकिन मैं और अनुषा चूंकि मीडिया बैकग्राउंड से हैं तो फिल्म बनने पर पता चला कि अरे हमने तो मीडिया पर फिल्म बना दी। फिर हमें याद दिलाया गया वो भरोसा कि अगर आप इस फिल्म में मीडिया ट्रीटमेंट देखना चाहते हैं तो असल कहानी अभी ही शुरु होनी है। मतलब कि मैं जिस नीयत से फिल्म देखने गया था, उसकी पूरी होने की गारंटी मिल गयी।..औऱ तीसरी और सबसे जरुरी बात डिस्ट्रीब्यूशन और मल्टीप्लेक्स के बीच का कुछ-कुछ..( ये महमूद के शब्द नहीं है, बस भाव हैं)। ये कुछ-कुछ जिसके भीतर बहुत सारे झोल हैं जिसका नाम लेते ही धुरंधर लिक्खाड़ों की कलम गैराजों में चली जाती है और जुबान मौसम का हाल बयान करने लग जाते हैं। इन्टर्वल के बाद फिल्म शुरु होती है..



नत्था के घर के आजू-बाजू मीडिया, चैनल क्र्यू का जमावड़ा। आप पीपली लाइव से इन सारे 6-7 मिनट की फुटेज को अलग कर दें और सारे चैनलों को उसकी एक-एक कॉपी भेज दें। आजमा कर देखा जाए कि उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है? और हां इस क्रम में रामगोपाल वर्मा के पास एक सीडी जानी बेहद जरुरी है जिससे कि वो समझ सकें कि मीडिया की आलोचना भाषणदार स्क्रिप्ट के दम पर नहीं उसके ऑपरेशनल एटीट्यूड को बस हमारे सामने रख देने भर से हो जाती है। इस अर्थ में ये फिल्म किसी डायरेक्टर या प्रोड्यूसर से कहीं ज्यादा एक ऐसे "इन्क्वायरिंग माइंड' की फिल्म है जो सीधे तौर पर सवाल करता है कि क्यों दिखाते रहते हो ये सब? अकेले नत्था थोड़े ही आत्महत्या करेगा, करने जा रहा है..जो कर चुके उसका क्या? यहीं पर आकर फिल्म चैनल की पॉपुलिज्म संस्कृति से प्रोटीन-विटामिन निचोड़कर काउंटर पॉपुलिज्म के फार्मूले को मजबूती से पकड़ती है और नतीजा हमारे सामने है कि आज हर तीन में से दो शख्स फोन करके, चैट पर, फेसबुक स्टेटस पर यही सवाल कर रहा है कि आपने पीपली लाइव देख ली क्या? महमूद फारुकी ने हमसे दो-तीन बार कह दिया कि जब तक आप इस फिल्म को पूरी न देख लें, तब तक इस पर न लिखें। इसलिए फिल्म पर अलग से..
फिल्म खत्म होती है और हम धीरे-धीरे एग्जिट की तरफ खिसकते हैं। अनुषा, महमूद, दानिश सबके सब तैनात हैं लोगों से मिलने के लिए। एक-एक से हाथ मिलाना,गले मिलना और विदा करना। हमसे हाथ मिलाते हुए फिर एक बार-फिल्म अगली सुबह देखकर ही लिखना, ऐसे मत लिख देना। तेज बारिश के बीच मेट्रो की सीट पर धप्प से गिरने के बाद सामने एक मुस्कराहट। चेहरा जाना-पहचाना। थोड़ी यादों की वार्निश से सबकुछ अपडेट हो जाता है। वो कहते हैं- क्या फिल्म बना दी पीपली लाइव, क्या नत्था की जो समस्या है, वही आखिरी समस्या है एक किसान की? न्यूज चैनलों की आलोचना कर रहे हो तो बताओ न यार कि हम क्या करें? मालिक कहता है कि रेवेन्यू जेनेरेट करो तो हम क्या करें? फिर बीबीसी की पत्रकारिता को आहें भरकर याद करते हैं, जहां हैं वहां के प्रति अफसोस जाहिर करते हैं।...देखो न मेरे दिमाग में एक आइडिया है, आमिर को बार-बार फोन कर रहा हूं, काट दे रहा है? ओह..एक चैनल के इनपुट हेड का दर्द, वो भी आज ही के दिन मेरे हिस्से आना था। महमूद साहब, ये आपने क्या कर दिया कि जिस टीवी चैनल के इनपुट हेड हमें खबर के नाम पर बताशे बनाने और आइडियाज को चूल्हे में झोंक देने की नसीहतें दिया करते थे, वो भी आइडियाग्रस्त हो गए? आप और अनुषा टीवी में आइडियाज क्यों ठूंसना चाहते हैं? सबके सब आइडियाज के फेर में ही पड़ जाएंगे तो फिर बताशे कौन बनाएंगे?



देर रात लैप्पी स्क्रीन पर लौटने पर सौरभ द्विवेदी की फेसबुक स्टेटस पर नजर गयी। लिखा था- पीपली लाइव जरूर देखिए, प्रेमचंद की कहानी कफन जैसा ट्रैजिक सटायर है ये फिल्म, सिर्फ एक बात के सिवा, इसमें अनुषा रिजवी ने अपने एनडीटीवी संस्कारों के तले दबकर दीपक चौरसियानुमा कैरेक्टर के बहाने हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कुछ ज्यादा ही खिंचाई की है। फिल्म का अंत खासा मानीखेज है। सौरभ अपने दीपक सर नुमा कैरक्टर के बहाने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खिंचाई से थोड़े आहत हैं और एनडीटीवी का संस्कार थोड़ा परेशान करता है। काश,ये संस्कार खुद एनडीटीवी में ही बचा रह जाए और संस्कार में दबकर ही कुछ और कर जाए। आधी फिल्म और जींस की जेब में पड़ी पूरी टिकट के गुरुर में पूरी की पूरी पोस्ट लिखी जा सकती है लेकिन मिहिर देर रात जागा हुआ है, पोस्ट लिखने के बजाय ट्विटर से मन बहला रहा है, महमूद के प्रति मैं खिलाफत करना नहीं चाहता।..तो एक बार फिर पीपली लाइव समग्र देखने की तैयारी में...

Wednesday, August 4, 2010

'पीपली लाइव' को डरबन में अवॉर्ड

- ब्रजेश कुमार झा

फिल्म 'पीपली लाइव' तो 13 अगस्त को बड़े पर्दे नजर आएगी। पर इसका असर दिखने लगा है। इसे दुनियाभर में पहचान मिल रही है। अब देखिए, दक्षिण अफ्रीका में आयोजित 31वें डरबन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव में इसे सर्वश्रेष्ठ पहले फीचर फिल्म का खिताब दिया गया। फिल्म का निर्देशन अनुषा रिज़वी ने किया है। उनके निर्देशन में बनी यह पहली फिल्म है। दरअसल, यह फिल्म देश में हो रही किसानों की आत्महत्या और उस पर होने वाली मीडियाबाज़ी व राजनीति पर तीखा व्यंग्य है। यह पुरस्कार मिलने के बाद हर कोई बहुत उत्साहित है। निर्णायक मंडल ने फिल्म की काफी तारीफ की है। उनका कहना है कि 'पीपली लाइव' एक महत्वाकांक्षी और वास्तविक फिल्म है। यह गंभीर राजनीतिक मुद्दों को विनोदपूर्ण तरीके से उठाती है। फिल्म की कहानी दो गरीब किसानों के इर्द-गिर्द घूमती है। वे दोनों पीपली नामक गांव में रहते हैं और कर्ज में डूबे हूए हैं। इससे उनकी जमीन भी हाथ से निकलने वाली होती है, तभी एक नेता उन्हें सरकारी सहायता लेने के वास्ते आत्महत्या का सुझाव देता है। खबर तत्काल फैल जाती है। उक्त किसान मीडिया के लिए भी खास हो जाता है। यकीनन, फिल्म आपको बज्र देहाती दुनिया के साथ-साथ मीडिया की वास्तविक और अनोखी दुनिया की मनोरंजक सैर कराएगी।

Tuesday, August 3, 2010

रवि वासवानी की याद...

1981 में फ़िल्म 'चश्मेबद्दूर' से अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत करने वाले और जाने भी दो यारों से अपनी अलग पहचान बनाने वाले रवि वासवानी का 28 जुलाई को निधन हो गया। 64 साल के रवि एक फिल्म के सिलसिले शिमला में थे तभी उनको दिल का दौरा पड़ा। दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे वासवानी अविवाहित थे। उन्होंने 30 से भी ज़्यादा फ़िल्मों के साथ-साथ कुछ टेलिविज़न धारावाहिकों में भी काम किया था। 'जाने भी दो यारो' में अपने हास्य किरदार के लिए उन्हें 1984 में फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला था। रवि की याद में हम यहां 1987 में दिल्ली में लिया उनके एक इंटरव्यू का टेक्स्ट प्रकाशित कर रहे हैं, जो उस वक्त दिल्ली से निकलने वाली पाक्षिक पत्रिका 'युवकधारा' के लिए आज के वरिष्ठ पत्रकार सुमित मिश्र ने मार्च 1987 में लिया था। सुमित इस वक्त टीवी टुडे ग्रुप से जुड़े हुए हैं।


कमर्शियल फिल्मों में अब काम नहीं करुंगा- रवि वासवानी

एक समय में 'चश्मेबद्दूर', 'जाने भी दो यारो', 'अब आएगा मज़ा' जैस फिल्मों से चर्चित हुए रवि वासवानी इधर बहुत दिनों से पर्दे पर दिखाई नहीं दिए। 'जाने भी दो यारों' और 'चश्मे बद्दूर' दोनों ही सफल फिल्में थीं। 'जाने भी दो यारों' में रवि वासवानी ने नसीरुद्दीन शाह के साथ और 'चश्मे बद्दूर' में फारुख शेख के साथ काम किया। नसीरुद्दीन शाह और फारुख शेख इस बीच कहां से कहां पहुंच गए, लेकिन रवि वासवानी उस तेजी से आगे नहीं बढ़े। उन्होने जिस तरह की कॉमेडी फिल्मों में प्रस्तुत की, वह स्तरीय कॉमेडी कही जा सकती है। यानी असरानी, जगदीप आदि की कॉमेडी से अलग हटकर कुछ सार्थक देने की कोशिश। सतीश शाह भी एक अच्छे कॉमेडियन के रुप में उभरे। लेकिन रवि वासवानी बाद में भीड़ में कहीं खो से गए। 11वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान रवि वासवानी से हुई बातचीत के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं।

-आपकी पहली फिल्म 'चश्मे बद्दूर' थी या उससे पहले भी किसी फिल्म में काम कर चुके थे?
-मैं अपनी पहली फिल्म 'चश्मेबद्दूर' को नहीं मानता, मेरी समझ से मेरी पहली फिल्म 'स्पर्श' थी, हां ये अलग बात है कि मैंने उसमें अभिनय की बजाय प्रबंधक का कार्य किया है।

-फिल्मों में आने से पहले...
-फिल्मों से पहले मैं नाटकों में अभिनय करता था, नाटकों में मैंने ओम शिवपुरी, बीएम शाह, कारंत, एम के रैना, बंसी कौल, राजेंद्र नाथ आदि के साथ काम किया है। 'अंधा युग' में मैंने एम के रैना के निर्देशन में काम किया है, जबकि 'व्यक्तिगत' में रैना ने मेरे निर्देशन में काम किया है। वैसे में 'यांत्रिक' और 'देशांतर' नाट्य संस्थाओं के साथ जुड़ा रहा हूं।

-'लव 86' जैस घटिया फिल्म में, वह भी एक छोटी सी भूमिका में आप दिखायी दिए...
-लोगों ने मुझसे कमर्शियल फिल्मों में भी काम करने के लिए कहा। चूंकि और कोई अच्छी फिल्म हाथ में थी नहीं, इसलिए मैंने सोचा कि चलो कमर्शियल फिल्म में भी काम कर लिया जाए। अत मैंने 'लव 86' में काम करना स्वीकार कर लिया। जहां तक छोटे मोटे रोल का सवाल है, तो 'लव 86' में मेरा और सतीश शाह का काम कम भी नहीं था। इस्माइल श्राफ ने हमारे हिस्से को इतना काट दिया कि सतीश शाह तो फिल्म देखकर रो पड़े।

-आगे भी आप इस तरह के रोल करते रहेंगे?
-मैने ये निश्चय कर लिया है कि कमर्शियल फिल्मों में अब काम नहीं करुंगा। सिर्फ अनुभव प्राप्त करने के लिए मैंने कमर्शियल फिल्मों में काम करने का मन बनाया था। लेकिन ऐसा अनुभव मुझे हुआ कि अब कमर्शियल फिल्मों में काम न करने का फैसला कर लिया है।

-आपने दूरदर्शन के लिए 'इधर उधर' नाम के धारावाहिक में काम किया, जिसमें काफी हद तक लोकप्रियता भी अर्जित की, इस समय क्या आप दूरदर्शन के लिए क्या कुछ कर रहे हैं?
-फिलहाल तो मैं सतीश कौशिक के निर्देशन में एक धारावाहिक 'सारा जहां हमारा' कर रहा हूं। इसके लेखक करना राजदान हैं। एक और दारावाहिक 'कबीर' में मैंने कोतवाल की भूमिका निभाई है। इनेक अलावा सरबजीत सिंह के 'हिमालय दर्शन' और बेदी के 'जिंदगी जिंदगी' में भी काम कर रहा हूं।

-पिछले दिनों फिल्म उद्योग की हड़ताल में खासकर दिल्ली में आपकी भूमिका काफी जबरदस्त थी, काफी प्रचार भी आपको मिला, कहीं राजनीति में आने का विचार तो नहीं है?
-राजनीति में आने का मेरा कोई विचार नहीं है। यह महज़ इत्तफाक था कि हड़ताल के दौरान मैं दिल्ली में ही था, और कुणाल गोस्वामी जो कि मेरा अच्छा दोस्त है, वह भी मौजूद था। मैंने हड़ताल के समर्थन में कुणाल को साथ लेकर धरना दिया। लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इतनी लंबी हड़ताल को हमारे दूरदर्शन ने बिलकुल कवर नहीं किया। मैंने इस धरने से लोगों का ध्यान हड़ताल की ओर खींचा।

-हड़ताल समाप्त होने के बाद कुछ कलाकारों का मानना था कि उनके साथ धोखा हुआ है। इस संदर्भ में आपकी क्या राय है?
-देखिए शुरू में तो ऐसा कुछ ज़रुर था, लेकिन गोडबोले रिपोर्ट के बाद सबकुछ साफ हो गया। लोगों की शंकाएं दूर हो गईं।

-आपकी आने वाली फिल्मों के नाम...
-मेरी दो फिल्में बनकर तैयार हैं- 'पीछा करो' और 'यातना'। 'यातना' में मैने एक साठ साल के खलनायक त्यागी जी भूमिका निभाई है। 'पीछा करो' में मैं एक जासूस बना हूं। पंकज पराशर की 'यातना' में मेरे अलावा शफी इनामदार, सतीश शाह भी हैं। फिल्म 'दोजख' में भी मैंने काम किया है।

-फोटो- राकेश खत्री ( सौजन्य- सुमित मिश्र)